Divya in Hindi Moral Stories by Aman Kumar books and stories PDF | दिव्या

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दिव्या


अमन कुमार त्यागी

-‘डाॅक्टर! मुझे मरने में और कितना समय लगेगा?’
-‘तुम जल्दी ही अच्छी हो जाओगी।’
-‘नहीं डाॅक्टर, मैं अब कभी भी अच्छी नहीं हो सकती। मुझे रोज़ मरना पड़े, उससे बेहतर है....मुझे एक बार में ही मार डालो।....अब जीने का मन तो वैसे भी नहीं रहा।’
-‘पेशेंस रखो दिव्या। परेशान मत हो। तुम्हें नई ज़िंदगी मिलेगी। बीती बात भूलने का प्रयास करो।’
-‘नहीं भूल सकती डाॅक्टर और अब नई ज़िंदगी भी मौत के बाद ही संभव है, मुझे ज़हर का इंजेक्शन लगा दो। मुझ पर रहम करो, मेरी हालत जीने लायक नहीं है। अब तो भगवान पर भी भरोसा नहीं रहा है।’
डाॅक्टर राय ने दिव्या से अधिक बातें करना मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने नर्स को आवश्यक निर्देश दिए और अगले मरीज़ को देखने के लिए बढ़ गए।
-‘हाँ, तुम भी पुरुष हो डाॅक्टर और भगवान भी, जिसने मुझे बर्बाद किया वह भी और जिसने मुझे पैदा किया वो भी। तुम सब चालाक हो, मैं स्त्री हँू और मेरी माँ भी, ये धरती भी स्त्री ही है और प्रकृति भी। तुम सब मिलकर हम स्त्रियों को भोगने में लगे हो। अरे कमबख़्तों कम से कम भोगने का सलीका तो सीख लिया होता। स्त्री तो है ही भोग्या। उसे पति भोगे, बाप भोगे क्या फ़र्क पड़ता है। हाड़-माँस के पुतले से ज़्यादा औक़ात भी नहीं है स्त्री की। मैं फिर कहती हूँ डाॅक्टर! मुझे ज़हर दे दो। मैं मरना चाहती हूँ या तुम भी मुझे भोगने के लिए ही बचाना चाहते हो। पता नहीं क्या-क्या लिखा है मेरे भाग्य में..... न जाने अभी कितनी बार भोगी जाती रहूँगी....कौन-कौन भोगता रहेगा....?’ कहते-कहते दिव्या फफक कर रोने लगी। रोते-रोते ही वह बेहोश हो गई।
डाॅक्टर दौड़कर उसके पास पहुँचा। नब्ज़ टटोली और फिर राहत की सांस लेकर अपने केबिन में चला गया। तौलिया से पसीना पौंछा, एक गिलास पानी पिया और एक लंबी सांस लेकर कुर्सी की पुश्त से पीठ टिकाकर आँखें बंद कर लीं।
डाॅक्टर राय के अस्पताल में पिछले पंद्रह दिनों से दिव्या भर्ती थी। इन पंद्रह दिनों में कोई भी रिश्तेदार उससे मिलने नहीं आया था। उन दिनों अख़बारों में उसके बारे में ख़ूब छपा था। अभी भी बहुत से पत्रकार दिव्या से मिलने की ज़िद करते थे। मगर डाॅक्टर राय की अपने स्टाफ को सख़्त हिदायत थी कि दिव्या तक किसी भी पत्रकार को न पहुँचने दिया जाए। डाॅक्टर राय के अपनी कोई बेटी नहीं थी परंतु वह दूसरे की बेटियों को अपनी ही बेटी समझते थे। यही वजह थी कि वह दिल लगाकर दिव्या का इलाज़ कर रहे थे। दिव्या को स्वस्थ कर देने के लिए वह कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। थोड़ी देर बाद डाॅक्टर राय अपने केबिन से बाहर निकले। इस वक़्त उनके चेहरे पर अत्यंत गंभीर भाव थे। वह अपनी कार की तरफ़ बढ़ रहे थे। दौड़कर ड्राइवर कार के नज़दीक पहँुचा और उसने कार का पिछला दरवाज़ा खोल दिया। डाॅक्टर राय के बैठ जाने के बाद ड्राइवर भी अपनी सीट पर बैठ गया और उसने कार स्टार्ट कर दी। डाॅक्टर राय बहुत जल्दी उस स्थान पर पहुँच गए, जहाँ से दिव्या को अस्पताल पहुँचाया गया था। डाॅक्टर राय दिव्या से जुड़े तमाम पहलुओं पर नज़र डाल लेना चाहते थे, ताकि वह उसे जल्दी ठीक कर सकें। खोजबीन के बाद डाॅक्टर राय को पता चला कि दिव्या अपने पिता के साथ पिछले एक महीने से वहाँ रह रही थी। उसके पास कोई विशेष सामान नहीं था। घटना वाले दिन वहाँ दिव्या के पिता समेत पाँच लोग और थे। जबकि सुबह को बेहाल दिव्या कमरे में अकेली पड़ी मिली थी, बाकी सभी लोग ग़ायब थे। पुलिस को सूचना दी गई, पुलिस ने ही दिव्या को डाॅक्टर राय के पास पहुँचाया था।
डाॅक्टर राय ने बहुत से आपराधिक बीमार केस देखे थे, मगर दिव्या ने उन्हें हिलाकर रख दिया था। डाॅक्टरी रिपोर्ट से यह तो तय हो चुका था, कि उसके साथ पाँच लोगों ने बलात्कार किया था, मगर दिव्या की मानसिक हालत बता रही थी, कि उसके किसी सगे संबंधी ने भी उसके साथ बलात्कार किया है। जिसकी वजह से भगवान पर से भी उसका भरोसा उठ गया है। उस जगह से डाॅक्टर राय को बहुत ज़्यादा जानकारी तो नहीं मिली मगर उन्हें जो शक हुआ उस पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे। डाॅक्टर राय जल्दी ही वापिस अस्पताल पहुँच गए। तब तक दिव्या को होश आ चुका था।
-‘अब कैसी हो बेटी !’ डाॅक्टर राय ने उसके माथे पर हाथ रखते हुए पूछा।
-‘बेटी...!’ दिव्या ने घूरकर डाॅक्टर की ओर देखा-‘बेटी नहीं, भोग्या कहो डाॅक्टर, भोग्या। मैं स्त्री हूँ और स्त्री का एक ही रूप होता है.....भोग्या। मैं रिक्वैस्ट करती हूँ डाॅक्टर! मुझे ज़हर का इंजेक्शन लगा दो। मुझ पर रहम करो, प्लीज़ मुझ पर रहम करो... मैं किसी भी सूरत में जीना नहीं चाहती हूँ।’ दिव्या ने याचना की।
-‘देखो दिव्या! तुम समझदार लगती हो और पढ़ी-लिखी भी। क्या तुम अपने साथ होने वाली दुर्घटना का ब्यौरा बता सकती हो?।’
-‘क्या करोगे जानकर? मुझे नहीं लगता कि मरने से पहले ब्यौरा बताना ज़रूरी है। बस इतना ही समझ लो कि स्त्री कहीं अपनी मर्ज़ी से भोगी जाती है और कहीं ज़बरदस्ती। दोनों ही रूप में स्त्री भोग्या है और पुरुष भोगी। मैं ऐसी दुनिया को अलविदा कहना चाहती हूँ... मुझे मौत चाहिए डाॅक्टर....सिर्फ़ और सिर्फ़ मौत।’ कहते हुए वह रोने लगी।
- ‘मगर मैं जानने का प्रयास करूँगा ही।’ कहकर डाॅक्टर राय वहाँ से हटे और दूसरी तरफ़ बढ़ गए।
-‘ठहरो डाॅक्टर!’ दिव्या ने काँपती आवाज़़ में कहा, तो डाॅक्टर राय के कदम रुक गए। वह मुड़े और दिव्या के पलंग के पास पहुँचकर मुस्कुराए। दिव्या पुनः बोली -‘क्यों मुझे मजबूर कर रहे हो डाॅक्टर! आप नहीं जानते, मेरे होंठ खोलते ही यह दुनिया कलंकित हो जाएगी। मुझ पर विश्वास भी नहीं किया जाएगा, दुनिया अपनी तरह के तर्कों से मेरा मखोल उड़ाएगी। लेकिन जब आपकी ज़िद है तो मैं अपने अतीत को ख्ंागालने की कोशिश करती हूँ।’ कहकर दिव्या चंद लम्हों के लिए ख़ामोश हो गई। मगर जब बोली तो उसके हांेठों पर प्रलय आने से पहले वाली हलचल थी।
मेरा नाम दिव्या है। जैसा कि आप जानते ही हैं। अब से अठारह वर्ष पूर्व मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के मेरठ नगर में हुआ था। मेरी माँ ख़ूबसूरत और कुशल गृहिणी थी, मगर मेरी बदनसीबी। मेरे जन्म लेने के पाँच साल बाद ही वह देवलोक चली गई। जब मैं दस वर्ष की हुई, तब पिताजी ने दूसरा विवाह कर लिया। माँ सौतेली थी, मगर अच्छी थी। वह हर दुःख सुख में मेरा ख़याल रखती थीं। धीरे-धीरे नहीं बल्कि मैं जल्दी से बड़ी होती जा रही थी। जो भी मुझे देखता यही कहता-‘हाँ भई ग़ैर का धान है जल्दी तो बढ़ेगा ही। अब हुई दिव्या शादी लायक।’ मैं सुनती तो शर्म आती मगर मन ही मन ख़ुश भी होती। सोते जागते किसी राजकुमार के सपने देखती। ऐसा नहीं वैसा...अरे नहीं-नहीं ऐसा नहीं। पता नहीं चलता क्या-क्या उधेड़बुन में लगी रहती। मेरे जीवन के सत्रह साल कब बीत गए पता ही नहीं चला मगर अठारह साल लगते-लगते दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा, आफ़त का तूफ़ान अपने तीव्रतर वेग से चलने लगा और मेरी ज़िंदगी में भारी कोलाहल पैदा कर गया। लगता है, महाप्रलय हो गई है और मैं समुद्र की अनंत गहराइयों में खोती जा रही हूँ। किसी को मदद के लिए भी कैसे पुकारूँ? चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा है। कहते-कहते दिव्या ने एक बार छत की ओर निहारा और फिर डाॅक्टर को ग़ौर से देखने के बाद पलकें मूंदकर वह कहने लगी-
-‘इस वर्ष मैंने ग्रेजुएशन में दाख़िला लिया था। घर की माली हालत अच्छी नहीं थी। ट्यूशन पढ़ाकर ख़र्च निकालती थी। मुझे कब अपने सहपाठी से प्रेम हो गया पता ही नहीं चला। वह दर्शनशास्त्र की क्लास मेरे साथ अटेंड करता था। हमारे बाक़ी सभी सब्जेक्ट भिन्न थे। रमेश बिल्कुल मेरे सपनों जैसा था। वही डील-डौल, वही नेचर। मेरे लिहाज़ से उसमें कोई कमी नहीं थीं। मगर हाँ, दुनियावी निगाहों में वह बेकार था। चूंकि वह पैसे के मामले में ग़रीब था और उसकी सि(ांतवादिता ने उसकी ग़रीबी में इज़ाफा ही किया था। हम दोनों की सोच अधिक से अधिक मिलती थी। जब कभी हम बातें करते, तब हमारा विषय बड़ा ही गूढ़ हो जाता। हमारे अन्य साथी हमंें वैरागी की उपाधि दे चुके थे। वो हमारी मज़ाक उड़ाते, मगर हमने कभी उनकी मज़ाक पर ध्यान नहीं दिया। नतीजा यह निकला कि हम एक-दूसरे से प्रेम के लिए बदनाम हो गए। यह सच भी है। प्रारंभ में अच्छे सहपाठी के अलावा हमारे बीच कोई रिश्ता न था मगर धीरे-धीरे हम दोनों के दिलों में कब प्रेमांकुर फूटा पता ही नहीं चला। जब हमें मिलने में एक भी दिन विलंब हो जाता, या नियत समय पर इंतज़ार करना पड़ता, तब मन विचलित हो उठता। ऐसा लगता, जैसे हम एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। मैंने इस उम्र में तन की प्यास बुझाने के बहुत क़िस्से सुने थे, किंतु यहाँ तो मन की प्यास थी, जो वैचारिक बरसात से ही बुझ सकती थी। हाड़-मांस के लोथड़ों से बने तन की प्यास न मुझे लगी थी और न ही रमेश को। अगर सच पूछा जाए तो न ही कभी रमेश ने मेरी आँखों की गहराई में झाँकने की कोशिश की थी और न ही मैंने। हमने कभी एक दूसरे के जिस्म को भी स्पर्श नहीं किया था। वह हमेशा निगाह नीचे किए रहता और बातें आसमान से भी ऊंची करता। मैंने उससे पूछा भी था -‘रमेश ज़मीन पर निगाह रखकर आसमान की बातें कैसे हो सकती हैं?’ उसने सीधा सा जवाब दिया था -‘क्यों, अर्जुन मत्स्य भेदन कैसे करता है?’ उसका जवाब सुनते ही मुझे शरारत सूझी -‘क्या मुझे पाना चाहते हो?’ उसने सपाट लहज़े में कहा-‘नहीं दिव्या! आत्मा से आत्मा के मिलन में मुक्ति नहीं बल्कि आत्मा की परमात्मा से मिलन में मुक्ति होती है।’ मैं भी भला कहा हार मानने वाली थी -फिर मेरे लिए इतनी आसक्ति क्यों?’ राजेश ने प्रथम बार मेरी ओर देखा -‘जो साधना करने का मैं प्रयास कर रहा हूँ, तुम उसके लिए उपयुक्त साधन हो।’
-‘साधना मात्र।’ मैंने शिक़ायती अंदाज़ में पूछा।
-‘तुम पवित्र आत्मा हो दिव्या! और फिर उच्च उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साधन भी तो उच्च ही होना चाहिए।’
-‘ओह रमेश! क्यों मुझे इतना सम्मान दे रहो हो?’
-‘देखना दिव्या! एक दिन सारी दुनिया तुम्हारा सम्मान करेगी।’
-‘क्या मुझे अपने से दूर रखकर भी तुम्हारी साधना पूर्ण हो सकती है?’
-‘नहीं, तुम हमेशा मेेरे साथ रहोगी।’
-‘क्या मुझसे विवाह किए बिना भी अपने पास रख सकते हो?’
-‘हाँ, विवाह तो मुझे तुमसे करना ही पड़ेगा। मैं जानता हूँ, तुम्हारे बिना मेरी साधना अधूरी ही रहेगी।’
रमेश की स्वीकृति मिल गई थी। मेरा मन, मयूर सा नाच उठा। ख़ुशी-ख़ुशी घर पहुँची। मैं माँ को अपनी मर्ज़ी बता देना चाहती थी, मगर उस दिन संकोचवश कह न सकी। दूसरे दिन मेरा सौतेला मामा हमारे घर आया। उसकी आँखों में अजीब सी हलचल थी। आते ही वह मेरे पिताजी के कमरे में गया। जब पिताजी बाहर आए तो वह अपने व्यवहार से एकदम विपरीत थे। उनकी निगाहें मुझे घूर रहीं थीं। जो निगाहंे थोड़ी देर पहले तक मुझे स्नेह से देखती थीं, अब उनमें नफ़रत थी। मैं समझने का प्रयास कर रही थी, आख़िर माज़रा क्या है? तभी पिताजी ने खा जाने वाले अंदाज़ में पूछा -‘ये रमेश कौन है?’ मेरी समझ में सबकुछ आ गया। मामा ने पिताजी को अच्छी तरह भड़का दिया है। लेकिन मामाजी को कैसे पता चला? मैं जवाब देने की जगह, मामा को सवालिया निगाहों से घूरने लगी। पिताजी ने पुनः कड़क कर पूछा -‘मैं पूछता हूँ, कौन है ये रमेश?’
-‘कौन रमेश?’ मैंने भी अनभिज्ञता ज़ाहिर की।
-‘वही, जिसके साथ तू आजकल गुलछर्रे उड़ा रही हैै।’
-‘आपको ऐसे नहीं बोलना चाहिए पिताजी! आख़िर मैं आपकी बेटी हूँ, कोई ग़ैर तो नहीं, जो भी पूछना है शालीनता के साथ भी पूछा जा सकता है।’ मैंने भी हिम्मत कर कहा।
-‘हमें शालीनता सिखा रही है, हरामज़ादी! यार के साथ गुलछर्रे उड़ाकर अब इज़्ज़त वाली बनने की कोशिश कर रही है। तूने मेरा प्यार देखा है अभी तक, अब मेरी नफ़रत भी देखना।’
-‘मेरी बात तो सुनो पिताजी! मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे हमारे घर की बदनामी हो।’
-‘मुझे कोई बात नहीं सुननी है तुम्हारी, लेकिन आज़ादी के साथ कहीं भी मुँह मारने की इजाज़त भी नहीं दे सकता। चंद्रे ने एक रिश्ता बताया है, कल ही जाकर फाइनल कर आऊँगा।’
पिताजी अपनी ही रो में कहे चले जा रहे थे। -‘चंद्रे मेरे इसी मामा का नाम था, जिसकी वजह से मुझे मुसीबतों के तूफ़ान में उड़ जाना पड़ा। पिताजी अपना फैसला सुनाकर मुड़ने ही वाले थे कि मेरे नथुनों से हवा का बदबूदार झोंका टकराया। मैंने तुरंत कहा-‘पिताजी! आपने इस वक़्त शराब पी रखी है।’ मगर वह अब मेरा कहा सुनने के लिए वहाँ न ठहरे। पास में ही माँ खड़ी थी। मैंने रोते हुए माँ के आँचल में छुप जाना चाहा माँ ने भी स्नेह से मुझे अपनी छाती से लगा लिया।
-‘म....मैं किसी अनजाने के हाथों की कठपुतली नहीं बनना चाहती हूँ माँ! मुझे बचा लो माँ! मेरी कुछ मदद करो माँ।’ माँ से मैंने कहा, तो उसने मेरी आँखों से बहते हुए आँसू पौंछते हुए कहा-‘बेटी! शराब पीकर तेरा बाप राक्षस बन जाता है। मैं इन्हें कैसे समझाऊँ? लेकिन कोई तो रास्ता निकालना ही पड़ेगा।’ माँ मुझे सांत्वना देती रही। वह पूरी रात मैंने रोते-रोते काटी।
अगले दिन सुबह। मैं समझी थी कि पिताजी शराब के नशे में इतना सबकुछ कह गए हैं मगर नहीं, सुबह उठते ही पिताजी ने मुझसे तैयार होने के लिए कहा। माँ ने और मैंने विरोध किया तो हम दोनों को उन्होंने डंडे से ख़ूब मारा। बेबस औरत क्या कर सकती है। मजबूरन मुझे तैयार होना पड़ा और मैं पिताजी के साथ चल दी। मामा रात को ही जा चुका था।
ट्रेन का सफ़र तय कर हम इसी शहर में पहुँचे तो मामा भी मिल गए। मामा को देखकर मुझे हैरानी हुई। मन किसी अनजानी आशंका से विचलित हो उठा। मामा ने मेरे पिताजी को सौ रुपए के नोटों की कई गड्डियाँ दीं। पिताजी की माली हालत अच्छी नहीं थी। ऐसी हालत में रुपयों के लालच में उनका बहक जाना कोई बड़ी बात न थी। मैं मुश्किल होते हालात को समझ नहीं पा रही थी। मामा मुझे और पिताजी को लेकर एक मकान में पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक कमरा किराये पर लिया था। आवश्यकता की कोई विशेष वस्तु वहाँ न थी। खाना होटल से मंगाया जाता था। चार-पाँच दिन हम तीनों उस कमरे में रहे, फिर पिताजी दो दिन के लिए घर चले गए। उनके जाते ही मामा का व्यवहार कंस के व्यवहार से भी सौ गुना बढ़ गया। मुझे बेहोश करके वह नीच आदमी मेरी अस्मिता से खेल गया। दो दिन बाद मुझे होश आया तो पिताजी मेरे सामने मौजूद थे। मैंने उन्हें रोते-बिलखते मामा की हरक़त बता दी। पिताजी के रुख़ में अब मेरे प्रति नरमी थी, परंतु मामा के लिए कोई गुस्सा भी नहीं था। मामा वहाँ फिर कभी नहीं आया। मैं पिताजी पर घर चलने का दबाव बनाती तो वह किसी न किसी बहाने टाल जाते। मेरा खाना-पीना लगभग छूट ही गया था, फिर भी पिताजी मेरी सेहत का भरपूर ख़याल रखने की कोशिश कर रहे थे। मैं आश्वस्त हो चुकी थी कि मुझे बलि का बकरा बनाया जा रहा है।
अभी महीना बीता भी न था कि पिताजी ने मुझे ख़ुश करने के लिए कहा -‘दिव्या मैं तुम्हें और ज़्यादा परेशान नहीं करना चाहता हूँ। कल दो मेहमान आएंगे, उनसे मिलने के बाद हम अपने घर चलेंगे और तुम्हारे मामा को उसके किए की सज़ा ज़रूर दिलाएंगे। मैं कोशिश करूंगा कि तुम्हारी शादी रमेश के ही साथ करा दी जाए।’ मैंने पिताजी के चेहरे को पढ़ने की कोशिश की, वह सरासर झूंठ बोल रहे थे। मैं अब किसी भी सूरत में उन पर विश्वास नहीं कर सकती थी, मगर उनकी बात मानने के अलावा कोई चारा भी नहीं था।
अगले दिन पिताजी ने कुछ सामान लाने का बहाना किया और मुझे छोड़कर चले गए। उनके जाने के बाद दो आदमी आए। उन्होंने मेरे साथ वह सबकुछ किया, जो एक कमज़ोर औरत के साथ कोई शैतान कर सकता था। मैं बेहोश हो गई। बाद में क्या हुआ कुछ पता नहीं चला। अब जैसी भी हूँ, आपके सामने हूँ। मैं आपसे मौत माँग रही हूँ डाॅक्टर साहब...प्लीज़ मुझे मौत दे दो....मैं जीना नहीं चाहती हूँ।
-‘तुम्हें मरना नहीं, जीना है दिव्या! अपने लिए न सही मेरे लिए ही सही।’ यह आवाज़़ दिव्या को जानी-पहचानी लगी। उसने आवाज़़ की दिशा में देखा। सामने रमेश खड़ा था। दिव्या की आँखों में चमक आ गई, मगर जल्दी ही उसे मायूस भी हो जाना पड़ा। क्योंकि रमेश के हाथों में हथकड़ी पड़ी थी और दो सिपाही उसे पकड़े खडे़ थे।
डाॅक्टर राय उस दिशा में बढ़े। तब तक एक इंस्पेक्टर भी सामने आ चुका था। उसे देखते ही डाॅक्टर ने पूछा-‘ये सब क्या है ?’
-‘यह रमेश है, डाॅक्टर साहब ! दिव्या के बाप ने इसके ख़िलाफ़ अपनी बेटी के अपहरण और बलात्कार की रिपोर्ट लिखाई है। मैं इस केस का इन्वेस्टीगेटर हूँ।’ इंस्पेक्टर ने बताया।
-‘आप दिव्या का बयान सुन चुके हैं, इंस्पेक्टर साहब!’ डाॅक्टर राय ने कहा
-‘हाँ! और समझ गया हूँ, एक शैतान बाप ने अपना अपराध छिपाने के लिए यह षड्यंत्र रचा है।’
-‘तुम नहीं जानते इंस्पेक्टर, तुमने दिव्या की जान बचा ली है।’ डाॅक्टर राय की आँखों में चमक थी।
-‘वो कैसे? डाॅक्टर साहब।’ इंस्पेक्टर ने आश्चर्य से पूछा।
-‘रमेश को यहाँ लाकर। देखा नहीं रमेश को देखकर दिव्या की आँखों में चमक आ गई है। यह हमारे देश की संस्कृति है कि यहाँ औरत सबकुछ गँवाकर भी अपने प्यार को पा जाए तो वह अपने आप को सौभाग्यशाली ही मानती है।’ अनायास ही डाॅक्टर राय के मुँह से निकला -‘तुम्हारा इलाज रमेश ही है दिव्या! अब रमेश तुम्हारे सामने है।’