पुरुष की सबसे बड़ी कमजोरी है औरत और औरत का सबसे सबल पक्ष है उनका औरत होना। शांति एक खूबसूरत, जवान औरत है, उसकी अदाएँ और उसकी मुस्कान, उसकी मनमोहक आवाज़ उसके हथियार हैं और अपने गुणों से पुरुषों की कमजोरी का लाभ उठाना भी वह बखूबी जानती है। मि. चोपड़ा उसके लिए बड़ी समस्या नहीं थी। वह तो सिर्फ यादवेंद्र तक पहुँचना चाहती थी क्योंकि उसको पता था कि वर्तमान में उनके इलाके की प्रमुख हस्ती यादवेंद्र है और इसी सीढ़ी के सहारे उसे काफी आगे तक बढ़ना है। उसका जादू चला भी और यादवेंद्र अब उसकी मुट्ठी में था। यादवेंद्र पर पकड़ ढ़ीली न हो इसके लिए भी वह सजग रहती थी। यादवेंद्र भी उसे सदा पास रखना चाहता था, इसलिए उसे हल्के में पार्टी के महिला विंग का सर्वेसर्वा बना दिया गया था। ऑफिस से उसे प्रति नियुक्ति पर तहसील कार्यालय में ले आया गया, जहाँ उसका कोई काम नहीं था यानी सही अर्थों में वह सरकार से वेतन लेते हुए पार्टी के लिए काम करने लगी। शांति की पकड़ में जकड़ा हुआ यादवेंद्र भी आन्तरिक 'शांति' का अनुभव करता। दोनों इस भ्रम में खुश थे कि दूसरा उनके कब्जे में है, लेकिन कौन किसको इस्तेमाल कर रहा है, इसका निर्णय इस पल कोई भी नहीं कर सकता था। वैसे यादवेंद्र को शांति से कोई मतलब नहीं निकालना था, वह तो उसके सान्निध्य को पाकर धन्य था। देखा जाए तो आदमी की कीमत ही क्या है? चंद सहानुभूति भरे बोल। एक परेशान, निराश व्यक्ति जिससे सहानुभूतिपूर्ण बातें सुनता है, उसी का होकर रह जाता है। वैसे यादवेन्द्र निराश - हताश तो नहीं था मगर रमन के शुष्क व्यवहार से थोड़ा परेशान जरूर था। शांति उसकी परेशानी का हल लेकर आई थी। यादवेंद्र का स्वार्थ बस इतना था। हालांकि शांति के ख्वाब ऊँचे थे। वैसे तो उसे खुद पता नहीं था कि उसकी असली मंजिल क्या है और इसके लिए कौन सा रास्ता सही है, वह तो बस वर्तमान में अपने रौब-दाब से खुश थी और अपने रौब को बरकरार रखने के लिए फिलहाल यादवेंद्र की मानसिक और शारीरिक क्षुधा को शांत करते रहना उसको सर्वोत्तम उपाय लग रहा था।
दोनों के सम्बन्ध भले स्वार्थ पर आधारित हैं पर इससे क्या होता है। जहाँ स्वार्थ होता है, वहाँ क्या प्यार नहीं होता? भले ही आदर्श प्यार दिलों से सम्बन्धित है, मगर साथ-साथ रहने से, शरीरों के मिलने से दिलों का कुछ सीमा तक मिल जाना भी संभव है। यादवेन्द्र और शांति मामले में भी यही हो रहा है। उनके प्यार का बंधन मजबूत नहीं है तो क्या हुआ, प्यार की क्षीण धारा तो उनके दिलों में बहती ही है। साधारण सी क्लर्क शांति जब भी कभी अपने वर्तमान रुतबे को देखती, इसके बारे में सोचती है तो फूली नहीं समाती और ऐसे में उसका दिल यादवेंद्र पर और मेहरबान हो जाता, लेकिन हर सिक्के के दो पहलू हुआ करते हैं। और कभी-कभी ये दोनों पहलू एक-दूसरे से इतने भिन्न होते हैं, जितने कि दिन-रात । मिस शांति जो एक पहलू को देखकर जीए जा रही है, इस बात को भुलाए हुए थी कि इस चमकदार सिक्के का दूसरा पहलू एक कुँवारी लड़की के मुँह पर कालिख पोत सकता है। उसका व्यभिचार उसे गर्त में लिए जा सकता है, क्योंकि भारत जैसे देश में विवाह से पहले कौमार्य खो देना साधारण बात नहीं हो सकती और फिर उसका साथी भी कोई कुंवारा पुरुष न था। ऐसा नहीं कि उसे इन बातों का ज्ञान नहीं था, अपितु वह सब जानती थी। हाँ वह इस भ्रम में ज़रूर थी कि जैसे मि. चोपड़ा उसके नारीत्व से हार गया, वैसे ही यादवेंद्र भी हार जाएगा और इसी गलती ने उससे बड़ी गलती करवा दी।
शांति की कोख में यादवेंद्र का अंश आ चुका था। शांति को अपनी गलती का अहसास हुआ लेकिन उसने इसे भी हथियार बनाने की सोची और चुप रह गई। वह भूल गई थी कि काँटे भले फूलों भरी बेल के ही क्यों न हों, नुकीले होने पर चुभते ज़रूर हैं, लेकिन इन बातों से बेखबर उसने काँटों को वक्त रहते कुचलने की बजाए तीखे होने दिया। यादवेंद्र को उसने बताया, लेकिन दो महीने निकलने के बाद और इस तरह से कि अब कुछ नहीं हो सकता। उसने अपने जीवन रूपी नौका का लंगर यादवेंद्र रूपी किनारे पर बाँधने का सोचा। वह यादवेंद्र पर शादी करने दवाब बनाने लगी। यादवेंद्र ने इससे स्पष्ट इंकार कर दिया। वह उसे अबॉर्शन करवाने की सलाह देता था, जो इस समस्या का एकमात्र हल था, लेकिन शांति तो इस समस्या को सफलता की सीढ़ी बनाने पर तुली हुई थी, वह इस हल को कैसे स्वीकार करती। पिछले कई दिनों से इस बात को लेकर दोनों में तकरार चल रही थी। एक - दूसरे के फैसले से कोई सहमत नहीं था। आज फिर वह इसी समस्या के समाधान हेतु यादवेन्द्र के पास पहुँची। यादवेन्द्र तब अपने कमरे में आराम कर रहा था । उसकी चैन भरी नींद में उसके दिल में आग लगा दी और शांति क्रोध भरी आवाज में बोली, "आप यूँ ही सोते रहोगे या कुछ मेरे बारे में भी सोचेंगे।"
नींद से हड़बड़ाकर उठते हुए यादवेन्द्र ने कहा, "क्यों शोर मचा रही हो शांति, शांति रखा करो मगर तुम्हारा सिर्फ नाम ही शांति है, तू शांति कभी रखती नही।"
"कैसे रखूँ शांति, तुम्हारा दिया तोहफा, अब सबको दिखने लगेगा। फिर क्या करूँगी मैं? कौन करेगा मुझसे शादी। मेरी जो बदनामी होगी, उसका सोचा है कभी।"
"जब तुम खुद ही बदनाम होने पर तुली हो तो मैं क्या कर सकता हूँ?"
"मगर जैसे आप मुझे बदनाम होने से बचाना चाहते हैं, वैसा तो मैं कर नहीं सकती।"
"क्यों, क्या बुराई है इसमें।"
"पाप है यह।" - कोई और तर्क न मिलने पर उसने कहा, हालांकि वह खुद पाप-पुण्य के इस तर्क को नहीं मानती थी, लेकिन अपनी बात को मनवाने के लिए उसने आज इसी तर्क को सहारा बनाने की सोची।"
"कैसी बातें करती हो तुम, जिस समाज में अबॉरशन पाप है, उस समाज में व्यभिचार भी पाप है और यदि तुम वह कर सकती हो तो यह क्यों नहीं कर सकती? - यादवेंद्र ने उसके तर्क रूपी ब्रह्मास्त्र को बेअसर करते हुए कहा।
क्रमशः