Shivaji Maharaj the Greatest - 19 in Hindi Biography by Praveen kumrawat books and stories PDF | शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 19

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शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 19

[ शिवाजी महाराज और समाज सुधार ]

सती प्रथा पर प्रतिबंध
इस प्रथा के अनुसार पति का अवसान होने पर पत्नी भी स्वेच्छा से पति के साथ ही जल जाती थी। इतिहासकारों के अनुसार यह प्रथा चौथी सदी से प्रारंभ हुई। माना जाता
है कि अगर किसी पुरुष की एक से अधिक पत्नियाँ होतीं, तो उनके बीच स्पर्धा सी हो जाती कि सती कौन होगी।
कुछ विद्वानों के अनुसार सती प्रथा केवल उच्च वर्ग में या स्वयं को प्रतिष्ठित मानने वाले बड़े लोगों में प्रचलित थी। सामान्य वर्ग के लोगों में या निम्न वर्ग में इसका प्रचलन नहीं था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह प्रथा केवल राज-स्त्रियों के दहन तक सीमित थी। इसके अतिरिक्त कोई विरला ही उदाहरण सामने आता था। यह प्रथा ज्यादातर राजस्थान में प्रचलित थी।
जीजाबाई अपने पति शहाजी के अवसान के बाद सती हो जाना चाहती थीं, किंतु शिवाजी महाराज ने उन्हें रोका। इस प्रकार शिवाजी ने एक श्रेष्ठ एवं क्रांतिकारी उदाहरण अपनी प्रजा के सामने रखा।
शिवाजी अपने समय से कितने आगे थे, इसे समझने के लिए हमें याद रखना होगा कि अंग्रेजों ने जब भारत से सती प्रथा का निर्मूलन करने के लिए सख्त कानून बनाया, तब सन् 1861 चल रहा था। उस कानून का नाम था 'The Indian Sati Act 1988'। उसके अंतर्गत सती प्रथा को बढ़ावा देना, मददगार बनना या स्तुति करना संगीन गुनाह घोषित किया गया।

छुआछूत का निर्मूलन
जावली को पराजित करने के बाद शिवाजी ने भोरपा के पर्वत पर एक किला बनवाया और उसका नाम रखा प्रतापगढ़। वहाँ उन्होंने माँ भवानी का मंदिर बनवाया।
शिवाजी माँ भवानी की स्थापना-पूजा करने वहाँ पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि नीची जात के कुछ लोग दूर खड़े हैं। पूछने पर पता चला कि वे मूर्ति बनाने वाले अछूत लोग हैं। शिवाजी ने उन्हें बुलाकर पूजा करने की आज्ञा की।
पुजारी ने विरोध दरशाया, किंतु शिवाजी महाराज ने अपनी आज्ञा के समर्थन में पुजारी एवं उपस्थित गण्यमान्य व्यक्तियों से पूछा कि जब ये लोग मूर्ति का निर्माण कर सकते हैं, तो उसी मूर्ति की पूजा क्यों नहीं कर सकते?

जातिवाद का उच्चाटन
शिवाजी ने हर मनुष्य को मनुष्य ही माना। उसकी जाति को कभी महत्त्व नहीं दिया। छुआछूत की प्राचीन परंपरा के बोझ से दबे तत्कालीन समाज में जाति को नकारना कोई साधारण बात नहीं थी। शिवाजी ने इस असाधारण बात को अपने व्यक्तिगत आचरण से बड़ी सहजता के साथ संभव कर दिखाया था, जैसे उन्होंने स्वयं अपनी माता को सती होने से रोककर समाज के नाम एक जीवंत संदेश दिया था, वैसे ही उन्होंने तथाकथित नीची जातियों के अनेक व्यक्तियों को अपनी सेवा में नियुक्त कर समाज में उनके लिए ऊँची जगह बनाई थी। यह तभी संभव था, जब स्वयं शिवाजी जातिवाद को रंच मात्र भी स्वीकार नहीं करते।
शिवाजी का व्यक्तिगत सेवक, मदारी, एक मेहतर था। उनका अंगरक्षक मुसलिम था! अफजल खान के वध के समय शिवाजी का अंगरक्षक, जिवा महाला, एक नाई था।
इतना ही नहीं, बनावटी शिवाजी बनकर मराठों के शत्रु सिद्दी जौहर को चकमा देने वाला व्यक्ति शिवा काशिद भी एक नाई था। उसी की ‘कलाकारी’ से शिवाजी पन्हालगढ़ के किले में से कब निकले और कब पलायन कर गए, इसका पता ही सिद्दी जौहर को नहीं चला था।
सचमुच शिवाजी का समाज सुधारक का रूप अत्यंत शक्तिशाली है। उनका समाज-सुधार सिर्फ जुबानी कभी नहीं रहा। मनुष्य-मनुष्य के बीच समानता के अद्भुत समर्थक के रूप में शिवाजी सदा उपस्थित रहते थे। ऐसा कर पाने के लिए कितना साहस, कितना सयानापन, कितनी मानवता, कितनी दूरदर्शिता आवश्यक थी, इसका अनुमान भी आज के आधुनिक समय में नहीं लगाया जा सकता। ब्राह्मणवाद एवं जातिवाद का शिकंजा समाज में किस बुरी तरह कसा हुआ था, उसके उदाहरण के लिए केवल एक ही मंत्र को उद्धृत करना पर्याप्त रहेगा—
देवाधिनाम् जगत् सर्वम् मंत्राधिनाम तु देवता।
तं मंत्रम् ब्राह्मणाधिनाम ब्राह्मण नाम देवता।

(सर्व विश्व का निर्माण कर्ता ईश्वर हैं। ईश्वर मंत्र से प्रभावित होते हैं। ये मंत्र ब्राह्मणों के नियंत्रण में हैं। इसलिए हमें ब्राह्मणों को ईश्वर तुल्य मानना चाहिए।)
ऐबी जे. ए. ड्युबॉईस कृत 'हिंदू मैनर्स, कस्टम्स ऐंड सेरेमनीज/ऑक्सफर्ड द्वारा प्रकाशित/ तीसरा संस्करण: 1906/ पृष्ठ 93 एवं 139.

मनु का कथन
‘ब्राह्मण ने चाहे कितने ही अपराध किए हों, राजा को उसका वध नहीं करना चाहिए।’ —‘मनु-स्मृति’ में ऐसा स्पष्ट आदेश होने के बावजूद शिवाजी ने क्या किया था?
अफजल खान के वध के समय उसका ब्राह्मण वकील कृष्णा भास्कर उपस्थित था। शिवाजी ने जब अपने बघनखे से अफजल खान का पेट चीरा था, तब कृष्णा भास्कर ने शिवाजी के मस्तक पर तलवार का वार किया था। शिवाजी ने वार बचा लिया था, किंतु उनके मस्तक पर घाव तो हुआ ही था। शिवाजी ने कृष्णा भास्कर से कहा था– “तुम ब्राह्मण हो, तो क्या हुआ!” इन शब्दों के साथ उन्होंने कृष्णा भास्कर का काम तमाम कर दिया था। भारत के इतिहास में यह पहली घटना है, जब एक राजा ने ब्राह्मण का वध किया हो।
शिवाजी के मस्तक का वह घाव उनके शरीर पर का एकमात्र घाव था। उसका निशान भी रह गया था। आगरा से पलायन करने के बाद बदले हुए वेश में शिवाजी जब अपनी मातुश्री जीजाबाई के सामने उपस्थित हुए थे, तब जीजाबाई ने भी उन्हें मस्तक के उस निशान से ही पहचाना था। शिवाजी की बदली हुई वेशभूषा कितनी गजब की रही होगी। सगी माँ को भी बेटे को पहचानने के लिए मस्तक के घाव के निशान का सहारा लेना पड़ा था!

धर्मांतरण
16वीं सदी में पुर्तगीज लोगों ने प्रारंभ में मुसलमानों पर अत्याचार किए थे, तब हिंदुओं ने इसके विरोध में कुछ नहीं कहा था। झेवियर ने सबसे पहले कोलियों को भ्रष्ट किया, जो मछली मारकर किसी तरह जीवनयापन करते थे। ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि कोलियों को स्वयं मुसलमानों ने पहले से भ्रष्ट कर रखा था। लिहाजा जब पुर्तगीजों ने मुसलमानों पर अत्याचार किए, तब हिंदू चुप रहे। न तो कोलियों ने कुछ कहा और न उच्च वर्ग के हिंदुओं ने विरोध किया। उन्हें लगा ही नहीं कि पुर्तगीजों की उस हरकत का विरोध करना जरूरी था। यह उस काल की एक दर्दनाक स्थिति थी।
दक्षिण के हिंदू, ईसाइयों एवं पुर्तगीजों से सख्त नफरत करते थे, क्योंकि वे गाय और सूअर का मांस खाते थे। उनकी परछाईं भी वे अपने ऊपर नहीं पड़ने देना चाहते थे। हिंदू समाज असंगठित था। हिंदू जातिवाद एवं ब्राह्मणवाद में गले तक डूबे हुए थे। इस विडंबना का उल्लेख इतिहास के अनेक ग्रंथों में हुआ है।
अति-धार्मिकता के ऐसे माहौल में शिवाजी का क्या कर्तव्य था ?
शिवाजी निश्चित ही हिंदू धर्म का पालन करते थे, किंतु आँखें मूँदकर नहीं। अनेक धार्मिक बातें ऐसी थीं, जो हिंदुओं को बहुत प्रिय थीं, किंतु शिवाजी उन बातों से दूर रहते थे। विरोधाभास यह कि उन्हीं बातों को शिवाजी अपनी कार्य सिद्धि के लिए इस्तेमाल भी कर लेते थे! शिवाजी के लिए कार्य का महत्त्व था; उस कार्य की सिद्धि के लिए उपाय कैसा किया गया, इसका महत्त्व नहीं था।
किंतु अपने मन और मानस में वे बहुत स्पष्टता से समझते थे कि धर्म को जैसे का तैसा पालना जरूरी नहीं है। किसी हिंदू को यदि जबरन मुसलमान बना लिया गया हो, तो क्या उसे सदा-सदा के लिए हिंदुत्व से अलग मान लिया जाए? जबकि उस वक्त के हिंदू तो यही मानते थे कि हिंदुत्व की कसौटी पर उसकी मृत्यु हो गई है। इस जनम में उसने पाप किया है। अब वह अगले जनम में मनुष्य योनि में नहीं जाएगा। वह कुछ भी बन सकता है; कीड़ा, मकोड़ा, चींटी, लेकिन वह मनुष्य नहीं बनेगा हिंदू धर्म शास्त्र की यह मान्यता है, लेकिन जब वह मनुष्य ही नहीं बनेगा, तो प्रायश्चित्त कैसे करेगा, कोई कीड़ा, मकोड़ा थोड़े ही प्रायश्चित्त करना जानता है तो क्या उसे एक बार भी मौका न मिले; पाप का प्रायश्चित्त करने का, क्या यह अन्याय नहीं, एक मनुष्य के साथ? लेकिन शिवाजी के समय में ऐसे तर्क-वितर्क की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। हिंदू अपने धार्मिक रीति-रिवाज के साथ बड़ी कठोरता से जुड़े हुए थे।
शिवाजी, एक हिंदू, ऐसे तर्क-वितर्क तक पहुँचे ही कैसे? न केवल पहुँचे, बल्कि ऐसे तर्क-वितर्क को उन्होंने अपने दार्शनिक सोच-विचार में स्थान दिया। शिवाजी अपने
समय के सबसे बड़े आधुनिक धर्म नेता थे, जिन्हें मालूम था कि रूढ़ धार्मिक रिवाजों को भी इस्तेमाल कर लेना चाहिए, बशर्ते ऐसा करने से कोई बड़ा हित साधन हो रहा हो! इस्तेमाल तो कर लो, मगर उन रिवाजों पर विश्वास मत करो!
शिवाजी ने कभी नहीं माना कि जो एक बार मुसलमान हो गया, वह वापस हिंदू नहीं बन सकता। उन्होंने स्वयं प्रयास करके अनेक पथ भ्रष्ट हिंदुओं को वापस हिंदुत्व के पथ पर चलाया था। इतना ही नहीं, ऐसे व्यक्तियों के साथ उन्होंने वैवाहिक संबंध भी स्थापित किए थे! जैसे कि नेताजी पालकर और बजाजी निंबालकर।
बजाजी निंबालकर एवं नेताजी पालकर की सुन्नत की जा चुकी थी। मुसलमानों के साथ वे पाँच-दस वर्ष रह भी चुके थे। उन्हें शिवाजी ने हिंदू धर्म में वापस ले लिया। इन दोनों को समाज ने भी अपना लिया।
शिवाजी ने नेताजी पालकर के भतीजे जानोजी से अपनी पुत्री कमलाबाई का विवाह किया!
नेताजी पालकर इसलाम अपनाकर अफगानिस्तान में आठ वर्ष बिता चुके थे। शिवाजी ने उनकी शुद्धि करवाई और स्वयं उनके साथ बैठकर भोजन किया।
1666 में शिवाजी आगरा से जब औरंगजेब की कैद से पलायन कर गए थे, तब उनके साथी नेताजी पालकर को औरंगजेब ने हिरासत में ले लिया था। पालकर और उनके समूचे परिवार को मुसलमान बना लिया गया। पालकर की सुन्नत करके उनका नाम कुली खान रखा गया और उन्हें काबुल की मुहिम पर रवाना कर दिया गया। वहाँ वे 10 साल मुसलमान बनकर रहे, लेकिन मौका मिलते ही 1676 में वे लौटकर शिवाजी की शरण में आ गए। जैसी कि उनकी इच्छा थी, शिवाजी ने उन्हें वापस हिंदू बना लिया।
किंतु शिवाजी के इतने अनोखे आधुनिक विचारों के कद्रदान उस समय थे ही कितने! पेशवाई में उनके धार्मिक विचारों को महत्त्व ही नहीं दिया गया। ब्राह्मणों का
प्रभुत्व इतना बढ़ गया कि पेशवाई के सबसे शूरवीर बाजीराव पेशवा अपनी मुसलमान प्रेयसी मस्तानी के बेटे शमशेर बहादुर को हिंदू बनाना चाहते थे, किंतु ऐसा नहीं कर सके। वे शमशेर बहादुर को कृष्णसिंह नाम देना चाहते थे, लेकिन ऐसा भी नहीं कर सके। अत्यंत शूरवीर होने के बावजूद उन्हें समाज की धार्मिक कट्टरता के चलते घर छोड़कर निकल जाना पड़ा।
मस्तानी का महल पुणे के नजदीक, कोथरुड में था और फिर दूर पाबल में, जहाँ उसकी समाधि अब भी है, यानी शिवाजी 1676 में जो कर सके, वह बाजीराव पेशवा नहीं
कर सके। अत्यंत शूरवीर होने के बावजूद उन्हें समाज की धार्मिक कट्टरता के सामने झुककर अपने राज्य का ही त्याग करके निकल जाना पड़ा।
शिवाजी का हिंदू धर्म और पेशवाई का हिंदू धर्म, इनमें जमीन आसमान का अंतर था। शिवाजी ने अछूत एवं नीची जात के महार लोगों को किलेदार बनाया था। पेशवाई में
उनकी पीठ पर झाडू बाँधकर एवं गले में मिट्टी के छोटे घड़े बाँधकर उन्हें रास्तों पर चलाया गया। पीठ पर बँधी झाडू उनके पैरों के निशानों को बुहार कर मिटाती जाती थी, क्योंकि धूल में अंकित उनके पैरों के निशान भी इतने अपवित्र थे कि उन्हें सरेआम दिखाई भी न पड़ना चाहिए था! पीठ पर झाडू बँधवाकर नीची जात के लोग चलते जाते और पीछे-पीछे पानी का छिड़काव करके सड़क की शुद्धि होती रहती! शिवाजी का धर्म भी हिंदू था और पेशवाई का धर्म भी हिंदू ही था, मगर दोनों में कैसा उत्तर दक्षिण का अंतर था।
नेताजी पालकर का शुद्धीकरण करके, उन्हें हिंदू धर्म में वापस लेकर, पंक्ति में साथ बिठाकर भोजन करके, शिवाजी ने समाज सुधार की जो नींव आज से चार सौ साल पहले रखी थी। उस तक वर्तमान बीसवीं सदी के भी कितने समाज सुधारक पहुँच पाए हैं? बंधु-कल्याण की भावना शिवाजी के मन में कितनी सुंदरता से पल्लवित हुई थी! उस समय का ब्राह्मण समाज शिवाजी के विचारों के साथ कैसे सहमत हुआ, अभिमानी कुलीन मराठे कैसे तैयार हुए ? सोचकर आश्चर्य होता है। ऐसा नहीं था कि शिवाजी ने अपने विचारों को दूसरों पर जबरन लादा हो। उन्होंने तो केवल स्वयं का उदाहरण सबके सामने प्रस्तुत किया था। स्व-धर्म एवं मानव धर्म के प्रति शिवाजी की निष्ठा इतनी तीव्र थी कि उन्हें अधर्मी कहने की कल्पना भी उनके समय में कोई नहीं कर सकता था। शिवाजी न केवल स्वराज्य के संस्थापक थे, बल्कि हिंदू धर्म के व्यवस्थापक भी थे। संस्थापक एवं व्यवस्थापक, इन दो खंभों पर उनका खेमा बड़ी मजबूती से गड़ा हुआ था।

अंधविश्वास
इसी तरह अंधविश्वास एवं अंधश्रद्धा के विरोध में शिवाजी कितनी मजबूती से डटे हुए थे, इसका तो एक ही उदाहरण पर्याप्त रहेगा—
बच्चा यदि उलटा जन्म लेता है, तो ऐसे बच्चे को तत्काल अशुभ मान लिया जाता है। राजाराम महाराज के उलटे जन्म लेने पर सबके चेहरे फीके पड़ गए। उनके जन्म का आनंद ही किसी ने नहीं मनाया। महाराज को यह बात पता चली, वे बोले, “अरे, ईश्वरीय संकेत को समझो। पुत्र उलटा पैदा होने का अर्थ है कि यह बच्चा एक दिन मुसलिम बादशाहत को उलटा कर देगा!”
सुनकर सबके चेहरे खिल गए । सब आनंद मनाने लगे। श्रद्धा और अंधश्रद्धा में यही अंतर है।

शिवाजी महाराज और पर्यावरण
वृक्ष:

बलशाली शत्रुओं से लगातार लड़ते शिवाजी पर्यावरण के प्रश्न को कभी भूले नहीं। जमीन और आसमान दोनों के पर्यावरण को उन्होंने हर पल याद रखा। यह खास बात उनके आज्ञा पत्र में साफ दिखाई देती है। उसका सारांश इस प्रकार है—
‘गढ़ की रखवाली करना किसी झाड़ी-समूह की रखवाली करने जैसा है। झाड़ियों एवं छोटे-छोटे वृक्षों के समूह अवश्य विकसित किए जाने चाहिए। उनकी एक डाली भी तोड़ी नहीं जाए। झाड़ियों का उपयोग सैनिकों के छिपने या बंदूक आदि छिपाने के लिए हो सकता है। गढ़ के चारों ओर चौकियाँ हों, जहाँ नियमित पहरा दिया जाए। गढ़ की इमारत पत्थर से बनवाई जाए।
‘किला बनाना शुरू करने से पहले अच्छी तरह देख लिया जाए कि पानी की व्यवस्था कैसे होगी। पानी आसानी से उपलब्ध न हो और फिर भी उसी जगह किला बनाना जरूरी हो, तो पत्थर फोड़कर तली में मजबूत टंकी बनाई जाए, जो इतनी विशाल हो कि वहाँ बारिश के दिनों में संगृहीत पानी साल भर काम आए। एक ही टंकी से संतुष्ट न हों, क्योंकि युद्ध के समय तोपें चलती हैं और उस वक्त उनकी आवाज से बचने के लिए काफी पानी खर्च होता है। इसलिए पानी का बहुत जतन किया जाए।
‘किले में लगे सभी वृक्षों को सुरक्षित रखा जाए। अनन्नास, नीम, इमली, वट, पीपल आदि बड़े वृक्ष। नीबू नारंगी आदि छोटे वृक्ष। तरह-तरह के फूलों के पौधे इत्यादि जो भी हरियाली हो, सब किले में लगे होने चाहिए। मौका पड़ने पर इन वृक्षों से फल-फूल तो मिलते ही हैं, जलाने के लिए लकड़ी भी मिल सकती है।’

शौचालय:
आज 2016 में, भारत देश में स्वच्छता के प्रति जबरदस्त जागरूकता दिखाई दे रही है। शहर-शहर, गाँव-गाँव में स्वच्छता योजनाएँ शुरू की गई हैं। शिवाजी ने अपने समय
में, शहरों और गाँवों में स्वच्छता कैसे संभव की थी, इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। इससे हमें आज भी गहरा मार्गदर्शन मिल सकता है।
अपने किलों में शौच-कूपों का निर्माण भी शिवाजी ने बहुत सूझ-बूझ के साथ किया। राजगढ़, प्रतापगढ़ और सिंधु दुर्ग में शौच कूप बड़ी कुशलता से तैयार किए गए। उनमें मल-निस्तारण की ऐसी व्यवस्था थी कि गंदगी सीधे उस पहाड़ी की तलहटी में पहुँच जाती, जिस पहाड़ी की चोटी पर वह किला हुआ करता। इससे दुर्गंध अथवा अस्वच्छता का प्रश्न ही नहीं उठता था।
किंतु यहाँ एक प्रश्न अवश्य सामने आता है कि जिन किलों में बाले किले होते थे, उनकी व्यवस्था किस प्रकार की जाती थी। पुरंदर के किले में जो बाले किला था, उसका शौचालय आज भी इस हालत में है कि निरीक्षण किया जा सके। उसमें दाखिल होने के लिए बैठकर अंदर जाना पड़ता है। एक व्यक्ति सरलता से भीतर जा सकता है, किंतु भीतर चार व्यक्ति सरलता से बैठ सकें, ऐसी व्यवस्था नजर आती है।
दुर्ग-भ्रमण करनेवालों को मराठा स्वराज्य की पहली राजधानी एवं शंभुराज की जन्म-स्थली पुरंदर किले के रनिवास का शौच-कूप अवश्य देखना चाहिए। यह आज भी अच्छी स्थिति में है। बाले किले के दरवाजे से ऊपर जाने पर, केदारेश्वर मंदिर की तरफ का जो रास्ता है, उसके बिल्कुल आखिरी कगार पर यह शौच-कूप है।
सिंधु दुर्ग के परिसर में तकरीबन 40 शौच-कूप हैं। सिंधु दुर्ग मराठा स्वराज्य की समुद्री राजधानी थी। सब ओर पानी ही पानी। अस्वच्छता का कोई प्रश्न ही नहीं था। सोचने की बात है कि महाराज ने 40 शौच-कूप क्या सोचकर बनवा लिये होंगे। उल्लेख मिलता है कि सिंधु दुर्ग को भलीभाँति देखने के लिए विदेशी लोग भी मेहमान बनकर आया करते थे। लगता यही है कि उन्हीं मेहमानों की सुविधा को ध्यान में रखकर उतने शौच-कूपों का निर्माण किया गया होगा।
रायगढ़ के रनिवास का पिछवाड़ा पूरी तरह खुला है। भीतर ही भीतर शौच-कूप होने के अवशेष आज भी दिखाई देते हैं।
वर्तमान में जो कमोड इस्तेमाल होते हैं, लगभग वैसे कमोड उस जमाने में भी थे। महल के इन शौच-कूपों से मल सीधा नीचे जाता था। नीचे के जिन गड्ढों में वह एकत्र होता था, उन्हें तुरंत ही मिट्टी डालकर भर दिया जाता था। इस प्रकार न तो गंध फैलती थी और न ही अस्वच्छता कोई समस्या बनती थी। पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति शिवाजी कितने सावधान रहते थे, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है। जब ‘पर्यावरण’ शब्द ही पैदा नहीं हुआ था, तब 400 साल पहले एक योद्धा ने उस पर गहरा विचार किया था। यह वाकई आश्चर्य की बात है।


संदर्भ—
1. शिवाजी कोण होता ? / गोविंद पानसरे
2. राजधर्म सूत्रे / संपादन मोहिनी दातार
3. शिवराय / प्रा. नामदेवराव जाधव
4. Shivaji: His Life and Times / Gajanan Bhaskar Mehendele