कहां जा रहे हो आशीष मुसई बोले आशीष कुछ तुनक कर बोला काहे पूछते हो जब तुम्हरे मान का कछु नही है ।
मुसई बोले बेटा हमरे पास कछु हो चाहे ना हो पर है तो तुम्हरे बाप ही जैसे है वैसे ही अपनी कूबत में तुम लोगन का परिवरिश कर रहे है बाकी ईश्वर कि मर्जी जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये आशीष और भी तुनक गया आखिर काहे चौबीसों घण्टे बापू अपनी माली हालात के रोना रोअत रहत है ।
ऐसे का होई जाई कुछ सोच लईकन के पढावे लिखवाए वदे हाथ पर हाथ धरे बइठे कौनो काम ना बनी अभी बड़े बेटे आशीष और मुसई के मध्य वार्ता चल ही रही थी कि अंशु बीच बोला आशीष भईया ठीक ही त कहत है का हम चारो भाईन से भीख मगौब ।
मुसई को लगा जैसे उसने राम लखन भरत शत्रुघ्न जैसे चार बेटवा का पैदा कर दिया कौनो गुनाह कर दिया मुसई थोड़ा विनम्र होते बोले बेटा ईश्वर हमार परीक्षा लेत बा जरूर हमहूँ खातिर कुछ सोचे होए ऊ त सबसे बड़ा मुंसिफ जज हॉउअन ऊ केहूकी साथे अन्याय नही कर सकतन उनके खातिर शबे समान है हमरो खातिर उनके अच्छे न्याय होई ।
गरीबी कटी निक दिन आईहै आशीष कुछ नरम होते बोला कब तक ईश्वर के नाम पर परीक्षा हम पचन देत रही जब तू गरीबी कि भट्ठी में हाड़ जला के मरी जॉब आशीष कि बात सुन मुसई बोले बाबू आशीष परीक्षो वोकर होले जे वोकरे लायक होला स्कूल में नाव लिखाई पढ़े जाई परीक्षा के तैयारी करी या नौकरी के फारम भरी और तैयारी करी इहे नियम भगवान कि इहाँ भी लागू होला जे वोकरी निगाह में परीक्षा देबे लायक होला वोहिके परीक्षा लेले भांति भांति से ।
आशीष को बापू कि बात सुन कर लगा जैसे उसका बापू ही स्वंय भगवान का साक्षात है और परीक्षा के नियम योग्यता बता रहे हो।
बाप बेटे के प्रतिदिन का संवाद समाप्त हुआ मुसई चले गए अपने नित्य काम कली मंदिर पूजा जो उनके घर से कुछ दूरी पर ही था और जो रमवा पट्टी गांव के लोंगो कि आस्था का केंद्र था गाँव कि पंचायत हो या विवाद सभी काली मंदिर के प्रांगण में मिल बैठ कर सुलझाए जाते मुसई प्रति दिन अपने ईश्वरीय आस्था कि परीक्षा देने काली मन्दिर जाते।
उनको विश्वास था कि उनकी परीक्षा का परिणाम सर्वश्रेष्ठ निकलेगा और उनके चारो सपूत उनका उनका नाम रौशन एक न एक दिन अवश्य करेंगे ।
मुसई रमवा पट्टी गांव के सबसे दीन हीन गरीब थे उनके चार बेटे आशीष ,अंशु,आनंद,अभिषेक वास्तव में राम लक्ष्मण भरत शत्रुघन की तरह थे चारो भाईयों में इतना प्रेम था कि पूरे गांव वालों को रस्क होता कि जल्दी ही एक ना एक दिन मुसई के चारो बेटे मुसाई कि तकदीर बदल देंगे और गांव में सबसे अधिक धनवान शक्तिशाली हो जाएंगे जबकि गरीबी और बेहाली मुसई के परिवार का वर्तमान उनको उनके परिवार को गांव वालों के बीच परिहास का पात्र बनाता ।
फिर भी मुसई बिना किसी संकोच के औलादों का ताना सुनते और अच्छी शिक्षा देते आशीष गांव के मिडिल स्कूल में कक्षा आठ में अध्ययन रत था जबकि अंशु प्राइमरी पाठशाला में कक्षा पांच में आनंद कक्षा दो में अभिषेक अभी चार वर्ष का था वह अभी पढ़ने नही जा रहा था।
मुसाई की पत्नी सुलोचना भी मुसई की ही तरह धर्म भीरू थी और पति की परिस्थितियों में वह भी बराबर पति के साथ मुसई के अनुसार ईश्वरीय परीक्षा में मुसई के साथ प्रतिदिन भारतीय सती नारी कि तरह कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहती ।
मुसई की सबसे बड़ी सम्बल थी जब कभी मुसाई ईश्वरीय परीक्षाओं से थका हारा सुलोचना को नजर आता वह उसे समझाती एजी सभी टाटा बिरला तो हो नही जाते जिसके लिए जितना तुम्हारी कालीमाई ने देहले हई वोकर करम है दूसरे के देख के अपने पास जौंन ऊ दिहले वाटे ईश्वर वोके काहे छोट मानल जा ।
आप चिंता जिन करी सब अच्छा ही होई आपके राम लखन भरत शत्रुघन बाड़े न ऊ आपके इहे धन संपत्ति दिहले हौऊवन मन थोर जिन करी सब उनही ईश्वर पर छोड़ देयी जे पर आपके भरोसा बा।
कभी कभी सुलोचना कि बात सुनकर मुसई चुप हो जाते तो कभी कभी झल्ला कर कहते तू आपन बेटवन के राम लक्ष्मण से तुलना करत रहेलु जो राम अपने बाप कि मनसा पर चौदह वर्ष वन में चली गइलन तोहार बेटवा त रोज रोज हमे ताना के तीर मारीक़े घायल करेले सुलोचना बार बार कहती देखब हमार बेटवा एक दिन राम लक्ष्मण जैसन आपके सीना सर ऊँचा करीहे आपो फुले ना समईबे मुसई पर विश्वासः कर चुप हो जाते।
मुसई ईश्वर पर आस्था बहुत गहरी थी उनको भी विश्वासः था कि वह दिन अवश्य उनकी जिंदगी में आएगा जब उनके बेटे उनको स्वाभिमान से जीने का हक देते हुए गांव जवार में उनका नाम रौशन करेंगे।
मुसई गाँव के एक मात्र सवर्ण ऐसे थे जिनके पास जमीन नही थी सिर्फ एक झोपड़ी जिसमे वह परिवार सहित रहते थे उनके पिता जी मंगल बहुत बड़े जमींदार थे और उनका रुतबा बहुत दूर दूर तक था मंगल सिंह की पत्नी थी अनिता जिससे एक मात्र संतान मुसई थे मुसई का नाम था महेश मगर जियले के नाव मुसई रखा गया था पूर्वी उत्तर प्रदेश एव बिहार में एक प्रचलन बहुत आम था जब किसी की औलाद पैदा होने के दो चार साल बाद मर जाती तब टोटके के रूप में बच्चे को जीने के लिए उस आदमी को बेंच दिया जाता जिसकी संताने पैदा होने के बाद जीवित एव स्वस्थ रहती बच्चे कि बेंची गयी कीमत बहुत छोटी चार आने आठ आने होती उस पैसे से बच्चा बेचने वाला नमक खरीदता और उसे भोजन में मिला कर खाता बच्चा खरीदने वाला बच्चे को एक नौकर जैसा नाम देता जैसे मगरू, चिरकुट,केथरु आदि यही सच्चाई मुसई कि भी थी मुसाई से पहले उनके चार पांच भाई जन्म लेते या जन्म के कुछ दिन बाद नही रहे जिसके कारण मुसई के पिता मंगल ने महेश को गांव के धोबी रमना को चार आने में बेच दिया था और रमना ने महेश का नाम मुसई रखा था तभी से मुसई नाम से महेश जाने जाते थे ।आज भी पूर्वी उत्तर प्रदेश एव बिहार में इस प्रथा की एक कहावत मशहूर है जियले के नाव घुरहू।
नन्दलाल मणि त्रिपठी पीताम्बर गोरखपुर उतर प्रदेश।।