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वह खुद तो शानदार व्यक्तित्व का था ही, उसका बात करने का अंदाज़ भी प्रभावित करने वाला था| बातें करते-करते मैं उसे उस बड़े से संस्थान के बारे में बताती जा रही थी | वह बड़ी सहजता से मुझसे बात करता रहा और मैं भी सहज रही | उसके काले बालों में चाँदी चमक रही थी और कानों के ऊपर कलमों से भी खिचड़ी बाल झांक रहे थे जो उसके ऊपर बहुत सूट कर रहे थे | उसकी स्मार्ट चाल पर भी मेरा ध्यान गया और उसके साथ चलते-चलते मैं सोचने लगी कि इतना सुदर्शन व पद पर प्रतिष्ठित बंदे ने अभी तक क्या अपने बारे में सोच नहीं होगा ? यह सोचते ही मुझे हँसी आने को हुई, मैंने कहाँ सोच था ? मेरे हाथ यूँ ही अपने सिर के ऊपर चले गए और अनजाने में मैं अपने बालों पर हाथ फिराने लगी | मेरे बाल खिचड़ी हो रहे थे और अम्मा-पापा के कितना कहने पर भी मैं कभी उन्हें रंग नहीं पाई थी | जबकि अम्मा-पापा दोनों ही अपने बाल रँगवाते थे| जब उनका समय ड्यू होता, सैलून उनके पास ही चलकर आ जाता | कभी-कभी तो मुझे लगता, मैंने अपने अम्मा-पापा को आखिर क्या खुशी दे दी थी? भाई के परिवार को देखकर अम्मा-पापा कम से कम मन में संतुष्ट तो लगते थे, ऊपर से तो लगते ही थे | भाई की ज़िंदगी अलग प्रकार की हो चुकी थी और वे पति-पत्नी खूब प्रगति कर रहे थे | जरूरी भी तो नहीं है कि ऊपर का आवरण भीतर के आनंद को सबके सामने प्रकाशित कर सके |
बातें करते-करते हम काफ़ी दूर निकल गए थे| अधिकतर कमरे बंद थे | उत्पल के कमरे से रोशनी झांक रही थी|
“यह संस्थान का स्टूडियो है ---” कहकर मैं आगे बढ़ी और दरवाज़ा धीरे से नॉक किया |
“हूँ इज़ देयर? प्लीज़ कम इनसाइड ---”
“हैलो उत्पल ---“कहती हुई मैं अंदर चली गई | श्रेष्ठ को भी भीतर आने का इशारा कर दिया |
“हाय !आप ! इस समय ? ” कहते हुए वह खड़ा हो गया और रिमोट से प्रोजेक्टर बंद कर दिया | उसने मुझसे कहा और फिर मेरे साथ के बंदे पर एक उत्सुक दृष्टि फेंकी|
“हाँ, सोचा ज़रा चक्कर मारकर देखें –कहाँ क्या चल रहा है ? ” मैं उत्सव से अधिकतर काम की बातें ही करती थी क्योंकि जानती थी कि उसका झुकाव मेरी ओर है | नहीं चाहती थी कि वह बेकार की गलतफ़हमी में पड़े और अपना जीवन ऐसी बंदी के लिए कुर्बान कर दे जिससे उसे कुछ मिलना ही नहीं था|
“ये श्रेष्ठ हैं, श्रेष्ठ पाठक ----” फिर मैंने उसे श्रेष्ठ के बारे में, उसके काम के बारे में बताया | वह खुश हुआ लेकिन उसके चेहरे पर जैसे शंका का बादल पसर गया | स्वाभाविक भी था, जिस स्थिति में वह था और जिन भावनाओं और संवेदनाओं में वह बह रहा था, श्रेष्ठ को देखकर कहीं असहज भाव सा उसके चेहरे पर पसरने लगा| वह मौन स हो गया |
“आप वाकई श्रेष्ठ हैं ---”उत्पल ने मुँह पर मुस्कुराहट ओढ़कर उससे हाथ मिलाया और उसे सम्मान से कुर्सी पर बैठने के लिए कहा |
“अरे ! ऐसा कुछ नहीं है | कभी नाम के नीचे कचरा भी होता है | यह तो नाम भर है, बड़ों के द्वारा रखा हुआ नाम !”श्रेष्ठ खुलकर हँसा और कुर्सी पर बैठ गया |
“आप ---? ” उसने मेरी ओर इंगित किया |
“हम्म ---” मैं भी बैठ गई लेकिन अब मुझे लग रहा था कि बहुत देर इस श्रेष्ठ के साथ घूम-फिर ली | अब चलना चाहिए |
“खाना भी नहीं खाया होगा ---महाराज से कहकर भिजवा दूँ ? ” मैंने बड़े अपनत्व से कहा जैसे न जाने मैं उसके कितनी करीब थी|
“अरे !नहीं, नहीं –कुक का दो बार फ़ोन आ चुका | बेचारा मेरे लिए बैठा है | मैं भी चलता हूँ | आप लोग कुछ देखना चाहेंगे ? मैं लगा दूँ संस्थान की कोई फ़िल्म या और कुछ? ” उत्पल ने पूछा |
“अरे, नहीं नहीं, निकलना है | इन लोगों को भी देर हो रही होगी डॉ.पाठक और उनके हज़बैन्ड अम्मा-पापा से बात कर रहे हैं | ”
“अच्छा ! वो लोग भी आए हुए हैं ? ” उत्पल ने पूछा |
“उन्हें भी जानते हो ? भई, कमाल है किसको नहीं जानते तुम ? ”मैंने हँसकर कहा |
“हाँ, यूनिवर्सिटी में ही तो हिस्ट्री की प्रोफ़ेसर थीं वे और मैं वहीं फ़िल्म डिपार्टमेंट में एनीमेशन कर रहा था| ” उसने मुस्कुराकर कहा |
“अरे हाँ, मैं तो जानती हूँ यह –ऐसा लग रहा है उत्पल, बुढ़ापा सिर पर चढ़कर नाचने लगा है | ” श्रेष्ठ ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा | मुझे हँसी आने लगी, मैंने उसे होंठों में दबा दिया| इसमें कोई शक नहीं रह गया था कि उसे मुझसे विवाह के लिए ही मिलवाने लाया गया था| जानते तो हम सब थे ही, वह बात अलग थी कि खुलकर किसी ने सामने से कुछ नहीं कहा था|
मैं वाकई उससे प्रभावित हुई थी, शायद वह भी मुझसे प्रभावित था क्योंकि जब वह गया तब उसके चेहरे पर सरल मुस्कान और दृष्टि में सबको सकारात्मकता दिखाई दी थी | सभी ने हँसी-खुशी विदाई ली और मैं अपने कमरे में चली आई| एक बात की संतुष्टि और थी दिव्य अपने फ़्लैट में रहने आ गया था | जगन का उधम तो वैसे ही बरकरार था लेकिन दिव्य ने अब पक्का सोच लिया था कि उसे अपने परिवार के लिए क्या करना है|
उस रात मेरी रात फिर से करवटें बदलते हुए बीती, वैसे यह कोई नई बात तो थी नहीं| अक्सर मेरी रातें करवटें बदलते हुए ही तो बीतती थीं और स्वप्न---कभी कोई राजकुमार मेरे सपने में नहीं आया था| स्वप्न के नाम पर जो आकृतियाँ मुझे दिखाई देतीं वे इतनी धुंधली, मटमैली सी होती थीं कि मैं उनमें कुछ ढूंढती रह जाती| आज मैं करवटें बदल रही थी तो श्रेष्ठ की धुंधली तस्वीर दिख रही थी शायद ---हाँ, शायद इसलिए कि उस तस्वीर में दिव्य, उत्पल और अब यह नया बंदा श्रेष्ठ घुले-मिले दिखाई दे रहे थे और मैं बिलकुल—बिलकुल भी नहीं सोच पा रही थी कि ये मेरे साथ क्या हो रहा था ? क्या मैं मनोवैज्ञानिक तौर पर इतनी कमज़ोर हो रही थी? सच कहूँ तो मेरा दिल धड़कने लगा---क्यों? कुछ भी स्पष्टता नहीं थी |