Prem Gali ati Sankari - 31 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 31

Featured Books
Categories
Share

प्रेम गली अति साँकरी - 31

=========

बीहड़ झंझावात से घिरी हुई मैं बिलकुल भी सहज नहीं हो पा रही थी | कोई न कोई ऐसी बात सामने आकर ऐसे खड़ी हो जाती जिसमें मैं घूमती ही रह जाती | कभी लगता जीवन इतना सहज नहीं है ---फिर लगता क्या मेरा ही ? और सब नहीं हैं इस जीवन से जुड़े ? जीवन तो सबके सामने परीक्षा लेकर आता है | मैं दिव्य के लिए बड़ी चिंतित होती जा रही थी | मन उसकी माँ के लिए सोचता रह जाता | क्या इतना बड़ा अपराध किया था रतनी ने जो उसको हर दिन कोई न कोई बड़ी सज़ा मिलती रहे| मैं रतनी को देखकर उससे दिव्य के बारे में बात नहीं कर पाई और वह भी तो बड़ी सहज लग रही थी | ऐसा कैसे हो सकता है कि बच्चा कहीं चला गया हो और वह नॉर्मल रह सके? 

अम्मा की मीटिंग पूरी हो चुकी थी, मैं उनके कमरे के सामने थी | उनके कमरे में बैठे सभी सदस्य एक-एक करके मेरे सामने से होकर निकल रहे थे | मैं बाहर थी अत: सब एक दूसरे के सामने हाथ उठाकर मुस्कुराते हुए हैलो करते हुए वहाँ से जा रहे थे | मैंने भी सबको प्रत्युत्तर में मुस्कान दी| 

सबके बाहर निकलने के बाद मैंने अम्मा के चैंबर में जाने के लिए नॉक किया| 

“आ जाओ बेटा ---देख लिया था तुम्हें --| ” अंदर से कमज़ोर आवाज़ आई | 

“गुड मॉर्निंग अम्मा---”मैंने उनके चैंबर में प्रवेश करते हुए कहा | 

“गुड मॉर्निंग बेटा—कहाँ रहती हो? एक घर में रहते हुए भी ठीक से मिल भी नहीं पाते, यह क्या बात हुई--!!” अम्मा के चेहरे और देह में से जैसे थकान झाँक रही थी | मैं अम्मा के सामने जाकर बैठ गई, उनकी दृष्टि मेरे चेहरे पर जमी हुई थी, न जाने क्या पूछना या कहना चाहती थीं वे? यूँ क्या मैं जानती नहीं थी? 

अम्मा, पापा को देखकर मुझे गिल्ट महसूस होता था| अम्मा-पापा ने कितना बड़ा संसार खड़ा कर लिया था फिर भी वे मुरझाए हुए लगते थे| जो वास्तविकता समझ में आ रही थी वह यह थी कि इंसान के जीवन में कितने ही बड़े बँगले, गाड़ियाँ, ज़ेवरात, पद-प्रतिष्ठा मिल जाएँ जब तक मन शांत नहीं होता वह निरीह बनकर ही रह जाता है| हम सब आमने-सामने बैठकर भी जैसे अजनबी से होने लगे थे | ये कैसी स्थिति थी? मन हुआ माँ से चिपटकर रो लूँ लेकिन ठूंठ सी बैठी रही| कभी-कभी कोई खास बात नहीं होती फिर भी दिल की संकरी गलियाँ जैसे दम घोंटने के लिए तत्पर रहती हैं | इस समय तो मेरे मन की संकरी गलियाँ घिरी हुई थी, अनजानी शंकाओं से!

“तुमने बताया नहीं, प्रमेश जी के बारे में तुम्हारी क्या राय है? ”अम्मा ने मेरे चेहरे पर दृष्टि चिपकाकर पूछा| 

मैं चेहरा नीचे किए बैठी रही, क्या कहूँ ? हद होती जा रही थी, मेरा मन तो दिव्य में अटका था, पता तो चले कहाँ चला गया लड़का? अम्मा से इस बारे में बोलने का, उन्हें बताने का कोई औचित्य नहीं था, वे भी उतनी ही जुड़ी हुई थीं दिव्य से जितने हम जुड़े थे | उन्हें बताना, उसकी चर्चा करना उन पर और तुषारपात करना था | 

“बेटा ! कुछ तो बोलो | तुम इतनी बड़ी हो, मैच्योर हो, छोटी तो रह नहीं गई हो कि तुमसे पूछे बिना कोई निर्णय लिया जा सके, न ही चारपाया हो कि किसी भी खूँटे से बाँध दिया जा सके फिर हमारे परिवार में तो कभी भी किसी ने किसी को बंधन में नहीं रखा है | मेरी तो समझ में नहीं आता तुम अपने जीवन के साथ आखिर करने वाली क्या हो? ” आज पहली बार अम्मा ने मुझसे ऐसे शब्दों में बात की थी | वे शायद---नहीं शायद नहीं, ज़रूर ही थक गईं थीं मुझसे ! कितनी नालायक बेटी हूँ, संस्थान के काम में जुड़ी वो भी ज़बरदस्ती से ही, मेरी तो उसमें भी कोई रुचि कहाँ थी ! समझ ही नहीं आता था जीवन का लक्ष्य ? 

सोच रही थी अम्मा की बात का क्या उत्तर दूँ? दुबारा पूछेंगी? शायद पूछने ही वाली थीं कि बाहर से आती हुई आवाज़ से उनके बोलने के लिए खुले हुए होंठ बंद हो गए| 

“जी, मैं अंदर आ सकता हूँ ? ”अचानक बाहर से शालीन स्वर उभरा| मेरा दिल घड़कने लगा| ये आवाज़ तो प्रमेश की थी, आचार्य प्रमेश की!शैतान का नाम लो, शैतान हाज़िर ! अम्मा का तो चेहरा देखने योग्य था| कितनी खुश हो गईं थीं वे !शायद, सोच रही होंगी कि आज दोनों को सामने बैठाकर बात करेंगी लेकिन मेरी दृष्टि में अगर वो ऐसा करतीं तो ठीक नहीं था | ऐसे सामने बैठकर अचानक कैसे बात हो सकती थी, जब तक अम्मा मेरे से अकेले में न पूछ लेतीं | मेरा माथा ठनक गया बेकार ही | पता नहीं क्या चाहती थी मैं, अम्मा-पापा कितनी बार तो मुझसे बात कर चुके थे | जब मैं ही उनकी बात का उत्तर नहीं दे रही थी तो वे बेचारे क्या करते? 

“आइए प्रमेश जी –” अम्मा ने इतने प्यार व अपनत्व से कहा जैसे वह उनका दामाद ही बन गया हो| 

प्रमेश अंदर आ चुके थे | अम्मा ने मुस्कुराते हुए उन्हें अपने सामने वाली कुर्सी पर बैठने का इशारा किया| वे मेरे बराबर की कुर्सी पर पधार गए | हम दोनों की आँखें मिलीं और हम दोनों ने एक-दूसरे को एक फॉर्मल ‘हैलो’ किया| आज पहली बार हम दोनों इतने पास बैठे थे लेकिन मेरे मन में उनके लिए थोड़ी सी भी कोमल भावना महसूस नहीं हुई | कोमल भावना क्या दिल तक नहीं धडका !आखिर कोई संवेदना तो होती है जो मन में हलचल करके कुछ इशारा तो देती ही है | कैसे सोच लिया अम्मा ने इतने चुप्प, गुमसुम आदमी के साथ मेरा जीवन खुशी से बीत सकेगा? पता नहीं अम्मा–पापा को उनमें ऐसी क्या विशेषता दिखाई देती थी | इतना चुप आदमी ! क्या मेरी ज़िंदगी का हिस्सा बन सकता था? शायद मेरी उम्र की बात थी, आयु की बात थी जो मेरे सामने मुँह फाड़े खड़ी थी | पूरा ज़माना सैटल हो गया एक मैं ही अकेली फाफे मार रही थी| अंदर कसक भी थी साथी की और साथी का चयन भी नहीं कर पा रही थी| सच, अनोखी सी ही महसूस करती रही थी, अपने आपको!

मुझे न जाने क्यों वहाँ बैठे-बैठे एक महिला की याद आई जिन्होंने अपनी काफ़ी बड़ी उम्र में विवाह किया था यानि साठ वर्ष की उम्र के बाद | जिन दिनों मैं विश्वविद्यालय जाती थी, उन दिनों वे वहाँ इतिहास की प्रोफ़ेसर थीं | पुस्तकालय में उनसे अक्सर मुलाकात हो जाती | इतनी प्यारी और हँसमुख थीं वे कि मिनटों में प्यार से सबको अपना बना लेतीं| सब उनसे बात करना, मित्रता करना पसंद करते थे| अभी तक मैंने क्या---सभी देखते-सुनते आए थे कि अकेला इंसान चिड़चिड़ा हो जाता है| वह किसी से दोस्ती नहीं करना चाहता, उसकी नाक पर हमेशा मक्खी बैठी रहती है लेकिन डॉ.सुनीला पाठक में किसी ने ऐसी कोई बात नहीं देखी थी | उनका व्यवहार बहुत सहज, सरल, प्यारा था और वे सबको सहायता करने के लिए सदा तत्पर रहती थीं| 

काफ़ी बाद में पता चला था कि उनका प्रेम किसी विवाहित व्यक्ति से बहुत पहले से था| दरसल, उनका प्रेमी उनका बचपन का मित्र था जिसका विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध कर दिया गया था| विवाह के कुछ वर्षों के बाद ही सुनीला के प्रेमी की पत्नी ऐसी बीमार पड़ीं कि शरीर व मन से उनका कर्तव्य बनकर रह गईं| उनकी माँ तो ज़िद में उनकी शादी करवाकर परलोक सिधार गईं लेकिन उनके सिर पर कर्तव्य का टोकरा रख गईं | वे जब हताश होने लगे तब सुनीला ने ही उन्हें सहारा दिया और उनके साथ खुद भी उनकी पत्नी की सेवा करती रहीं| बहुत अजीब लगता था यह सब सुनकर लेकिन सब कहते थे कि बेशक डॉ.पाठक का विवाह नहीं हुआ था लेकिन क्योंकि वे प्रेम में थीं इसलिए वे सबको प्रेम बाँट सकती थीं| इंसान के पास जो कुछ होता है, वह उसीको बाँटेगा न !बात तो सही थी फिर प्रेम गाली क्यों सुनता था ? उन्हें क्यों गलत समझा जाता था? मैं तो वैसे ही इतनी अजीब थी कि हर बात की तह में जाए बिना रहना मुझे विचलित व असहज कर देता| मैं उनके बहुत करीब हो गई थी और मुझे वे कहीं से भी ऐसी नहीं लगीं थीं जैसे लोगों की फुसफुसाहट की चिंगारियाँ !

डॉ.पाठक की अवकाश प्राप्ति के समय उनके प्रेमी की पत्नी की मृत्यु हुई, उसके भी लगभग साल भर बाद उन्होंने अपने प्रेमी से विवाह किया था| उनकी मित्रता मेरे साथ अम्मा से भी हो गई थी और वे संस्थान के उत्सवों में हमेशा आती थीं | मैं सोचती थी कि ऐसे भी व्यक्तित्व होते हैं जो जीवन की यात्रा में कठिन से कठिन परिस्थिति में भी बड़े सरल ढंग से, सबको प्यार बाँटते हुए चलते रहते हैं| यानि कितने प्रकार के इंसान हैं इस दुनिया में ! वे अपने प्रेमी के साथ हरेक परिस्थिति में खड़ी रहीं और उनकी पत्नी की भी सेवा करती रहीं | जब वे बिलकुल अकेले पड़ गए तब उन दोनों ने विवाह किया| 

उन्हें हमेशा खुश ही देखा सबने !लोग कहाँ किसी को छोड़ते हैं| उनके बारे में खूब बातें बनती थीं लेकिन कैसी आत्मविश्वास से भरी सुदृढ़ महिला थीं डॉ.पाठक ! समाज के नियम कानून अपने परिवार-जनों के और अपने लिए और कुछ होते हैं और दूसरों के लिए और कुछ | वो तो दादी बहुत दृढ़ थीं जिन्होंने दादा जी को भी मजबूत बना दिया था वरना अम्मा-पापा के विवाह में क्या कम बातें उड़ाने की कोशिश करते रहे थे समाज के लोग !

बड़ी अजीब बात थी कि बैठी कहीं होती थी, चर्चा कोई और होती थी और मेरा दिमाग और कहीं कलाबाज़ियाँ खाता रहता था | मैं प्रमेश से बचना चाह रही थी इस समय | वैसे वह बेचारा कहाँ कुछ कह रहा था मुझसे? कहते हैं न कि आँखें बंद करने पर जो चित्र सामने आए वही आपके दिल के करीब होता है | मैंने वहीं बैठे-बैठे अपनी आँखें बंद कर लीं और मेरे शरीर में जैसे अचानक झुरझुरी सी हुई | देखा, मेरी आँखों में उत्पल का चित्र उभर आया था | 

‘ये क्या हो रहा था? ’मन के किसी कोने में एक ओर असहजता थी तो दूसरी ओर तृप्ति भी महसूस हुई मुझे| ये मैं किस दुविधा में थी? उत्पल मेरे भीतर जैसे उतरता जा रहा था | उम्र में कितना अधिक छोटा था वह मुझसे!लेकिन मैं कौनसा उससे विवाह करने वाली थी? मैंने वहीं बैठे-बैठे अपने सिर को एक झटका दिया| फिर ऐसे ख्याल ही क्यों? कभी-कभी उत्पल की याद आते ही मेरा दिल बैठने लगता | वह अधिक कुछ कह न पाता लेकिन उसकी गहरी दृष्टि मानो मेरे भीतर उतरती चली जाती और मैं अनमनी हो जाती | सच बात तो यह थी कि मुझे अपने ऊपर ही गुस्सा आने लगता था | 

“क्या हुआ बेटा? ” अम्मा का स्वर बड़ा कोमल था | क्या प्रभावित कर रही हैं प्रमेश को? पर अम्मा का तो स्वभाव ही था कोमल, फिर मैं क्यों उन पर झल्लाने लगी थी ? प्रमेश तो यूँ ही गुमसुम सा बैठा हुआ था, अपनी शराफ़त को ओढ़े| भले आदमी !जिस लिए आया था, वह बात तो कर लेता | बेकार ही सबका समय खराब हो रहा था| मैं तो जानती नहीं थी, वह किसलिए आया था | बस, अनुमान लगा रही थी | अब अम्मा ही मेरी दृष्टि में खटकने लगीं थीं | बेचारी थकी हुई अम्मा !पता नहीं मुझे उनसे सहानुभूति थी या अपनी असहाय स्थिति पर झुंझलाहट----!!