संसार में प्रत्येक मनुष्य के सामने दो प्रकार की बातें आती हैं—
एक तो सुनीति की और दूसरी सुरुचि की। जो रुचि शुभ नीति का विरोध करती है, वह रुचि कुरुचि है, हम अपनी उदारता से भले ही उसे सुरुचि कहें। सुरुचि के अनुसार चलने पर उत्तम सुखभोग कुछ दिनों के लिये प्राप्त हो सकता है। परंतु ध्रुव अथवा स्थायी लाभ सुनीति के अनुसार चलने से ही होता है। सुनीति सुरुचि की विरोधिनी नहीं है, बल्कि सुनीति के साथ सुरुचि का संयोग हो जाय तो आनन्द की और भी अभिवृद्धि हो जाय। परंतु मनुष्य का मन इतना चञ्चल है, इतना कमजोर है कि वह क्षणिक सुख के लिये रुचि के अधीन हो जाता है और सुन्दर नीति का परित्याग कर देता है। जब नीति की उपेक्षा कर दी गयी, तब ध्रुव लाभ कैसे हो सकता है ! वह तो भगवान् के पास चला ही जायगा। क्योंकि ध्रुवता भगवान्में ही है, रुचि के अनुसार चलने में, सुनीति के विरोध में, असंयम में नहीं।
राजा उत्तानपाद की आँखें तब खुलीं, जब उन्हें मालूम हुआ कि ध्रुव भगवान् की आराधना करने के लिये चला गया। वे व्याकुल हो उठे। सोचने लगे, क्या यह जीवन क्षणिक और उत्तम कहे जानेवाले तुच्छ भोगों के लिये ही है ? क्या मैं ध्रुव अथवा नित्य वस्तु से वञ्चित हो गया ? क्या अब मेरा जीवन ध्रुवहीन हो गया ? मेरी आँखों का ध्रुव तारा, मेरे हृदय का धन मेरा लाड़ला ध्रुव कहाँ है ? क्या वह घोर जंगल में चला गया ? अभी तो उसे नगर से बाहर निकलने का मार्ग भी नहीं मालूम है। उसे कभी
पैदल चलना भी नहीं पड़ा है। क्या खाना चाहिये, क्या नहीं खाना चाहिये; जंगली वस्तुओं की उसे पहचान भी नहीं है ! पाँच वर्ष का नन्हा-सा बच्चा क्या खायेगा, क्या पीयेगा ? कहीं जंगली जानवर उसे खा न जायें ! उसका अनिष्ट न कर दें, राजा का हृदय अनेकों प्रकार की चिन्ताओं से व्याकुल हो गया।
भगवान् के भक्त चारों ओर विचरण किया ही करते हैं। ऐसा एक भी स्थान नहीं जहाँ उनकी दृष्टि न हो। वे देखते रहते हैं, कब कहाँ किसे सहायता की आवश्यकता है ? ध्रुव घर से निकले और उन्हें देवर्षि नारद के दर्शन हो गये। उन्हें उपासना की विधि बता दी गयी। वे उपासना के लिये चले गये। देवर्षि नारद ने सोचा, सुरुचि की आसक्ति के कारण राजा उत्तानपाद ने भरी सभा में ध्रुव की उपेक्षा कर दी। वे सबके सामने सुरुचि की बातों का विरोध नहीं कर सके। इससे क्या होता है। वे स्वायम्भुव मनु के पुत्र हैं। उनकी बुद्धि निर्मल है, उनका हृदय उदार है। उस समय नहीं, परंतु अब उनके हृदय में बड़ी पीड़ा हो रही है; चलकर उन्हें समझाना चाहिये, उन्हें निश्चिन्त करना चाहिये। वे ध्रुव के लिये इतने व्याकुल रहेंगे तो सम्भव है, ध्रुव की तपस्या में भी कुछ उचाट हो जाय। देवर्षि नारद राजा उत्तानपाद के पास आये।
राजा ने आगे जाकर देवर्षि का स्वागत किया। उन्हें ऊँचे आसन पर बैठाकर उनकी विधिपूर्वक पूजा की। परंतु उत्तानपाद से एक शब्द भी बोला नहीं गया। उनकी आँखें नीची थीं, ओंठ सूख रहे थे और वे संकोचसे गड़े जा रहे थे। देवर्षि नारद ने पूछा— “राजन्! कुशल तो है? तुम इतने चिन्तित कैसे, क्यों हो रहे हो। तुम्हारा मुँह क्यों सूख रहा है? क्या तुम्हारी कोई कामना पूर्ण नहीं हो रही है? क्या किसी धर्म के पालन में कोई बाधा पड़ रही है? क्या तुम्हारा अर्थ धर्मके विरुद्ध जा रहा है?”
राजा उत्तानपाद ने कहा— “भगवन्! आप संतों की कृपा से मेरी सभी कामनाएँ पूर्ण हैं। भगवान् की अपार दया है। अर्थ और धर्म का निर्वाह भी हो रहा है; परन्तु एक ऐसा अपराध मुझसे हो गया है, जिसके कारण मैं बहुत ही व्याकुल हो रहा हूँ। देवर्षे! मैं बड़ा नीच हूँ। स्त्रीके अधीन रहने वाला हृदयहीन हैं। अभी मेरा पाँच बरस का बालक जो कि बड़ा ही होनहार, बड़ा ही बुद्धिमान् है, आज मेरे ही कारण कहीं चला गया। उसका कोई दोष नहीं था, मेरी ही दुष्टता थी। वह प्रेमसे, ममता से मेरी गोदमें आना चाहता था, पर मैंने उसका अभिनन्दनतक नहीं किया। वह पैदल चलने से थक गया होगा, उसे भूख लगी होगी, उसका मुँह कुम्हला गया होगा, वह कहीं पेड़ के नीचे जमीनपर ही सो गया होगा। नन्हा-सा बालक है, कहीं किसी जानवर ने उस पर आक्रमण न कर दिया हो। देवर्षे! मेरा कलेजा फटा जा रहा है; मैं अब अपने को सम्हाल नहीं सकता ! मेरी रक्षा कीजिये।'
देवर्षि नारद ने कहा — “राजन् ! शोक मत करो! जो भगवान् के मार्ग में चलता है, उसका अनिष्ट कभी हो ही नहीं सकता। भगवान् उसके रक्षक हैं। जल में, थलमें, वनमें, आकाशमें, सर्वत्र भगवान् उसकी रक्षा करते हैं। तुम्हें अपने बालक के प्रभाव का पता नहीं है। थोड़े ही दिनों में, पाँच-छ: महीनों में ही उसे भगवान् की वह कृपा प्राप्त होगी, जो बहुतों को हजारों वर्षों में प्राप्त नहीं हुई है। उसे वह स्थान प्राप्त होगा जो अब तक किसी को प्राप्त नहीं हुआ है। चिन्ता मत करो, भगवान् पर विश्वास करो। भगवान् परम दयालु हैं। उनके स्वभाव, गुण और लीलाओंका चिन्तन करो। तुम्हारा कल्याण होगा।” देवर्षि नारद ने अपनी वीणा की मीड़ें छेड़ दीं। उनकी सुमधुर स्वरलहरी से सारा राजमहल गूँज उठा। “श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे” की रसमयी ध्वनिने क्षणभरमें ही वहाँका सारा विषाद दूर कर दिया। देवर्षि नारद चले गये और राजा उत्तानपाद ध्रुव के कल्याण के लिये. ध्रुव की प्राप्ति के लिये भगवान् की आराधना करते हुए अपने दिन बिताने लगे। उन्होंने सुरुचि की अधीनता त्याग दी, सुनीति की अधीनता स्वीकार की, सुनीति उनकी सेवा करती, उनकी रक्षा करती और जब वे व्याकुल हो जाते, तब उन्हें समझाती। एक क्षण के लिये भी उन्हें नहीं छोड़ती। सुनीति की गति भगवान् की ओर थी और उसने अपने पतिदेव को भी भगवान् की ओर गतिशील कर दिया। अब भला ध्रुव इन्हें क्यों नहीं मिलेंगे ?
भगवान् का दर्शन कर लेने के पश्चात् उनकी आज्ञा से जब ध्रुव अपनी राजधानी के लिये चले, तब उनका मन प्रसन्न नहीं था। भगवान् को पाकर फिर संसार की ओर जाना पड़े, यह प्रसन्नता की बात कैसे हो सकती है ? यद्यपि ध्रुव को भगवान् की आज्ञा प्राप्त थी और इसीलिये वे जा भी रहे थे, परंतु उनके मन में यह बात बार-बार आती थी कि मेरे ही दोषसे भगवान्ने मुझे इस काम के लिये भेजा है। यदि मेरे मनमें कामना न होती, वासना न होती तो भगवान् मुझे इस ओर कैसे भेजते ? ध्रुव मन-ही-मन कहते जा रहे थे कि “सनक, सनन्दन आदि ऊध्वरेता परमर्षि गण बड़ी कठिन समाधि लगाकर अनेक जन्मों में जिन्हें प्राप्त कर सके, उन्हें केवल छ: महीने में प्राप्त करके मैं उनके चरणों से अलग हो गया, मेरी बुद्धि कितनी दूषित है। देखो तो मुझ अभागे की दुष्टता, संसारसे मुक्त करने वाले के चरणकमलों में जाकर मैंने संसार की कुछ तुच्छ वस्तुएँ प्राप्त कीं। अवश्य असहिष्णु देवताओं ने मेरी बुद्धि दूषित कर दी, नहीं तो मैं इतना दुष्ट कैसे हो जाता ? मैंने देवर्षि नारदको सद्गुरु के रूप में प्राप्त करके भी उनकी वाणी का यथार्थ ग्रहण नहीं कर सका। मैं माया के चंगुल में फँस गया, मेरी दृष्टि भेददर्शिनी हो गयी और भगवान् के अतिरिक्त और कुछ न होने पर भी मैंने दूसरे की सत्ता मानकर ईर्ष्या की तथा मैं दुःखी हुआ। मैंने वैसी ही प्रार्थना की है, वैसी ही वस्तु ली है, जैसे आयु न रहने पर वरदानमें चिकित्सा का वरण किया जाय। भगवान् को प्रसन्न करके संसार से छुटकारा पाना चाहिये और मैंने संसार को ही प्राप्त किया। इससे बढ़कर मेरी मूढ़ता और क्या होगी ?”
ध्रुव यही सब सोचते सोचते अपने नगर के पास आ गये।
ध्रुव का हृदय शुद्ध था। भगवान् के दर्शन के बाद उनकी सम्पूर्ण वासनाएँ नष्ट हो चुकी थीं। वे भगवान् की ही आज्ञा से राज्य के लिये आ रहे थे। तथापि उन्हें अपना ही दोष दीख रहा था, वे अपने को ही कोस रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरणकमलों की धूलि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, वे भगवान् के दास्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहते। यदि उन्हें बिना चाहे और कुछ मिल भी जाय तो वे उसका आदर नहीं करते, उसमें मोहित नहीं होते और उसमें अपना ही दोष देखते हैं। ध्रुव अपने दोष देखते-देखते व्याकुल हो गये, भगवान् का नाम उनके मुँह से निकलने लगा; भगवान् की दिव्यमूर्ति उनके हृदय में आ गयी, मानो वे भगवान् की वाणी सुनने लगे। उनके अन्तस्तल से आवाज आयी— “ध्रुव ! तुम इतने व्यथित क्यों हो रहे हो ? यदि मैं तुम्हें इसी प्रकार रखकर राजा के वेश में ही देखकर और ऋषि-नक्षत्रों के द्वारा सम्मानित पाकर प्रसन्न हो रहा तो तुम्हें इसमें क्या आपत्ति है ? क्या मेरी प्रसन्नता में प्रसन्न होना तुम्हारा धर्म नहीं है? तुम मेरी प्रसन्नतामें प्रसन्न रहो, किसी बात की चिन्ता मत करो !” ध्रुव की सारी चिन्ता दूर हो गयी। वे प्रेम से भगवान् का नाम लेते हुए अपने नगर के पास पहुँचे ही थे कि लोगों ने जाकर महाराज उत्तानपाद को सूचना दी।
पहले तो उत्तानपाद को विश्वास ही नहीं हुआ। उन्होंने सोचा, मुझ नीच के ऐसे भाग्य कहाँ! मुझे ऐसे मङ्गल का अवसर कब प्राप्त हो सकता है, परंतु कुछ ही क्षणों में उन्हें देवर्षि नारद की बात याद आ गयी, वे हर्ष से फूल उठे। पहले-पहल संवाद लाने-वाले को उन्होंने अपने गले से बहुमूल्य हार उतारकर दे दिया। ब्राह्मण, कुलगुरु, मन्त्री और भाई-बन्धुओंके साथ सोनेके रथों पर सवार होकर उन्होंने स्वागत यात्रा की। उनका हृदय पुत्र को देखने के लिये लालायित था। एक क्षण का विलम्ब भी उन्हें असह्य हो रहा था, वे नगर के बाहर पहुँच गये। सुनीति और सुरुचि दोनों ही अलग-अलग पालकियों में सवार होकर उत्तम के साथ ध्रुव की अगवानी करने के लिये गयीं। उस समय सुनीति के हृदय की क्या अवस्था थी, उसके मातृहृदय में कितना उल्लास था, कितनी प्रफुल्लता थी, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उसका शरीर तो पालकी में था, परंतु उसका हृदय पहले ही ध्रुव के पास पहुँचकर अपने प्यारे पुत्र का आलिङ्गन कर रहा था।
नगर के बगीचे के पास पहुँचकर उत्तानपाद ने देखा कि ध्रुव पैदल ही आ रहा है। उसके बाल सिर पर बिखरे हुए हैं, सँभाल न होने के कारण उनका रंग भूरा हो गया है। शरीर दुबला-पतला है, परंतु सारे शरीर से एक अलौकिक ज्योति-एक दिव्य छटा निकल रही है। वे रथ से कूद पड़े और प्रेम-विह्वल होकर ध्रुव के पास पहुँच गये। अभी ध्रुव उनके चरणों का स्पर्श भी नहीं कर पाये थे कि राजा उत्तानपाद ने उनको अपने हृदय से लगा लिया। उनका हृदय उछलने लगा, साँस बढ़ गयी और निष्पाप ध्रुव के स्पर्श से उनकी आत्मा आनन्दमग्न हो गयी। उनकी अश्रुधारा से ध्रुव का सिर भीग गया। कुछ समय के बाद जब सचेत होकर उन्होंने ध्रुव को छोड़ा, तब ध्रुव ने उनके चरणों में सिर रख दिया। उनका आशीर्वाद प्राप्त करके ध्रुव ने अपनी माताओं के चरण छूए और सुरुचि ने उन्हें प्रेम से उठाकर गोद में बैठा लिया। ध्रुव के स्पर्श से उसका सारा दुर्भाव जाता रहा और सच्चे हृदय से उसने ध्रुव को आशीर्वाद दिया। सुनीति की दशा का तो वर्णन ही क्या किया जाय, आँखों से प्रेम के आँसू बह बहकर ध्रुव का अभिषेक करने लगे।
सबने ध्रुव का सम्मान किया। स्वयं भगवान् जिसपर प्रसन्न हैं, उसका सम्मान कौन नहीं करेगा ? सभी उनका अभिनन्दन करने लगे, सभी उनकी प्रशंसा करने लगे, सभी उनके प्रति प्रेम प्रकट करने लगे। राजा ने उत्तम के साथ ध्रुव को सर्वश्रेष्ठ हाथी पर बैठाया और उन्हें लेकर अपने महल की यात्रा की। सारा नगर सजाया गया था। स्थान-स्थान पर लोग भेंट देते थे और पुष्प, चन्दन, दधि, अक्षत से ध्रुव का सत्कार करते थे। आनन्द के बाजे बज रहे थे, स्त्रियाँ मङ्गल गायन गा रही थीं। ब्राह्मण वेदपाठ कर रहे थे और भक्तराज ध्रुव का अभ्युदय देखकर देवता फूलों की वर्षा कर रहे थे।