Kuwara Kirayedar in Hindi Comedy stories by Yashvant Kothari books and stories PDF | कुंवारा किरायेदार

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कुंवारा किरायेदार

 

        कुंवारा  किरायेदार 

       यशवन्त कोठारी

कुंवारे आदमी को नौकरी के बाद सबसे ज्यादा डर अपने मकान मालिक से लगता है। सब जानते और मानते हैं कि कुंवारा आदमी और मरखना बैल या पागल कुत्ता आपस में  पर्यायवाची शब्द हैं।

मुझ गरीब का स्थानान्तरण अज्ञात स्थल पर केवल इसलिए कर दिया कि कुंवारा था, और मेरी जगह पर एक शादीशुदा जोड़े का दाम्पत्य-जीवन सुखी किया गया। मुझे अच्छी तरह पता है-वे सज्जन अपने दाम्पत्य-जीवन से कितने सुखी हैं; मगर क्या करूं, मुझे खिसकना ही पड़ा !

नये शहर में मकान ले लेना और आसमान से तारे तोड़कर लाना एक ही बात है ! हमारे पूर्वज कितने समझदार थे कि उन्होने ऐसे आड़े वक्त काम आने के लिए यह मुहावरा बना दिया, ताकि कुंवारे आदमी के वक्त-जरूरत काम आवे !

मकान-मालिक और किरायेदार के सम्बन्धो  के बारे में  अगर मैं लिखना शुरू करूं तो सम्भव है, सैकडो  पन्ने भर जाएं और फिर भी दास्तान अधूरी ही रह जाए ! मेरा पुराना मकान-मालिक बड़ा सज्जन व्यक्ति था। उसको केवल इस बात पर एतराज था कि मेरे यहां आने वाले मेहमान, हाजत का इन्तजाम अन्यत्र क्यों  नहीं करते। आप विश्वास कीजिए, मैंने अपने सभी रिश्तेदारो  को यह बात लिख दी और उसके बाद आज तक मेरे यहां कोई मेहमान आने की गुस्ताखी नहीं कर सका। नहीं तो इस महंगाई में  जिन्दगी जीना-खामखाह एक गले में  फंसी रस्सी है। और मेहमान, भगवान बचाएं।

मैं बहक गया था, वापस लाइन पर आता हूं। कुवारा-किरायेदार शहर में  मकान ढूंढ़ रहा था। हां, तो ढूंढ़ रहा है और ढूंढ़ता रहेगा।

पहले ही रोज बस साहब, मजा आ गया। एक मकान पर ‘टू-लेट’ की तख्ती देखकर घुस गया। अन्दर से एक प्रौढ़ा आई। मैंने कहा-‘‘माताजी, आपको मकान किराये पर देना है ?’’ वो बिफर गयीं। मुझे सौ-सौ गालियां देती हुए कहने लगीं-‘‘मैं आपको ‘माताजी’ लगती हूं ? चले जाओ-गेट-आऊट !’’ इसके पूर्व कि मैं अपनी गलती के लिए क्षमा मांग पाता, उन्होने भड़ाक् से दरवाजा बन्द कर लिया। साथ ही मेरी किस्मत के दरवाजे पर भी शटर गिर गया। मैंने एक और दरवाजा खटखटाया। वहां से एक प्रौढ़ बाहर आये, मैंने कहा, ‘‘भापजी, आप मकान दिखाइएगा ?’’ वे बोले-मकान देखने से पहले आप यह बताइए कि आप शादीशुदा हैं ?’’

मेरे मना करने पर उन्होने मुझसे सहानुभूति दर्शायी और कहा-‘‘वैसे तो हम कुंवारांे को मकान नहीं देते। लेकिन आप सज्जन लगते हैं। आपको केस जेनुइन है।’’

मुझे थोड़ी आशा बंधी, शायद यहां काम बन जाए ! उन्होने कमरा दिखाते हुए कहा-‘‘आप इधर चौक में  नहीं घूमेंगे, उधर छत पर नहीं जा सकेगे। खिड़की बन्द रखियेगा ! रात के दस बजे तक आ जाइएगा (या फिर बाहर सोइएगा)।’’

फिर उन्होने पूछा-‘‘आप करते क्या हैं ?’’

‘‘जी, पढ़ाता और लिखता हूं !’’

‘‘क्या आप कवि हैं ?’’

मैं समझ गया, अब शामत आई। मैंने कहा, ‘‘जी नहीं, केवल पत्रकारिता करता हूं।’’ वे थोड़े आश्वत हुए, मगर अभी उनके चेहरे पर शक की छाया थी। मैंने शक दूर करने के लिए उन्हो ने  सिगरेट पेश की। मुफ्त की सिगरेट ने अपना कमाल दिखाया। वे बोल उठे-‘‘आप लेखक हैं और कुंवारे हैं। अतः आपको छः माह का किराया अग्रिम देना होगा।’’ मैं किराया देने के लिए तैयार होने लगा। मगर त्रिशंकु की तरह आसमान में  ही लटक गया। क्योंकि मकान-मालकिन आवाज सुनकर बाहर आईं और हमारे फटे में  टांग अड़ाने लगीं-

‘‘हमें  अपना मकान किसी घर-गृहस्थी वाले को देना है !’’

मेरी अनुनय-विनय से वह कुछ पिघलीं-‘‘आपके पास ज्यादा सामान तो नहीं है ?’’

मेरे मना करने पर कहने लगीं-

‘‘पंखा, बिजली की प्रेस, टी.वी. तो होगा ही ?’’

मेरे फिर मना करने पर कहने लगीं, तो फिर आपका हमारे लिए क्या उपयोग है ? पहले वाले किरायेदार के पास गाड़ी, फ्रिज, टी.वी. सब था; हमारी बेबी तो अक्सर उधर ही रहती थी। बड़े भले थे !’’

अब मुझे शरम आने लगी थी। मैं इनके व इनकी बेबी के क्या काम आ सकता हूं-मैं सोचने लगा। अचानक मुझे याद आया-

‘‘आपकी बेबी तो पढ़ती होगी !’’

‘‘हां-हां, तीन साल से बी0 ए0 में  पढ़ रही है। बड़ी इन्टेलिजेन्ट है ! मगर पता नहीं कैसे, हर बार एक-दो नम्बर से रह जाती है।’’

‘‘तो.........तो, अगर आप मुनासिब समझे , तो मैं बेबी को पढ़ा दिया करूंगा।’’

वे बड़ी खुश हुईं-

‘‘हां, मुझे मास्टर की जरूरत भी थी !’’

मुफ्त का मास्टर व दुगुना किराया पाकर वे लोग बड़े खुश हुए। जंगल की आग की तरह यह खबर कॉलोनी में  फैल गयी कि एक कुंवारे आदमी को भापाजी ने ‘किरायेदार’ का दर्जा दे दिया है। किसी ने सच ही कहा है, जब सियार की मौत आती है तो वह गांव की और भागता है, और किसी कुंवारे की मौत आती है तो वह किसी महानगर की कॉलोनी में  मकान लेता है ! एक तो लेखक और दूसरे कुवारा-यानि करेला और नीम चढ़ा !!

जिधर से भी मैं निकलता, खटाखट खिड़कियां बन्द हो जातीं। आइ-होल से नयन-बाण मेरे ओर फेके जाते। घर की बड़ी-बूढ़ियां अपनी ‘बच्चियों ’ को मेरी छाया से भी दूर रहने की सीख देतीं, गोया मैं कोई छूत की बीमारी का मरीज हूं। शाम को अगर बाहर निकल जाता तो लोग-बाग ऐसे देखते, जैसे अजायबर से कोई खतरनाक जन्तु निकलकर सीधा उन्हीं के यहां आ गया हो !

मौहल्ले के शोहदे और जवान लड़कियां धीरे-धीरे मुझे देखकर व्यंग्य मुस्कान फेंकने लगीं। शुरू-शुरू में  तो समझ नहीं पाया, मगर एक रोज ये शब्द कान में  पड़े-‘‘भापाजी को मुफ्त का मास्टर और घरजमाई मिल गया लगता है।’’ मेरी आंखें खुलीं। तो ये बात है, लोग मुझे क्यों  जन्तु समझने लगे थे। मैं बेबी को पढ़ाते-पढ़ाते क्या-से-क्या समझ लिया गया था। मुझे लगा-अब ये मकान भी हाथ से जाने वाला है !

दूसरे दिन सवेरे-सवेर मेरे कमरे में  पड़ोस से एक देवीजी आईं और कालिदास की रसभरी कविता समझाने का आग्रह करने लगीं। मैं बचना चाहता था, लेकिन वे कालिदास के मार्फत पद्माकर  व बिहारी पर से होती हुए गिरिजाकुमार माथुर तक गयीं। अब मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम होने लगी थी। क्यांकि अगर इसी गति से प्रगति हुई तो सिर के बाल समाप्त होने में  देर नहीं !-मैं सोच में  पड़ गया।

मैंने एक दिन अचानक यों ही मकान-मालिक के कमरे की तरफ का दरवाजा खोल ही दिया। बस मकान, कॉलोनी और मौहल्ले भर में  तूफान आ गया।

मुझे बदमाश, लुच्चा और न जाने क्या-क्या कहा जाने लगा। बड़ी मुश्किल से, अपना पन्द्रह दिन का किराया खोकर दूसरी जगह मकान के चक्कर में  चल दिया, सोचता हुआ-बड़े बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले !

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यशवन्त कोठारी 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर-302002 mo-9414461207