अचलराज!तुम ऐसा नहीं कर सकते,महाराज अपारशक्ति ने हस्तक्षेप करते हुए कहा...
किन्तु!क्यों महाराज? अचलराज ने पूछा..
क्योंकि तुम इस राज्य के उत्तराधिकारी हो,महाराज अपारशक्ति बोले...
किन्तु महाराज!मुझे इस राजपाठ में कोई रुचि नहीं है,क्या मेरा जन्म इसलिए हुआ है कि मैं इस माया-मोह में फँसकर अपने अस्तित्व को भूल जाऊँ?,मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा जन्म सत्कर्मों के लिए हुआ है,मुझे अभी इस संसार को जानना है एवं इसके पश्चात अपनी तृष्णाओं से मुक्त होना है,मुझ पर तरस खाएं महाराज!,मैं विवश हूँ,कृपया मुझे क्षमा करें एवं अपने राज्य हेतु किसी और को उत्तराधिकारी चुने,अचलराज बोला...
तुम मेरे पुत्र हो एवं मैं तुम्हारे अलावा किसी और को इस राज्य का उत्तराधिकारी कैसे चुन सकता हूँ? महाराज अपारशक्ति क्रोधित होकर बोले...
किन्तु महाराज!मैने निर्णय ले लिया है कि मैं आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा,अचलराज बोला...
तो इस राजपाठ का अब क्या होगा?महाराज अपारशक्ति ने पूछा....
महाराज!मैं आपके प्रश्न का उत्तर दे चुका हूँ,अचलराज बोला...
तो तुम अपनी हठ नहीं छोड़ोगे,अपारशक्ति बोलें...
इसे मेरी हठ ना कहें महाराज! मैं तो केवल स्वयं को खोजना चाहता हूँ,अचलराज बोला....
तो खोजो स्वयं को एवं चले जाओ यहाँ से अब मैं तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहता,ना जाने ऐसा कौन सा अशुभ क्षण था जब तुमने जन्म लिया,अच्छा है कि तुम्हारी माताश्री ये दिन देखने से पहले ही स्वर्ग सिधार गई,नहीं तो उन्हें बड़ा कष्ट होता तुम्हारे इस व्यवहार से,महाराज अपारशक्ति बोले....
अच्छा महाराज!आज्ञा दें,मैं अब चलता हूँ,मेरे कारण यदि आपको कष्ट हुआ है तो मुझे क्षमा कर दें और ऐसा कहकर अचलराज राजमहल त्यागकर चला आया.....
अचलराज स्वर्णनगर का राजकुमार था,अपने जन्म के पाँच वर्ष के उपरान्त वो शिक्षा प्राप्त करने अरण्य ऋषि के आश्रम चला गया,वहाँ उसने पन्द्रह वर्ष तक शिक्षा प्राप्त,इसी मध्य उसकी माँ का स्वर्गवास हो गया एवं उसे अपने राज्य वापस लौटना पड़ा,पिता अपारशक्ति सोच रहे थे कि अब पुत्र वापस आ गया है एवं बीस वर्ष का भी हो चुका है तो उसका विवाह करके,उसे राजपाठ सौंपकर वन को प्रस्थान करेगें किन्तु यहाँ तो उनकी सोच के एकदम विपरीत हुआ,यहाँ तो पुत्र ही वन प्रस्थान हेतु तत्पर बैठा है,महाराज अपारशक्ति ने जब ये सुना तो उनका मन अत्यधिक आहत हुआ,उन्होंने अपने पुत्र अचलराज को अत्यधिक समझाने का प्रयास किया किन्तु वो नहीं माना,उसके हृदय और मस्तिष्क पर अपने गुरूवर अरण्य ऋषि का इतना प्रभाव पड़ा कि उसे संसार से विरक्ति हो गई और उसने यश एवं वैभव भरा जीवन त्यागने का निश्चय कर लिया एवं आज वो सबकुछ त्यागकर स्वयं को खोजने निकल पड़ा है.....
इधर महाराज अपारशक्ति ने अपने महामंत्री सुमेर सिंह को आज्ञा दी कि किसी ऐसी नवयुवती की खोज करो,जो सुन्दर एवं वाचाल प्रवृत्ति को हो,उसकी बातों में इतना रस हो कि कोई भी उस पर मोहित हो जाए,तभी महामंत्री सुमेर सिंह ने महाराज अपारशक्ति से पूछा....
क्षमा करें महाराज!किन्तु ऐसी युवती को खोजने की आवश्यकता क्यों आ पड़ी?
तब महाराज अपारशक्ति बोले....
मैं ऐसा चाहता हूँ क्योंकि ऐसी ही युवती अचलराज को अपने प्रेमसम्मोहन में ले सकती है,यदि अचलराज जीवनपर्यन्त ब्रह्मचारी रहा तो मेरे वंश की वंशबेल समाप्त हो जाएगी,मैं चाहता हूँ कि वो युवती अचलराज का ब्रह्मचर्य भंग करें,अचलराज जो जीवनपर्यन्त ब्रह्मचारी रहने का संकल्प ले चुका है उसका ये संकल्प टूट जाए....
जी!महाराज!जैसी आपकी आज्ञा और ऐसा कहकर महामंत्री ऐसी युवती की खोज में निकल पड़े,जो सुन्दर,वाचाल एवं मनभावनी हो,कुछ समय की खोज के पश्चात महामंत्री को ऐसी युवती मिल भी गई,उस युवती का नाम शाकंभरी था,जो एक माली की पुत्री थी,महामंत्री उसे राजमहल में लेकर आएं एवं महाराज अपारशक्ति ने उसे उसका कार्य समझा दिया,अब बारी थी अचलराज को खोजने की तो महाराज अपारशक्ति के गुप्तचरों ने अचलराज को भी खोज निकाला,जो किसी ग्राम के समीप एक वृक्ष के तले रह रहा था तथा ग्रामवासियों से भिक्षा माँगकर अपना जीवनयापन कर रहा था......
एक दिन अचलराज वृक्ष के तले ध्यान लगाकर बैठा था,तभी एक युवती उसके समीफ आकर उसके चरणों तले बैठ गई एवं बड़े ध्यान से अचलराज को निहारने लगी,जब अचलराज ध्यानमुद्रा से जागा तो उसने अपने चरणों तले उस युवती को बैठे पाया,तब उसने उस युवती से पूछा....
तुम कौन हो देवी एवं यहाँ इस प्रकार क्यों बैठी हो?
महात्मा!मैं शाकंभरी हूँ, आपको यहाँ ध्यान लगाए हुए देखा तो आपके मुख के तेज ने मुझे आकर्षित कर लिया एवं मैं यही आपके चरणों तले बैठ गई...
ठीक है तो अब मैं यहाँ से प्रस्थान करूँगा क्योंकि मुझे भिक्षा माँगने जाना है,इतना कहकर अचलराज ने अपनी लाठी उठाई एवं भिक्षा की पोटली को वृक्ष के तने से उतारा और वहाँ से चला गया,शाकंभरी उसे जाते हुए देखती रही....
सायंकाल जब अचलराज भिक्षा माँगकर वापस उस वृक्ष तले लौटा तो उसने देखा कि शाकंभरी उसकी प्रतीक्षा में बैठी है और उसे देखकर बोली....
महात्मा!मैं आपके लिए फलाहार लाई थी...
ठीक है यहीं रख दो और चली जाओ...
फल रखकर शाकंभरी वहाँ से चली गई,किन्तु वो वहाँ दूसरे दिन भी उपस्थित हुई और महात्मा से मेल-मिलाप बढ़ाने का प्रयास करने लगी,जैसा कि उससे कहा गया था किन्तु अचलराज अपने संकल्प पर अटल था,वो शाकंभरी पर ध्यान ही ना देता था,परन्तु शाकंभरी भी कम ना थी,उसने अब भी अपना साहस ना हारा था वो महात्मा अचलराज को रिझाने में निरन्तर प्रयासरत रही एवं वो जब देखो तब उसी वृक्ष के तले पड़ी रहती ,महात्मा वहाँ पर नहीं होते तब भी,अब महात्मा भी सजीव प्राणी थे,शाकंभरी को कब तक अनदेखा करते,उन्हें भी अब शाकंभरी से आत्मियता हो गई थी,अब शाकंभरी का उस वृक्ष तले आना उन्हें भाने लगा था,जिस दिन शाकंभरी उस वृक्ष तले ना आती तो महात्मा अचलराज का भी जी ना लगता,ये बात शाकंभरी भी समझने लगी थी कि महात्मा अचलराज पर उसका प्रभाव पड़ने लगा है...
एक दिन शाकंभरी उस वृक्ष तले आई तो जोर की वर्षा होने लगी,महात्मा जी वृक्ष के चबूतरे पर बैठे थे और शाकंभरी चबूतरे के तले धरती पर,शाकंभरी के वस्त्र अब पूर्णतः भीग चुके थे एवं वो ठण्ड से काँप रही थी,तब महात्मा अचलराज ने उससे कहा....
शाकंभरी!तुम इधर चबूतरे पर मेरे समीप आकर बैठो यहाँ वृक्ष तले तुम नहीं भिगोगी....
शाकंभरी तो इसी अवसर में थी कि उसे कब महात्मा के समीप जाने को मिले और आज उसकी ये कामना पूर्ण होने को थी,वो अचलराज के समीप जाकर बैठ गई,भीग जाने से उसके वस्त्र पारदर्शी हो गए थे जिससे उसका शरीर उन वस्त्रों के पीछे से झलक रहा था,शाकंभरी को अत्यधिक लज्जा का अनुभव हो रहा था,इसलिए वो अपनी दृष्टि नीचे किए हुए बैठी थी,तभी एकाएक बादल गरजे एवं बिजली कड़की,शाकंभरी भयभीत हो उठी एवं भय के किरण वो अचलराज के अंग से लिपट गई,शाकंभरी के शरीर की ऊष्मा से अचलराज का सुप्त हृदय जाग उठा एवं उसकी रक्तवाहिनियों में रक्तसंचरण तीव्र हो गया,उसका स्वयं पर वश ना चला,शाकंभरी के कोमल स्पर्श ने उसके ब्रह्मचर्य को विफल कर दिया एवं शाकंभरी के अधरों का चुम्बन लेने को वो विवश हो उठा,शाकंभरी के अधरों का चुम्बन लेने के पश्चात उसका मस्तिष्क जागा उसने देखा की शाकंभरी उसके अंगपाश में है तो उसने शाकंभरी को जोर का धक्का दिया,उसे ये सोचकर स्वयं पर अत्यधिक ग्लानि हुई कि आज उसने काम के वशीभूत होकर अपना ब्रह्मचर्य भंग कर दिया,उसने ये क्या अनर्थ कर दिया,आज उसकी एक भूल से उसका ब्रह्मचर्य भंग हो गया था,तब उसने शाकंभरी से कहा.....
तुम अभी इसी समय यहाँ से चली जाओ शाकंभरी! नहीं तो मेरे हाथों कोई अनर्थ हो जाएगा....
अचलराज के वाक्यों को सुनकर शाकंभरी वहाँ से चली गई,अचलराज रात्रि भर कुछ सोचता रहा और प्रातःकाल सबने देखा कि उसका शव उस वृक्ष से टँगा है,कदाचित अचलराज को अपने इस कुकृत्य पर इतनी अधिक ग्लानि हुई कि उसने उसी वृक्ष से लटककर आत्महत्या कर ली,क्योंकि उसने जीवनपर्यन्त ब्रह्मचारी रहने का स्वयं से जो संकल्प किया था , आज उसका ये संकल्प टूट चुका था......
समाप्त.....
सरोज वर्मा....