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स्नेहिल नमस्कार
साथियों
निम्न संवाद से मन पीड़ित हुआ - -
" मुझसे मत उम्मीद करना कि इतने लोगों के बीच में जाकर रहूँगी। " सुमी बड़बड़ कर रही थी।
"क्या प्राब्लम है? लड़का इतना पढ़ा लिखा, इतने ऊँचे पद पर, पूरा परिवार सभ्य, शिक्षित... तकलीफ़ क्या है? " पापा लाड़ली बेटी को पटाने में लगे हुए थे लेकिन बिटिया थी कि तैयार ही नहीं थी कि वह एक संयुक्त परिवार में जीवन बिता सकती है। कभी-कभी लगता है कि बच्चों को अधिक सुविधाएं, अधिक आजा़दी देकर हम उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ कर जाते हैं।
आज संयुक्त परिवार दिखाई ही नहीं देते। अफ़सोस की बात यह है कि विवाह से पहले या विवाह के समय पर ही लड़कियाँ स्पष्ट रूप से कह देती हैं कि वे किसी के साथ नहीं रह सकतीं। अगर लड़का अकेला रहे तभी उससे निभा सकती है। अफ़सोस तो इस बात का है कि आजकल दो लोग भी आपस में निर्वाह नहीं कर पाते।
ज़िंदगी भर खुशियों कोअपनी शर्तों पर नचाने वाले क्या वास्तव में खुश रह सकते हैं? ऐसे में कोरा व्यापार रह जाता है। और व्यापार में भला प्यार की जगह कहाँ?
बात यहाँ पर आकर बहुत कुछ कह जाती है। जब हम सोचते हैं कि हर चीज में अधिकार तो हमारा है लेकिन कर्तव्य हम करें या ना करें यह हम पर आधारित है। समझने की बात है यदि हम कर्तव्य नहीं करेंगे तो अधिकार कहांँ से प्राप्त कर सकेंगे?
कर्तव्यहीन जीवन व्यर्थ है। कर्तव्य से अभिप्राय है- क्रिया, या नैतिक कर्म। कर्तव्य में यदि कर्म-बीज है तो अधिकार कर्मों के फलों का अनाज अर्थात उसका परिणाम है। पहले कर्तव्यों का जन्म होता है और फिर अधिकारों की बात आती है। कर्तव्य की भावना जीवन का पवित्र यज्ञ है।
माता-पिता,परिवार,समाज व देश के प्रति मनुष्य को कर्तव्यों का ज्ञान होना जरूरी है। स्वार्थी मनुष्य जीवन के उद्देश्य को कभी ठीक से समझ नहीं पाता। सिर्फ वह स्वार्थ व लालच में डूबा होता है। वह हर चीज को लाभ-हानि के पलड़े पर रखकर तोलता है, आकलन करता है। अर्थात् वह कर्तव्य से पहले अधिकार की बात करता है जो कि उचित नहीं है।
आज इस समय जैसा समय चल रहा है हम सभी अलग अलग रहना पसंद करते हैं। जब तक हमें सभी चीजें मिलती रहती हैं तब तक तो फिर भी ठीक है किसी ना किसी प्रकार निभाना पड़ता है। उदाहरण स्वरूप - - किसी का विवाह होता है और वह परदेस में जाकर बस जाता है तो पति पत्नी अपना परिवार इस छोटे से परिवेश को है समझ लेते हैं। लेकिन जब उन्हें जरूरत पड़ती है उनके बच्चों के लिए उनके परिवार को संभालने के लिए तब उनकी इच्छा होती है कि कोई आकर उनके वह सब काम पूरे कर दे। उस समय वे यह नहीं सोचते कि कर्तव्य तो पूरा किया नहींअधिकार को किस प्रकार से मांग सकते हैं? जरूरी है हम परिवार में ऐसा वातावरण बनाएं जिससे ऐसी स्थिति ना हो कि बच्चों के मन में कर्तव्य तो किसी अंधेरे कोने में छिपा जाए और अधिकार का ठप्पा लगाकर वे परिवार में सीना तानकर खड़े हो जाएँ।
हम अक्सर अधिकारों की मांग करते हैं और अपने कर्तव्यों के प्रति बेपरवाह और अनभिज्ञ बने रहते हैं। जबकि कर्तव्य और अधिकार किसी बैंक खाते के समान है। कर्तव्य उसमें जमा राशि है तो अधिकार उस पर मिलने वाला ब्याज है, जो बिना कर्तव्य रुपी राशि के नहीं मिल सकता। अतएव हमें अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते रहना जरूरी है। जिससे हमारे कर्तव्य के खाते में अधिकार जमा होते रहे और हमें प्यार के रूप में वह ब्याज प्राप्त होता रहे। परिवार में हरेक को साथ निबाहने की आवश्यकता होती है। बच्चे परिवार से अनजाने में ही शिक्षा लेते हैं, उन्हें किसी विशेष ट्रेनिंग की ज़रुरत नहीं केवल सहज रूप से माता पिता व परिवार के सभी सदस्यों के साथ सहजता, सरलता से जुड़ने की आवश्यकता है।
सोचें क्या यह गलत है ?
सस्नेह
आपकी मित्र
डॉ.प्रणव भारती