[ शिवाजी महाराज एवं उनके पुत्र ]शिवाजी महाराज के दो पुत्र थे। पहली पत्नी सईबाई का पुत्र संभाजी (जन्म 14 मई, 1656) और तीसरी पत्नी सोयराबाई का पुत्र राजाराम (जन्म 14 फरवरी, 1670 )। राज्याभिषेक के अवसर पर शिवाजी ने सोयराबाई को रानी का पद दिया था। संभाजी को भी इसी दिन युवराज का पद दिया गया और उन्हें सिंहासन की निचली सीढ़ी पर मुख्य प्रधान मोरोपंत के साथ बिठाया गया था। दस्तावेजों में जो चश्मदीद बयान दर्ज हुए हैं, वे यही कहते हैं।
संभाजी को शिवाजी ने सन् 1671 से राज-काज में शामिल किया था। अंग्रेज वकील थॉमस निकॉलस पहली बार, शिवाजी की अनुपस्थिति में सन् 1673 में, रायगढ़ में संभाजी से मिला था। तब संभाजी का परिचय शिवाजी के उत्तराधिकारी के रूप में दिया गया था। इससे पहले भी, जब जयसिंह ने आक्रमण किया था, संभाजी का यही परिचय प्रचारित था। आगरा में शिवाजी जब बादशाह औरंगजेब के दरबार में हाजिर हुए और उसके बाद, औरंगाबाद (वर्तमान संभाजी नगर) में, जब शहजादा मुअज्जम से रू-ब-रू हुए, तब भी उन्होंने संभाजी के साथ अपने उत्तराधिकारी जैसा ही व्यवहार किया था। इन सबसे यही सिद्ध होता है कि शिवाजी महाराज संभाजी को युवराज बनाने का अंतिम निर्णय ले चुके थे। राज्याभिषेक के समय संभाजी 17 वर्ष के थे।
(1)..कुछ इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि संभाजी स्त्रियों के प्रति आसक्त दिखाई पड़ते थे; साथ ही वे राज-काज में अनावश्यक हस्तक्षेप भी करते थे। हमेशा अंदेशा बना रहता था कि पंत प्रधान एवं संभाजी में विवाद हो जाएगा। इसे टालने के लिए शिवाजी ने रायगढ़ से कूच करते समय संभाजी को अपने साथ ले लिया। शिवाजी कर्नाटक पर स्वयं आक्रमण करना चाहते थे। आंबेघाट से पन्हालगढ़ की चढ़ाई पर आने से पहले वे शृंगारपुर में रुके। यहाँ उन्होंने शृंगारपुर के सूबेदार के पद पर संभाजी को नियुक्त कर दिया। इसका उद्देश्य यही था कि उनके पीछे रायगढ़ में शांति रहे एवं संभाजी को स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अवसर मिले। बहुत आवश्यक था कि संभाजी को किसी-न-किसी कार्य में व्यस्त रखा जाए।
इससे यही आभास मिलता है कि शायद शिवाजी स्वयं नहीं चाहते थे कि उनके अष्टप्रधान मंडल पर संभाजी का अधिकार हो। संभाजी पर शिवाजी अधिक विश्वास नहीं रख सकते थे; इसका कारण घरेलू भी हो सकता था। सोयराबाई और संभाजी की आपस में निभती नहीं थी।
शिवाजी के तीन प्रमुख ब्राह्मण प्रधान थे; मोरोपंत, अनाजी दत्तो व दत्ताजी त्रिंबक। तीनों विशाल प्रदेशों के अनुभवी राज्यकर्ता थे। तीनों केवल सलाहकार नहीं, बल्कि वीर सेनापति भी थे। उन्हें अकसर राज-काज छोड़कर युद्ध करने निकलना पड़ता था। वापस आने में लंबा समय गुजर जाता था। इस कारण शिवाजी ने अपनी अनुपस्थिति में रायगढ़ को सँभालने के लिए साहूजी सोमनाथ को नियुक्त किया। साहूजी सोमनाथ हर छोटे या बड़े राज-काज को निबटाने में निपुण थे। राज-प्रतिनिधि के रूप में वे सचमुच अच्छी सेवाएँ दे सकते थे। सोयराबाई एवं राजाराम की देखभाल करने का जिम्मा भी शिवाजी महाराज ने साहूजी सोमनाथ को ही सौंप दिया।
(2)..संभाजी ने शृंगारपुर की सूबेदारी अक्तूबर 1676 से सँभाली थी। सन् 1678 की वर्षा ऋतु के अंत तक वे इस पद पर बने रहे। शिवाजी की अनुपस्थिति में प्रधान ने राज-काज की सारी जानकारी संभाजी को दी। संभाजी ने उन जानकारियों को शायद गंभीरता से नहीं लिया। बातों को ठीक से समझे बिना उन्होंने जो आदेश देने शुरू किए, वे प्रधान व अन्य राजकर्ताओं को रास नहीं आए। संभाजी पर राज-काज में हस्तक्षेप करने का पुराना आरोप एक बार फिर लग गया। शृंगारपुर की प्रजा को भी पता चल गया कि राज-काज में संभाजी कुछ ज्यादा ही दखल दे रहे हैं। इससे प्रजा का विश्वास प्रशासन पर से हिल गया । कर वसूली आधी-अधूरी होने लगी। संभाजी ने जब प्रधान को घूसखोर, लालची, धोखेबाज कहना शुरू किया, तब तो बाजी एकदम ही बिगड़ गई। प्रजा पर संभाजी का गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ना शुरू हो गया।
यह वह प्रजा थी, जिसे शिवाजी महाराज अपनी संतान की तरह प्रेम करते थे। ऐसा प्रेम प्रजा को संभाजी से नहीं मिला। नतीजा यह कि विभिन्न करों की अदायगी को लेकर प्रजा में जो उत्साह पहले होता था, वह चला गया। इसका राज्य के महसूल पर विपरीत प्रभाव पड़ा।
यह खबर महाराज तक पहुँची, तो उन्होंने संभाजी से कहा कि वह शृंगारपुर छोड़कर परली के किले में चले जाएँ और कुछ समय वहीं रहें।
इसी दौर में औरंगजेब ने भी अपना प्रकोप दिखाया। शिवाजी और संभाजी साथ नहीं रह रहे हैं, ऐसी खबर पाने के साथ औरंगजेब ने अपने दक्षिण के सूबेदार दिलेर खान को हुक्म दिया कि वह पिता-पुत्र के बीच मतभेद बढ़ाने के लिए जो भी कर सकता हो, करे। दक्षिण का सूबेदार शिवाजी और संभाजी के खिलाफ तरह-तरह की साजिशें करने में जुट गया।
शिवाजी के विचार भी संभाजी को लेकर बदलने लगे थे। राजकर्ताओं और सेनापतियों ने शिवाजी को अपने प्रभाव में ले ही लिया। सच्चाई थी भी तो ऐसी कि जो संभाजी के पक्ष में नहीं थी। उन्हें जब शृंगारपुर से सज्जनगढ़ चले जाने को कहा गया, तब वे स्पष्ट समझ गए कि आगे के कठोर घटनाक्रम के लिए उन्हें तैयार हो जाना चाहिए।
आशंका व उधेड़बुन के दबाव में संभाजी दिलेरखान के पास चले गए! शत्रुओं ने फौरन अफवाह फैला दी कि शिवाजी अपने पुत्र को उत्तराधिकार देने से पीछे हट गए हैं; इसीलिए पुत्र रूठकर महल से निकल गया है। वास्तविकता यह थी कि शिवाजी ने संभाजी को राज्य न देने की बात कभी नहीं की थी।
(3)..संभाजी ने सन् 1679 में, बैसाख के महीने में, भूपालगढ़ पर आक्रमण करके वह किला मुगलों को जितवा दिया! यानी वह अपने पिता के विरुद्ध लड़ने से भी नहीं हिचक रहे थे।
शिवाजी संभाजी को बार-बार समझा रहे थे कि आप स्वराज्य में लौट आएँ, मगर संभाजी कुछ नहीं सुन रहे थे। उन दिनों शिवाजी मुगलों के खिलाफ लड़ रहे थे; बीजापुर की मदद कर रहे थे, उन्हीं मुगलों का साथ निभाते हुए संभाजी लड़ रहे थे; बीजापुर के खिलाफ! यानी अपने पिता के खिलाफ! संभाजी उसी दिलेरखान को मदद कर रहे थे, जिसके पास वे रहने चले गए थे।
(4)..शिवाजी का संभाजी को समझाने का प्रयत्न इतना तो सफल हो ही गया कि पिता-पुत्र आमने-सामने बैठकर मशविरा कर सकें। सच्चाई यह थी कि संभाजी अब मुगलों से भी नाराज हो गए थे। मुगलों ने उनके साथ जो रूखा व्यवहार किया था, उससे वे बेहद क्रोध में थे। मुश्किल यह थी कि मुगलों से विमुख होकर वे कहाँ जाते? उन्हें अपने पिता के ही पास लौटकर आना पड़ा।
वेे इसलिए नहीं लौटे थे कि पिता के लिए उनके मन में पहले जैसा सम्मान फिर से जाग गया था, वे तो इसलिए लौटे थे कि पनाह लेने के लिए दूसरा कोई व्यक्ति नहीं था।
सन् 1679 के दिसंबर मास में संभाजी पन्हालगढ़ वापस आए। वहाँ शिवाजी ने उनके साथ लंबे समय तक मुलाकात की। शिवाजी ने संभाजी को नया जीता हुआ जिंजी का किला एवं राज्य दे देने का प्रस्ताव रखा। जिंजी अत्यंत समृद्ध एवं सुरक्षित राज्य था। जिंजी का किला अपनी बुलंदी के लिए दूर-दूर तक मशहूर था। ये दोनों संभाजी को अपने पिता से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त हो रहे थे, लेकिन संभाजी ने प्रस्ताव स्वीकार ही नहीं किया।
संभाजी को तो शिवाजी का संपूर्ण राज्य ही उत्तराधिकार में चाहिए था! केवल जिंजी से कैसे उनका मन भर सकता था। दूसरी ओर शिवाजी केवल इस भावना से संभाजी को जिंजी का राज्य व किला दे रहे थे कि व्यर्थ का गृह कलह न हो। पारिवारिक उलझनों को सुलझाने के लिए शिवाजी महाराज के पास अब समय भी अधिक नहीं बचा था। एक ईश्वरीय प्रेरणा-सी उन्हें हो चुकी थी कि इस संसार में अब वे ज्यादा दिन रहने वाले नहीं हैं। हमेशा की विदाई लेने से पहले महाराज यही चाहते थे कि उनका परिवार सुख और शांति के वातावरण में जीता हुआ दिखाई दे, साथ में यह भी कि उनका बड़ा बेटा संभाजी अपनी नादानियों से छुटकारा पाकर एक शांत व स्थिर जीवन जीना शुरू करे। इसी आकांक्षा व शुभकामना के साथ महाराज ने स्वयं को अत्यधिक प्रिय जिंजी का किला एवं राज्य संभाजी पर न्योछावर करने चाहे।
किंतु संभाजी ने शिवाजी के पितृ हृदय की चिंता न करते हुए कहा, “मुझे तो ‘साहब’ (बादशाह औरंगजेब) का सहयोग प्राप्त है। मैं सिर्फ दूध का प्याला पीकर 'साहब' के कदमों में पड़ा रहूँगा, लेकिन इतना छोटा उत्तराधिकार स्वीकार नहीं करूँगा।”
ऐसा कहकर संभाजी ने शिवाजी महाराज का सरासर अपमान किया। महाराज के पास मन मसोसकर रह जाने के सिवा चारा भी क्या था।
उन दिनों शिवाजी अपने राज्य को नए सिरे से व्यवस्थित करने में जुटे हुए थे। सिंहासन वे छोटे बेटे राजाराम को सौंपना चाहते थे। बड़े बेटे संभाजी में वह गौरव और विवेक था ही नहीं, जिसके बिना किसी भी मराठा शासक की शोभा नहीं है। फिर भी बड़े बेटे को वह एक नायाब तोहफा ही दे रहे थे; जिंजी के राज्य व किले के रूप में।
मराठा साम्राज्य को सुरक्षित रखने की कई योजनाएँ महाराज ने बना रखी थीं। उन्हें पूरा विश्वास था कि राजाराम उनकी योजनाओं को क्रियान्वित करेगा और भारी बलिदानों के बाद स्थापित किए गए स्वराज्य को और आगे विकसित करेगा। महाराज चाहते थे कि जीते-जी अपनी आँखों से देख लें कि राजाराम उनकी विकास योजनाओं को अच्छे से क्रियान्वित कर रहा है। संभाजी से तो उन्हें अपनी एक भी योजना के क्रियान्वित होने की उम्मीद नहीं थी।
महाराज को अपने अंत समय का आभास तो मिल गया था, लेकिन अंत समय इतना नजदीक है, ऐसा अनुमान तो उन्हें भी नहीं था। यदि अनुमान होता, तो वे अष्ट-प्रधानों में से प्रधान सुमंत को पन्हाला किले में रह रहे संभाजी पर नजर रखने का आदेश देकर रायगढ़ की ओर रवाना न हुए होते।
उन्हें रायगढ़ के रास्ते में सहसा पता चला कि अब वे इस धरती पर केवल चार दिनों के मेहमान हैं। उन्होंने तुरंत बाल प्रभु से मोरोपंत एवं अनाजी दत्तो के लिए कुछ खास कागजात तैयार करवाए। मोरोपंत एवं अनाजी भले ही उपस्थित नहीं थे, किंतु शिवाजी महाराज ने कागजात इस प्रकार तैयार करवाए कि उन्हें मराठा स्वराज्य के लिए आगे क्या-क्या व्यवस्थाएँ करनी हैं, इसका अच्छे से ज्ञान हो जाए।
शिवाजी जानते थे कि यदि कागजात सही न हुए, तो प्रजा वरिष्ठ अधिकारियों का भी कहना नहीं मानेगी। सबको यकीन होना चाहिए कि कागजात जाली नहीं हैं। इसके लिए उन्होंने रायगढ़ के प्रमुख महाजनों, विश्वसनीय ब्राह्मणों एवं मराठा सेनापतियों आदि को सभी बातें बताई, कागजात भी बताए, ताकि किसी को अविश्वास न हो कि वे तमाम लोग बतौर गवाह मौजूद थे या नहीं। मोरोपंत, अनाजी और बाल प्रभु ने अपनी मन-मरजी से कागजात नहीं बनवा लिये हैं; इसका पूरा भरोसा जनता को होना चाहिए।
शिवाजी ने जो कुछ कहा, उसे सभासदों ने अपने दस्तावेजों में इस प्रकार दर्ज किया है, “मेरा जीवन समाप्त होने को है। अब मैं कैलाश जाकर कैलाशपति के दर्शन करूँगा।”
शिवाजी महाराज ने अपने कमजोर शरीर पर दृष्टिपात किया। फिर अपने बड़े बेटे संभाजी से कहा, “तुम और तुम्हारा छोटा भाई राजाराम मेरे राज्य को आधा-आधा बाँट लो, ताकि झगड़ा न हो। तुम दोनों सुख से रहो; बस इतना ही मैं चाहता हूँ।”
किंतु संभाजी ने इस बँटवारे को भी स्वीकार नहीं किया। शिवाजी ने अपने अवसान से पहले एक अधिकृत आज्ञा पत्र बनवाकर अपने प्रधान के लिए रखा था; इस बात का अनुमोदन 'केवल रायरी की बखर' के अंग्रेजी अनुवाद में बड़ी स्पष्टता से हुआ है। शिवाजी ने अपना राज्य आज्ञा-पत्र बनाया ही होगा, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है।
मोरोपंत एवं अनाजी शिवाजी के अवसान के समय रायगढ़ में उपस्थित नहीं थे। इसका लाभ संभाजी को मिला। क्योंकि इस कारण राजाराम के मंचारोहण में कुछ समय लगा। मंचारोहण को प्रचारित करने में भी समय लगा। एक तरह से यह अच्छा ही हुआ। यह एक अकल्पनीय एवं ऐतिहासिक घटना है। यदि संभाजी एवं हंबरराव आदि सेनाधिकारियों की आपस में भेंट हो गई होती, तो तय हो जाता कि उन्हें आगे क्या करना है। आगे की योजना निश्चित होने से पहले यदि मोरोपंत व अनाजी दत्रे पन्हालगढ़ पहुँच जाते, तो शिवाजी ने संभाजी के बारे में जो योजना बनाई थी, वह पूरी हो गई होती और भविष्य में जो उपद्रव हुआ, वह न हुआ होता।
न्यायमूर्ति रानाडे ने इस विषय पर गहन शोध कार्य किया है कि मराठा सत्ता का उदय किस प्रकार हुआ। उन्होंने लिखा है कि सभी श्रेष्ठ राजनीतिज्ञों को एक अनुमान स्वतः हो जाता है कि अब कौन सा संकट सामने है। स्वयं के अंतिम समय का भी अनुमान वे लगा लेते हैं। शिवाजी को भी इसकी अनुभूति हो गई थी। मराठा स्वराज्य उन्होंने नया-नया ही स्थापित किया था। उसकी सरहदों को अंतिम रूप देना और सुरक्षित करना अभी बाकी था। यह एक गंभीर जिम्मेदारी थी, जो शिवाजी के जीते जी पूरी हो जाए, इसी में सबकी भलाई थी। शिवाजी ने देख-समझ लिया था और उन्हें ईश्वरीय संकेत की अनुभूति भी हो चुकी थी कि उस गंभीर जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए समय बहुत कम था। इसीलिए शिवाजी महाराज ने शीघ्रातिशीघ्र सभी आवश्यक कदम उठाए।
मराठा स्वराज्य की सरहदें दक्षिण में सुस्पष्ट नहीं थीं। इससे स्वराज्य को तरह-तरह के झगड़ों में उलझना पड़ सकता था। शिवाजी महाराज ने बड़ी तेजी और कठोरता के साथ दक्षिण के शासकों से संवाद किया मैत्रीपूर्ण संवाद से ही दक्षिण की सरहदें काफी स्पष्ट हो गईं, किंतु कई क्षेत्र ऐसे थे, जहाँ के शासकों ने शिवाजी के साथ सहयोग नहीं किया। शिवाजी महाराज ने ऐसे क्षेत्रों पर तेज गति से आक्रमण कर उन्हें अपने कब्जे में ले लिया। इससे ये क्षेत्र मराठा स्वराज्य के ही अंग बन गए। भविष्य में संघर्ष होने की कोई गुंजाइश ही न रही।
महाराज ने कावेरी नदी की प्रवाह रेखा एवं गहराई को अपने स्वराज्य की सरहद के रूप में मान्य किया और दूसरों से भी मान्य करवाया। महाराज ने ध्यान रखा कि भविष्य में किसी विषम परिस्थिति में मराठों को यदि अपनी सरहदों से पीछे हटना पड़ा, तो इस कठिन कार्य को वे आसानी से कर लें। सरहदों का अंकन ही इस हिसाब से किया गया। इससे शिवाजी महाराज की अप्रतिम दूरदर्शिता का प्रमाण मिलता है।
महाराज की इस दूरदर्शिता का समर्थन डॉ. सुरेन्द्रनाथ सेन जैसे विख्यात इतिहासकार ने किया है। अन्य इतिहासकारों ने भी इस सत्य को अपनी पुस्तकों आदि में दरशाया है। शिवाजी कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे दो दूर के प्रदेशों को आपस में जोड़ना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कर्नाटक के आक्रमण से लौटते समय रास्ते में पड़नेवाले काफी प्रदेश जीतकर अपने राज्य में मिला लिये। सरहद की कड़ियाँ पन्हाला से कोप्पल-तुंगभद्रा के किनारे तक नए-नए जीते गए प्रदेश से जुड़ गईं।
शिवाजी महाराज चाहते थे कि दो मराठा राज्य, जो दक्षिण के दो किनारों पर पूर्व एवं पश्चिम में स्थित थे, उनकी रक्षा का जिम्मा वे अपने एक-एक पुत्र को सौंप दें। महाराज की इस इच्छा का उल्लेख कई दस्तावेजों में मिलता है।
इतिहास गवाह है कि संभाजी ने रायगढ़ के सिंहासन को पाने की जिद की थी। इसका नतीजा यह रहा कि औरंगजेब ने उनकी निर्मम हत्या करवा दी। मराठा सत्ता को आगामी 26 वर्षों तक रक्तपात स्वीकार करना पड़ा।
यदि संभाजी ने अपने पिता की अलौकिक दूरदर्शिता को पहचाना होता और उनका कहना माना होता, तो राजाराम एवं अष्टप्रधान अधिकारियों ने पूर्ण साहस एवं सफलता के साथ औरंगजेब का विरोध किया होता। इससे संभाजी अपने जिंजी किले में सुरक्षित रह पाते।
यदि ऐसा हुआ होता, तो महाराष्ट्र का इतिहास कुछ और ही होता।
संदर्भ—
1. श्री शिवाछत्रपति संकल्पित शिवचरित्र की प्रस्तावना; आराखडा व साधने / त्र्यंबक शंकर शेजवलकर
2. श्री छत्रपति शिवाजी महाराज / वा. सी. बेन्द्रे
3. History of the Marathas / Pednekar & Mukadam
4. House of Shivaji / Jadunath Sarkar