Bhaktraj Dhruv - 2 in Hindi Spiritual Stories by Renu books and stories PDF | भक्तराज ध्रुव - भाग 2

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भक्तराज ध्रुव - भाग 2

यमुना के किनारे पहुँचकर ध्रुव ने पहले दिन उपवास किया। और दूसरे दिन से वे विधिपूर्वक भगवान्‌ की आराधना करने लगे। पहले महीने में तीन-तीन दिन पर कैथ और बेर के फल खा लेते तथा निरन्तर भगवान् के द्वादशाक्षर-मन्त्र का जप करते हुए भगवान् के चतुर्भुज रूप का ध्यान करते रहे। दूसरे महीने में हर छठे दिन सूखे पत्ते और कुछ तिनके खा लेते तथा प्रेम से भगवान् की आराधना करते रहे। तीसरे महीने में हर नवें दिन पानी पी लेते और चौथे महीने में तो उन्होंने जल भी छोड़ दिया, केवल वायु पीकर ही रहे। वह भी प्राणवायु इस प्रकार वश में हो गया था कि केवल बारहवें दिन ही वायु ग्रहण करते। निरन्तर भगवान् विष्णु का चिन्तन करते। पाँचवें महीने में प्राण वायु सर्वथा वश में हो गया, उन्होंने श्वास लेना भी बंद कर दिया और अचल भाव से ढूँढ के समान एक पैर से खड़े हो गये। परमात्मा के अतिरिक्त उन्हें और कुछ दीखता ही नहीं था। सारे ब्रह्माण्डों के, सम्पूर्ण प्रकृति के एकमात्र अधीश्वर भगवान् में ही उनका चित्त लग गया, उनके पैर के अँगूठे से पीड़ित होकर पृथ्वी धँसने लगी, विश्वात्मा से एक हो जाने के कारण पृथ्वी उनका भार वहन करने में असमर्थ हो गयी, उनके श्वास बंद हो जाने से सबके श्वास बंद हो गये, समुद्र और नदियाँ क्षुब्द हो गयीं। भूख, प्यास, वर्षा, घाम, आँधी आदि का उन्हें ही पता ही कैसे चलता, जब वे शरीर को ही भूल गये थे। उनके मन, प्राण और उनका व्यक्तित्व भगवान् के चरणों में लीन हो गया था।
देवताओं ने विघ्न डालने का निश्चय किया। बड़ी-बड़ी राक्षसियाँ उन्हें डराने के लिये आती, परंतु वे उनकी ओर देखते ही नहीं थे, तब राक्षसियाँ उन्हें कैसे डरा पाती। देवताओं ने दूसरा उपाय सोचा, वे ध्रुव की माता सुनीति का रूप बनाकर उन्हें विचलित करने की चेष्टा करने लगे। मायामयी सुनीति अपनी आँखों से आँसू बहाती हुई उनके सामने आ खड़ी हुई, वह बड़ी करुणा के साथ कहने लगी— “बेटा! तुम्हें मैंने बड़े कष्ट से पाया है। शरीर को सुखाने वाली यह तपस्या छोड़ दो। मैं दीन हूँ, अकेली हूँ, अनाथ हूँ, मुझे मत छोड़ो। सौत की बातों में पड़कर तुम मेरी उपेक्षा मत करो। तुम्हीं मेरे आधार हो। कहाँ तुम्हारी पाँच वर्ष की अवस्था और कहाँ यह दारुण तप! छोड़ दो, इससे कुछ फल नहीं मिलेगा, यह केवल तुम्हारा हठ है। अभी खेलो, फिर पढ़ना, भोग भोगना और चौथेपन में तपस्या भी करना। मेरी प्रसन्नता ही तुम्हारा धर्म है। यह अधर्म मत करो, मेरी बात मानो, नहीं तो तुम्हारे सामने ही मैं अपने प्राण त्याग दूंगी।” वह ध्रुव के सामने रोती हुई न जाने क्या-क्या कह रही थी। परंतु ध्रुव को इन बातों का पता भी न था। उनका मन भगवान् में इस प्रकार तल्लीन हो गया था कि उन्होंने देखकर भी नहीं देखा।
मायामयी सुनीति ने जोर से चिल्लाकर कहा— “बेटा! इस भीषण वनमें ये भयानक राक्षस शस्त्र लेकर आ रहे हैं, चलो भाग चलें।” यह कहती हुई वह भाग गयी। बड़े भयानक-भयानक राक्षस प्रकट हो गये और ‘मारो-काटो’ कहकर ध्रुव को डराने लगे। परंतु उनकी सब विभीषिका व्यर्थ गयी। एकाग्रचित्त ध्रुव ने भगवान्‌ के अतिरिक्त और कुछ देखा ही नहीं, उनके सामने एक भी छल-प्रपञ्च न चल सका। देवता लोग व्याकुल हो गये। उन्होंने शरणागतवत्सल भगवान् विष्णु की शरण ली और उनसे निवेदन किया। उन्होंने प्रार्थना की— “प्रभो! पुरुषोत्तम! हम ध्रुव की तपस्या से जल रहे। उनकी दिनोदिन अभिवृद्धि होती जा रही है, आखिर वे चाहते क्या हैं? वे इन्द्र पद चाहते हैं, सूर्य पद चाहते हैं या और कुछ चाहते हैं? प्रभो! आप प्रसन्न हों, हमारे कलेजे का काँटा निकाल दें, उन्हें किसी प्रकार तपस्या से विरत करें।”
भगवान् ने कहा— “वह बालक न इन्द्र पद चाहता है, न सूर्य का पद चाहता है और न तुम लोगों को भय पहुँचाना चाहता है, वह जो चाहता है सो मैं उसे दूंगा। तुम लोग उससे डरो मत। मैं उसकी तपस्या पूर्ण किये देता हूँ।”
भगवान् की आज्ञा पाकर देवताओं ने अपने-अपने धाम की यात्रा की और भगवान् ध्रुव के सामने प्रकट हुए।
उस समय ध्रुव ध्यानमग्न थे। उन्हें पता नहीं चला कि भगवान् गरुड़ पर सवार होकर मेरे सामने आये हैं और मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। जब भगवान् ने देखा कि ध्रुव का ध्यान स्वयं नहीं टूटता, तब उन्होंने ध्रुव के ध्यान से अपना स्वरूप खींच लिया। ध्रुव छटपटा उठे। उन्होंने अपनी आँखें खोली और देखा कि जिस रूप का वे ध्यान करते थे, वही रूप, वही साक्षात् भगवान् उनके सामने खड़े हैं। वे सहसा भगवान्‌ के चरणों में लोट गये, उनके सारे शरीर में रोमाञ्च हो आया और आँखों से प्रेमाश्रु बह निकले। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो ध्रुव अपनी आँखों से भगवान्‌ को पी जाना चाहते हैं, मुँह से चूम लेना चाहते और हाथों से लिपट जाना चाहते हैं। उन्होंने सम्हल कर सोचा कि मैं भगवान् की स्तुति करूँ। परंतु उनकी बुद्धि यह न सोच सकी कि भगवान् की स्तुति किस प्रकार की जाय। बोलने के लिये उनके ओंठ फढक रहे थे, परंतु वे बोल न सके। क्या बोलते, पाँच वर्ष के बच्चे ही तो थे।
भगवान् ने कहा— “ध्रुव! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। बोलो, तुम क्या चाहते हो?”
ध्रुव ने कहा— भगवन्! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये कि मैं आपकी स्तुति कर सकूँ। मैं आपका बालक हूँ, आपकी स्तुति कैसे करूँ? ब्रह्मा, शिव और बड़े-बड़े ऋषि भी आपकी स्तुति नहीं कर सकते। मैं तो अभी बच्चा हूँ। मेरी इच्छा पूरी कीजिये। मुझे स्तुति करने की शक्ति दीजिये।
भगवान् ने हँसकर प्रेम से अपने ज्ञानमय शङ्ख को ध्रुव के कपोल से सटा दिया। उसी समय उनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी, उन्हें सम्पूर्ण विद्याओं का रहस्य मालूम हो गया। वे प्रसन्नता से भगवान् की स्तुति करने लगे।
ध्रुव ने कहा— “प्रभो! आपने मेरे हृदय में प्रवेश करके मेरी ज्ञानशक्ति को जगा दिया है। संसार में जितने प्रकार के ज्ञान हैं, वह सब आपकी ही शक्ति से तो हैं। न केवल ज्ञान ही, प्रत्युत सम्पूर्ण कर्म भी आपकी ही की शक्ति से हो रहे हैं। ये हाथ, ये पैर, ये प्राण सब-के-सब आपकी ही शक्ति से जीवित हैं, चेष्टा कर रहे हैं। मेरे हृदय की ज्ञान ज्योति। सबके अंदर रहने वाले आत्मदेव! मैं आपके चरणों में कोटि-कोटि नमस्कार करता हूँ। भगवन्! आपके अतिरिक्त और है ही क्या ? आप अपनी माया-शक्ति से सम्पूर्ण तत्त्वोंको बनाकर उनमें स्वयं प्रवेश करते हैं, उन वस्तुओं के भीतर जीवरूप से अवतीर्ण होते हैं और एक होने पर भी अनेक होकर, निर्गुण होने पर भी अनन्त गुणों से युक्त होकर अनेक लकड़ियों में एक अग्नि की भाँति आप अनेकों रूप से दीखते हैं। नाथ ! आपकी दी हुई शक्ति से ही विश्व बना हुआ है। आपकी ही कृपा से यह तमोगुण की घोर निद्रा से जाग्रत् हुआ है। यह सब आपकी शरण में है। आपके ही वरद कर-कमलों की छत्रछाया में यह पनप रहा है, इस संसार में रहने वाला एक कृतज्ञ जीव आपको कैसे भूल सकता है? यदि भूल जाता है तो इससे बढ़कर और कृतघ्नता हो ही क्या सकती है? वे लोग माया में भूले हुए हैं और अवश्य भूले हुए हैं, जो आपके चरणों की उपासना नहीं करते अथवा करके भी संसार की ही कोई वस्तु, जिसका केवल एक क्षण शरीर के द्वारा भोग किया जा सकता है, माँगते हैं। आपके चरणों का आश्रय लेकर आपकी आराधना करके इस संसार से सर्वदा के लिये छुटकारा पाया जा सकता है। तब जान-बूझकर बन्धन को ही क्यों वरण किया जाय? ये बन्धन, ये सांसारिक सुख तो नरक में भी प्राप्त हो सकते हैं।
प्रभो ! मेरी ऐसी धारणा है और वह पूर्णतः सत्य है कि आपके चरण कमलों के ध्यान से, आपके भक्तों के द्वारा आपकी अथवा भक्तों की कथा सुनने से जिस अनिर्वचनीय आनन्द का लाभ होता है, वह अपनी महिमा में स्थित ब्रह्म में भी नहीं होता। फिर जो कराल काल के द्वारा निगले जा रहे हैं, उन्हें या उनमें उस सुख का लेश भी कैसे हो सकता है ? भगवन् ! मैं निरन्तर आपका चिन्तन किया करूँ और जो आपके भक्त हों, आपके चिन्तन में ही रत हों, जिनका अन्त:करण निर्मल हो गया हो उन्हीं की संगति, उन्हीं का सहवास मुझे प्राप्त होता रहे। मैं आपके गुण, नाम और लीला के कीर्तन-श्रवण में इस प्रकार मत्त हो जाऊ, उस अमृत की धारा में बाहर-भीतर इस प्रकार डूब जाऊँ कि पता ही न चले कि यह संसार का चक्कर चल रहा है या बंद हो गया। कमलनयन! अशरणशरण ! मदनमोहन! जिनके हृदय में आपके चरणारविन्दों की दिव्य सुगन्धि भरी रहती है, उसके समास्वाद में ही जिनका लोभी हृदय निरन्तर लगा रहता है, वे भक्त, आपके वे प्रेमपात्र संसार की वस्तुओं का स्मरण ही नहीं करते। क्या सत्य है, क्या मिथ्या है, ये विचार उनके हृदय में आते हो नहीं, वास्तव में वे जगत् को भूलकर आपके अनन्त प्रेम के अगाध समुद्र में ही डूबते-उतराते रहते हैं।
प्रभो! सर्वात्मन्! ये सब आपके ही तो रूप हैं। पशु-पक्षी, कीट-पतंग, देवता-दानव, स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन सब आपके ही तो स्थूल रूप हैं। आपका स्वरूप इनसे परे भी है, इनसे सूक्ष्म भी है। परंतु बुद्धि वहाँ तक पहुँचती नहीं, चित्त उसका चिन्तन नहीं कर सकता, मन उसके आकलन में असमर्थ है, वाणी की तो चर्चा ही क्या है? मैं उसे क्या जानूँ? मैं तो आपके इस सर्वात्मक रूप को ही नमस्कार करता हूँ। प्रलय के समय सारी सृष्टि को अपने अंदर लेकर आप अपने अनन्त स्वरूप में सो जाते हैं, सृष्टि के समय अपने नाभिकमल से ब्रह्मा का सृजन कर देते हैं। आपके ही प्रकाश से, आपकी ही ज्योति से सारे प्रकाश, सारी ज्योतियाँ प्रकाशित हो रही हैं। मैं आपकी शरण हूँ। आप नित्यमुक्त परमशुद्ध ज्ञानस्वरूप अनन्त एकरस आत्मतत्त्व हैं। आप सबके साक्षी होने पर भी साक्षित्व के धर्म से निर्लिप्त हैं। आपके आनन्द-मात्र निर्विकार अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। दीनबन्धु! जो सत्यसंकल्प सत्यस्वरूप आपका भजन करते हैं; उनकी आशाएँ सत्य हो जायँ, उनकी अभिलाषाएँ पूर्ण हो जायँ, इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है? आप तो अनुग्रह-विग्रह ही हैं। आपकी मूर्ति ही करुणामयी है, आप भक्तों की रक्षा करने के लिये सर्वदा कातर रहते हैं। जैसे गौ अपने बछड़े से प्रेम करती है, उसकी रक्षा-दीक्षा स्वयं करती है, वैसे ही आप अपने सभी शिशुओं का ध्यान रखते हैं।
स्वामिन् ! मैंने अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिये आपकी आराधना की है। परंतु आपकी अपार कृपा का क्या कहना है? बड़े-बड़े साधु और मुनियों को भी जिस रूप के दर्शन नहीं होते, उनके दर्शन मुझे प्राप्त हो रहे हैं, जैसे कोई काँच ढूँढ़ रहा हो और उसे दिव्य रत्न की प्राप्ति हो जाय। अब मैं कृतार्थ हो गया! अब मैं वर नहीं चाहता। प्रभो! आपके इन सुर-मुनि-दुर्लभ चरणारविन्दों का दर्शन प्राप्त करके फिर मैं अपनी पहले मन में रही हुई कामनाओं की पूर्ति कैसे चाह सकता हूँ? भला, कल्पवृक्ष का प्रसाद प्राप्त करके कोई भूसी की याचना करता है ? अब मैं इन चरणों को नहीं छोढूगा। मोक्ष के मूलस्वरूप अपने स्वामी के शरणागत होकर मैं अब बाह्य सुख का उपभोग नहीं कर सकता। जब रत्नाकर ही अपना स्वामी हो तब काँच का गहना क्यों पहना जाय? इसलिये अब मैं आपसे कोई वर नहीं माँगता। केवल आपके चरणकमलों की भक्ति बनी रहे। मुझे यही वर दीजिये। मैं बारम्बार यही वर माँगता हूँ।”
भगवान् ने कहा— “प्यारे ध्रुव! तुम ठीक कह रहे हो। यद्यपि तुम्हारे मन में पहले कामना थी, परंतु अब नहीं है। मेरे दर्शन के बाद कामनाएँ नहीं रहतीं। तथापि मैं तुम्हें बहुत ही ऊँचा स्थान दूँगा। तुम्हें मेरी भक्ति तो प्राप्त है ही और प्राप्त रहेगी ही तथापि मेरे आग्रह से, मेरी आज्ञा से तुम्हें स्वीकार करना पड़ेगा। तुमने इसी कामना से मेरी आराधना की है, वह पूर्ण होनी चाहिये और पूर्वजन्म में भी तुम्हारे मन में यह वासना थी, पिछले जन्म में तुम ब्राह्मण थे, मेरे प्रति तुम्हारी श्रद्धा थी, माता-पिता की तुम सेवा करते थे और अपने धर्म पर आरूढ़ थे। कुछ समय के बाद एक राजकुमार से तुम्हारी मित्रता हो गयी। वह युवक था, सुन्दर था और उसके पास भोग की अनेकों सामग्रियाँ थीं। उसकी देखा-देखी तुम्हारे मन में भी राजकुमार होने की वासना हो गयी। उसी के चिन्तन में तुम्हारी मृत्यु हुई और तुम राजकुमार हुए। मुझ पर तुम्हारी आस्था थी और धर्म में श्रद्धा थी, अतः तुम श्रेष्ठ राजवंश में पैदा हुए और वहाँ भी मुझे नहीं भूल सके।
इस जन्म में तुम्हें राजा होना ही पड़ेगा। इतनी बात है कि तुम मुझे कभी नहीं भूलोगे। छत्तीस हजार वर्षां तक राज्य करने के पश्चात् तुम्हारे लिये विमान आवेगा और तुम उस पर चढ़कर मेरे लोक में ग्रह-नक्षत्रों से ऊपर त्रिलोकी के केन्द्र ध्रुव स्थान में जाओगे और वहाँ तुम कल्पपर्यन्त रहोगे। जगत् का ज्योतिश्चक्र और सप्तर्षी आदि तुम्हें दाहिने करके विचरण करेंगे। एक प्रकार से वे सब-के-सब तुम्हारी प्रदक्षिणा करेंगे। कल्प के अन्त में तुम मेरे लोक में आओगे और मेरा वह स्वरूप प्राप्त करोगे, जिसे पाकर फिर लौटना नहीं होता। तुम्हारा लौकिक जीवन भी बड़ा ही उपकारी होगा। बहुत-से यज्ञ करोगे और तुम्हारे साथ तुम्हारी माता की भी सद्गति होगी। अब तुम अपने पिता उत्तानपाद के पास जाओ। वे तुम्हारे लिये अधीर हो रहे हैं।”
इतना कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और ध्रुव ने वहाँ से यात्रा की।