Hadsa - Part - 8 - Last Part in Hindi Moral Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | हादसा - भाग 8 - अंतिम भाग

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हादसा - भाग 8 - अंतिम भाग

उस हादसे को हुए जब लगभग एक हफ़्ता बीत गया तो गोताखोरों ने भी जवाब दे दिया। वे ना तो प्रकाश को ढूँढ पाए ना उसके पार्थिव शरीर को। पूरा परिवार अंतिम बार प्रकाश की एक झलक देखना चाहता था लेकिन दुर्भाग्य ने यहाँ भी कोई कसर नहीं छोड़ी। अंततः निराश होकर सभी लोग पूनम को समझा बुझा कर वापस अपने घर के लिये रवाना हो गये। रास्ते भर पूनम यही सोच रही थी कि काश उसने प्रकाश की बात ना मानी होती तो यह हादसा हुआ ही नहीं होता।

अब घर पर परिवार के अलावा दूसरे रिश्तेदार भी मौजूद थे। सब आपस में बात कर रहे थे, बुद बुदा रहे थे, थोड़ी सी जल्दबाजी के कारण पूरा जीवन बर्बाद हो गया। क्षमता से अधिक भरी हुई नाव पर बैठना ही नहीं चाहिए था। पढ़े-लिखे इन बच्चों को नाविक को समझा-बुझा कर ख़ुद बैठने के बदले कुछ लोगों को उतरवा लेना चाहिए था। तब तो यह हादसा हुआ ही ना होता। अरे कितनी बार हम समाचार में पढ़ते हैं, इस तरह क्षमता से अधिक भार डालने के बाद अक्सर ऐसे हादसे हो जाते हैं।

इस घटना के बाद पूनम को उसके माता-पिता और दोनों परिवार के सभी सदस्यों ने मिलकर बहुत संभाला। अपने बेटे के चले जाने के गम से कल्पना स्वयं तो पूरी तरह टूट चुकी थी लेकिन फिर भी वह पूनम पर अपने प्यार की बारिश करती रही।

धीरे-धीरे पूनम ने अपने आप को संभालना शुरू किया। उसका जीवन तो वीरान हो चुका था किन्तु वह चाहती थी कि ऐसा हादसा और किसी का जीवन वीरान ना कर दे। 

पूनम ने नंदिनी और अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर एक मुहिम चलाई । उन लोगों ने ऐसे कई पोस्टर्स पेंटर से बनवाए जिसमें क्षमता से अधिक लोगों को बिठाने पर नाव नदी में डूबती हुई दिखाई दे रही है। कुछ पोस्टर्स में लाशें नदी के किनारे पड़ी हैं और उनके परिवार लाश के पास बैठकर आँसू बहा रहे हैं। इस तरह के कई चित्र बनवा कर पूनम और उसके साथियों ने अलग-अलग कई घाटों पर लगवा दिए ताकि इन चित्रों को देखकर ही लोग डरें। नाविक ऐसी हिम्मत ना करें। पूनम की यह मुहिम लोगों को बदल पाएगी या नहीं यह प्रश्न तो अब भी पूनम के मन में उठता ही रहता है लेकिन वह सोचती है कि यदि कुछ लोग भी इन चित्रों को देखकर संभल जायें तो वह समझेगी उसकी कोशिश कुछ परिवारों को तो वीरान होने से बचा पाई।

उसके बाद पूनम अपने सास-ससुर धीरज और कल्पना के बुढ़ापे की लाठी बन गई। उनका ख़्याल रखना, वह अपना कर्तव्य समझती थी और उसे निभा भी रही थी।

वह हर साल उसी दिन नदी के उस तट पर जाती और पानी की गहराई में देखते हुए घंटों वहां बैठी रहती। प्रकाश से कहती, “प्रकाश तुम चिंता मत करना, मैं माँ और पिता जी का हमेशा ख़्याल रखूँगी। तुम घाट पर लगे इस पोस्टर को देखो और सीख लो। जब अगले जनम में मिलो तब ऐसी ग़लती कभी मत करना। काश तुमने उस दिन मेरी बात मान ली होती तो आज हम साथ-साथ होते। पर क्या करें तुम्हें हर बात की जल्दी रहती है इसीलिये तो जल्दी ही मुझे छोड़ कर चले गए।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक

समाप्त