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क्षण भर बाद ही मुझे स्वयं पर अफ़सोस भी हुआ| सचमुच मैं पगला गई हूँ? अम्मा के बारे में कितनी नेगेटिव होती जा रही हूँ मैं? आखिर उन्होंने किया क्या है? यही न कि वे मेरी चिंता करती हैं | सबको एक साथी की ज़रूरत होती है | एकाकीपन को ओढ़ना-बिछाना किसे अच्छा लगता है भला ? अम्मा-पापा जिस उम्र में आ पहुँचे थे और मैं जिस यौवनावस्था को पार कर चुकी थी, उसमें उनका मेरे लिए चिंतित होना बड़ी सहज सी बात थी| पता नहीं प्रमेश को देखकर मेरे मन में उपद्रव सा क्यों होने लगा था ?
“मैं चलती हूँ अम्मा---आप बात कीजिए –” मैं अचानक उठ खड़ी हुई |
“बैठो बेटा, कॉफ़ी पीते हैं –” उनका हाथ इंटरकॉम की ओर बढ़ने लगा |
“अभी नहीं अम्मा, मेरा कुछ काम बाकी है ऑफ़िस में, शीला दीदी मेरी वेट कर रही होंगी---”कितना झूठ बोलने लगी थी मैं ! अभी उनके पास से ही तो आ रही थी, पता नहीं वहाँ क्यों नहीं बैठना चाहती थी? मैंने महसूस किया प्रमेश ने मेरी ओर दृष्टि उठाकर क्षण भर के लिए देखा और फिर से दृष्टि झुका ली|
अम्मा ने एक लंबी सी साँस खींची और अपना हाथ इंटरकॉम की ओर बढ़ा दिया| शायद कॉफ़ी के लिए |
मैं कुर्सी से उठ ही चुकी थी, बिना कुछ कहे बाहर निकल आई और सोचने लगी कि अब मुझे क्या करना चाहिए? संस्थान के काम सब में बँटे हुए थे और सब गंभीरता व सलीके से अपने काम को अंजाम दे रहे थे | पता नहीं क्यों लगा, अपने कमरे में ही चलती हूँ | कुछ फ़ाइलें वहाँ भी थीं जिन्हें मुझको चैक करना था| ये सारे काम अम्मा के इस ‘यू.के’ के ट्रिप से ही रिलेटेड थे किन्तु मैं कहाँ गंभीर हो पा रही थी?
इतना बड़ा सहन पार करके पीछे घर में जाना होता था क्योंकि पीछे का साइड वाला गेट तो बंद ही कर रखा था | कभी ज़रूरत के समय ही खोला जाता| सबसे पहले तो कोठी के लिए ही ज़मीन का टुकड़ा लिया गया था लेकिन उसके आगे की काफ़ी सारी ज़मीनें खाली होने से लगभग हर वर्ष या दो वर्ष में ज़मीनें खरीदी जातीं और उन पर संस्थान से जुड़ी हुई कोई बिल्डिंग बन जाती| एक बड़े हॉल से शुरू होने वाले संस्थान ने आज इतना बड़ा रूप व आकार ले लिया था कि हमें ही खुद को विश्वास नहीं होता था कि दिल्ली जैसे शहर में हमारा जैसे एक छोटा सा ‘मिनी सिटी’ फैल गया था | लोग उसे ‘कला-सिटी’ या ‘मिनी सिटी’ पुकारने लगे थे | भेड़ चाल तो इतनी जल्दी गति पकड़ लेती है कि पता भी नहीं चलता | यह पता ही नहीं चला था कि संस्थान का यह नामकरण कब और किसके द्वारा किया गया था ? हम बेशक टाटा-बिरला नहीं थे लेकिन धन, मान, सम्मान जो हमारे परिवार ने कमाया था, वह बहुत बड़ी बात थी और उसको समेटे रखना उससे भी बड़ी बात!क्योंकि जितना मान-सम्मान मिलता है, अपेक्षाएँ उससे हजारों गुणा बढ़ जाती हैं|
बड़ा होते-होते निवास यानि कोठी काफ़ी पीछे जाती रही और संस्थान आगे बढ़ता रहा| अब संस्थान का परिसर ऐसा लगता मानो एक छोटी-मोटी कॉलोनी बसी हुई हो| हाँ, निवास का भाग पीछे होने से उसमें प्राइवेसी बनी रहती | इसी कॉलोनी में काफ़ी आगे चलकर एपार्टमेंट्स बने हुए थे | काफ़ी कोठियाँ भी थीं | इन्हीं अपार्टमेंट में से एक में शीला दीदी का फ्लैट भी था जो खालीपन से जूझ रहा था | दादी ने इतना अच्छा काम करवा तो दिया था, शीला दीदी को एक फ्लैट दिलवाकर लेकिन ज़माना बीत गया, वह किसके काम आया? जगन की ज़िद के कारण सब कुछ बेकार ही हो गया| वह कोई हरकत न करे, यह तो संभव था ही नहीं | मुझे लगता, उसे घसीटकर वहाँ से बाहर फेंक देना चाहिए|
‘अरे ! दिव्य ----’अचानक मुझे दिव्य दिखाई दे गया और मेरा चेहरा आभा से युक्त हो उठा| वह बड़े आराम से मेरी ओर ही आ रहा था | उसके चेहरे व चाल से ऐसा कुछ नहीं लग रहा था जैसे कुछ बड़ी बात हुई हो| वह कोई बड़ा उपद्रव झेलकर आया हो | जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ मैंने यह भी सीखा था कि मनुष्य को न जाने कितनी बातें न चाहते हुए भी छिपानी पड़ती हैं | दिव्य के चेहरे पर वही चिर-परिचित कोमल सी मुस्कान थी |
“हैलो---” वह मेरे पास तक पहुँच गया था | हाँ, दिव्य ही तो था | कहाँ से अचानक अवतरित हो गया था? अभी तक तो मन में शंका-कुशंकाओं ने मन में डेरा डाल रखा था|
“तुम ? मम्मी से मिले ? ” मेरे मुँह से निकल गया| मुझे नहीं पूछना चाहिए था| क्या पता बेचारा अपमानित महसूस न कर रहा हो | उसने मेरी बात का कोई उत्तर नहीं दिया था इससे मुझे लगा कि वह अपनी माँ से मिल चुका होगा इसीलिए रतनी इतनी सहज दिखाई दे रही थीं |
“जी, बुआ के पास जा रहा हूँ ---”कहने ही वाली थी कि मैं भी चलती हूँ फिर लगा न जाने वह उन्हें अकेले में कुछ बात बताना चाहता हो | संस्थान उसके व परिवार के कितना ही समीप क्यों न था, इस प्रकार हर बात में बीच में कूदने से युवा-मन पर गलत असर पड़ सकता था| वह एक परिपक्व युवा हो चुका था और उसकी किशोरी बहन सुंदर युवती में परिवर्तित हो चुकी थी लेकिन सड़क पार के मुहल्ले के निवासियों में कहीं कोई विशेष परिवर्तन दिखाई ही नहीं देता था| हाँ, शायद मुहल्ले के कुछ लोगों में परिवर्तन आया था, कुछ ने तो वहाँ से दूसरे घरों में शिफ़्ट कर लिया था लेकिन जगन नामक महान आत्मा में चुटकी भर भी परिवर्तन नहीं था| मुझे तो इस परिवार का दुर्भाग्य ही लगता था यह | मैं दिव्य के उसके पिता के साथ किए हुए व्यवहार से बहुत खुश हो गई थी लेकिन अपनी खुशी उसके साथ शेयर नहीं कर सकती थी | मैंने उसकी ओर मुस्कान फेंकी और बड़े अहाते से निकलकर कोठी की ओर चल दी| यह सोचकर कि अपने कमरे में बैठकर कोशिश करूँगी कि कुछ फ़ाइलें फ़ाइनल कर सकूँ|
कमरे में पहुँचकर मैंने अलमारी में से फ़ाइलें निकालीं और अपनी सबसे प्यारी जगह कमरे की पीछे वाली बड़ी खिड़की के पास जा बैठी | मेज़ पर एक फ़ाइल रखी और बाकी फ़ाइलें पलंग पर रख दीं | वैसे तो मेरी कुर्सी के सामने मेज़ के दूसरी ओर भी एक कुर्सी थी, मैं वहाँ भी फ़ाइलें रख सकती थी लेकिन मेरी आदत थी, यदि कुर्सी पर कोई बैठने वाला न होता तब मेज़ के नीचे से पैर निकालकर सामने वाली कुर्सी पर अपने पैर फैलाकर आराम से बैठ जाती थी और गोदी में फ़ाइल रख लेती थी, तब आराम से काम करती थी| मैंने हर बार की तरह ऐसा ही किया, तभी दरवाज़े पर नॉक हुई |
“आ जाओ रतनी ----” मैंने पहले भी ज़िक्र किया था कि वहाँ के लोगों के पैरों की आहट से मुझे लगभग सभी की पहचान हो जाती थी |
रतनी ने मुस्कुराते हुए कमरे में प्रवेश किया| काफ़ी सहज थी वह जैसे मैं उनको देख ही चुकी थी|
“क्या कर रही हैं ? बिज़ी हैं क्या? ” रतनी ने पूछा |
“अरे!आओ न, मैं तो कबसे बात करना चाह रही थी | ”
“जानती हूँ, तभी तो आई हूँ ---” मैंने कुर्सी से अपने पैर हटाए और रतनी उस कुर्सी पर बैठ गईं | अपनी गोदी में समेटी हुई फ़ाइल मैंने मेज़ पर रख दी|
“पहली बार बेटा माँ के लिए खड़ा हुआ---लेकिन---”
“अच्छा लगा न? कब तक, आखिर कब तक अपनी माँ के ऊपर कोई अत्याचार देख सकता है? अब ये लेकिन–ये लेकिन, वेकिन क्या हुआ ? ”मुझे सच ही रतनी पर खीज आती थी|
“नहीं, कुछ खास नहीं, बेटे ने मेरी तरफ़दारी की, अच्छा लगा लेकिन एक बेटा अपने बाप को इस तरह बोलेगा तो मेरे संस्कार मेरी आँखें नीची कर देंगे-----”
एक भारतीय संस्कारों की सुगढ़ व ईमानदार स्त्री की तरह वह हमेशा ही सोचती रही थी| तो ठीक है न, मैं इसमें क्या कर सकती थी | किसी के दिमाग को, उसके विचारों को बदलना इतना आसान भी नहीं होता | मैंने बात बदलनी ठीक समझी|
“चला कहाँ गया था वह ? आप लोग इतने परेशान हो गए और----”मेरी बात बीच ही में रह गई |
“अभी कुछ देर पहले उसने मुझे फ़ोन किया था कि वह पूरी रात स्टेशन पर पड़ा रहा लेकिन अब संस्थान आएगा---वह आ गया है| अभी घर नहीं जाना चाहता ---| ”रतनी बेटे के लिए दुखी थी जो स्वाभाविक ही था| मुझे एक बात से परेशानी होती कि पूरी ज़िंदगी इंसान किसी दूसरे की वजह से पूरा परिवार दुखी हो, पीड़ित हो| ऐसा ही होता है न !मैं यह क्यों नहीं सोच पा रही थी कि मेरा परिवार भी तो एक मेरे कारण ही तो दुखी था| मैं रतनी की बातों पर गौर करने लगी|
हाँ, मुझे ध्यान आया रतनी की बात पर और मेरे सामने दिव्य घूम गया | हाँ, उसके कपड़े गंदे नहीं थे लेकिन उसकी उनींदी आँखों से लग रहा था जैसे उसने कहीं बैठे-बैठे रात काटी थी| यूँ तो चेहरे पर मुस्कान ओढ़कर उसने मुझे ‘विश’ किया था और उदासी उस मुस्कान के पीछे छिपा ली थी | वैसे भी इस परिवार के अधिकतर सभी सदस्यों को अपनी उदासी बड़ी कुशलता से छिपानी आती थी, केवल जगन के अलावा|
“उसे फ़्लैट में क्यों नहीं शिफ़्ट कर देते | बेकार ही जगन के डर से वहाँ पड़े हुए हो? आखिर कब तक? यह नाटक तो पासपोर्ट देखने से हुआ पर कब और किस बात पर नाटक नहीं करता वह !”मैं तो उसका नाम सुनकर ही भीतर तक जल जाती थी|
मिनट भर में फिर मेरा दिमाग पलटा, क्या हम सब ही कुछ बातों के उजागर होने के भय से अपने चेहरों पर नकाब नहीं चढ़ा लेते ? कभी भी, कहीं भी? हमें दूसरों के चेहरे दिखाई देते हैं, अपने चेहरों पर पड़े नकाब हमें दिखाई नहीं देते |
“अब तो ऐसा करना ही पड़ेगा---न तो दिव्य अपने पापा के साथ रहने के लिए तैयार होगा और उधर रहेगा भी तो कोई न कोई इसी तरह का तूफान होता रहेगा | एक बार किसी बात की शर्म खुल जाती है तो उसे बार-बार होने में कहाँ देर लगती है ? सच था, इससे अच्छा तो यह है कि वह फ़्लैट में रहने लगे | ”रतनी ने इस प्रकार सोचा, अच्छा लगा | मैं जानती थी बिना शीला दीदी के पूछे रतनी ने यह निर्णय नहीं लिया होगा |
“उस बेचारे फ़्लैट के भाग खुल जाएंगे---” मैंने कहा | सच बात है, बरसों से बंद फ़्लैट की झाड-पोंछ होती रहती थी| गार्ड बेचारे करवाते रहते लेकिन उस उपेक्षित फ़्लैट के लिए न जाने कितने लोग पूछने आते रहते थे| कोई खरीदने तो कोई किराए पर लेने के लिए |
बेचारा लड़का रात भर स्टेशन पर पड़ा रहा | चलो वापिस सही-सलामत आ गया, यह बहुत बड़ी बात है, ईश्वर का धन्यवाद है| मैंने बहुत अधिक चर्चा करना उचित नहीं समझा| जब से दोनों बच्चे थोड़ा भी समझने लगे थे तब से अपने पिता को हमेशा एक क्रूर व्यक्ति की तरह ही देखा था उन्होंने | पिता का प्यार, लाड़-दुलार क्या होता है, वे कभी भी देख तक नहीं सके थे फिर समझने की बात तो बहुत दूर की थी | उस पर हर पल माँ का अपमान ! गलती चाहे किसी की भी क्यों न हो पिटना और गाली खाने का पहला नंबर तो माँ यानि रतनी का ही होता, दूसरा दिव्य का | डॉली को तो किसी तरह बचा लिया जाता था फिर भी नशे की हालत में कभी न कभी हाथ तो उस पर उठ ही जाता था जगन का| यानि पीटना एक नशा हो गया था उसका शराब की तरह ही | शीला दीदी पर वह हाथ नहीं उठा पाता था फिर भी गालियों से नवाज़ना तो जैसे उसका जन्मसिद्ध अधिकार था | कहाँ से पिता के प्रति सम्मान होता बच्चों के मन में ? फिर भी बच्चे बहुत सुधरे हुए थे जो माँ की बात मानकर जगन से बदतमीज़ी करने से दूर चुप रहने की कोशिश करते |
एक बार रतनी ने बताया था कि जब जगन उत्पात मचा रहा था, डॉली बाहर से कुत्ते को मारने का डंडा उठा लाई थी, उस दिन वह बहुत बिफरी हुई थी | अगर शीला दीदी उसे लेकर अपने पास न चली जातीं तो वह शायद अपने पिता के दो-चार ठोक ही देती | बस किसी तरह सबको कंट्रोल में कर रखा था रतनी और शीला दीदी ने कि घर और अधिक न बिखर जाए|