Param Bhagavat Nabhadasji in Hindi Anything by Praveen kumrawat books and stories PDF | परमभागवत नाभादासजी

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परमभागवत नाभादासजी


जाको जो स्वरूप सो अनूप लै दिखाय दियो,
कियो यों कवित्त पटमिहो मध्य लाल है।
गुण पै अपार साधु कहै अक चार हो मैं।
अर्थ विस्तार कविराज टकसाल है।।
सुनि सन्तसभा झूमि रही अलि श्रेणी
मानो धूमि रही कहै यह कहा धौ रसाल है।
सुने हे अगर अब जाने मैं अगर सही,
चोवा भये नाभा सो सुगन्ध भक्तभाल है।
—प्रियादास


महात्मा नाभादास भगवान्, भक्त और सन्त के लीलाचरित्र, भक्ति और साधना के बहुत बड़े मध्यकालीन साहित्यकार थे। उन्होने अपने परम प्रसिद्ध ‘भक्तमाल ग्रन्थ’ में सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के भक्तो, सन्तो और महात्माओ का बडी श्रद्धा से, बढी भक्ति और अनुरक्ति से चित्रांकन किया है। वे सन्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी के समकालीन थे। उस समय नाभादास जैसे परम भागवत महात्मा की उपस्थिति एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक आवश्यकता थी। नाभादास भक्तिशास्त्र के आचार्य थे, बहुत बड़ी भागवती शक्ति के रूप में पृथ्वी पर उनका अवतरण हुआ। किसी युग के विशेष पुण्योदय के फलस्वरूप ऐसे महान आत्मा का धरती पर दर्शन मिलता है। उनका ‘भक्तमाल’ भक्ति-साहित्य का अविस्मरणीय इतिहास है। उनका ‘भक्तमाल’ मानवता के लिये मुक्ति, भक्ति और संसार के प्रति पूर्ण अनासक्ति विरक्ति का चिन्मय वांगमय है, भागवती शक्ति की विजयिनी पताका है। उन्होने भक्तमाल के रूप में भारत को भागवत साम्राज्य का विधान दिया भक्तमाल उनकी बहुत बडी देन है। भक्तमाल ग्रन्थ की यह विशेषता है कि इसमें सभी संप्रदयाचार्यो एवं सभी सम्प्रदायो के संतो का समान भाव से श्रद्धापूर्वक संस्मरण श्रीनाभाजी ने किया है

जहा तक नाभादास जी के जन्मस्थान की ऐतिहासिकता का सम्बन्ध है उसके स्तर पर प्रियादास और मराठी भक्तमाल ‘भक्तविजय’ ग्रन्थ के रचयिता सन्त महीपति की उक्तियों का आधार लेना पडता है। महीपति ने ‘भक्तविजय’ में स्वीकार किया है कि नाभादास ग्वालियर के रहने वाले नागर ब्राह्मण थे और उनके भक्तमाल ग्रन्थ के आधार पर ही मैंने अपने 'भक्तविजय' ग्रंथ की रचना पूरी की है। भक्तमाल के टीकाकार प्रियादास जी ने उनको दक्षिण के तैलंग प्रान्त गोदावरी के रामभद्राचल का निवासी ओर हनुमान वंशीय ब्राह्मण माना है । नाभादासजी के जन्म, बचपन और पालन-पोषण के सम्बन्ध मे प्रियादासजी ने भक्तमाल की टीका में अलौकिक और चमत्कारपूर्ण कथाओ का उल्लेख किया है।

नाभादासजी ने विक्रमीय सत्रहवी सदी को अपनी उपस्थिति से धन्य किया। नाभादास जिस समय पाँच साल के थे, उस समय गोदावरी के प्रदेश में भीषण अकाल पड़ा। लोग दाने-दाने के लिये तड़पने लगे । भूख से उनके प्राण छटपटाने लगे। हरे-भरे खेत, वृक्ष तथा सरोवर आदि सूख गये थे। पशु-पक्षी तथा असंख्य जीव संत्रस्त थे। ऐसी स्थिति मे एक दिन कृष्णदास पयहारी के शिष्य सन्त कील्हदास और अग्रदास तैलंग प्रान्त का परिभ्रमण कर रहे थे। वे राम-नाम के उच्चारण से वनप्रान्त को सरसता और जीवन प्रदान कर रहे थे, प्रचण्ड मार्तण्ड अपने पूर्ण यौवन पर था, दोपहर का समय था। उन्होने वन मे एक घने वृक्ष की शीतल छाया में अल्पवयस्क बालक को रोते देखा । मां ने भूख की ज्वाला से संत्रस्त होकर बालक को वन मे छोड दिया था। महात्मा अग्रदासजी ने बालक को अपनी गोद में बैठा लिया, मुख पर जल छिडका बालक ने चेतना प्राप्त की। शिशु को जन्मान्ध देख कर अग्रदास का नवनीत के समान हृदय दया से द्रवित हो उठा, उन्होंने पानी छिडका बालक के नेत्र खुल गये। दोनो महात्माओ की कृपा से असहाय शिशु ने स्वास्थ्यलाभ किया। अग्रदास के परिचय पूछने पर बालक ने कहा कि मैं पंचतत्व के विनश्वर देह का परिचय दूं या आत्मा के संबंध में बात करूँ। दोनो महात्मा इस कथन से आश्चर्यचकित हो गये। उन्होने बालक का नाम नारायणदास रखा। गुरु के नाभी अथवा पेट की बात जान लेंने के कारण आगे इनका नाम नाभा पड़ गया। अग्रदास ने नाभाजी को राम मंत्र की दीक्षा दी। अपनी तपोभूमि जयपुर राज्य में स्थित गलता में लाकर उन्होने नाभादास को सन्तो की सेवा का पवित्र कार्य सौंपा। नाभादास को सन्तों का चरण धोने और उच्छिष्ट पत्तल उठाने का काम मिला। सन्तो के चरणामृत-पान से उनका मन निर्मल हो गया, सेवा से उनकी बुद्धि में भगवद्भक्ति के दिव्य संस्कारो का उदय हुआ। नाभादास की गुरुनिष्ठा उच्च कोटि की थी। वे सदा महात्मा अग्रदास की प्रसन्नता के अनुकूल अपने कर्मों को पूरा करते रहते थे। उन्होने अपने भक्तमाल ग्रन्थ में गुरु की बडी महिमा गायी है।

एक बार महात्मा अग्रदास मानस पूजा में थे। उन्होंने देखा कि समुद्र की लहरे अचानक आन्दोलित हो उठी है। उनके एक व्यापारी शिष्य का जहाज समुद्र में डूब रहा है, माल नष्ट हो जाने वाला है, शिष्य ने गुरु-कृपा की शरण ली। वे पूजा में ही चिंतित हो उठे। इधर महात्मा नाभादास ने अपनी दृढ़ गुरुनिष्ठा के कारण अन्तरप्रेरणा से यह बात जान ली। उन्होने विचार किया कि इस घटना से गुरु की मानसिक भगवत्पूजा में विघ्न उपस्थित हो रहा है। इसलिये उन्होंने अपने आराध्य देव राघवेंद्र से प्रार्थना की कि व्यापारी का जहाज विनष्ट न हो। भगवान की कृपा से उनकी प्रार्थना सफल हो गयी। उन्होने अन्तर्दृष्टि से देखा कि व्यापारी का जहाज अब सुरक्षित है। समुद्र शान्त है तथा व्यापारी निश्चिंत है। उन्होने महात्मा अग्रदास से सारी बाते कह दीं और प्रार्थना की कि आप अपनी मानसिक पूजा निर्विघ्न समाप्त करें। सन्त अग्रदास नाभादास की गुरुनिष्ठा से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होने सोचा कि जो व्यक्ति एक व्यापारी के जहाज को सागर में विनष्ट होने तथा डूबने से बचा सकता है, तो वह भवसागर मे डूबने वाले असंख्य जीवो का उद्धार करने मे निस्संदेह समर्थ है। उन्होंने नाभादास को भगवदभक्तो और सन्त-महात्माओ का चरित्र लिखने की आज्ञा दी। नाभाजी ने गुरु के चरणों पर विनत होकर कहा कि यह कार्य तो गुरुतम है, मुझे आपके चरण-चिंतन और सन्तों की सेवा में परमानन्द की रसानुभूति होती है। अग्रदास ने उनकी पवित्र भावना की सराहना की पर भक्तमाल की रचना को ही उनके जीवन का श्रेय स्थिर किया। नाभादास ने उनकी कृपा से भक्तमाल की रचना की। भगवान् और उनके भक्तो के चरितामृतसागर से कलिकाल के जीवो के पाप-ताप की शान्ति की। भगवान् ने अपने सारे अलौकिक रहस्य उनकी बुद्वि मे भर दिये। नाभादास ने छप्पय छन्द मे भक्तमाल लिखा। यह ग्रन्थ भक्तिसाहित्य का अपूर्व, अद्भुत और अलौकिक इतिहास है।
नाभादास जी की भक्तमाल में उक्ति है—
'अग्रदेव आज्ञा दई, भक्तन को जस गाउ।
भवसागर के तरन को, नाहिन और उपाउ॥'


उन्होने भवसागर पार करने के लिये भक्तमाल के रूप में भक्ति की नौका प्रस्तुत की। भक्ति ने उनको अपने राज्य का नागरिक स्वीकार किया। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि बढने लगी अयोध्या, काशी, जगन्नाथपुरी और वृन्दावन आदि तीर्थस्थानो में उनके नाम की चर्चा होने लगी। नाभादास के हृदय में सन्तो के प्रति सहज अनुराग था। वे सन्तो के दर्शन के लिये समय समय पर तीर्थयात्रा में जाया करते थे। एक बार वे सन्तशिरोमणि तुलसीदासजी से मिलने काशी गये। उस समय तुलसीदास जी भगवान के ध्यान में संलग्न थे। नाभादास को उनका दर्शन न हो सका। नाभादास उन दिनो व्रज में ही रहते थे, वे वृन्दावन चले आये। जब तुलसीदास जी महाराज को इस घटना का पता चला, वे बहुत क्षुब्ध हुए। नाभा जी से मिलने वे स्वयं वृन्दावन के लिये चल पड़े। नाभादासजी उच्च कोटि के सन्त पारखी थे। उन्होने जानबूझ कर तुलसीदासजी के आगमन की उपेक्षा कर दी। उस समय सन्तो का भण्डारा चल रहा था। खीर परोसने के लिये पात्र नही था। गोस्वामी तुलसीदास जी ने एक सन्त की पनही ( जूता ) उठाकर कहा कि इससे उत्तम पात्र दूसरा क्या हो सकता है। नाभा जी का मन आनन्द से प्रफुल्लित हो उठा, उन्होने तुलसीदास जी को गले लगा लिया। दोनो सन्तो के मिलने का दृश्य अपूर्व, अलौकिक और परम मंगलमय था। महात्मा नाभादास ने तुलसीदास से कहा कि हे सन्त सम्राट! हे अभिनव वाल्मीकि! हे राघवेन्द्र-पदारविन्द-मकरन्द के मधुप-अधिराज आज मेरे नेत्र सफल हो गये, आज मेरी सन्त-सेवा साकार हो उठी, मुझे आप के रूप में भगवान् ने भक्तमाल का सुमेरु प्रदान कर दिया। नाभादास ने उनको आलिंगनबद्ध कर लिया, भक्त और भक्ति एकाकार हो गये। नाभादास ने भक्तमाल के माध्यम से विभिन्न भक्ति-पद्धतियो, मतो और भागवतधर्म का समन्वय कर साहित्य का दिव्यीकरण किया। उन्होने अपने गुरु अग्रदास की कृपा से तत्कालीन प्रचलित भक्ति-पद्धतियों पर प्रकाश डाला। उन्होने समस्त भागवत सम्प्रदाय के सद्सिद्धान्तो का अपने भक्तमाल में मण्डन किया। भक्तमाल में भगवत्ता ही अभिव्यक्त है। नाभादास ने हरि और हरि के दासों का परम पवित्र चरित्र गाया। उन्होने भगवान् को ही परमाराध्य ठहराया। भक्तमाल में उनका कथन है—
'कविजन करत विचार बड़ो कोउ ताहि भनिज्जै ।
कोउ कह अवनी बड़ी, जगत आधार फनिज्जै ॥
सो धारीसिर सेस, सेस सिव भूपन कीनो ।
सिव आसन कैलास भुजा भरि रावन लीनो ॥
रावन जीत्यो बालि पुनि बालि राम इक सर देंडे ।
अगर कहूँ त्रैलोक में हरि उर धारै ते बड़े ॥'

उन्होंने अग्रदासजी की सीख के अनुसार कहा कि जो लोग अपने हृदय में भगवान को धारण करते है वे ही स्तुत्य है, उन्ही का गुण-गान करना चाहिये। उन्होने 'भक्तमाल' के उपसंहार में स्वीकार किया है कि जिन लोगो ने हरिदासो का गुणानुवाद किया है मैंने उनकी कृति के उच्छिष्ट रूप में 'भक्तमाल' प्रस्तुत किया है। नाभा जी ने कहा कि भगवान के दास मंगलरूप हैं, सन्तो ने श्रुति-पुराण और इतिहास आदि का मन्थन कर निश्चय किया है — निर्णय किया है कि भजने के योग्य हरि या हरिदास ही है भक्तो का गुणगान करने से भगवान् की असदिग्ध रूप से प्राप्ति होती है– ऐसा उनका दृढ मत था। नाभा जी ने आजीवन भगवान का चिन्तन कर तथा भक्तो का गुणगान कर साकेत धाम की यात्रा की वे परम भागवत सन्त थे ।