[ शिवाजी महाराज एवं उनके कॉमरेड्स (मावले) ]
पन्हालगढ़ को कैसे घेरा गया और थर्मोपीली की लड़ाई कैसे लड़ी गई, इन दो घटनाओं पन्हालगढ़ में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले शिवा काशीद के बारे में विचार करेंगे।
पन्हालगढ़ किले पर कठोरतम घेरा डालने के बावजूद शिवाजी महाराज सबकी नजर बचाकर किले से निकल गए हैं और तेजी से पलायन कर रहे हैं, यह सुनते ही सिद्दी जौहर ने उनका पीछा किया और 'शिवाजी' को पकड़ भी लिया, किंतु ठीक से पूछताछ करने पर पता चला कि पकड़ा गया ‘शिवाजी’ शिवाजी है ही नहीं! वह तो कोई और है, जिसने शिवाजी का वेश बना रखा है! क्रोधित सिद्दी जौहर ने उस व्यक्ति को भाले से मारकर जंगल में जला दिया।
उसी का नाम था शिवा काशीद वह एक नाई था।
शिवा काशीद की सत्य कथा सुनते ही और भी अनेक वीरों के शौर्य एवं बलिदान की सत्य कथाएँ याद आ जाती हैं, जिनका क्रमानुसार वर्णन 'शिव चरित्र' में दिया गया है। शिव छत्रपति ने मराठा स्वराज्य की स्थापना का अभिनव प्रारंभ किया था। ‘मराठा स्वराज्य’ को ‘हिंद स्वराज्य’ भी कहा जाने लगा था। इस आंदोलन से बाजी प्रभु, तानाजी मालुसरे, मुरारजी देशपांडे एवं उनके जैसे अनेक सामान्य व्यक्ति शिवाजी महाराज से प्रभावित होकर उनके साथ आ मिले थे। स्वराज्य प्रेम के वशीभूत होकर उन्होंने बड़ी खुशी से युद्ध लड़े थे और अपने प्राण न्योछावर किए थे। ‘शिव चरित्र’ में ऐसे अनेक उदाहरण दिए गए हैं। देश की खातिर हुतात्मा हो जाने की उमंग के कारण अनेक सामान्य परिवारों के सामान्य व्यक्ति असामान्य हो गए थे।
शिवा काशीद एक सामान्य नाई था, जो पन्हालगढ़ के नीचे रहता था। शिवाजी महाराज के लिए उसने अपने प्राणों की आहुति दी और वह असामान्य व्यक्ति बन गया।
ये सब ऐसे उदाहरण हैं, जो शिवशाही से जुड़े हुए हैं और जिनसे शिवाजी महाराज के व्यक्तित्व एवं कार्य-शैली के महत्त्वपूर्ण पहलू दिखाई देते हैं। महाराज ने 10 नवंबर 1659 के दिन अफजल खान का वध प्रतापगढ़ के नीचे किया था। इसके सिर्फ 18 दिनों के भीतर उन्होंने पन्हालगढ़ पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि सिर्फ 18 दिनों में हिंद स्वराज्य की सरहद जावली प्रतापगढ़ से आगे बढ़कर पन्हालगढ़ - कोल्हापुर तक पहुँच गई।
इस समय तक, यानी नवंबर 1659 तक, इन प्रदेशों में शिवाजी महाराज का अपनी प्रजा के साथ प्रत्यक्ष संबंध स्थापित नहीं हुआ था। ऐसा प्रत्यक्ष संबंध पन्हाला-विशालगढ़ को जीत लेने और उन्हें हिंद स्वराज्य में शामिल कर लेने के बाद स्थापित हुआ। शिवा काशीद की घटना जुलाई 1660 में घटित हुई थी, यानी केवल छह-आठ महीनों के छोटे से अंतराल में शिवाजी महाराज ने पन्हाल के मावलों पर अपना जादू चला दिया था। भला यह कौन सा जादू था कि एक सामान्य से सामान्य नाई शिवा काशीद, जो अपने समय में कदापि कोई क्रांतिकारी वीर नहीं था, मुसकराता हुआ शहीद हो गया? वह कोई जाना-माना देशभक्त नहीं था, जिसने अपने प्राणों की बाजी लगा दी हो। वह एक सामान्य नाई था; शिवाजी महाराज के पन्हालगढ़ जीतने के बाद उनकी सेवा में गया हुआ एक नौकर फिर भी वह हँसता हुआ महाराज के लिए मरने को तैयार हो गया। यह कोई साधारण घटना नहीं है। यह घटना हमें विचार करने के लिए बाध्य करती है।
शिवाजी महाराज के व्यक्तित्व को हमें इतना प्रभावशाली मानना ही होगा कि महाराष्ट्र के एक-एक घर से कोई-न-कोई व्यक्ति अपना सिर हथेली पर रखकर महाराज के लिए प्राण त्यागने को तैयार हो गया। सुप्रसिद्ध शिवचरित्रकार सेतुमाधव पगड़ी का एक कथन यहाँ सहसा याद आ जाता है। उन्होंने कहा है— “जहाँ शिवाजी महाराज के पसीने की बूँदें गिरी, वहाँ लोगों ने अपना खून बहाया।” शिवा काशीद ऐसा ही महाराज के लिए खून बहाने वाला बहादुर था।
किंतु ऐसी घटनाओं के लिए महाराज के अप्रतिम व्यक्तित्व के साथ-साथ उद्देश्य प्राप्त करने की उनके मन की लालसा भी थी। श्रेष्ठतम उद्देश्य के साथ जूझने के कारण ही महाराज का कार्य उतना विलक्षण, भव्य और दिव्य महसूस हुआ। महाराष्ट्र के मावलों को वैचारिक स्तर पर संगठित करके उन्हें स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रेरित करना एवं इसके लिए स्वराज्य की अवधारणा का प्रयोग करना; ऐसा शिवाजी महाराज ने ही पहली बार किया।
महाराष्ट्र के वीरों और विचारकों ने ऐसा अनुभव पहले कभी नहीं लिया था। स्वराज्य के इस प्रयोग का शुभारंभ पूना के राजगढ़ से हुआ। वहाँ से वह सिंहगढ़ पहुँचा। बाद में यह प्रयोग जावली प्रांत के प्रतापगढ़ तक पहुँचा और फिर समूचे रायगढ़ प्रांत में फैल गया।
स्वराज्य की यह वार्त्ता महाराष्ट्र के कोने-कोने तक पहुँचने लगी। समग्र मराठा समाज एक नई आकांक्षा व उमंग से भर उठा। स्वतंत्रता प्राप्ति के इस अभिनव प्रयोग में मराठा समाज महाराज के साथ एकजुट होकर कार्य करना चाहता था।
शिवा काशीद ने पन्हाला जीतने से पहले महाराज को देखा भी नहीं था। पन्हाला जीतने से पहले ही शिवाजी महाराज ने मावलों के मन जीत लिये थे। महाराज कितना ऊँचा ध्येय सामने रखकर संघर्ष कर रहे थे, ध्येय-प्राप्ति के लिए उनके द्वारा किए गए पराक्रम क्या-क्या थे। इत्यादि चर्चाओं से शिवा काशीद प्रभावित ही नहीं, अभिभूत हो गया था। उसके मन-मस्तिष्क पर शिवाजी महाराज की अद्भुत प्रतिमा बिंबित हुई थी।
तब तक शिवाजी स्वराज्य प्राप्ति के खेल के 4 बड़े दाँव खेल चुके थे और विजयी भी हुए थे। इसका सुंदर परिणाम यह हुआ कि शिवाजी को छोटी-छोटी जगहों से अनेक शिवा काशीद मिलने लगे। उन्होंने अपने बलिदान से प्रतिपदा से बढ़ती चंद्र कलाओं की तरह स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त किया।
शिवा काशीद का बलिदान केवल एक स्वामिभक्त सेवक का बलिदान नहीं था, वह तो एक सामान्य में से असामान्य बन चुके व्यक्ति का बलिदान था; एक भव्य स्वप्न की पूर्ति के लिए दिया गया बलिदान था। आत्म-समर्पण का इससे प्रखर स्वरूप भला
क्या हो सकता है! शिवा काशीद की सत्य-कथा 'शिव-चरित्र' में दी हुई है। यह केवल ऐतिहासिक कथा नहीं है। यह तो शिव छत्रपति की कार्यशैली को उजागर करने वाली, उनके यश प्राप्ति के रहस्य को दरशाने वाली घटना है।
ये आत्म-बलिदानी व्यक्ति बुद्धिमत्ता में एक जैसे थे, ऐसा नहीं कहा जा सकता। आम आदमी की तरह इनकी भी महत्त्वाकांक्षाएँ, स्वार्थ, हर्ष, दुःख आदि अलग-अलग थे। इन्हीं के दिलो-दिमाग में शिवाजी ने एक अद्भुत समानता पैदा की। ये सब के सब, समान रूप से, एक बात में यकीन रखते थे और वह थी स्वराज्य की भलाई। शिवाजी को भी एहसास था कि ये सभी एक ही दृष्टि से विचार करते थे। स्वराज्य के कार्य को सब अपना ही कार्य समझते थे, जिसके लाभ-हानि में सब बराबरी के हिस्सेदार थे। सब चाहते थे, राज्य सुचारु ढंग से संचालित हो। इसी में अपनी भलाई है। धर्म-मोक्ष भी इसी में है। इसके लिए हम कोई भी कीमत देने को तैयार हैं, यहाँ तक कि प्राणों की परवाह भी हमें नहीं है।
इसी भावना से वे सब अपने स्वराज्य के लिए कर्तव्यों का पालन करते रहे। इसीलिए शिवाजी के राज्य का उत्थान हुआ। स्वराज्य की स्थापना करने का उनका सपना पूरा हुआ। उद्देश्य भी पूरा हुआ। इससे अधिक सार्थक कार्य मनुष्य और क्या कर सकता है?
पहले राजपूतों की परंपरा थी कि वे यवनों के विरुद्ध पूरे साहस के साथ लड़ते थे। कभी यवन अधिक शक्तिशाली होते, तो राजपूत पीछे नहीं हटते, बल्कि लड़ते-लड़ते अपने प्राण न्योछावर कर देते। शिवाजी महाराज ने इस नीति में परिवर्तन किया। उन्होंने अपने मावलों से कहा कि साहस से लड़ो, किंतु यदि पराजय हो रही हो, तो पीछे हटकर जीवित रहो, ताकि फिर से लड़ने के लिए तैयार हो सको।
शिवाजी के गुप्तचर विभाग का प्रमुख था बहिर्जी नाईक वह रामाशी जाति का था। खेती से ही गुजारा करनेवाले कुनबी लोगों को शिवाजी ने अपने साथ लिया, ताकि स्वराज्य स्थापित हो सके। ये कुनबी लोग परंपरा से ही शूद्र माने जाते थे।
अलग-अलग धार्मिक विश्वासों और परंपराओं के लोगों के साथ समूह बनाकर अपना उद्देश्य पूरा करने के कुछ उदाहरण और भी मिल सकते हैं इतिहास में, किंतु जो बात शिवाजी महाराज के संयोजन में थी, उसका कोई जवाब नहीं था।
सभासदों ने अपने दस्तावेजों में दर्ज किया है कि बेरड़, रामोशी, आडेकरी इत्यादि जातियों के लोगों को उनकी योग्यतानुसार नौकरियाँ दी गईं। ये जातियाँ अपराधी जातियों की श्रेणी में आती हैं। इन्हीं को जब नौकरियों पर रख लिया गया, तो राज्य में अपराध या उपद्रव आदि होने बंद हो गए। अपराधियों ने अपराध या उपद्रव करना ही छोड़ दिया! शिवाजी महाराज ने उनकी नकारात्मक ऊर्जा को भी सकारात्मक में बदलकर हिंद स्वराज्य को शानदार मजबूती दी।
यही नीति शिवाजी ने अपनी जलसेना के निर्माण के समय भी अपनाई। जलसेना में क्षत्रियों और मराठों को ही नियुक्त करने की परंपरा थी, किंतु महाराज ने अपनी जलसेना में मछुआरे मुसलमानों को ही ज्यादा नियुक्त किया। मुसलमान तो महाराज के कट्टर शत्रु बने हुए थे। लेकिन उन्हीं मुसलमानों को महाराज ने अपनी जलसेना के सर्वश्रेष्ठ पदों पर नियुक्त किया। इसी तरह कोली, सोनकोली, भंडारी इत्यादि जातियों को भी शानदार नियुक्तियाँ दीं। जो लोग समुद्र की सहायता से जीवनयापन करते थे, उन्हीं को शिवाजी ने अपने सैनिकों में तब्दील कर दिया !
पहले शिवाजी ने साधारण लोगों को असाधारण बनाया। फिर इन्हीं साधारण लोगों ने शिवाजी को असाधारण बनाया, महान् बनाया। इन सभी ने शिवाजी के साथ मिलकर देश के लिए बड़े-बड़े काम किए।
साधारण लोग भी जब ऊँचे विचारों को आत्मसात् कर लेते हैं, तब वे विचार एक शक्ति के रूप में उभरकर आते हैं। यह शक्ति साधारण लोगों से भी असाधारण कार्य करवा लेती है। इतिहास साक्षी है कि साधारण लोगों के सहयोग के बिना असाधारण कार्य संपन्न नहीं होते।
उच्च वर्ग के लोग साधन-संपन्न होते हैं एवं सुरक्षित जीवन जीते हैं। इस कारण वे जैसा चल रहा है, वैसा ही चलने देते हैं। किसी परिवर्तन की जरूरत उन्हें एकाएक महसूस नहीं होती, लेकिन जो सर्वहारा लोग होते हैं, जिनके पास कुछ भी ठोस होता ही नहीं, वे परिवर्तन की माँग करते हैं। शिवाजी ने उन्हीं को संगठित किया, उन्हीं को होशियार बनाया, बड़ा बनाया। उन्हें अत्याचारों से मुक्ति दिलाई। अटल सत्य है कि जो अत्याचार सहते हैं, केवल वे ही जानते हैं कि अत्याचार क्या है इसलिए केवल वे ही
अत्याचार को रोकते हैं। जो स्वयं ही अत्याचारी हैं या अत्याचारियों के संगी-साथी हैं, वे भला कैसे अत्याचारों को रोक सकते हैं?
औरंगजेब ने शिवाजी को जब आगरा में कैद कर लिया था, तब कैद से छूटने का मार्ग शिवाजी को सहसा सूझ नहीं रहा था। आखिर उन्होंने अक्ल से काम लिया। एक योजना बनाई और निकल भागे। पहरेदारों को आभास हुआ ही नहीं कि शिवाजी निकल गए हैं, क्योंकि उन्होंने जो योजना बनाई थी, उसके अनुसार, जहाँ वे सोया करते थे, वहाँ किसी अन्य को ‘शिवाजी’ बनाकर सुला दिया गया था ! एक व्यक्ति इस ‘शिवाजी’ के बाकायदा पाँव दबा रहा था ! पलायन करने में कोई बाधा न आए और इस चमत्कार को बेपरदा होने में जितनी देरी लगे, उतना ही अच्छा; इस मकसद से ऐसी व्यवस्था की गई थी। जितनी देरी लगेगी, शिवाजी महाराज को वहाँ से दूर निकल जाने का उतना ही अवसर मिलेगा।
दूसरी ओर यह भी निश्चित था कि महाराज के पलायन की बात ज्यादा देर तक छिपने वाली भी नहीं थी। महाराज के अनेक साथी आगरा में छोड़ दिए गए थे। अगर सब के सब भाग जाते, तो बात जल्दी खुल जाती शिवाजी महाराज के अंतरंग साथियों को मौजूद देखकर पहरेदार तसल्ली से ही पहरा दे रहे थे। महाराज के उन अंतरंग साथियों में शामिल थे कुछ मदारी, कुछ मेहतर और कुछ इसी तरह के लोग, जिन्हें महाराज ने श्रेष्ठ पदों पर नियुक्त कर रखा था। उन्हें अच्छी तरह एहसास था कि अब वे मौत के मुँह में जाने के लिए ही जिंदा हैं। उनका भविष्य क्या है, न तो उन्हें पता था और न कोई परवाह थी!
समझना होगा कि वे सब बेमौत मरने के लिए क्यों तैयार हुए। इसका उत्तर यही है कि वे सिर से पाँव तक समर्पण की भावना से सराबोर थे। उनके दिल में एक ही तमन्ना थी कि उनके महाराज ने जो कार्य प्रारंभ किया है, वह अवश्य पूर्ण होना चाहिए और स्थिर भी रहना चाहिए। “हम मर भी गए, तो क्या है। हमारे महाराज को कुछ न हो। स्वराज्य पाने का हमारा संघर्ष बाधित न हो।” यही भावना थी सबके मन में।
शिवाजी के लिए मर मिटने को तैयार वे लोग निहायत मामूली तबके के थे। वे शिवाजी के जीने की कामना कर रहे थे, खुद अपना जीवन दाँव पर लगाकर यह भावावेश किसी चमत्कार से कम नहीं था। ऐसा चमत्कार शिवाजी ही कर सकते थे। अन्य राजाओं-महाराजाओं के लिए यह संभव नहीं था। बिलाशक अन्य शासकों के लिए भी सैनिक लड़ते थे, अपने प्राण भी न्योछावर करते थे, किंतु वे बहादुरी दिखा कर जागीर या इनाम- इकराम हासिल करने के लिए लड़ते थे, न कि कोई उदात्त कार्य करने के लिए।
शिवाजी के किसी भी कार्य के लिए उनके सैनिक तो अपना सर्वस्व न्योछावर करते ही थे, स्वराज्य की सर्व साधारण प्रजा भी अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक सहयोग देती थी। सामान्य प्रजा जब राजा के कार्य में मन से सहयोग देती है, तब वह राजा, वह राज्य, वह कार्य और वह प्रजा, सब यशस्वी होते हैं।
स्वराज्य के प्रति आम जनता के मन में छिपी स्नेह सहयोग की भावना का एक ऐतिहासिक प्रसंग है, जिसे राष्ट्र- चेतना कवि श्री बा. भा. पाठक ने सीधी-सरल भाषा में प्रस्तुत किया है। कविता का ध्रुपद इस प्रकार है—
“खबरदार ! जो आगे बढ़े ! अगर तुम्हारे घोड़े उधर गए, तो मैं तुम्हारे राई जितने टुकड़े कर दूँगा !”
ये शब्द दस-बारह साल के एक बच्चे के हैं। उसने चार घुड़सवार सैनिकों को ललकारा है, जो हथियारबंद हैं। बच्चे के पास कोई हथियार नहीं हैं।
प्रसंग कुछ इस प्रकार है कि चारों तरफ आशंका और चौकसी का माहौल है। पहरा दे रहे सैनिक तो सावधान हैं ही, एक सादा किसान भी सावधान है। सब चौकन्नी नजरों से देख रहे हैं कि किसके सैनिक किधर जा रहे हैं। स्वराज्य प्राप्ति के लिए हमें सबकुछ लुटा देने को तैयार रहना है। स्वराज्य के कार्य में धोखा देनेवाला अगर कोई पहचाना जाता है, तो उसे टोकना और रोकना जरूर चाहिए। यह हमारा कर्तव्य है।
चार घुड़सवार बाँध पर से जाना चाहते हैं। किसान का दस-बारह साल का छोटा बेटा दृढता से उन्हें रोकता है। सामने के घुड़सवार को ललकारकर कहता है कि खबरदार ! जो आगे बढ़े ! टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा! कौन हो तुम, कहाँ जा रहे हो ?
उस छोटे बच्चे को हथियारबंद घुड़सवार सैनिकों को रोकने की सूझी कैसे? इतनी हिम्मत वह कैसे कर पाया, डरा क्यों नहीं? क्योंकि वह जानता था, शिवाजी के पक्ष में गुप्तचरी करना उसका भी कार्य है !
जैसा कि कवि ने आगे कहा है; सामने चल रहा वह घुड़सवार सैनिक शिवाजी स्वयं थे। उस बच्चे ने शिवाजी को कभी देखा नहीं था। न उन्हें जानता ही था। फिर भी वह शिवाजी के कार्य में मदद कर रहा था! सिर्फ इतना समझता था कि महाराज को मदद करनी है, चाहे इसमें कितना ही जोखिम हो !
शिवाजी के प्रति प्रजा के मन में सम्मोहन की ऐसी पराकाष्ठा थी। अपने शासनकाल में शिवाजी सभी सहयोगियों, सैनिकों तथा प्रजा में राज्य के प्रति इतनी निष्ठा स्थापित कर सके, इसी में उनकी तीव्र क्षमता एवं विशेषता छिपी हुई है।
असाधारण पराक्रमों एवं कार्यों की कथाएँ सिद्दियों की लड़ाइयों से जुड़ी होती हैं, क्योंकि सिद्दी अत्यंत स्वामीभक्त थे और जान हथेली पर रखकर लड़ते थे, किंतु वे जागीरों के लालच में लड़ते थे। जो दुनियावी लालच से संचालित होकर लड़ते हैं और अपनी जान भी दे देते हैं, उनके जीने-मरने का हिसाब इतिहास नहीं रखता।
बिना प्रलोभन के लड़नेवालों की श्रेणी ही अलग होती है। कुछ लोग लड़ाई में पराक्रम करके कुछ हासिल करना चाहते हैं, किंतु जो बिना किसी प्रलोभन के जानबूझकर मौत को गले लगाते हैं, वे अलग ही होते हैं।
राज्याभिषेक के बाद शिवाजी महाराज ने निर्णय लिया कि स्वराज्य की सीमा कावेरी नदी के उस पार तक ले जानी जरूरी है। महाराज ने दक्षिण दिग्विजय का कार्य हाथ में लिया और पहला मोरचा गोलकुंडा की राजधानी भागानगरी की ओर बढ़ाया। महाराज की तलवार की धार क्या होती है, इसका अनुभव मुगलों और आदिलशाही दोनों को था, लेकिन कुतुबशाह मराठों की तलवार का सम्मान नहीं करना चाहता था। फिर भी कुतुबशाह ने शिवाजी महाराज से समझौता किया एवं मित्रता भी की। महाराज ने उसका शाही स्वागत करके बड़ा सत्कार किया।
महाराज के साथ रहनेवाले मावले सैनिक छरहरे बदन के हुआ करते थे। मोटे-ताजे, ऊँचे-पूरे और भारी वजन के मावले शायद ही कभी देखने को मिला करते। उन दुबले-पतले मावलों को देखकर कुतुबशाह के मन में संदेह उत्पन्न हुआ कि क्या यही हैं वे सैनिक, जिनके पराक्रमों की इतनी चर्चा है !
सीधा-सीधा ऐसा प्रश्न पूछना उचित नहीं रहता, इसलिए कुतुबशाह ने इस विषय को प्रकारांतर से छेड़ा।
उसने शिवाजी से कहा— “महाराज! आपके मावलों के बारे में बहुत सुना है, किंतु प्रत्यक्ष नहीं देखा। अब तो आपसे मित्रता हो चुकी है। युद्धभूमि में उनके पराक्रम देखने का अवसर अब नहीं आएगा। आज इस मैदान में यदि प्रत्यक्ष पराक्रम देखने को मिले, तो भागानगरी के बाशिंदों को यकीन हो जाए कि मावले वाकई लाजवाब होते हैं।”
कुतुबशाह क्या कहना चाहता है, महाराज समझ गए। बोले, “हमारे मावले जितना आपने सुना होगा, उससे कहीं ज्यादा पराक्रमी हैं। आप परीक्षा ले ही लीजिए, ताकि आपको और आपकी प्रजा को दोनों को यकीन हो जाए। आप स्वयं ही किसी मावले को चुनिए और अपने शक्तिशाली हाथी से लड़ाकर देखिए।”
कुतुबशाह ने सभी मावलों पर उपहास की दृष्टि डाली। जानबूझकर उसने सबसे दुर्बल दिखाई देते एक मावले को चुना। महाराज के मावलों की परीक्षा लेने वाला कुतुबशाह मावलों के पराक्रम को आह्वान दे रहा था। वह मावलों की शक्ति, युक्ति एवं रणकुशलता का परिचय पाना चाहता था।
कुतुबशाह ने उस मावले की तरफ इशारा करके महाराज से पूछा, “क्या यह मावला हाथी से टक्कर ले सकेगा ?”
उस मावले का नाम था येसाजी कंक। उसने सामने आकर महाराज को मुजरा किया। फिर वह मैदान में सामने जाकर खड़ा हो गया।
कुतुबशाह ने एक बलवान गुस्सैल हाथी को खूब शराब पिलाकर मैदान में खड़ा किया। इशारा मिलते ही महावत ने उसी हाथी को येसाजी पर छोड़ दिया। अपनी ओर हाथी को झपटते देखकर येसाजी ने भागने का नाटक किया। लोगों को लगा, येसाजी हाथी से डरकर भाग रहा है, लेकिन येसाजी ने अचानक दिशा बदली और बाजू में हटकर हाथी को उलझन में डाल दिया। हाथी ने भी दिशा बदलनी चाही, ताकि येसाजी को अपनी सूँड़ में दबोच सके, लेकिन जिस स्फूर्ति से येसाजी ने अपनी दिशा बदली थी, उतनी स्फूर्ति से हाथी अपनी दिशा न बदल सका। भारी-भरकम होने के कारण सीधी लकीर में तो तेजी से भाग सकता है, लेकिन बार-बार आड़ा- टेढ़ा भागना पड़ जाए, तो चकरा जाता है।
चुटकियों में नजारा बदल गया। तेजी से झपट रहा हाथी अपनी गति नियंत्रित न रख सका। वह सामने ही बढ़ता चला और फिर रुक गया। तब तक तो येसाजी लपककर उसके पीछे पहुँच चुका था। हाथी गोल घूमकर उसके सामने आए, इससे पहले ही येसाजी ने उसकी पूँछ कसकर पकड़ ली। पूँछ उसने इतने जोर से पकड़ी कि टूट जाए, तो टूट जाए, मगर छूटे नहीं !
येसाजी के हाथ से पूँछ छुड़ाने के लिए एवं उसे अपने पैरों तले कुचल देने के लिए हाथी बेचैन हो गया। वह अपनी जगह पर ही गोल-गोल घूमने लगा, ताकि येसाजी के आमने-सामने आ सके, लेकिन येसाजी बराबर उसके पीछे की तरफ बना रहा और उसकी पूँछ को जोर-जोर से खींचता और झटके देता रहा। पूँछ को छोड़ देने का तो सवाल ही नहीं था।
बिलाशक हाथी जंगल का सबसे ताकतवर और भारी-भरकम जानवर है, लेकिन उसकी मशहूर कमजोरी है कि वह शीघ्रता से गोल घूमकर पीछे नहीं देख सकता।
उसकी गरदन भी इतनी मोटी होती है कि पीछे देखने के लिए मोड़ी ही न जा सके। दूसरी आश्चर्यजनक बात यह है कि वह पीछे से लात भी नहीं मार सकता या पैर भी नहीं उठा सकता। गनीमी कावा के पैंतरों में कुशल शिवाजी के मावले सैनिक हाथी की हर कमजोरी को पहचानते थे और उसका लाभ भी उठाते थे।
घंटे भर तक हाथी एक ही जगह खड़ा, गोल-गोल घूमता रह गया। सूँड़ उठा-उठाकर, सूँड़ के सपाटे मार-मारकर उसकी साँस फूल गई । वह इतना थक गया कि ऐसा लगा; बस अब बैठ ही जाएगा।
येसाजी को इसी का इंतजार था। उसने हाथी की पूँछ छोड़ दी । तलवार निकालकर येसाजी आगे बढ़ा। वह हाथी के आमने-सामने आ गया। उसे देखते ही हाथी क्रोध के मारे आगबबूला होकर चिंघाड़ने लगा, मगर थकान इतनी ज्यादा थी कि वह येसाजी पर ठीक से झपट ही न सका।
येसाजी ने तलवार के एक ही वार से हाथी की उठी हुई सूँड़ के दो टुकड़े कर दिए। हाथी पहले तो तिलमिलाया, फिर घबराया, फिर डर गया और एकदम पस्त होकर जमीन पर लुढ़क गया। कुछ समय में ही वह मर गया।
भविष्य में कुतुबशाह ने मराठों के साथ किए समझौते को तोड़ने की हिम्मत कभी नहीं की।
संदर्भ—
1. शिवछत्रपति एक मागोवा/ डॉ. जयसिंह पवार
2. शिवाजी कोण होता? / गोविंद पानसरे
3. शिवराय / प्रा. नामदेवराव जाधव
4. शिवछत्रपति संकल्पित शिवचरित्र ची प्रस्तावना (आराखडा व साधने ) / त्र्यंबक शंकर शेजवलकर
5. Shivaji : The Great Maratha/H.S. Sardesai