[ शिवाजी महाराज और नौसेना ]
ईस्ट इंडिया कंपनी:
भारत एवं अन्य पूर्वी देशों में व्यापार करने के लिए अंग्रेजों ने ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ की स्थापना की थी। इस कंपनी को यूरोपीय देशों ने अपनी कानूनी स्वीकृति भी दे दी थी।
16वीं सदी में ब्रिटेन, द यूनाइटेड प्रॉविंसेस, नीदरलैंड, फ्रांस, डेनमार्क, स्कॉटलैंड, स्पेन, ऑस्ट्रिया, स्वीडन आदि राष्ट्रों के बीच सुदूर पूर्व की दिशाओं में व्यापार करने की स्पर्धा शुरू हुई।
सितंबर 1599 में लंदन के व्यापारियों ने 3 लाख पौंड एकत्रित कर ‘ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी’ स्थापित की। सन् 1600 में ब्रिटेन की रानी एलिजाबेथ ने ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ को अंतरराष्ट्रीय व्यापार करने के लिए मान्यता दी।
सन् 1692 में विलियम हॉकिंस की कोशिशों के फलस्वरूप मुगल बादशाह जहाँगीर ने इस कंपनी को सूरत में अपना माल सुरक्षित रखने के लिए गोदाम बनाने की इजाजत दे दी।
सन् 1661 के बाद इस कंपनी का स्वरूप बदल गया। इसे लिमिटेड कंपनी जैसी न रखकर 'जॉइंट स्टॉक कंपनी' के साँचे में ढाला गया। उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करना, सेना रखना, प्रदेश जीतना, किले बनाना, दीवानी और फौजदारी न्याय करना इत्यादि अनेक महत्त्वपूर्ण अधिकार 'ईस्ट इंडिया कंपनी' को हासिल हो गए।
1773 में ब्रिटिश संसद् ने ‘रेग्युलेशन ऐक्ट’ पास किया, जिससे कंपनी के कार्यों एवं उत्तरदायित्वों में फिर से परिवर्तन हुआ। नतीजा यह रहा कि भारत की राजनीति में ब्रिटिश संसद् का सीधा हस्तक्षेप शुरू हो गया। कंपनी का क्षेत्र केवल व्यापार तक सीमित रखा गया। ब्रिटिश सरकार ने राजनीति का कार्य क्षेत्र स्वयं के अधिकार में ले लिया।
1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश सरकार ने 'ईस्ट इंडिया कंपनी' को समाप्त ही कर दिया।
‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ की शक्तियों में जो अभूतपूर्व विकास हुआ था, उसका अधिकतम श्रेय ब्रिटेन की नौसेना को जाता है। अंग्रेजों ने नौसेना का महत्त्व बहुत पहले से समझ रखा था।
सन् 1646 से 1659 तक के 13 वर्षों में ब्रिटेन ने 217 युद्ध-नौकाएँ तैयार कर ली थीं।
सन् 1660 में जारी की गई ‘ब्ल्यू वॉटर पॉलिसी’ के कारण ब्रिटेन ने ऐसा रुख अपनाया कि समुद्रों के उस पार पहुँचकर व्यापार करना और समुद्रों में अपनी फौज रखना, ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अंग्रेजों का तर्क यह भी था कि ब्रिटेन एक द्वीप है, जिस पर सभी दिशाओं से आक्रमण हो सकता है, लिहाजा ब्रिटेन के पास एक मजबूत नौसेना होनी ही चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ जुड़ जाने से ब्रिटिश नौसेना प्रारंभ से ही विशाल एवं शक्तिशाली रही है।
ब्रिटेन ने सात समंदर पार जाकर अपना व्यापार फैलाया। देखते-देखते वह भरपूर धनवान हो गया। डच, फ्रेंच व पुर्तगीज देश ब्रिटेन की समृद्ध नौसेना को चुनौती देने के लिए हमेशा तत्पर रहे, किंतु ब्रिटेन ने इन सबको पीछे छोड़ दिया। 19वीं सदी में तो ब्रिटेन का साम्राज्य इतना विस्तार पा गया कि कहा जाने लगा कि ब्रिटिश सत्ता पर कभी भी सूर्यास्त नहीं होता। इतने बड़े गौरव का श्रेय ब्रिटेन की नौसना और उसकी समृद्ध परंपराओं को ही जाता है।
सर फ्रांसिस बेकन (1561-1626) ब्रिटेन की महान् हस्तियों में से एक हैं। वे एक श्रेष्ठ वैज्ञानिक व दार्शनिक थे। राजनीति में भी उनका अपना रुतबा था। उन्होंने अनेक व्याख्यान दिए और पुस्तकें लिखीं। नौसेना की अहमियत को लेकर उन्होंने कहा था,
“जिसने समुद्र पर प्रभुत्व पा लिया, वह आजाद हो गया, क्योंकि वह बेधड़क फैसला कर सकता है कि उसे युद्ध करना है या नहीं करना है। वह अपनी इच्छानुसार सेना रख सकता है और मुकाबला यदि अधिक बलशाली शत्रु से हो, तो उसके सामने से वह सुरक्षित हट भी सकता है।”
पुर्तगीजों के आने के बाद भारतीयों को उनके नौसैनिकों की शक्ति के बारे में पहली बार पता चला। नौसेना के मामले में भारतीय, अनेक शताब्दियों से, अरबों से पिछड़े थे। 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में तुर्कों ने इस्तांबुल व अन्य प्रदेशों पर अपना अधिकार जमा लिया। तुर्कों की नौसेना अरबों की ही तरह तमाम समुद्री जनजातियों से भरी हुई थी।
जेनेवा (स्विट्जरलैंड), वेनिस (इटली), एथेंस (ग्रीस) की समुद्री विद्याओं का उन्हें ज्ञान था। इसके बावजूद पुर्तगीजों के सामने तुर्की की एक न चली। पचास वर्षों के भीतर मुसलमान व्यापारियों को भारतीय तटों से विदा हो जाना पड़ा।
मुसलमानों और पुर्तगीजों, दोनों की शूरवीरता एक समान थी, किंतु पुर्तगीजों के आवेश एवं युद्ध कौशल मुसलमानों से बेहतर साबित हुए। इतिहास दरशाता है कि पुर्तगीजों की नौकाएँ समुद्र में अधिक से अधिक दृष्टिगोचर होती थीं। अरबों की तुलना में पुर्तगीज नौकाएँ कहीं अधिक लड़ाकू थीं। पुर्तगीजों की क्रूरता व निर्लज्जता सारी सीमाएँ लाँघ जाती थीं। इस कसौटी पर अरब और ईरानी नरम ही साबित होते थे। जैसा कि इतिहास दरशाता है; शत्रुओं में दहशत फैलाने के लिए पुर्तगीजों ने क्रूरता व निर्लज्जता के दुर्गुणों का खुलकर उपयोग किया।
प्रारंभिक लड़ाइयों में पुर्तगीजों ने शत्रुओं के सामने आने पर उनका वंश ही नष्ट कर दिया। शत्रुओं को समूल नष्ट करना उन्होंने अपना उद्देश्य बना रखा था। मुसलमानों को उन्होंने समूल ही नष्ट किया और यह उनके श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्रों एवं युद्ध-नीति के कारण संभव हुआ। उस समय की तीन मुसलमानी सत्ताएँ, जो संसार में श्रेष्ठ मानी जाती थीं, केवल जमीन पर ही बलशाली थीं। समुद्र में उनका उतना प्रभाव नहीं था। ये सत्ताएँ थीं— तुर्क, ईरानी और मुगल। भारत में मुगल सत्ता ने नौसेना की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। औरंगजेब के सामने जब परदेशियों से सामना करने का समय आया, जो उसने निजामशाही के अवशेष की तरह स्वतंत्र रूप से रह रहे जंजीरा किले के हबशी को अपनी सेवा में लिया और उसकी मक्का यात्रा को सुरक्षित किया, ताकि मुगलों के बंदरगाह में शांति बनाए रखने का काम उसे सौंपा जा सके। नौसेना का विकास करने, उसे आधुनिक बनाने के लिए औरंगजेब ने कोई कोशिश नहीं की।
इसके ठीक विपरीत शिवाजी महाराज ने समुद्र का महत्त्व समझते हुए अपनी नौसेना के विकास का प्रयत्न किया। इसमें दिक्कत यह आई कि मराठों की आर्थिक शक्ति का अधिकांश तो उनकी आंतरिक सुरक्षा के पीछे खर्च हो जाता था। ऐसे में नौसेना के उचित विकास के लिए आर्थिक व्यवस्थाएँ हो नहीं पाती थीं। धन की कमी के साथ-साथ सामाजिक प्रतिबंध भी बाधा बन गया। भारत में मान्यता थी कि समुद्र तो देवता है, उसे लाँघा नहीं जा सकता। समुद्र में युद्ध-नौकाएँ ले जाने का अर्थ है, देवता पर सवारी करना। यह पाप है। इससे मिलती-जुलती और भी कई मान्यताएँ थीं, जो नौसेना के विकास में बाधक थीं। 17वीं शताब्दी में शस्त्र ज्ञान के व्यापक विकास की आवश्यकता थी। जब तक देश के धर्म गुरु एवं समाज सेवी अपने सामने यह लक्ष्य न रखते कि उन्हें राजा और प्रजा दोनों को नौसेना के विकास के लिए प्रेरित करना है, तब तक भारत में कोई भी सुधार संभव नहीं था।
ब्राह्मण एवं सुशिक्षित वर्ग के अनवरत मार्गदर्शन के बिना पाश्चात्य तरीके के सुधारों को आत्मसात् करना प्रजा के लिए सचमुच कठिन था। हिंदुओं की वर्ण व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हुए बिना नई विद्याओं को आत्मसात् नहीं किया जा सकता था और यह परिवर्तन सत्रहवीं, अठारहवीं व उन्नीसवीं इन तीन शताब्दियों में भी नहीं हुआ था। इसलिए नौसेना का इतिहास इसी तरह बनता गया। परिवर्तन के अभाव में सदिच्छा, स्वाभिमान, दीर्घ प्रयत्न, कल्पना शक्ति एवं शौर्य ये सभी अनुपयोगी सिद्ध हुए। बलशाली मुगलों को किसी ने प्रेरित नहीं किया कि वे नौसेना की तरफ ध्यान देते। शिवाजी ने इसी कमी की ओर ध्यान देकर अपने राज्य का आधा खर्च नौसेना पर लगाने और उसे शक्तिशाली बनाने की कोशिश की थी। फिर भी मराठों की नौसेना राज्य रक्षण का एक अपंग या अपरिपक्व साधन ही बनकर रह गई। भारतीयों की कमजोरी थी कि वे सामने ही दिखाई दे रही असलियत को देखकर भी नहीं देख पाते थे। पूर्वी देशों की संस्कृति सचमुच नेत्रहीन थी, नेत्र होते हुए भी! इसी कारण पूर्वी देशों का अनेक शताब्दियों तक विकास नहीं हुआ और वे आक्रमणकारियों द्वारा शोषित होते रहे। शिवाजी के समय में भी पूर्वी देशों की प्रजा अंधकार में विचरण कर रही थी। प्रगति के मार्ग को मन से, मस्तिष्क से अपनाना उसके लिए सर्वथा असंभव था!
शिवाजी महाराज नौसेना स्थापित करने के लिए क्यों उत्सुक थे, इसके तीन महत्त्वपूर्ण कारण थे—
1. वे समुद्री लुटेरों एवं गुलामों का व्यापार करने वालों को रोकना चाहते थे।
2. वे सिद्दी जौहर पर अंकुश रखना चाहते थे, ताकि सागर तट की रक्षा हो सके।
3. वे अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देकर धनोपार्जन करना चाहते थे, ताकि अपने राज्य को आर्थिक मजबूती दे सकें।
किंतु उस समय के धर्म-पंडित समुद्री यात्रा को अशुभ ही मानते रहे। अंततः शिवाजी ने पुराने रीति-रिवाज की परवाह न करने का फैसला किया और नौसेना स्थापित कर दी। सागर-तट पर रहते आगरी, कोली, भंडारी व कुनबी जाति के साहसी लोगों को उन्होंने अपनी नौसेना में शामिल किया।
यह कार्य शिवाजी ने शून्य से ही प्रारंभ किया। इसके लिए नौका बनाने का कार्य, समुद्र का भूगोल, समुद्र की गतिविधियाँ, वायु के प्रवाह की दिशाएँ, नौका संचालन का तंत्र ज्ञान आदि शाखाओं का अध्ययन करना आवश्यक था और ये शाखाएँ तो ऐसी हैं कि उनमें पारंगत होने के लिए पूरी आयु भी कम पड़ जाए! पश्चिम के लोगों ने अभ्यास से, अनुभव से, पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन शाखाओं का ज्ञान प्राप्त किया था। समांतर सत्य यह भी था कि केवल ज्ञान के आधार पर नौसेना का निर्माण असंभव था। उसके लिए अनिवार्य था कि ऐसी सुरक्षित जगहों का विकास किया जाए, जहाँ नौकाओं का निर्माण हो सकता। नौकाओं की टूट-फूट की मरम्मत की व्यवस्था भी अत्यावश्यक थी। नौसैनिकों को प्रशिक्षण देने की व्यवस्था भी होनी चाहिए थी। यह सब बहुत खर्चीला काम था, क्योंकि पुर्तगीजों एवं सिद्दी जौहर का सामना करने के लिए भी तो धन चाहिए था। मुगलों एवं आदिलशाही का सामना भी साथ-साथ किया जा रहा था। थल सेना की भी सारी आवश्यकताओं को पूरा करना जरूरी था।
वीर शिवाजी ने इन तमाम रुकावटों को पार करते हुए स्वयं की नौसेना का निर्माण किया। इतना ही नहीं, बसरूर के आक्रमण के समय उन्होंने अपनी नौसेना का नेतृत्व भी स्वयं किया। सभासदों के जो उद्गार दस्तावेजों में अंकित हैं, उनके अनुसार नौका पर मस्तूल भी शिवाजी ने अपने हाथों से चढ़ाया।
शिवाजी का राजनैतिक जीवन शुरू होने के पहले से ही भारत के समुद्रों पर राजकीय सत्ता दुर्बल रही थी। मुगलों ने साम्राज्य की नदियों के हिसाब से लघु-नौसेना का निर्माण किया तो था, किंतु जब मक्का मदीना की हज यात्रा का मौका आता, तब ऊँची राजकीय हस्तियों को भी समुद्र के उस पार जाने के लिए पुर्तगीजों से परवाने लेने पड़ते थे।
सन् 1656 में शिवाजी ने चंद्रराव मोरे को मारकर जावली प्रदेश पर अधिकार कर लिया। जावली को उन्होंने अपने राज्य में शामिल कर लिया और कोंकण में प्रवेश किया। तदुपरांत कुछ ही समय में सिद्दी जौहर के साथ महाराज की लड़ाइयाँ शुरू हो गई।
19 जुलाई, 1659 के दिन शिवाजी महाराज ने गोवा के पुर्तगीजों को इस प्रकार पत्र भेजा—
“दंड्या-राजपुरी बंदरगाह के हब्शी प्रशासक सिद्दी से मेरी दुश्मनी है। सिद्दी का विरोध करने के लिए मैंने अपने कुछ घुड़सवार और प्यादे सैनिकों को सरहद पर भेजा था। उस समय सिद्दी को चौल तथा वसई के पुर्तगीज कप्तान अनाज देते थे और भी कई तरीकों से मदद करते थे। हब्शी इसीलिए निश्चिंत रहते थे। मेरी और आपकी मित्रता के बीच यह बहुत बड़ी रुकावट है। चौल तथा वसई के कप्तान मेरे खिलाफ हैं, यह बात मैं जानता हूँ, किंतु आप नहीं जानते हैं। चौल तथा वसई के कप्तान मुझसे अच्छा बरताव करें और दंड्य के हब्शियों को मदद न करें। ऐसा आदेश कृपया जारी करें।”
इस मौके पर शिवाजी महाराज ने अपने सलाहकार सभासदों की एक बैठक बुलाई, जिसमें सभी सभासद उनके साथ एकमत हुए।
शिवाजी ने अपने पत्र में जैसी विनती की थी, उसके अनुसार गोवा के पुर्तगीजों ने चौल और वसई के अपने कप्तानों को इस प्रकार पत्र लिखे—
“...क्योंकि शिवाजी शक्तिशाली हैै… कल्याण, भिवंडी और कोंकण का वही मालिक हैै… वह हमें नुकसान पहुँचा सकता है। उसके साथ दोस्ती बनाए रखना जरूूरी हैै।… ”
वसई और चौल के कप्तान को दूसरा पत्र पुर्तगीजों ने नेक सलाह देते हुए लिखा कि वह दंड्या के हब्शियों को खुल्लमखुल्ला मदद न करे, किंतु किसी को पता न चले, इस तरीके से मदद करते रहने में कोई हर्ज नहीं है।
इस बात के साथ गवर्नर ने भी सहमति दरशाई।
शिवाजी ने अपनी जल सेना की मजबूती के लिए पुर्तगीज मजदूरों को काम पर लगा रखा था। पुर्तगीज गवर्नर को इसकी जानकारी मिली, तो उसने नाराज होकर उन मजदूरों को तत्काल काम छोड़ देने का आदेश दिया।
यह कारवाई ‘अंतोनियो द मेलू द कास्त्र’ और ‘द फ्रांसिस्कू द कैश्तेल ब्रंकू’ नामक पुर्तगीज कैप्टनों ने की।
अशेरी तथा मनोर के कप्तान अंतोनियो द मेलू द कास्त्र ने 30 सितंबर 1659 के दिन अपना संक्षिप्त पत्र इस प्रकार जारी किया—
“मैं, वसई किले व शहर एवं इसके अधिकार क्षेत्र में आते अशेरी तथा मनोर का कप्तान अंतोनियो द मेलू द कास्त्र प्रमाणित करता हूँ कि इस समय कोंकण के भिवंडी तथा कल्याण के खाड़ी-प्रदेश पर राज्य करने का अधिकार शिवाजी राजा के पास है। शिवाजी भिवंडी, कल्याण एवं पेण की बीस नौकाओं के जोर पर दंड्या के सिद्दी को सबक सिखाने के लिए उसे घेरने की तैयारी कर रहा है। राज्य में इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। यह बात पुर्तगाल के राजा की शक्ति को कम प्रदर्शित करती है, जबकि ऐसा नहीं है। असलियत यह है कि हमारी ही शक्ति के कारण शिवाजी अपनी नदियों एवं खाड़ियों के अलावा अन्य किसी मार्ग से खुद की नौसेना बाहर नहीं निकाल सकता।
“इस 'झेंतीऊला' (हिंदू यानी शिवाजी) की नौसेना आज भले ही ज्यादा शक्तिशाली न हो, लेकिन वह अपनी शक्ति बढ़ाने पर आमादा है। कहीं वह इतना शक्तिशाली न हो जाए कि साष्टी द्वीप को हानि पहुँचा सके। हमारी ही नौकाओं को छीनकर वह खुद की बड़ी नौसेना स्थापित कर सकता है। आज वह जितना शक्तिशाली और यशस्वी जमीन पर है, कल उतना ही कामयाब समुद्र पर भी हो जाएगा।
“मगर यह तब हो सकता है, जब—
‘रूय लैताँव व्हियेगश’ और उसके पुत्र फेर्नाव व्हियेगश के बलबूते पर शिवाजी को नई एवं आधुनिक नौकाएँ बनाने का मौका मिल जाए। फेर्नाव व्हियेगश के साथ 300 पोर्तुगीज नाविक हैं। बहुत जरूरी है कि हम शिवाजी की नई एवं आधुनिक नौसेना बनाने की योजना को असफल कर दें। इसका एक ही रास्ता है। वह यह कि रूय लैताँव और उसके पुत्र के जो 300 नाविक शिवाजी की तरफ चले जाएँ, वे शिवाजी को छोड़कर हमारे बंदरगाह साष्टी पर वापस आ जाएँ। शिवाजी की ताकत खत्म करने के लिए सबसे भरोसे का, सरल और गतिशील उपाय यही है। मुझे तो लगता है, इस शानदार उपाय को जल्द से जल्द अपना लिया जाए, ताकि उन नादान नाविकों को भगवान् और राजा की सेवा में वापस बुलाया जा सके। इससे उनकी हिचक और डर, दोनों दूर हो जाएँगे। हमारी पोर्तुगीज नौसेना में नाविकों की जो कमी है, वह इन नाविकों के लौट आने से पूरी हो जाएगी। यह तो बहुत खुशी की खबर होगी।
“मुझे मालूम था कि इतना महत्त्वपूर्ण यह काम सिर्फ ‘जुआँव द सालाझार द व्हास्कोंसेलुश’ कर सकता है और इसीलिए मैंने उसे ही भेजा। उसने भी यह काम बड़ी मेहनत और लगन से किया। रूय लैताँव व्हियेगश और उसके पुत्र फेर्नाव व्हियेगश के 300 साथी अब पोर्तुगीज राजा की सेवा में वापस आने को तैयार हैं।”
इस संदर्भ में रूय लैताँव व्हियेगश ने मुंबई में, 7 अक्तूबर, 1659 के दिन जो निवेदन लिखा, वह इस प्रकार है—
“मैं, रूय लैताँव व्हियेगश, निवेदन करता हूँ कि मैं शिवाजी राजा की नौकरी करता था। यह नौकरी कल्याण में थी, जहाँ मेरे साथ अनेक गोरे और काले लोग भी काम पर लगे हुए थे। शिवाजी पेण तथा अन्य बंदरगाहों में बीस युद्ध नौकाओं एवं अन्य नौकाओं की जल सेना तैयार कर रहा था। इस सैन्य शक्ति का निर्माण हो जाने पर शिवाजी ने हुक्म दिया कि दंड्या के सिद्दी के किले को समुद्र की तरफ से घेर लिया जाए। मैं नहीं चाहता था कि शिवाजी की नौकाएँ कूच करें। मुझे वसई के कैप्टन 'एंटोनियो द मेलू द कास्त्र' की ओर से आदेश मिला कि मैं कल्याण जाकर वहाँ के कैप्टन 'जुआँव द सालाझार' को भरोसा दिलाऊँ कि मैं शिवाजी को छोड़कर पुर्तगाल के राजा की सेवा में वापस आना चाहता हूँ। बहुत जरूरी था कि जब भी मैं ऐसा करूँ, तब मेरे पुर्तगीज सैनिक भी शिवाजी को छोड़ दें और मेरे साथ बने रहें ।
“शिवाजी के साथ करीब 340 नाविक ऐसे थे, जिनमें से कुछ गोरे थे, तो कुछ काले भी थे और जिन्हें शिवाजी का साथ छोड़ देने के लिए मनाया जा सकता था। उनकी बीवियों और नौकरों की तादाद 400 से ज्यादा थी। उनमें से कुछ ऐसे थे, जो पहले पुर्तगीजों की ही नौकरी करते थे, लेकिन बाद में शिवाजी की सेवा में आ गए थे। उन्हें समझा-बुझाकर पुर्तगीजों की सेवा में वापस ले आना कोई खास मुश्किल नहीं था। इसी का भरोसा दिलाने के लिए मैंने कल्याण पहुँचकर कैप्टन जुआँव द सालाझार से मुलाकात की।
“वसई के कैप्टन के आदेश का पालन करता हुआ मैं, अपने साथ काले व गोरे सैनिकों को लेकर, मुंबई बंदरगाह पर आ पहुँचा हूँ। यहाँ मुझे अपने यूरोपीय शत्रुओं यानी डच लोगों का सामना करना है।”
शिवाजी को जब पता चला कि पुर्तगीज सैनिक उनकी नौकरी छोड़कर जा रहे हैं, तब वे जरा भी विचलित नहीं हुए। शायद उन्होंने पहले से सोच रखा था कि ऐसा तो एक दिन होना ही है। इसी हिसाब से उन्होंने तैयारी भी कर रखी थी।
शिवाजी की नौसेना का विवरण चित्रगुप्त ने प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार, 30 गुराबे (युद्ध नौकाएँ), 50 छोटे गुराबे, 100 बड़ी युद्ध नौकाएँ (बड़े गुराबे ), 150 छोटी
युद्ध नौकाएँ (महागि यानी छोटे गुराबे), 10 बड़ी नावें (होड़य़ा), 150 छोटी नावें, 60 तारवे (दो नावों के बीच आने-जाने के तख्त), 25 मस्तूल, 15 जूग और 50 मचवे शिवाजी की नौसेना में शामिल थे।
अंग्रेजों ने शिवाजी महाराज की नौसेना के साजो-सामान की तालिकाएँ समय-समय पर जारी की थीं। उनके अनुसार जब शिवाजी की नौसेना कारवार के नजदीक तक गई थी, तब उसमें ‘एक डोलकाठी’ जहाज थे। यानी 30 से 150 टन तक के वजन के 85 जहाज एवं 3 बड़े जहाज थे। बाद में जब अंग्रेजों ने सिद्दियों के साथ दोस्ती का बरताव शुरू कर दिया, तब गोरों को दहशत में डालने के लिए शिवाजी ने मुंबई के बैकबे के सामने 160 जहाज लाकर खड़े कर दिए थे। स्वयं अंग्रेजों ने इसका उल्लेख किया है।
ऐसी शक्तिशाली नौसेना तैयार करने के पीछे शिवाजी का उद्देश्य यही था कि मुगल, सिद्दी, अंग्रेज, डच, पुर्तगीज इत्यादि के रात दिन आते-जाते जहाज, जो चुनौती सामने रखते थे, उनका मुकाबला किया जा सके। इतना ही नहीं, शिवाजी के मन की महत्त्वाकांक्षा यह भी रही कि जिस आजादी से ये विदेशी लोग समुद्र को रौंदते हुए बेखौफ अपना कारोबार करते हैं, उसी आजादी से मराठे भी कारोबार करना सीखें। यह बात उन दिनों सूरत, कारवार आदि बंदरगाहों पर व्यापार कर रहे अंग्रेजों ने स्पष्ट लिखी है।
ऐसा प्रतीत होता है कि जब उत्तर कोंकण के बंदरगाह मराठों के अधिकार में आ गए, तब उन्होंने भी समुद्र को विदेशियों की तरह रौंदते हुए अपना कारोबार शुरू कर दिया। राजापुर में उन्हें अफजल खान के जहाज जो हासिल हुए, उन्हीं को उन्होंने अपने कारोबार में लगा दिया। सन् 1663 में सूरत के अंग्रेज व्यापारियों द्वारा जो बातें दर्ज की गई थीं, उनमें लिखा है कि शिवाजी अरबस्थान के पश्चिमी किनारे पर स्थित मोका
बंदरगाह तक भेजने के लिए दो बड़े जहाज जैतापुर में तैयार कर रहे थे। आगे सन् 1665 में उन्हीं गोरे व्यापारियों ने उल्लेख किया है कि शिवाजी अपने अधिकार के बंदरगाहों से प्रति वर्ष दो-दो, तीन-तीन जहाज ईरान, बसरा, मोका तक भेजने लगे थे, ताकि मराठों का कारोबार सागर के उस पार तक होने लगे।
उन्हीं व्यापारियों का सन् 1669 का एक लेख ऐसा है, जो कहता है, ‘शिवाजी के चावल से लदे अनेक व्यापारी जहाज कारवार के किनारे आँधी-तूफान में नष्ट हो गए।’
शिवाजी ने नौसेना को अपने प्रशासन का 'आठवाँ अंग' तो नहीं माना, किंतु यह सेना भी उनकी राज्य व्यवस्था का एक प्रमुख हिस्सा थी, ऐसा कहा जा सकता हैै। नौसेना का संचरण सुलभ हो, नौसेना आधुनिक अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित रहे, नौसेना को उचित शिक्षण-प्रशिक्षण देकर उसकी प्रतिकार शक्ति बढ़ाई जाए, नौसेना में अनुशासन के हर नियम का पालन हो और नौसेना का हर व्यक्ति हर पल अपने देश के लिए प्राण निछावर करने को तैयार रहे। ये सभी बातें नौसेना के लिए अनिवार्य हैं। शिवाजी ने इन सभी गुणों का विकास अपने नौसैनिकों में किया।
रामचंद्र पंत अमात्य ने अपने आज्ञा-पत्र में नौसेना के संदर्भ में क्या लिखा है, यह देखते हैं—
'नौसेना राज्य के महत्त्वपूर्ण अंगों में से एक है। जो अश्वबल में शक्तिशाली होता है, वह संपूर्ण पृथ्वी पर राज्य कर सकता है। इसी तरह जिसकी नौसेना उत्तम होती है, वह अपनी सत्ता सागर पर और सागर के उस पार भी स्थापित कर सकता है।
‘संतुलित नौसेना में छोटी और बड़ी, दोनों प्रकार की नौकाएँ होनी चाहिए। अपनी गति के लिए पवन की अनुकूलता पर आधार न रखने वाली आधुनिक नौकाएँ तो हर नौसेना के लिए अत्यंत अनिवार्य हैं। इन सभी नौकाओं पर शूरवीर, साहसी एवं कल्पना-शक्ति में कुशल व्यक्तियों की नियुक्ति की जानी चाहिए। इन सेनानियों के पास बंदूक, बारूद, होकायत्र ( दिशादर्शक यंत्र) एवं अन्य आवश्यक सामग्री होनी चाहिए। इन्हें मासिक वेतन पर रखा जाए और यह वेतन पूरी नियमितता के साथ अदा किया जाए।
‘कारोबारी नौकाओं के सामान पर लगाए जाने वाले जकात कर में से नौसैनिकों का वेतन न दिया जाए, क्योंकि इसे न लगाया जाए। यदि लगाया गया, तो इससे व्यापारियों की आर्थिक शक्ति पर असर पड़ेगा, व्यापार साहूकारी डूब जाएगी। बंदरगाह पर कारोबार लगातार चलते रहना चाहिए। जकात से प्राप्त द्रव्य राज्य की तिजोरी में ही जाना चाहिए। वेतन उस प्रदेश की पैदावार से ही दिया जाए। साहूकारी और व्यापार बढ़ाए जाएँ, ताकि जकात कर अधिक प्राप्त हो।
‘सागर में गतिविधियाँ लगातार जारी रखी जाएँ। इससे शत्रु को रोकने की योजनाएँ अधिक कारगर होंगी। बंदरगाह पर बारूद की उचित व्यवस्था हो। लोगों को कोई कष्ट न हो, इसका ध्यान रखा जाए। समुद्री मार्ग से आने वाले शत्रु को समुद्र में ही रोककर लूट लिया जाए। व्यापारियों को हर मदद मुहैया की जाए। विदेशी साहूकारों को बिना आज्ञा पत्र के प्रवेश न करने दिया जाए। आज्ञा माँगने पर अभय-वचन देकर कारोबारी समझौता कर लिया जाए और प्रत्येक खरीदारी या बिक्री पर जकात कर लगाया जाए।
'बड़ा साहूकार हो, तो सरकारी खर्च से उसका आदर किया जाए। उसे विश्वास हो जाए कि हमारी ओर से उसे सौजन्य एवं सहयोग ही मिलेगा। उसका आवागमन आगे भी जारी रहे, ऐसा प्रयास किया जाए।
‘समुद्री मार्ग से आ रहे शत्रु को समुद्र में ही रोककर लूट लिया जाए। उसकी मालवाहक नौकाएँ एवं युद्ध नौकाएँ जब्त कर ली जाएँ। इन नौकाओं को अपने बंदरगाह पर लाकर, सारा माल जब्त करके, उस विभाग के मुंशी के पास सूची भेजकर आज्ञानुसार एवं नियमानुसार कारवाई की जाए।
‘शत्रु द्वारा आक्रमण किए जाने पर तुरंत समुद्री किनारे के किले के संरक्षण में चले जाना चाहिए। आम जनता को तकलीफ न हो, इसका ध्यान रखा जाए। शत्रु को तंग करने का हर तरीका आजमाया जाए। यदि वह तंग होकर नरम पड़ने लगा हो, तो भी उस पर तोपों की मार जारी रखी जाए। ऐसी सख्ती बरतने पर ही शत्रु हमसे दुबारा धोखा करने की कल्पना नहीं करेगा। उसे नजदीक ही न आने दिया जाए।’
ऐसी नीति के पीछे एक कारण यह भी था कि मराठों की नौकाएँ आकार में छोटी थीं और फिर मराठों को समुद्री युद्ध का अधिक अनुभव भी नहीं था।
मुंबई के अंग्रेजों द्वारा सूरत काउंसिल को भेजे गए 15 अगस्त, 1674 का एक पत्र इस प्रकार है—
‘मोखा से आने वाले जहाजों पर आक्रमण करने का आदेश शिवाजी ने दिया है, ऐसा आप लिखते हैं, लेकिन यह समाचार अभी तक मेरे सुनने में नहीं आया है। शिवाजी की नौसेना में युद्ध नौकाएँ छोटी हैं। दूसरी नौकाएँ भी ऊँचे दरजे की नहीं हैं। वे ठीक से हथियारबंद भी नहीं हैं। शिवाजी के नौसैनिक नौसिखिए हैं। मुझे उनकी ओर से कोई धोखा महसूस नहीं हो रहा।’
यहाँ यही कहना होगा कि मुंबई के अंग्रेज एक सर्वकालिक नियम को भूल गए थे। वह यह कि दूसरे की शक्ति को कम समझकर यू खारिज कर देना कभी सही नहीं होता। उन अंग्रेजों ने, जिन्हें अनुभवहीन बताया, उन्हीं शिवाजी के नौसैनिकों ने खंडेरी की मुहिम में अंग्रेजों जैसे समुद्र-विद्या में कुशल योद्धाओं की परवाह न कर, खंडेरी का किला अपने कब्जे में कर लिया था।
सिद्दियों को मुगलों और अंग्रेजों का सहारा न होता, तो शिवकालीन मराठों ने भारत के किनारे से उन्हें कब का नष्ट कर दिया होता। निकट भविष्य में मराठे सिद्दियों को हरा नहीं सके थे, इसका कारण यह नहीं था कि मराठों में क्षमता नहीं थी, बल्कि यह था कि सिद्दियों को हराना मराठों की प्राथमिकता नहीं थी। औरंगजेब की मौत के बाद उत्तर भारत में प्रचंड रिक्तता आ चुकी थी। मराठे उत्तर भारत में अपनी सत्ता स्थापित करना चाहते थे। उस प्रचंड रिक्तता का लाभ लेकर कोई अफगान या कोई ईरानी आकर वहाँ कब्जा जमा ले, इससे पहले स्वयं मराठे वहाँ सत्ताधीश होकर जम जाना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने सिद्दियों को हराने के फेर में पड़ना उचित न समझा और अपना ध्यान उत्तर भारत की सत्ता पा लेने पर केंद्रित रखा। फिर भी 18 वीं शताब्दी में मराठों ने सिद्दियों को शक्तिहीन बना ही दिया था।
शिवाजी के आगमन से पहले पूर्व के देशों से आते जहाजों को समुद्र में संचार करने के लिए पुर्तगीजों से आज्ञा-पत्र या पारपत्र खरीदना पड़ता था। शिवाजी के राज्य से आते जहाजों को भी ये पारपत्र खरीदने पड़ते थे। यह स्थिति महाराज के निधन (1680) के पचास वर्षों बाद कांहोजी आंग्रे के नेतृत्व में पलट गई।
सन् 1721 के पहले से ही पुर्तगीजों के व्यापारी जहाज अपनी सुरक्षा के लिए कांहोजी आंग्रे से स्वीकृति लेने लगे थे।
कांहोजी अपनी स्वीकृति देने के लिए सात लाख रुपए वसूल करता था। उसने अंग्रेजों तथा पुर्तगीजों के अनेक जहाज जब्त किए थे। चौल का भूतपूर्व गवर्नर अपने जहाज से, चौल से वसई जा रहा था। उस समय कांहोजी ने अचानक आक्रमण कर वह
जहाज जब्त कर लिया और गवर्नर को जान से मार भी डाला।
जंजीरा के सिद्दी
हमने पहले ही देखा है कि जंजीरा का किला रायगढ़ जिले के दांडाराजापुर गाँव से समुद्र में, आधे मील के फासले पर है। इस किले को निजामशाह ने सन् 1490 में राम पाटील से छीन लिया था। फिर शाह ने वहाँ अपना सिद्दी सूबेदार नियुक्त कर दिया था। सन् 1569-72 में पुराने किले को गिराकर वहाँ एक नए, मजबूत जल-दुर्ग का निर्माण किया गया।
जंजीरा के किले के चारों तरफ के तट पर हर 100 फीट के फासले पर बुर्ज बने हैं। प्रारंभ में प्रत्येक बुर्ज पर तीन-चार तोपें तैनात की गई थीं। इनमें से कुछ तोपें फ्रेंच व अंग्रेजों से खरीदी गई थीं। एक फ्रेंच तोप फ्लैंडर्स के युद्ध में पराक्रम दिखाने के बाद यहाँ लगाई गई थी। आज भी इस किले पर तीन प्रचंड तोपें देखने को मिलती हैं। उनके नाम हैं— कलाल बाँगडी, चावरी और लांडा-कासम
तत्कालीन सिद्दी या हब्शी मूल रूप से एबीसीनिया से लाए गए गुलाम थे। ये गुलाम अपने मालिकों से भी ज्यादा शूरवीर, कट्टर व आज्ञाकारी थे। कोई सिद्दी जब नवाब बन जाता, तब तो उसकी कर्तव्यनिष्ठा देखते ही बनती थी। केवल उसी सिद्दी सरदार को नवाब बनाया जाता था, जो सर्वोत्कृष्ट दिखाई देता था। नवाब की गद्दी वंश-परंपरा में किसी को भी नहीं मिलती थी।
तादाद में कम होने पर भी ये सिद्दी, स्वराज में उपद्रव किया करते थे। पाँच-पाँच शाहों की नाक में दम कर देने वाले शिवाजी भी जंजीरेकर सिद्दी को मात नहीं दे सके!
सन् 1661 की वर्षा ऋतु में जोरो की आँधी-तूफान में भी शिवाजी ने जंजीरा के सिद्दियों पर तोपों की मार जारी रखी, किंतु तोपें कम पड़ जाने से शिवाजी उन्हें हरा नहीं सके थे।
1665 के जून महीने में जयसिंह के साथ किए गए समझौते में शिवाजी ने जंजीरा का किला हासिल करने की कोशिश की थी, किंतु सिद्दियों के विरोध के कारण जयसिंह ने यह माँग नहीं मानी।
1668 में शिवाजी ने एक बार फिर जंजीरा का किला हासिल करने का प्रयत्न किया, किंतु इस बार अंग्रेजों ने सिद्दियों को गोला-बारूद दिया और रसद भी पहुँचाई। इससे सिद्दी किसी तरह बच गया।
सन् 1669 के मई महीने में शिवाजी ने दांडाराजापुर के सिद्दी किले को घेर लिया। इस बार सिद्दियों को पुर्तगीजों ने गुप्त रूप से बारूद पहुँचाई, अनाज भी पहुँचाया। शिवाजी का यह आक्रमण इतना तेज था कि सिद्दियों को लगा कि इस बार तो हार पक्की है। बात यहाँ तक बढ़ी कि सिद्दी जंजीरा को पुर्तगीज के हवाले करने की तैयारी करने लगा।
सन् 1670 में शिवाजी ने जंजीर के किले को जमीन और समुद्र, इन दोनों मार्गों से घेर लिया। पुर्तगीजों ने महसूस किया कि अगर जंजीरा सिद्दियों के हाथ से निकलकर शिवाजी के कब्जे में आ गया, तो चौल पर मराठों का खतरा बढ़ जाएगा। पुर्तगीज नहीं चाहते थे कि ऐसा हो। दूसरी ओर, शिवाजी और पुर्तगीजों के बीच जो समझौता था, उसके अनुसार पुर्तगीजों को इस मामले में तटस्थ ही रहना चाहिए था, जबकि उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने चुपके-चुपके सिद्दियों की मदद की। उस वक्त जंजीरा का किलेदार सिद्दी फतेखान इतने दबाव में था कि अपना किला मराठों को सौंप देने की लगभग तैयारी कर चुका था। पुर्तगीजों ने बारूद और रसद भिजवाए, तो भी उसका हौसला बुलंद न हुआ। इसका कारण था कि सभी यूरोपियन देशों को भारत में व्यापार करना था। इसके लिए उन्हें मुगल बादशाह की अनुमति और सहयोग जरूरी था। मुगल बादशाह हमेशा सिद्दियों के पक्ष में रहता था और उसकी आज्ञा थी कि सिद्दियों को हमेशा बख्शा जाए।
फतेखान के तीन फौजदारों ने ऐसी नाउम्मीदी का कड़ा विरोध किया। वे तीन थे— सिद्दी संभल, सिद्दी कासिम और सिद्दी खैरियत। उन्होंने किला मराठों को सौंपने से साफ इनकार कर दिया। फतेखान को उन्होंने कैद कर लिया और मराठों के साथ लड़ाई बदस्तूर जारी रखी। उन्होंने मुगलों से मदद माँगी और उनके मातहत हो जाने की तैयारी दिखाई।
सूरत के मुगल सूबेदार ने उनकी माँग को मान्यता दी और बादशाह औरंगजेब ने उसे स्वीकार कर लिया। सिद्दी संभल को ‘याकूतखान’ की उपाधि से नवाजा गया और उसे सूरत के उत्पादन से तीन लाख की हिस्सेदारी दी गई।
इस प्रकार संभल सिद्दी मुगल नौसेना का प्रमुख बन गया। सिद्दी कासिम और सिद्दी खैरियत को क्रमानुसार जंजीरा व किनारे के प्रदेश दिए गए।
इस बार भी लाख कोशिश करने के बावजूद, शिवाजी के प्रयत्नों को सफलता न मिल सकी। जंजीरा पर उनका अधिकार न हुआ, तो नहीं ही हुआ।
जैसे हर घर में चूहे बने रहते हैं, वैसे ही शिवाजी के राज में सिद्दी बने रहे।
शिवाजी की ही तरह स्वयं की नौसेना की रचना एक और राजा ने की थी, जिसका नाम था कुबलई खान। उसकी उस कोशिश का क्या हश्र हुआ, हम आगे देखते हैं।
कुबलई खान की नौसेना
कुबलई खान (1260-1298) मंगोलियन सत्ता का पाँचवाँ बड़ा खान था। पूर्व एशिया के युआन साम्राज्य का संस्थापक वही था।
शिवाजी की तरह उसने भी अपनी नौसेना स्थापित करने का प्रयास किया था, जिसमें उसे कामयाबी नहीं मिली थी। कुबलई खान ने जापान में प्रवेश करने की चेष्टा दो बार की थी, किंतु खराब मौसम उसका दुश्मन साबित हुआ। इतना ही बड़ा एक और कारण यह था कि समुद्री जहाजों को बाँधने की कला उसे ठीक से आती नहीं थी। उसे करारी असफलता झेलनी पड़ी।
पहली कोशिश उसने सन् 1274 में की, जब उसने 900 जहाजों के साथ कूच किया था। दूसरी कोशिश उसने सन् 1281 में की। इस बार उसकी नौसेना दो अलग-अलग दल बनाकर आगे बढ़ी। पहले दल में थे 40 हजार कोरियन, चीनी व मंगोलियन सैनिक, जो 900 जहाजों पर सवार थे। यह दल मसान बंदरगाह से रवाना हुआ। दूसरे दल में थे एक लाख सैनिक 3500 जहाजों पर सवार थे। हर जहाज तकरीबन 240 फीट लंबा था।
दोनों दल इतने विशाल थे कि उन्हें संगठित रखना असंभव हो गया। मौसम खराब था और वह बार-बार बदल भी रहा था।
सन् 2011 में समुद्री उत्खनन के विशेषज्ञ डॉ. केझों हाशिदा के नेतृत्व में एक जाँच समिति बनी थी, जिसने पश्चिम ताकाशिया में कुबलई खान के जहाज क्यों और कैसे ध्वस्त हो गए, इसका सूक्ष्म अध्ययन किया था। जाँच समिति ने जो निष्कर्ष निकाला, उसके अनुसार कुबलई खान ने जापान में दाखिल होने में बचकानी जल्दबाजी की थी। उतनी बड़ी तादाद में जहाज उसने सिर्फ एक वर्ष में एकत्र किए थे, जबकि इस काम में 5 वर्ष तो कम-से-कम लगने ही चाहिए थे।
ऐसी जल्दबाजी का नतीजा यह रहा कि चीनी सैनिकों को जो भी जहाज जहाँ और जैसा उपलब्ध हुआ, उसी का उपयोग करना पड़ा। इसमें जो छोटी-छोटी नौकाएँ केवल नदियों में संचरण के लिए ठीक रहती हैं, उन्हें भी हमलावर नौकाओं की तरह इस्तेमाल कर लिया गया।
नाजुक बात यह भी थी कि लड़ाकू जहाजों के दोनों बेड़े न केवल अकल्पनीय हद तक विशाल थे, बल्कि उन जहाजों का निर्माण भी जल्दबाजी में किया गया था। यह काम चीनी कारीगरों को सौंपा गया था। यदि कुबलई खान ने कम गहराई के पानी में उपयोगी जहाज इस्तेमाल न किए होते, यदि उसने समुद्री गहराइयों में संचरण के लिए सही जहाज बनवाए होते, तो कोई वजह नहीं थी कि उसकी नौसना जापान तक न पहुँच जाती। वह न सिर्फ पहुँचती, बल्कि वापस भी आती और उसका यश सातवें आसमान तक पहुँचता।
डेविड निकॉल ने अपनी पुस्तक 'द मंगोल वार लॉर्ड्स' में लिखा है कि इस समुद्री सफर में अकूत आर्थिक हानि हुई और अगणित नौसैनिकों ने अपनी जान गँवाई। पूर्व एशिया में यह जो भ्रम था कि मंगोलियन कभी किसी से नहीं हारते, उसे टूटते देर नहीं लगी।
संदर्भ—
1. छत्रपति शिवाजी / सेतुमाधवराव पगड़ी
2. छत्रपतिंचे आरमार / ग.भा. मेहेंदले व सं.प्र. शिंदे
3. श्री शिवछत्रपति : संकल्पित शिवचरित्राची प्रस्तावना,
आराखडा / त्र्यंबक शंकर शेजवलकर
4. छत्रपति शिवाजी महाराज / कृ.अ. केलूसकर
5. शककर्ते शिवराय / विजयराव देशमुख
6. A History of the Maratha Navy and Merchantship/ Dr. B.K. Apte
7. Portuguese Maratha Relations/ Dr. P.S. Pissurlencar; Trans. : T.V. Parvate