अमन कुमार त्यागी
रात किसी को बुरी नहीं लगती क्योंकि सभी जानते हैं कि सुबह होनी ही है। सुबह का इंतज़ार रात्रि को मजे़दार बना देता है। लेकिन जिसे पता हो कि अब सुबह कभी नहीं होगी, उसके लिए रात का अँधेरा कितना भयावह हो जाता हैऋ सोच कर ही डर लगता है। किरन अपने दो बच्चों और पति के साथ रात को सोई थी, सुबह के इंतज़ार में। उस अनजान को नहीं पता था, जब काल के क्रूर हाथ बढ़ते हैं तो वो किसी की मजबूरी को नहीं समझते। अभी उन्हें सोए हुए अधिक समय नहीं हुआ था कि अचानक ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़े खटखटाए जाने की आवाज़़ उसके कानों में पड़ी। जब तक वह कुछ समझ पाती तब तक उसके पति सुभाष ने दरवाज़ा खोल दिया। तभी एक गोली चली और सुभाष का लंबा-चैड़ा शरीर किसी कटे पेड़ की भाँति ज़मीन पर आ पड़ा। गोली उसके सीने में लगी थी। जहाँ से अब ख़ून की धार बह निकली थी। पति को गिरता देख किरन की चीख़ निकल गई थी। चीख़ ऐसी थी कि भयानक रात भी कँपकँपा गई। उसकी चीख़ से दोनांे बच्चे भी घबरा कर उठ खड़े हुए। माँ को बिलखता देख बच्चे भी रोने लगे। किरन का तो बुरा हाल था। पति के सीने से बह रहा ख़ून अपने रंग में रंग चुका था। उसने एक बार फिर दरवाज़े की तरफ़ देखा। देखकर सन्न रह गई। दरवाजे़ पर सुनील था। सुनील, उसका छोटा भाई, और सुनील के ठीक पीछे उसके पिता प्रेमनाथ खड़े थे। दोनों के हाथों में पिस्तौल थीं। दोनों के जबड़े भिंचे हुए थे और ऐसे तने खड़े थे जैसे किसी यु( में विजयी होने वाले हों। किरन उन दोनों को देखते ही अवाक रह गई। उसका रोना-चिल्लाना और दहाड़े मारना सब बंद हो गया। भयानक रात्रि की निस्तबधता एक बार फिर चारों ओर फैल गई।
ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे किरन के मुँह को सिल दिया गया हो और कानों में पिघला शीशा उड़ेल दिया गया हो। उसकी आँखें जैसे पथरा गई थीं।
‘मार इन पिल्लों को भी।’ प्रेमनाथ ने बड़े ही भयानक अंदाज़ में कहा और सुनील के हाथ में थमी पिस्तौल एक बार फिर गरज़ उठी। उसने दो फायर किए और दोनों मासूम बच्चों के प्राण उड़ गए।
प्रेमनाथ आगे बढे़। उन्होंने किरन की चुटिया पकड़कर, उसका चेहरा अपनी ओर घुमाया। जबड़ों को एक दूसरे पर रगड़ते हुए गुर्राए- ‘तू हमारी नहीं, तो हम भी तेरे नहीं।’ एक झटके से उसके बालों को छोड़कर उन्होंने दरवाज़ा आगे से बंद किया और चलते बने।
किरन के लिए यह रात सदियों लंबी हो गई थी। उसे अब सुबह का इंतज़ार नहीं था। वो बार-बार यही बड़बड़ा रही थी-‘मुझे ज़िंदा क्यों छोड़ा गया।’ किरन धीरे-धीरे अपने अतीत में डूबती चली गई थी।
प्रेमनाथ गाँव के मुखिया थे और उनका अपने गाँव में बड़ा रोब-दाब था। किरन उनकी बड़ी बेटी थी और सुनील उससे छोटा था। किरन की माँ पार्वती कुशल गृहिणी थीं। प्रेमनाथ किरन को बहुत प्यार करते थे। उसके मन की हर इच्छा को वो एक पल में पूरी करने को तैयार रहते थे। किरन भी अपने पिता को टूटकर चाहती थी। जब तक पिताजी घर न आ जाएं तब तक वो भूखी ही रहती। सुनील तो खैर मस्त था। उसे पढ़ने-लिखने में उतना आनंद नहीं आता जितना कि नौकरों के साथ खेतों में आता था। प्रेमनाथ भी कह देते -‘अरे भई किसी ने खेती भी संभालनी है। किरन तो चली जाएगी ससुराल।’
-‘हाँ, पिताजी, फिर मैं टैªक्टर से जीजी को लेने जाया करूँगा।’ सुनील भी उसे चिढ़ाने के लिए कहता।
प्रेमनाथ किरन की ओर देखते और फिर कहते- ‘बावला है तू, किरन टैªैैक्टर से नहीं कार से आया करेगी। देखना ऐसा ब्याह करूँगा इसका, इलाक़े के लोग देखते रह जाएंगे।’ जवाब में किरन कुछ नहीं कहती चुपचाप अपने काम में लगी रहती।
किरन गाँव के स्कूल से इंटर पास कर चुकी तो आगे की पढ़ाई के लिए उसका दाख़िला शहर के डिग्री काॅलेज में करा दिया। आने-जाने की कोई समस्या नहीं। गाँव से शहर तक बस सेवा थी। बस से उतरकर लगभग सौ कदम ही पैदल चलना होता। किरन लगन के साथ अपनी पढ़ाई कर रही थी। उसी के गाँव का एक लड़का सुभाष भी उसी काॅलेज में पढ़ता था। प्रायः वह भी उसी बस से काॅलेज जाता जिससे किरन जाती थी। एक ही गाँव के होने के कारण धीर-धीरे दोनों में नज़दीकियाँ बढ़ने लगीं। सब कुछ ठीक-ठाक बीत रहा था।
एक दिन गाँव में मुनादी हुई। मुनादी के अनुसार मुखिया जी के दालान पर पंचायत होनी थी। रमेश की लड़की प्रीतम के लड़के के साथ भाग गई थी। जिन्हें गाँव वालों ने शहर के बस अड्डे से पकड़ लिया था। इस घटना से गाँव का माहौल गर्मा गया था।
मुखिया प्रेमनाथ के दालान पर पंचायत हुई। गाँव के सभी लोग एकत्र हुए। पंचायत ने रमेश की लड़की बाला और प्रीतम के लड़के सुनील को एक सौ एक कौड़े मारने की सज़ा सुनाई। दोनों को दो अलग-अलग पेड़ों से बांध दिया गया। अब वातावरण में दोनों की चीख़ें गूंज रही थीं। जबकि गाँव में किसी को भी दया नहीं आई। एक सौ एक कौड़े लगते-लगते दोनों कम से कम पाँच बार बेहोश हुए। उन्हें बार-बार होश में लाया गया और अंत में लड़की से लड़के के हाथ में राखी बंधवाकर, इस हिदायत के साथ कि आगे से वो एक दूसरे से बातें नहीं करेंगे, छोड़ दिया गया। सभी लोग ठट्टे मारते हुए पंचायत बर्खास्तगी के बाद अपने-अपने घरों को चले गए।
-‘इत्ती बड़ी सज़ा ठीक नहीं थी, जी!’ जब मुखिया प्रेमनाथ खाना खाने घर आए तब किरन की माँ ने उनसे कहा।
-‘क्या बात करती है? अरे बावली मेरा बस चलता तो दोनों को टांग देता सूली पे। नालायक कहीं के, ज़रा भी ख़याल नहीं इज्ज़त आबरू का।’ मुखिया प्रेमनाथ मूंछों को ताव देते हुए बोले।
घर में सन्नाटा छा गया, फिर किसी में बोलने की हिम्मत नहीं हुई। मुखिया जी ने खाना खाया और फिर दालान पर चले गए।
इस घटना से किरन को सदमा लगा। किरन इस तरह की पंचायतों और उसके फैसलों से सहमत नहीं थी। किंतु बाप के आगे बोल भी नहीं सकती थी।
अगले दिन जब काॅलेज जा रही थी। तब सुभाष भी उसी बस में चढ़ गया। किरन के पास आते ही उसने कहा-‘कल का फैसला मुझे अच्छा नहीं लगा।’
किरन ने उसे घूर कर देखा। फिर कुछ सोचकर बोली-‘विरोध क्यों नहीं किया।’
-‘शामत बुलानी थी क्या, विरोध करके। जानती हो पंचायत इतना मारती कि पहचान पाना भी मुश्किल होता।’ कहकर वह हँसने लगा।
-‘इसमें खीं-खीं करने की क्या बात है।’ किरन ने गुस्से में कहा और मुँह खिड़की की तरफ़ कर लिया।
-‘विरोध तो तुम भी कर सकती थीं।’ सुभाष ने ताना देते हुए कहा
-‘हाँ, हमें ही विरोध करना पड़ेगा इन पंचायतों का और तुम्हें भी, जानते हो क्यों?’ किरन ने किसी दार्शनिक अंदाज़ में पूछा।
-‘क्यों?’
-‘इस तरह की पंचायत और उसके फैसले से तो हमारा समाज खोखला हो रहा है। विकास की बातें करते करते हम किस गर्त में जा रहे हैं, हमें ख़ुद नहीं पता।’ किरन ने कहते हुए सुभाष की ओर देखा। पुनः बोली-‘क्या हम इन पंचायतों से कानून का उल्लघंन नहीं कर रहे हैं।’
-‘हाँ, वो तो है। पर इनका विरोध करने की हिम्मत किस में है।’
-‘कानून में, हमें कानून का साथ देना चाहिए।’ किरन ने कहा।
-‘वो कैसे?’’
-‘हमें आज ही पुलिस स्टेशन जाकर कल की घटना की सूचना देनी चाहिए।’ किरन ने दृढ़ निश्चय के साथ कहा।
-‘एक बार फिर सोच लो, तुम्हारे पिता ही मुखिया हैं। उनके लिए भी वही फैसला होगा जो एक आम आदमी के लिए होता है।’ सुभाष ने समझाया।
-‘तुम बैठो चूड़ियाँ पहनकर। मैं आज काॅलेज नहीं थाने ही जाऊँगी।’
-‘ठीक है। चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ। यह जानने के बावजूद कि हस्र अच्छा नहीं होगा।’
-‘हस्र की मुझे चिंता नहीं। मैं चाहती हूँ, किसी भी तरह इन ग़ैर कानूनी पंचायतों और इनके कष्टकारी फैसलों पर रोक लगे।’
किरन और सुभाष ने पुलिस स्टेशन पहुँचकर बीते दिन की घटना की ब्यौरेवार जानकारी दे दी। पुलिस तुरंत गाँव पहुँची। रमेश की लड़की और प्रीतम के लड़के को अस्पताल में भर्ती कराया गया, पंचायत के पंचों को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया।
गाँव में ख़बर आग की तरह फैल गई। जिसने भी सुना कि किरन और सुभाष थाने गए थे, उसने किरन और सुभाष के बीच संबंध स्थापित कर दिया। आदमियों से होते हुए यह चर्चा महिलाओं तक पहुँच गई। बहुत सी औरतें मुखिया के घर पहुँची। किरन गुमसुम बैठी थी।
-‘तूने खानदान की नाक कटा दी।’ एक औरत ने कहा।
-‘अब देखेंगे, मुखिया क्या फैसला करेगा?’ दूसरी ने कहा।
-‘अरी, सुभाष से चक्कर था, तो भाग गई होती। गाँव को मुसीबत में डालने की क्या ज़रूरत थी।’ तीसरी ने कहा, तो किरन के सब्र का बांध टूट गया। उसने गुस्से से कहा-‘सुभाष से मेरा नाम जोड़ने की कोशिश मत करना।’
-‘लो जी, लो। दिन भर उसके साथ गुलछर्रे उड़ाती है और अब साफ़-सुथरी बन रही है। चिंता ना कर, तेरा भी फैसला ज़रूर होगा।’ कहते हुए चैथी महिला उठी और उसने अन्य औरतों से कहा-‘चलो री, हमें इस दीवानी के मुँह नहीं लगना। जब कोड़े पड़ेंगे, सब समझ में आ जाएगा।’
किरन की माँ रोकती रह गई किंतु कोई नहीं रूकी, सब चली गईं।
मुखिया और अन्य पंचों को पुलिस ने जेल भेज दिया। इसके बावजूद गाँव के अन्य लोगों ने अगले ही दिन पंचायत बुलाई। किरन और सुभाष को पंचायत के सामने पेश किया गया। पंचायत ने फैसला सुनाया कि दोनों गाँव छोड़कर अन्यत्र कहीं चलें जाएं। किरन और सुभाष ने लाख समझाया कि उनके बीच कोई प्रेम संबंध नहीं है। उन्होंने कसमें भी खाईं और सबके सामने राखी बांधने की बात भी कही। मगर वहाँ सुनने वाला कोई न था। गाँव के लोगों ने धक्के मारकर दोनों को गाँव से बाहर निकाल दिया।
सुभाष की आँखों में आँसू थे। वो कह रहा था-‘मेरी वजह से तुमने बदनामी सही, किरन! काश मैंने तुम्हारा साथ नहीं दिया होता।’ किंतु किरन को कोई पछतावा नहीं था। उसने सुभाष का हाथ कसकर पकड़ा और तेज़ी के साथ बस की ओर चल दी। उसमें गज़ब का आत्मविश्वास था। शहर पहुँचकर दोनों ने मंदिर में ईश्वर को साक्षी मान विवाह किया और जीवन भर के लिए एक साथ रहने लगे।
किरन अतीत से बाहर आई तो उसके चारों ओर भीड़ लगी थी। पुलिस दोनों बच्चों और उसके पति के शवों का निरीक्षण कर रही थी। किरन का मन हुआ कि वह दहाड़े मारकर रोए। मगर फिर सोचा किसके सामने और किसके लिए? उसने अपने दिल को थामा और पुलिस को बयान देने लगी। वह फिर अपने पिता के आॅनर किलिंग वाले दकियानूसी फैसले के ख़िलाफ़ थी। उसने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि अदालत में भी वह निडर होकर बयान देगी।