soi takdeer ki malikayen - 48 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | सोई तकदीर की मलिकाएँ - 48

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 48

 

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भोला सिंह और सुभाष रोटी खाकर खेत की ओर चल पङे । अभी सुबह के आठ साढे आठ ही बजे थे । धूप अपनी पीली चूनर धरती को ओढा बिछा चुकी थी । सूरज का तेज अभी जाग्रत नहीं हुआ था इसलिए हवा में न हुमस थी, न गर्मी । मौसम बङा सुहावना था । बङी प्यारी शीतल समीर बह रही थी जिसकी ताल पर पेङ पौधे झूम रहे थे । किसी घर की मुंडेर पर कबूतरों का जोडा आँखें मूंदे गुटर गूं गुटर गूं का सुर छोड रहा था । पेङों की टहनियों पर छाई हुई कलियाँ खिल कर फूल बन गई थी । पत्ते और शाखाएँ नव किसलयों से लदे हुए थे । हरे पत्तों में उन किसलयों का तांबई रंग एक अनोखा ही समा बांध रहा था । खेतों में एक पैर पर खङे बगुले मानो समाधी में लीन होकर तपस्यारत थे । तीतर अपनी प्रेमिका को पुकारते हुए आकाश में चक्कर काट रहे थे । ललमुनिया अलग झुंड में किलोल कर रही थी । गिलहरियाँ कच्ची पगडंडी पर बैठी कुछ खाने को ढूंढ रही थी , उन्हें समीप आता देखते ही लपक कर नीम के पेङ पर चढ गई और एक पतली सी शाख पर चढ कर टुकुर टुकुर ताकने लगी । बुलबुल का जोङा कीकर पर बैठा गीत गा रहा था । सङक के दोनों ओर उगे सफेदे , पापुलर , कीकर , अमलतास और नीम के पेङ मानो उनके स्वागत में बाहें फैलाए खङे थे । उनके फूलों से निकलती हल्की भीनी खुश्बू वातावरण को मोहक बना रही थी । हर तरफ प्रकृति का साम्राज्य फैला था ।

सङक पर कुछ लोग अपनी साइकिल थामे अपने काम धंधे पर जाने के लिए निकल रहे थे । कुछ पैदल होते, कुछ साइकिल पर सवार । कंधे पर परना या साफा टांगे वे जैसे ही भोला सिंह को सामने से आता हुआ देखते , सङक के एक ओर हो कर खङे हो जाते । दोनो हाथ जोड कर सत श्री अकाल कहते । भोला सिंह भी दो मिनट रुक कर उनका हालचाल पूछता । उनकी कोई समस्या होती तो उसे ध्यान से सुनता फिर उसका समाधान करने का वादा करता । लोग गदगद हुए , निहाल हुए झुक कर उनका अभिवादन करते और काम धंदे के लिए आगे बढ जाते । ऱ्कहीं कहीं लोग साइकिल पर चारा या जलावन के लिए लकङियां लिए आ रहे थे । वे भी भोला सिंह के लिए अपना सम्मान प्रकट कर रहे थे । अपनी तेज चाल के बावजूद सुभाष बार बार पिछङ रहा था जब भोला सिंह किसी ग्रामीण के साथ कोई बात करने के लिए रुकता , तब वह दौङ कर उसके साथ मिल जाता । भोला सिंह अपनी बात खत्म कर चल देता तो वह भी लपकता हुआ कदम से कदम मिलाने की कोशिश करता ।
इसी तरह लोगों से मिलते , बतियाते वे आगे बढते गये और धीरे धीरे गाँव पीछे छूट गया । अब सूनी पगडंडियां दिखाई देने लगी थी । किसी पंछी की आवाज से वह निस्तब्धता भंग होती पर थोङी देर में ही वैसे ही सन्नाटा छा जाता । लोगों का दिखाई देना कम हो गया था । फिर सङक के दोनों ओर खेत दिखाई देने लगे । खेतों में उगी गेहूँ की फसल लहलहा रही थी । उसकी बालियों में दूधिया दाने आ गये थे । गेहूं की फसल के बीच बीच में उगी सरसों के पीले फूल दूर से ही ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे । कहीं कहीं अलसी और तीसी भी खिली थी । उनके जामुनी और नीले फूल हवा के चलने से नाचते से प्रतीत हो रहे थे । बीच बीच में गोभी , मेथी , पालक के खेत भी थे जिनके मेड पर शलजम और मूलियां लगी थी । इस पूरे गाँव में कहीं भी एक इंच भी धरती सुभाष को खाली नहीं मिली । हर घर के बाहर क्यारियां बना कर सब्जियां उगाई गई थी । पूरा गांव हरा भरा होने का प्रत्यक्ष उदाहरण था । गाँव के लोगों के मेहनती होने का सबूत था । एक बात तो ईंट जैसी पक्की थी कि पंजाबी जानदार लोग होते हैं । इस मालवा क्षेत्र की जमीन सूखी बंजर और रेतीली हुआ करती थी । चारों तरफ रेत के टिब्बे थे । फसल के नाम पर यहाँ उजाह बियाबान थे । उन रेत के टिब्बों को अपनी मेहनत से समतल करके अपनी मेहनत से हरे भरे खेतों में तबदील करना इन पंजाबियों की ही करामात का नतीजा था । पक्की सङकों के दोनों ओर हरे भरे खेत और खेतों में लहराती फसलें देख कर किसी व्यक्ति को भी गर्व की अनुभूति हो सकती है । लहलहाते खेतों में संगीत बिखेरते ट्यूबवैल लगातार पानी की मोटी धार बहा रहे थे ।छोटी छोटी नालियों के जरिए यह पानी खेत के कोने कोने में हर क्यारी तक पहुँच रहा था । उस पानी में रंग बिरंगी चिङियां गरदन तक पानी में डूबी तरह तरह के खेल रही थी । हर तरफ समृद्धि बिखरी दिखाई दे रही थी । धरती पर मरकत का डिब्बा खुला और बिखरा पङा था । इस समृद्धि में फरीदकोट की जुङवा नहरों का योगदान भी कम नहीं था । नहरों ने अपने जल से इस इलाके को हरा भरा बनाने में कोई कसर नहीं छोङी थी वरना कोई समय था जब इस इलाके में सिवाय मूंगफली और कहीं कहीं बाजरे के सिवाय कोई फसल नहीं उपजती थी । फलों में कंटीली झाङियों में बेर ही पैदा होते थे और पेङों में कीकर के पेङ ही बहुतायत से दिखाई देते थे । जंगल में पशु चराते हुए किसी को अपने आप कचरी या चिब्बङ मिल जाते तो लोग चटनी बना कर रोटी खा लेते । उसी धरती पर अब हर तरह की फसल होने लगी थी । अचानक आसमान में चक्कर काटती श्यामा चिङिया को किसी खेत में कोई कीङा दिखाई दिया होगा । वह फुर्ती से नीचे उतरी । झपटा मार कर कीङे को चोंच में भरा और लेकर उङ गई । सामने ही अमलतास का पेङ उगा था । उसकी टहनी पर बैठ अपना सुबह का नाश्ता करने लगी । सुभाष ने सोचा – चिङिया के लिए आज का दिन बहुत सौभाग्यशाली रहा क्योंकि उसे उसका मनपसंद आहार खाने को मिला पर यह कीङा , इसके जीवन का तो यह सबसे मनहूस दिन रहा जब उसके जीवन का अंत होने जा रहा था । जीवन में हमेशा ऐसा ही होता है , एक आदमी का सौभाग्य दूसरे का दुर्भाग्य हो जाता है । जैसे भोला सिंह की जयकौर से शादी भोला सिंह के लिए शुभ हो सकती है तो वहीं सुभाष के लिए दुर्भाग्य रहा । अब उसका उनके घर में आना कौन जाने किसका सौभाग्य होगा , किसका दुर्भाग्य यह तो वक्त ही बताएगा ।

बाकी फिर ...