[ शिवाजी महाराज एवं उनका महान् पलायन.. ]
कैद से छुटकारा पाने वाले लोग ज्यादातर असफल होते थे, लेकिन कुछ कैदी अपनी कुशलता, नियोजन एवं नसीब के कारण आजादी हासिल कर लेते थे। शिवाजी महाराज बादशाह औरंगजेब की कैद से किस प्रकार एक चमत्कार की तरह निकल गए और अपने वतन महाराष्ट्र भी पहुँच गए, इस सत्य घटना की कोई मिसाल नहीं है। इतिहास बताता है कि कारागार से निकल भागना उतना मुश्किल नहीं होता, जितना कि दुबारा गिरफ्तार होने से बचना मुश्किल होता है। शिवाजी इन दोनों कसौटियों पर खरे उतरे। औरंगजेब उन्हें दुबारा कभी न पकड़ सका।
प्रस्तुत है कुछ ऐसे व्यक्तियों की सत्य कथाएँ, जो कैद तो हो गए, लेकिन कैद रहे नहीं। वे उड़न-छू हो गए—
जो अकेले ही भागे
1.. स्कॉटलैंड की मेरी क्विन, लॉक्वेलिन के किले से भाग निकली। (सन् 1561)
2.. रेव. जॉन जेरॉर्ड नामक पादरी व अर्ल ऑफ नित्सडेल लंदन से निकल भागे। (सन् 1597 और 1715)
3.. जिओनोमा कैसानोवा वेनिस से चंपत हो गया। (सन् 1755)
4.. हेनरी ब्राउन नामक गुलाम 3 फीट लंबे-चौड़े खोखे में छिपकर उत्तर कैरोलीना से भाग निकला। (सन् 1816)
5.. बफेलो बिल उर्फ विलियम कैंडी अमेरिकन इंडियंस को चकमा देकर भाग गया। (सन् 1860)
जो मिल-जुलकर भागे
1.. जर्मनी की महान् आजादी। (सन् 1944) दूसरे महायुद्ध में ग्रेट एस्केप 50 कैदियों को फायरिंग स्कॉड ने मार डाला। 26 कैदियों को पकड़कर वापस 'स्टैलैग लुफ्त' की कैद में जकड़ लिया गया।
2.. तिब्बत पर चीन का हमला हो जाने से दलाई लामा अपने चुने हुए अनुयायियों के साथ भागे। (सन् 1951)
3.. फ्रैंक मॉरिस अपने भाई क्लैरेंस एवं जॉन ऐंगलैंग के साथ उल्काट्राज से भाग निकले। (सन् 1962)
4.. एंटेबी से 255 अपहृत व्यक्ति, अभूतपूर्व साहस के साथ, इजराइल की मदद से मुक्त हुए। (सन् 1976)
5.. असंख्य लोग बर्लिन की दीवार फाँदकर भागे। (सन् 1989)
यहाँ हम दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) के दौरान घटी पलायन की एक अद्भुत घटना का वर्णन करेंगे। हिटलर ने जर्मनी में 10,000 अत्यंत साहसी व प्रशिक्षित युद्ध-बंदियों को ‘स्टैलैग लुफ्त- 3' नामक कैंप में कैद कर रखा था। ये युद्ध बंदी
मित्र-राष्ट्रों की वायु-सेना के थे, जिन्होंने एकजुट होकर हिटलर के खिलाफ जंग छेड़ रखी थी।
‘स्टैलैग लुफ्त-3’ के बंदियों ने चुपके से एक समिति की रचना की और सोचना शुरू किया कि इस खतरनाक कैंप से निकल भागने के लिए क्या-क्या किया जा सकता है। तय हुआ कि तीन सुरंगें बनाई जाएँ, जिनके बाहरी छोर कैंप से दूर किन्हीं सुरक्षित इलाकों में खुलें। हिटलर के अधिकारी उस कैंप को चौबीसों घंटे कठोर निगरानी में रखते थे। हथियारबंद चौकीदारों की नजरों के सामने तीन-तीन सुरंगें आखिर कैसे बनें कि किसी को पता न चले ? इस असंभव को संभव कैसे किया गया, इस पर बाकायदा एक सुपर हिट पुस्तक लिखी गई है, ‘द ग्रेट एस्केप’। विश्व विख्यात अंग्रेजी फिल्म ‘द ग्रेट एस्केकेप’ इसी पुस्तक पर आधारित है।
उन युद्ध-बंदियों ने अपनी तीन सुरंगों के नाम रखे 'टॉम', 'डिक' और 'हैरी'। सुरंगें आखिर बन ही गईं, जिनमें से एक सुरंग 'हैरी' के आर-पार निकलकर 76 बंदी भाग निकले। यह हुआ 24 मार्च, 1944 के दिन। उन 76 युद्ध बंदियों में से केवल 3 ऐसे थे, जो सुरक्षित लंदन तक पहुँच सके। बाकी सबको भागने की कोशिश के ही बीच हिटलर के सैनिकों ने गोलियों से भून दिया।
सूझबूझ और साहस से असंभव को भी कैसे संभव किया जा सकता है, इसके अप्रतिम उदाहरण के रूप में यह पलायन-कथा अमर हो चुकी है। 'हैरी' एवं शेष दोनों सुरंगों को हिटलर ने बंद करवा दिया। कैंप पर चौकसी और सख्त हो गई।
शिवाजी महाराज का आगरा से पलायन:
इन सबके मद्देनजर औरंगजेब द्वारा आगरा में कैद किए गए शिवाजी महाराज जिस चतुराई से निकल भागे और 1600 मील की दूरी केवल 40 दिनों में पारकर महाराष्ट्र की राजधानी रायगढ़ पहुँच गए, इसकी सत्य कथा कहीं ज्यादा रोमांचक, प्रेरणास्पद व लोमहर्षक है। शिवाजी के इस पलायन को संसार के इतिहास में एकमेव कहा जाता है। 255 अपहृत लोग एंटेबी से किस साहसपूर्ण तरीके से एक साथ आजाद हुए थे, इसकी थर्राहट भरी सत्य कथा भी शिवाजी की पलायन कथा के सामने फीकी है, क्योंकि एंटेबी में तो इजराइल जैसे होशियार देश ने उन अपहृत लोगों की मदद की थी, जबकि शिवाजी ने जो किया, केवल अपने बलबूते पर किया। अकेले के बलबूते पर।
‘स्टैलैग लुफ्त- 3’ के 73 भगोड़े युद्ध बंदियों को हिटलर ने पलायन के दौरान ही खत्म कर दिया था, ‘सामूहिक पलायन के आरोप’ में। यदि हिटलर उन्हें फिर से कैद कर लेता, तो कानूनी दाँव-पेंच में फँस जाता क्योंकि अंतरराष्ट्रीय कानून था कि पकड़े गए किसी भी युद्ध-बंदी को एक बार आजाद होने के बाद फिर से नहीं पकड़ा जा सकता था।
इस तरह का कोई भी सुरक्षात्मक कानून शिवाजी की रक्षा नहीं कर रहा था, क्योंकि उनके समय में ऐसा कानून था ही नहीं। शिवाजी ने जो पलायन किया, केवल स्वयं की सूझबूझ और साहस के जोर पर किया और ऐसा भी नहीं हुआ कि वे अकेले ही निकल भागे। उन अनेक साथियों को भी वे अपने साथ निकाल ले गए, जो आगरा में बने रहते, तो औरंगजेब के शिकंजे में फँस जाते। इसीलिए शिवाजी महाराज के पलायन को ‘न भूतो न भविष्यति’ कहा जाता है। सचमुच इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
उल्लेखनीय है कि—
★.. शिवाजी महाराज बादशाह औरंगजेब के मेहमान के रूप में आगरा आए थे। उनका पुत्र संभाजी साथ में था। 1500 सैनिक व सहायक और भी थे। औरंगजेब की ओर से लगातार धोखे का व्यवहार हो रहा था। शिवाजी को नजरबंद तो उसने कर ही लिया था। अब यह कदापि उचित नहीं था कि शिवाजी महाराज आगरे में रुके रहते। नजरबंदी को नकारकर वे अचानक गायब हो गए, साथ में पुत्र संभाजी गायब और लगभग 1,500 (1,498) सैनिक आदि भी गायब! आगरा में एक भी व्यक्ति को छोड़ा नहीं गया। स्व-मुक्ति की यह योजना महाराज ने स्वयं बनाई थी। इस रोमांचक घटनाक्रम से पहले क्या हुआ था और बाद में क्या हुआ, इसका विस्तृत विवरण आगामी पृष्ठों पर दिया गया है।
★.. शिवाजी दल-बल समेत आगरा से जब चुपके से निकले, तब अगस्त का महीना था। बरसात जमकर हो रही थी। नदी-नाले उफनकर बह रहे थे। जगह-जगह कीचड़ के कारण रास्ते रुके हुए थे। पुल टूट गए थे। ऐसे कठिन समय में शिवाजी ने महाराष्ट्र की राह पकड़ी और 40 दिनों में 1600 मील की दूरी पार की। ऐसे-ऐसे घुमावदार रास्ते पकड़े कि उनकी खोज में भटक रहे औरंगजेब के सैनिक किसी की परछाईं के भी दर्शन न कर सके।
★.. यात्रा से जुड़े कागजात शिवाजी ने न सिर्फ अपने लिए, बल्कि साथ के हर व्यक्ति के लिए बड़ी कुशलता से हासिल किए।
★ उन्होंने अपनी वेशभूषा इतनी चतुराई से बदली कि रायगढ़ पहुँचे, तब स्वयं उनकी मातुश्री जीजाबाई भी उन्हें न पहचान पाईं !
★ शिवाजी ने पुत्र संभाजी को मथुरा में छोड़ दिया। वहाँ उन्होंने संभाजी की मृत्यु की झूठी खबर फैलाकर उसका श्राद्ध कर्म भी किया !
***
6 अप्रैल, 1663 के दिन शाइस्ता खान पर शिवाजी ने जिस बेधड़क तरीके से छापा मारा था, उसका ब्योरा सुनकर औरंगजेब आग बबूला हो गया। मुगल प्रतिष्ठा उसे धूल में मिल चुकी महसूस होने लगी। शिवाजी महाराज को नियंत्रण में लाने के लिए उसने मिरजा राजा जयसिंह को चुना। जयसिंह अत्यंत कर्तव्य परायण, शूरवीर, मुतसद्दी एवं अनुभवी सेनापति थे। धूर्तता भी उनकी फितरत में थी, लिहाजा सियासत के कुशल खिलाड़ी थे। साथ ही वे उतने ही सहनशील, शांत एवं स्थिर स्वभाव के धार्मिक व्यक्ति थे। उर्दू व डिंगल भाषाओं के साथ तुर्की एवं पर्शियन पर भी उनका प्रभुत्व था। उनकी ग्रहण-शक्ति व संगठन शक्ति प्रशंसनीय थी। शिवाजी को नियंत्रण में लेने के लिए उन्होंने एक खास फौज की रचना की। यह एक संयुक्त फौज थी, जिसमें अफगान, तुर्क, राजपूत व हिंदुस्तानी फौजियों को शामिल किया गया। इस बहुधर्मी फौज के बीच उन्होंने एकता की भावना जगाई 30 सितंबर, 1664 के दिन औरंगजेब ने मिरजा राजा जयसिंह को शिवाजी का अंतिम संस्कार कर देने की जवाबदारी सौंपी। उस समय जयसिंह 55 वर्ष के और शिवाजी 35 वर्ष के थे।
शिवाजी महाराज की अलौकिक कर्तव्य परायणता की कीर्ति मिरजा राजा जयसिंह के कानों तक पहुँच चुकी थी। भीतर से वे भी डरे हुए थे। उन्होंने ब्राह्मण पुरोहितों को बुलवाकर कहा कि कोटि चंडी का यज्ञ किया जाए एवं 11 कोटि शिवलिंग बनवाए जाएँ। कामनापूर्ति के लिए बगलामुखी कालरात्रि का जाप करवाया जाए। चार सौ ब्राह्मण इस कार्य के लिए नियुक्त कर दिए गए।
सन् 1665 में 30 मार्च के दिन राजा जयसिंह ने शिवाजी के पुरंदर किले को घेरना शुरू किया। मराठे भी जैसे इसी के इंतजार में थे। उन्होंने जोरदार प्रतिकार किया। इसके बावजूद मुगलों की शक्ति मराठों पर भारी पड़ने लगी। पुरंदर और रुद्रमाल के किलों में रहने का मौका मुगलों को मिल ही गया। मुगल सेना घूम-घूमकर महाराज के राज्य में उत्पात मचाने लगी।
राजा जयसिंह के पत्र-संग्रह ‘हप्त अंजुमन’ में पुरंदर किले के घेरे जाने का विस्तृत वर्णन किया गया है। किले पर मुगलों के आक्रमण एवं मराठों के जोशीले प्रतिकार का इस पत्र-संग्रह में उत्कृष्ट विवरण है। मराठे बार-बार किले से बाहर निकलकर मुगलों के दाँत खट्टे कर देते थे।
‘बालेकिला’ (किले का सबसे ऊँचा व सुरक्षित भाग) पर चढ़ने की कोशिश में मुगल सेना ने दिलेर खान को साथ लिया। मराठों के सेनापति मुरारबाजी के उन्मत्त सैनिकों ने मुगल सेना पर एकदम अचानक आक्रमण किया। मुरारबाजी के सामने मुगल सेना नहीं टिक सकी।
दिलेर खान अपनी छावनी में भाग गया। भड़के हुए मराठे दिलेर खान की छावनी में पहुँचकर उस पर हमला करने लगे। खुद दिलेर खान मुरारबाजी के निशाने पर था। मुरारबाजी की शूरवीरता और युद्ध कौशल से दिलेर खान बहुत प्रभावित हुआ। उसने लड़ते-लड़ते ही मुरारबाजी के सामने प्रस्ताव रखा कि क्यों नहीं तुम मुगलों के साथ मिल जाते ?
मुरारबाजी ने गुस्से से तपे हुए स्वर में उत्तर दिया “तुम मेरी वीरता की तारीफ करो, चाहे मुझे जागीर का लालच दो, मुझे शिवाजी महाराज की नौकरी पसंद है। मुगलों की जागीर को मैं तुच्छ समझता हूँ। मैं और मेरे साथी अपने स्वामी के साथ कभी दगा नहीं कर सकते भले ही हमारे प्राण चले जाएँ।”
मुरारबाजी ने मुगलों का सामना अत्यंत वीरता से किया दुर्भाग्य से मुरारबाजी दिलेर खान के बाणों का शिकार हो गए।
मुरारबाजी का शव मुसलमानों के हाथ न लगे, इसके लिए मराठा वीरों ने उनके अवयवों को, जो कटकर रणभूमि पर गिर गए थे, अत्यंत आदर के साथ एकत्र किया। शव एवं अवयवों को उन्होंने रायगढ़ भिजवा दिया। मुरारबाजी की वीरगति का शोक- समाचार पाकर शिवाजी महाराज स्तब्ध रह गए।
मुरारबाजी जैसे वीर एवं तेजस्वी नायक के चले जाने के बावजूद मराठों ने पुरंदर का किला न छोड़ा। पुरंदर के ऊपरी हिस्से तक दुश्मन की तोपों की मार पहुँच नहीं रही थी। दिलेर खान ने रुद्रमाल के किले को घेरकर निशाना बनाया। इस किले की सुरक्षा के लिए प्रभु-बंधु बाबाजी बोवाजी एवं यशवंतराव बोवाजी नियुक्त थे। उनके पास सैनिक थोड़े ही थे, किंतु उतनी शक्ति से भी उन्होंने काफी देर तक मुगलों के साथ संघर्ष किया।
इस संघर्ष में दोनों प्रभु-बंधु शहीद हो गए। 14 अप्रैल, 1665 के दिन यह किला मुगलों ने जीत लिया।
अब शिवाजी महाराज ने महसूस किया कि इस युद्ध के कारण राज्य का नुकसान हो रहा है। महाराज हमेशा युद्ध से अधिक युक्ति पर विश्वास करते थे। समय आने पर किसी अनोखी युक्ति से शत्रु को सही जवाब दे दिया जाएगा। वर्तमान में तो इस युद्ध का रुकना जरूरी है। महाराज ने राजा जयसिंह को युद्ध समाप्त करने के निवेदन के साथ अनेक पत्र लिखे, जिनमें बीजापुर संघर्ष में मुगलों को सहयोग देने का प्रस्ताव भी उन्होंने रखा, किंतु जयसिंह ने एक न सुनी। शिवाजी द्वारा प्रस्तावित किसी भी सौदे में राजा जयसिंह की दिलचस्पी नहीं थी। उन्हें तो शिवाजी की पूर्ण शरणागति चाहिए थी।
तब शिवाजी महाराज ने निर्णय लिया कि वे स्वयं जाकर राजा जयसिंह से मिलेंगे।
इस संदर्भ में राजा जयसिंह ने बादशाह औरंगजेब के सामने जो ब्योरा प्रस्तुत किया, वह इस प्रकार है—
“जिलहम्ज महीने की 7 तारीख, रविवार (11 जून, 1665) को सुबह के 9 बजे मैं दरबार में बैठा हुआ था। मराठों का दूत संदेश लेकर आया कि शिवाजी कहीं नजदीक ही आए हुए हैं और मिलना चाहते हैं। शिवाजी के साथ 6 ब्राह्मण और पालकी उठाने वाले कुछ कहार थे। मैंने उदयराज मुंशी एवं उग्रसेन कछवाहा को शिवाजी से मिलने के लिए भेजा। इन दोनों को मैंने यह हिदायत दी कि जाकर वे शिवाजी से कहें कि अगर आप अपने सभी किले बादशाह को देने के लिए तैयार हों, तो ही मिलने आएँ, अन्यथा वापस चले जाएँ।
शिवाजी ने ऐसा निर्देश पाकर कहा “मैं बादशाह की नौकरी कबूल करने को तैयार हूँ। मेरे अनेक किले बादशाह से जुड़ जाएँगे।”
इन शब्दों के साथ शिवाजी महाराज उदयराज मुंशी और उग्रसेन कछवाहा के साथ हो लिये और राजा जयसिंह के समक्ष उपस्थित होने के लिए आ पहुँचे। शिवाजी की अगवानी के लिए जयसिंह ने बेग बक्षी को द्वार तक भेजा।
पुरंदर का किला इतना चोटिल हो चुका था कि उस पर मुगलों का कब्जा टाला नहीं जा सकता था। इसमें जो भी समय लगेगा, उसमें किला और भी चोटिल होता जाएगा। किले की मजबूती थोड़े ही बढ़ने वाली थी! किले को और अधिक नुकसान से बचाने के लिए शिवाजी ने एक बड़ा ही सरल तरीका निकाला। उन्होंने पुरंदर स्वयं ही मुगलों को सौंप दिया ! पुरंदर के मराठा सैनिकों को किला खाली करने का आदेश एवं स्वीकृति प्रेषित कर दिए गए।
इसके बाद समझौते की जो बातचीत हुई, उसके नियम कठिन ही थे। जयसिंह को सभी किले चाहिए थे, जबकि शिवाजी महाराज राजा जयसिंह से छूट लेने की कोशिश कर रहे थे। जयसिंह बीजापुर की तरफ कूच करें, ऐसा महाराज चाहते थे। इससे मुगलों का ज्यादा फायदा हो सकता था।
समझौते की शर्तें इस प्रकार थीं—
1.. चार लाख होन ( सोलह लाख रुपए) के लगान वाले शिवाजी महाराज के छोटे-बड़े 23 किले मुगल साम्राज्य में मिलाए जाएँ।
2.. रायगढ़ सहित बारह किले, जिनका लगान एक लाख होन था, शिवाजी महाराज के पास रहेंगे, लेकिन यहाँ एक शर्त भी थी, वह यह कि महाराज को बादशाह की नौकरी विधिवत् स्वीकार करनी होगी और बादशाह के प्रति निष्ठा प्रदर्शित करनी होगी।
3.. महाराज के पुत्र संभाजी को 5 हजार की ओहदेदारी दी जाएगी।
4.. शिवाजी महाराज ने कहा कि ओहदेदारी और चाकरी करने से उन्हें छूट दी जाए। दक्षिण पर काबू करने के बादशाह के संघर्ष में मुझे जो भी काम दिया जाएगा, उसे मैं निस्संकोच पूरा करूँगा।
5.. बीजापुर के संदर्भ में शिवाजी ने कहा कि इस राज्य के कोंकण के इतने हिस्से पर मेरा शासन है, जिसका वार्षिक लगान चार लाख होन बनता है। यह हिस्सा मेरे ही पास रहना चाहिए, साथ में बीजापुर के बालाघाट में, यानी साँगली-कोल्हापुर आदि में, पाँच लाख होन के लगान वाले जितने महल हैं, सब मुझे चाहिए। इस आशय की लिखित अनुमति मुझे दी जाए। इसके बाद बादशाह की सेना जब बीजापुर को जीतने के लिए आए, तब यहाँ निर्देशित तालुके (तहसीलें) मेरे अधिकार में रहें। इस शर्त पर मैं 3 लाख होन वार्षिक के हिसाब से 40 लाख होन बादशाह को लगान के तौर पर देने को तैयार हूँ।
समझौता जारी होने पर शिवाजी महाराज के पास बहुत कम प्रदेश बच रहे थे, उनके पिता द्वारा अर्जित पूना प्रांत में से चार लाख रुपए का वार्षिक लगान देनेवाला एक छोटा सा प्रदेश; साथ में मध्य एवं दक्षिण कोंकण, जो उन्होंने बीजापुर से जीता था और फिर इसी से जुड़े हुए आज के सातारा जिले के प्रतापगढ़ तथा जावली तालुके।
इसको यूँ भी कहा जा सकता है कि महाराज का संपूर्ण राज्य मात्र दो जिलों में सिमट गया था। जंजीरा तक मुगलों की जीत हुई थी, लिहाजा जंजीरा के सिद्दी को जो नौकरी मिली, वह मुगलों की नौकरी थी। इससे महाराज का प्रभाव कम हुआ था। फिर भी बीजापुर पर कब्जा करने की मुहिम में मुगलों ने शिवाजी को साथ रहने के लिए कहा और इसके लिए उनसे तैयारी भी करवाई। मुगलों की धारणा थी कि शिवाजी केवल जमींदार है। वह अधिकारी वर्ग से आया है। वह बीजापुर और गोलकुंडा के परंपरागत राजाओं जैसा नहीं है। ऐसे में शिवाजी की शक्ति दस वर्ष से अधिक नहीं टिकेगी, यानी; बीजापुर के खिलाफ जो मुहिम चलाएँगे, उसमें शिवाजी का उपयोग बेधड़क किया जा सकता है।
दक्षिण में मुगल, आदिलशाह, कुतुबशाह और मराठे, ये चार शक्तियाँ सक्रिय थीं। शक्ति-संतुलन का तराजू मुगलों की तरफ झुक जाएगा, यदि इन चार में से एक शक्ति को, यानी शिवाजी महाराज को बीजापुर के खिलाफ चलने वाली मुहिम में मुगल अपने साथ खींच लें।
ऊपर कही गई सारी बातें औरंगजेब को लिखी राजा जयसिंह के खत में शामिल हैं। अगर बारीकी से समझा जाए, तो साफ नजर आता है कि राजा जयसिंह के मन में शिवाजी के प्रति सहानुभूति थी। यहाँ यह भी स्पष्ट है कि सहानुभूति को जयसिंह ने अपने तक ही सीमित रखा था, क्योंकि वे मुगल बादशाह औरंगजेब के कर्तव्यनिष्ठ सेवक थे।
इटली से भारत आया हुआ एक यात्री, जो इतिहासकार भी था, उन दिनों राजा जयसिंह की छावनी में अकसर जाता था। उसका नाम था, निक्कोलाओ मनुची। उसने औरंगजेब के शासनकाल को बहुत अच्छी तरह देखा-समझा था। 'स्तोरिया दी मोगोर' नामक उसकी पुस्तक एक मशहूर संदर्भ ग्रंथ है, औरंगजेब के समय काा। निक्कोलाओ मनुची का एक विशिष्ट कथन इस प्रकार है—
‘दिलेर खान की फितरत थी कि वह धोखा देने से नहीं हिचकता था। उसकी हमेशा एक ही राय रही कि शिवाजी को मार डालना चाहिए। राजा जयसिंह से दिलेर खान बार-बार कहा करता कि शिवाजी को या तो तुम मारो या मुझे इजाजत दो, मैं मार डालता हूँ। शिवाजी की मौत की पूरी जिम्मेदारी मैं ले लूँगा। तुम्हें कोई दोष नहीं देगा। शिवाजी की मौत से बादशाह (औरंगजेब) को खुशी ही होगी, क्योंकि शिवाजी की शूरवीरता और साहस मुगलों को चैन की नींद नहीं लेने देते। दूसरी ओर राजा जयसिंह शिवाजी के प्रति सच्ची सहानुभूति रखते थे। उन्होंने तो शिवाजी को अभयदान दे रखा था। शिवाजी को मारने की इजाजत वे कैसे दे सकते थे। वे शिद्दत से महसूस करते थे कि शिवाजी का तो सम्मान होना चाहिए। राजा जयसिंह ने दिलेर खान की एक न सुनी।’
यह सुझाव राजा जयसिंह का ही था कि बादशाह-सलामत शिवाजी महाराज को मुलाकात के लिए बुलाएँ। उन्होंने बादशाह औरंगजेब को लिखा, ‘आदिलशाह और कुतुबशाह हमारे खिलाफ एकजुट हो गए हैं। शिवाजी को अपनी ओर मिलाकर हम इन दोनों की ताकत कम कर सकेंगे। शिवाजी को आपकी हुजूरी में पेश किया जाना चाहिए। इसके लिए शिवाजी को उत्तर भारत में भेजना जरूरी है।’
शिवाजी महाराज आगरा आएँ, इसके लिए राजा जयसिंह ने बहुत कोशिश की होगी।
5 मार्च, 1666 को शिवाजी अपने लाव-लश्कर के साथ आगरा जाने के लिए निकले। रास्ते में औरंगाबाद में वे 7 दिन रुके। औरंगजेब ने उन्हें इन शब्दों में आमंत्रित किया था, “आप शांत मन से, मुझ पर यकीन रखते हुए, फौरन मेरे हुजूर में आएँ। यहाँ आपको मान-सम्मान मिलेगा। आपको स्वदेश लौटने की भी इजाजत मिलेगी।”
12 मई, 1666 को शिवाजी महाराज आगरा आ पहुँचे। उनकी सेना का उत्कृष्ट वर्णन राजा जयसिंह के पुत्र रामसिंह द्वारा अपने राजपूत अधिकारियों के नाम लिखे एक पत्र में मिलता है। यह पत्र 'राजस्थानी रिकॉर्ड्ड’ में शामिल किया गया है। पत्र में कहा है—
‘शिवाजी अपने साथ केवल 100 घनिष्ठ साथियों को लेकर आया है। उसके अंगरक्षकों की तादाद 200 से 250 तक है। शिवाजी जब पालकी में बैठकर निकलता है, तब उसकी पैदल सेना बड़ी तादाद में सामने चलती है। उसके झंडे का रंग नारंगी-सुनहरा (भगवा) है। देखने में शिवाजी अत्यंत छोटा लगता है, किंतु वह अत्यंत गोरा है। एक नजर में पहचाना जाता है कि यह तो राजा है। वह बड़ा हिम्मतवाला मर्द है। शिवाजी दाढ़ी रखता है। उसका बेटा नौ वर्ष का है। वह भी अत्यंत सुंदर और गोरा है।’
शिवाजी महाराज और औरंगजेब की मुलाकात ने इतिहास बदल दी थी। उस घटना का वर्णन ‘राजस्थानी रिकॉर्ड’ में इस प्रकार है—
‘कुमार (रामसिंह) और मुखलिस खान शिवाजी को लेकर दरबार में आ रहे थे। उसी समय बादशाह औरंगजेब ने दीवाने-आम छोड़ा और वह दीवाने-खास में आकर बैठ गए। दीवाने-खास में केवल चुनिंदा व्यक्तियों को ही बादशाह से मिलने का सम्मान प्राप्त होता था। शिवाजी दीवाने खास में गए। बादशाह ने असद खान बक्शी को हुक्म दिया कि शिवाजी को लेकर आओ और हुजूर में हाजिर करो।’
असद खान शिवाजी को बादशाह के पास ले गया। शिवाजी ने बादशाह को भेंट में स्वर्ण की एक मुहर एवं दो हजार रुपए दिए, साथ में निसार के तौर पर पाँच हजार रुपए दिए।
शिवाजी व संभाजी को ताहिर खान के स्थान पर, राजा जसवंत सिंह के पीछे खड़ा किया गया।
वह एक खास दिन था। वह था, बादशाह-सलामत औरंगजेब का जन्मदिन। शहजादों और अमीर उमराव को पान के बीड़े दिए गए। शिवाजी को भी बीड़ा दिया गया प्रसंग के अनुरूप वस्त्र शहजादे जफर खान और राजा जसवंत सिंह को दिए गए। शिवाजी इस घटना से अत्यंत क्रुद्ध हुए। सचमुच उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया गया था।
शिवाजी का क्रोधित रूप औरंगजेब ने देखा। उसने रामसिंह से कहा “देखो, शिवाजी को क्या हो रहा है।”
कुमार रामसिंह शिवाजी के पास आया। शिवाजी ने उससे कहा, “मैं किस प्रकार का व्यक्ति हूँ, यह तुम और तुम्हारे पिता अच्छी तरह जानते हैं। तुम्हारे बादशाह को भी पता है। फिर भी मुझे सम्मान का स्थान नहीं दिया गया। मैं तुम्हारी मनसब छोड़ता हूँ। मुझे खड़ा ही करना था, तो सही तरीके से करना था।”
इतना कहकर शिवाजी वहाँ से निकल गए। रामसिंह ने उनका हाथ पकड़कर रोकना चाहा। शिवाजी नहीं माने। वे दीवानखाने के एक तरफ जाकर बैठ गए। कुमार रामसिंह उन्हें समझाने लगा, किंतु शिवाजी बोले, “मेरी मृत्यु आई है। मुझे मार डालो, अन्यथा मैं आत्महत्या करूँगा। मेरा सिर काटना है, तो काट दो। मैं बादशाह के हुजूर में नहीं आऊँगा।”
शिवाजी किसी भी प्रकार नहीं मान रहे थे। तब कुमार रामसिंह ने बादशाह के पास जाकर सब बताया। इस पर बादशाह ने मुल्तफत खान, आदिल खान और मुखालिस खान को आज्ञा दी कि वे शिवाजी को समझाएँ। शिवाजी को सरोपाव सम्मान का वस्त्र भी दें।
शिवाजी बोले “मैं सरोपाव वस्त्र धारण नहीं करूँगा। मुझे गैर जिम्मेदाराना तरीके से जसवंत सिंह के पीछे खड़ा किया गया। मुझे मेरी प्रतिष्ठा के विरुद्ध स्थान दिया गया। मैं बादशाह की मनसब कबूल नहीं करूँगा। मैं उनकी चाकरी नहीं करूँगा। मुझे मारना है, तो मार डालो। कैद करना है, तो कैद करो। मैं यह वस्त्र भी धारण नहीं करूँगा।”
इस घटना ने आगरा में हलचल मचा दी। इसका ब्योरा 21 मई, 1666 के 'राजस्थानी रिकॉर्ड' में देखा जा सकता है। इसके पूर्व शिवाजी की मर्दानगी एवं उनके ऐलानों की लोग तारीफ किया करते थे। अब बादशाह के हुजूर में पेश होकर उन्होंने खुद बादशाह से कठोर वचन कहे और अपना विरोध दरशाया। शिवाजी महाराज के ऐसे साहस की आम जनता भरपूर तारीफ कर रही थी।
दीवाने-खास में शिवाजी ने जो व्यवहार किया, उससे मुगल सरदार बेहद खुश हुए। उन्हें बादशाह को भड़काने का बहाना मिल गया। ‘राजस्थानी रिकॉर्ड’ में इन सरदारों का कथन इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है—
“यह शिवाजी कौन है, जिसने आपके हुजूर में ऐसी बदतमीजी की है ? और आप उसकी बदतमीजी पर गौर भी नहीं फरमा रहे हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा, फिर तो कोई भी जमींदार यहाँ आकर ऐसी ही बदसलूकी करेगा। ऐसे में सरकार कैसे चलेगी? शिवाजी के दुस्साहस की चर्चा सब ओर होगी। यही कहा जाएगा कि एक हिंदू आकर बादशाह की शान में बेअदबी कर गया। फिर सभी ऐसा ही करेंगे।”
बादशाह भी बार-बार ऐसा सुनकर सोच में पड़ गया। उसने तय किया कि शिवाजी को या तो मार डाला जाए या फिर कैद तो कर ही लिया जाए। उसे किले में बंद कर दिया जाए।
सिद्दी फौलाद को हुक्म दिया गया कि वह शिवाजी को आगरा के किलेदार संजीद खान की हवेली पर ले जाए।
शिवाजी महाराज ने मुहम्मद अमीर खान के जरिए अर्ज किया कि अगर मुझे मेरे किले वापस मिल गए, तो मैं बादशाह को दो कोटि रुपए देने को तैयार हूँ। इसके अलावा मैं दक्षिण में रहकर बादशाह की नौकरी भी करूँगा।
जवाब में औरंगजेब ने जो कहा, वह दिमाग को सुन्न कर दे, ऐसा है, “हम उसके साथ नरमी का बरताव करते हैं, इसीलिए उसका दिमाग ठिकाने पर नहीं है। उसे स्वदेश जाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। उसे किसी से भी मिलने न दिया जाए।”
इस कारण महाराज को जहाँ रखा गया था, वहाँ मजबूत चौकियाँ बनाई गईं और पहरेदार तैनात किए गए। यह सुनकर राजा जयसिंह ने मीर बक्षी के जरिए औरंगजेब को कहलवाया, “हुजूर ने शिवाजी को मार डालने का विचार किया है, किंतु वे तो हमारे मेहमान हैं। हमारे अभयदान के वचन पर वे यहाँ आए हैं। पहले आप मुझे मारें, मेरे पुत्र को मारें, बाद में शिवाजी को मारें।”
फिर से शिवाजी महाराज के प्राण खतरे में पड़ गए थे। 7 जून, 1666 के ‘राजस्थानी रिकॉर्ड’ में कहा गया है, खुद बादशाह ने शिवाजी को संदेश भेजा, “तुम अपने सारे किले हमें दे दो। हम तुम्हें मनसब (ओहदा) देंगे। तुम कबूल करो। अपने भाई के लड़के को भी बुलवा लो। हम उसे भी मनसब देंगे।”
इस पर शिवाजी ने उत्तर दिया, “मुझे ओहदे की ख्वाहिश नहीं है। किलों पर भी मेरा हक नहीं है।” महाराज के उत्तर से बादशाह क्रोध में आ गया। शिवाजी ने दूसरी बार अपने किले वापस पाने की पेशकश की। स्वदेश वापस जाने की ख्वाहिश भी जाहिर की और कहा कि किलेदार मेरा कहा नहीं मानेंगे। मुझे तो खुद जाकर ही उनसे अपने गढ़ वापस लेने होंगे।
बड़ी बेगम (औरंगजेब की बहन) ने अर्ज किया कि मिर्जा राजा जयसिंह आपके श्रेष्ठ सेवक हैं। उन्होंने शिवाजी को अभय वचन दिया है। उसी के मुताबिक शिवाजी यहाँ आए हैं और हुजूर की खिदमत में पेश हुए हैं। हजरत (औरंगजेब) ने अगर शिवाजी को मारा, तो आगे कोई हजरत पर यकीन नहीं करेगा और हजरत का मददगार भी नहीं बनेगा।
बादशाह औरंगजेब ने उस दिन आगे की कोई काररवाई नहीं की।
आगरा के बाजारों में दो हैरतअंगेज अफवाहें फैली हुई थीं। इसका उल्लेख ‘राजस्थानी रिकॉर्ड’ में आया है। अफवाहें मनोरंजक भी कम नहीं थीं। पहली अफवाह के मुताबिक राजा जसवंत सिंह ने बादशाह को बताया है कि शिवाजी जमीन से 14-15 हाथ ऊँचा कूद सकता है। दूसरी अफवाह यह कि शिवाजी एक बार में चालीस-पचास कोस चल सकता है !
शहजादा मुअज्जम ने कहा “मैंने भी औरंगाबाद में सुना था।”
8 जून, 1666 को शिवाजी महाराज ने अपने सैनिकों व नौकरों को वापस चले जाने का आदेश दिया और कहा “मेरे साथ कोई न रहे। अगर वे मुझे मारते हैं, तो मारें।”
कुमार रामसिंह ने उन लोगों को अपनी छावनी में रहने की अनुमति दे दी।
शिवाजी ने बादशाह को संदेश भेजा कि मेरे सैनिकों को सरहदें पार करने के अनुमति पत्र दिए जाएँ, ताकि वे दक्षिण वापस जा सकें।
शिवाजी महाराज कहीं चकमा देकर चंपत न हो जाएँ, ऐसा अंदेशा शायद मुगल सरकार को था। सरकार ऐसी हर सावधानी बरत रही थी कि शिवाजी छूटकर निकल न सकें। जैसा कि 12 जून, 1666 के एक खत में उल्लेख है, ‘शिवाजी अगर आगरा से
भागे, तो मौजाबाद परगने की सरहद से आगे न निकल सकें। इसकी पूरी सावधानी बरती जाए। यह सरकार का हुक्म है।’
शिवाजी ने एक बार फिर बादशाह से अर्ज किया कि मुझे दक्षिण में जाने दिया जाए। मैं अपने किले बादशाह को दे दूँगा। अगर मैं किलेदारों के नाम आगरा से पत्र लिखूँगा, तो वे मेरी बात मान जाएँगे, यह मुश्किल है। इस पर बादशाह ने जवाब दिया कि अगर वाकई ऐसा है कि तुम यहाँ से दक्षिण जाकर अपने किलेदारों से किले दे देने के लिए कहो, तो वे तैयार हो जाएँगे तो यहाँ से लिखे गए खत पढ़ कर भला वे क्यों तैयार नहीं होंगे ?
मराठा इतिहासकारों के अनुसार शिवाजी महाराज ने आगरा में रहते हुए वजीर जफर खान व कुछ अन्य लोगों से मुलाकात की। भीमसेन सक्सेना ने महाराज की उदारता, दानशीलता, धार्मिकता एवं सैनिकों व नागरिकों को दी हुई भेंट- सौगातों का उल्लेख किया है। एक बार तो महाराज के पास खर्च करने के लिए रुपए कम पड़ गए। उन्होंने कुमार रामसिंह से 66 हजार रुपए उधार लिये, जो उन्होंने दक्षिण पहुँचने के बाद वापस भिजवा दिए।
शिवाजी महाराज आगरा से निकल भागे, इससे ठीक पहले जो घटनाएँ घटी थीं, उनके संदर्भ में 23 अगस्त, 1666 के 'राजस्थानी रिकॉर्ड' से जानकारी मिलती है। वहाँ कहा गया है कि शिवाजी महाराज के पलायन से पहले सुरक्षा व्यवस्था और भी कड़ी कर दी गई थी। बादशाह ने फिर से शिवाजी को मार डालने का आदेश दिया, लेकिन फिर उसे रद्द कर दिया और नया आदेश दिया कि शिवाजी को विट्ठलदास की हवेली में रखा जाए। शिवाजी चौकन्ने हो गए कि जरूर उन पर जान का खतरा मँडरा रहा है। स्वाभाविक था कि वे वहाँ से निकल भागें।
‘राजस्थानी रिकॉर्ड’ से महाराज के पलायन की तारीख 18 अगस्त, 1666 विदित होती है। 'आलमगीरनामा' में यह तारीख 19 अगस्त है।
महाराज के चकमा देकर निकल जाने से आगरा में पूछताछ व आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हुआ। सन् 1666 के 3 सितंबर के एक पत्र में कहा गया है कि दिन के चौथे प्रहर में समाचार आया कि शिवाजी पलायन कर गए हैं। चौकियों पर पहरेदारों की तादाद 1000 होते हुए भी ऐसा हुआ ! महाराज किस समय भागे, किसी को भनक भी नहीं लगी। पहरेदारों व अधिकारियों ने आपस में चर्चा कर निष्कर्ष निकाला कि विट्ठलदास की हवेली में फलों व मिठाइयों के बड़े-बड़े पिटारे आए थे। उन्हें हवेली में खाली कर जब बाहर निकाला गया, तब किसी पिटारे में शिवाजी छिपे बैठे थे। कहार ने पिटारे का बढ़ा हुआ वजन महसूस क्यों नहीं किया, पिटारा खोलकर उसने देखा क्यों नहीं? कोई भी समझ सकता है कि कहार शिवाजी महाराज का ही कोई आदमी था। शिवाजी छोटे कद के थे। पिटारे में सिमट कर बैठ गए और पिटारे के ही साथ हवेली से बाहर भी हो गए।
‘आलमगीरनामा’ में स्पष्ट कहा गया है कि शिवाजी वेशभूषा बदलकर भागे।
लोक मान्यता है कि शिवाजी पहले मथुरा गए, फिर वहाँ से दक्षिण की ओर। उनके साथ के सभी लोगों के पास सरहदें पार करने के अनुमति पत्र थे। शिवाजी महाराज ने ये फर्जी अनुमति पत्र कब, कहाँ, कैसे और किससे तैयार करवाए थे। कोई नहीं जानता। उन अनुमति पत्रों की कृपा से शिवाजी को एक तालुके से निकलकर और दूसरे तालुके में दाखिल होने में कहीं कोई बाधा नहीं आई।
‘जेधे शकावली’ में कहा गया है कि शिवाजी महाराज रायगढ़ में मार्गशीर्ष सुदी पंचमी (20 नवंबर, 1666) के दिन पहुँचे। पुत्र संभाजी को उन्होंने मथुरा में विश्वासराव ब्राह्मण के यहाँ रखा था।
कालचक्र घूमा। आगरा से महाराज के पलायन को 50 वर्ष हुए। अहमदनगर में औरंगजेब अपनी मौत से जूझ रहा था। उस समय भी उसे यह बात खल रही थी कि शिवाजी छल करके आगरा से निकल गए। औरंगजेब ने अपने मृत्यु पत्र में लिखा,
“हमारी जरा सी असावधानी के कारण शिवाजी छूटकर भाग गया। फलस्वरूप अब हमें हमेशा के लिए इसका नतीजा भुगतना होगा।”
शिवाजी महाराज यदि आगरा से छूटने में असफल रहते या छूटकर भी फिर से पकड़ लिये जाते, तो परिणाम क्या हुआ होता, यह कल्पना से परे है। महाराज के सेनापति नेताजी पालकर को मुगलों ने धोखे से पकड़ लिया था और उससे जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन करवाया गया था। भले ही कई वर्ष बाद, किंतु महाराज के पुत्र संभाजी को भी मुगलों ने पकड़ लिया था। संभाजी की करुण मृत्यु के समय साकी मुस्तैद खान नामक इतिहासकार औरंगजेब के यहाँ था। उसने संभाजी राजे की आँखें निकलवा दी जाने की घटना का समर्थन किया है।
साकी मुस्तैद खान के शब्द हैं, “संभाजी ने बादशाह की कृपा का महत्त्व नहीं समझा था। पहले वह अपने पिता (शिवाजी महाराज) के साथ बादशाह के दरबार से भाग गया। दूसरी बार वह मरहूम दिलेर खान के पास से भागा। इसलिए उसी रात्रि को उसकी आँखें निकाल दी गई।”
संदर्भ—
1. छत्रपति शिवाजी / सेतुमाधवराव पगड़ी
2. शिवकाल / डॉ. विगो खोबरेकर
3. शककर्ते शिवराय / विजयराव देशमुख
4. Shivaji and His Times / Jadunath Sarkar