Kulakshani in Hindi Moral Stories by Chaya Agarwal books and stories PDF | कुलक्षणी

Featured Books
Categories
Share

कुलक्षणी

कुलक्षणी
नौबत ने आखरी जूता लोहे की रांपी पर चढ़ाया और तरकीब से फटे हुये हिस्से को सुई से सीने लगा। उसके अनुभवी हाथों से जूता निबट कर अपने मालिक की राह देख ही रहा था कि शाम का छुटपुटा घिरने लगा, चौराहे पर खड़ा सिपाही डंडा फटकारते हुये आ खड़ा हुआ और नौबत की बंद पेटी पर अपना काला मोटा जूता रख कर आगे को झुक गया नौबत ने जेब में हाथ डाल कर दो-पाँच के कई नोट निकाल कर गिने और पचास रूपये हफ्ते के उसके हाथ पर रख दिये।
घर की रसोई से उसे दाल भात और बाजरे की रोटी की सुगन्ध आने लगी थी। यूं तो दिन भर चमड़े की बू और नाले का किनारा उसे अपना सा लगता पर शाम ढलते ही रसोई की चहल उसके पेट तक पहुँच कर हलचल मचाने लगती। पेट गुड़गुड़ा कर कई बार उसे चेता देता कि वह भूखा है और नौबत मन-ही-मन उसे ठाठस देता हुआ अपनी पटरे पर सजी दूकान को समेटने लगता।
नौबत ने रोज की तरहा काठ की पेटी में सामान जमाया और सुबह तक को बगल की दुकान में लगा दिया। पेटी रखने का पचास रु. रोज दुकानदार शाम को ही माँग लेता। सौ से डेढ़ सौ रू रोज की कमाई तो थी जिसमें से पचास पेटी के चले जाते, सौ- पचास जो बचते उससे गुजर में कोई दिक्कत नही थी। हंसमुख नौबत ने न तो कभी किसी के सामने हाथ फैलाया और न ही दुखड़ा रोया। पिछले बरस जब से अस्थमा से हाँफती हुई माँ चल बसी थी तब भी वह दाह संस्कार के बाद जूते सिलने आया था और गुनगुनाते हुये जूते सिलता रहा और अभी पाँच महीने पहले ही तो जवान बेटा खोया था बदनसीब ने लेकिन जरा सी शिकन न पड़ी त्योरी पर, वैसे ही जस -का -तस, पत्थर की चट्टान सा तना हुआ। मूरख की आत्मा ही सूखी थी या चमड़ा सिलते-सिलते बेमुरव्वत हो गया था या फिर उलाहना की आग ने कोयला बना दिया था।
सामने की हलवाई की दुकान का कारीगर माखन कनखी आँखों से देख कर तंज कसता- " अम्मा माल छोड़ के गयी दिखत है तभी मुये के चेहरे पर शिकन नाहि और बिटवा सगा नाहि का? औरत संग लेके आई थी लागत, ताभई कौनऊ गम न मातम.....ऐ नौबतवा तू कसाई है का?? बोलत नाहि, साला सूअर कहींका" माखन चिढ़ कर गुर्राता।
नौबत मूर्खों की तरह जोर से हँसता और दूसरा जूता उठा कर सिलने लगता। उसकी चुप्पी से खिसयाया माखन करछी को भरी कढ़ाई में पटक बैठता और घी के छीटें उड़ कर उसके मुँह पर गिरते। अंगोछे से मुँह रगड़ता हुआ माखन फिर से उसे कोसता तब नौबत अपना पानी का लोटा लेकर दौड़ पड़ता ताकि गरम तेल के छीटों की जलन कुछ कम हो सके। मगर माखन ठहरा सगढ़ ब्राह्मण, अपनी जात बचाने के लिये उसे दूर से ही रोक देता। नौबत अपना पानी का लोटा लेकर लौटता और उसमें चमड़े की कतरन भिगो देता।
अक्सर उस महौल्ले के चौंक में नौबत को लेकर जूतम- पजार होती तो दो-चार चमार के समर्थन में खड़े हो जाते और नौबत फिर गुनगुनाता हुआ जूते सिलने लगता।
सिलसिला लम्बा था पर थमा कभी नही। नौबत की जात और दूकान को लेकर राजनीति भी खूब होती कुछ लड़ते कुछ आड़ करते पर उस दलदली कीचड़ से नौबत को भी बू आती जो कभी पटरे के नीचे वाले नाले से न आई।
नौबत को नाले के पटरे पर दुकान सजाते चौबिस बरस हो चले थे और उम्र भी चालीस के पार। होशोहवास का बड़ा हिस्सा इसी पटरे पर कटा था। जिन्दगी ने अपनी रफ्तार अपने उसूलों से पकड़ी थी और उसने हालातों के हिसाब से। न कोई गिला न शिकवा, न सम्मान की भूख, ऐसे इन्सानों का समाज में कौन सा दर्जा हो सकता है इतना दिमाग नौबत ने कभी नही लगाया वह तो पेट और उसकी चिलचिलाती आग में ही झुलसता रहा और बेपरवाह चाल से उभरती हसरतों को कुचलता रहा।
आज उसके इकलौते बेटे की विधवा बहू का आठमांसा पुजना था गर्भ का आठवां महीना पूरा हुआ था। घर में औरत के नाम पर वही तो बची थी जो दिन को गृहस्थी में खटती और रात भर सिसकती, रोती भाग्य को कोसती, नौबत को थाली परोसती तो रोनी सूरत से सब व्यथा कह डालती, उडेल देती ताजा विधवापन का चुभता दर्द। पेट में बच्चा लाते मारता तो पकड़ लेती पेट को, 'माँ हूँ, न तो पैदा ही न करती, कैसे पालूँगी तुझे तेरे बाप के बिना? न अगाड़ी कुछ न पिछाड़ी कुछ है पहाड़ सा जीवन है तुझे पालूँगी या नौकरी करूँगी कैसे जिऊँगी? बुढढे का कौन भरोसा कब छोड़ चल दे। मैं औरत जात जूते सिलने में न बैठ सकती, जे मुई कैसी जिन्दगी दी है कन्हैया?' गालों पर ढुलकते आँसुओं को केतकी दुपट्टे से पोछ लेती और शाम को ससुर का इन्तजार भीतर के कमरे में करती है आहट पर बाहर आकर कमर में घोसा दुपट्टा खींच कर सिर पर ओढ़ लेती और मरियल चाल से हाथ-मुँह धुलाती। अक्सर सुबकते-सुबकते हलकान होकर ढुलक जाती तब नौबत का कलेजा मुँह को आता और वह भारी कदमों से चबूतरे पर बैठ कर बीढ़ी सुलगाने लगता।
आज आस-पडोस की बारह-पन्द्रह औरतें ढोलक लेकर जमा हो गयीं। अठमांसें पर गीत गाने हैं लड़के की बरसी हो गयी थी तो शगुन, गाने बजाने का कोई परहेज नही था। बिरादरी के दो-चार पढ़े-लिखे रिश्तेदारों ने पुरजोर सलाह दी थी- "गये को कौन वापस ला सकत है रे नौबतबा! अब का पतो बच्चे का रुप में बिटवा ही लौटई आये जाये?" सुन कर नौबत मन-ही-मन-मन खुशी के आँकड़े बिठाता, सूने घर का ठाह उसे भी था दूसरा केतकी का जीवन जो गठरी की तरह सिमट रहा था जिस पर वो हाथ मल-मल रह जाता पर कुछ कहने करने की समझदारी न थी उसमें, न यह कि कौन सा कदम उठाया जाये? जोड़-तोड़ कर खरीदी गयी सभी रंग-बिरंगी साड़िया और कपड़े-लित्ते संदूक में धरे-के-धरे थे इसका मलाल उसे जरूर था।
जरी वाली लाल शादी की साड़ी अब केतकी नही पहन सकती वह विधवा है धुंधले रंग ही पहनेगी और ढोलक बच्चे के लिये बजेगी, शोर-शराबा, नाच-गाना सब बच्चे के लिये। बरसी के बाद भी सब शोक मातम केतकी निभायेगी श्रंगार, लाली, नाखूनी, चूड़िया तो तभी अर्थी पर ही तोड़ डाले थे।
मोतीचूर के लडडू हलवाई से आये थे जो मोहल्ले में बँटेगें बाकि चाय, शरबत का इन्तजाम नौबत ने कर ही दिया था। इतनी हैसियत से वह नाखुश नही है। दावत न करा पाने का कोई खास मलाल भी नही न केतकी को न नौबत को,, हाँ मोहल्ले को जरूर था इस बात से मुँह मोड़ कि अभी जुमा-जुमा पाँच महीना भी नही हुआ है नौबत के जवान लड़के को गुजरे ऐसे में दावत का हौसला और हैसियत किसकी होगी? वैसे तो बिरादरी के जोर डालने पर लड़के की बरसी भी लगे हाथों निबटा ही दी थी फिर नौबत शोक संताप मनाये या चौके -चूल्हे और जवान विधवा बहू की सोचे? वैसे भी तो वह मुठराया पत्थर ही तो था।
ढोलक की जोरदार थाप और जच्चा गीत में मस्त औरतें अपनी ही धुन में थीं। भीतर बैठी केतकी के भीतर उठता तूफान जोर मारता और बच्चे की हलचल में ठहर जाता। दीवार पर कोई तस्वीर, गुलदस्ता या घड़ी जैसी कोई चीज नही थी उसने संदूकची में से शादी की कुछ तस्वीरें निकालीं जिसमें रामेश्वर पगड़ी बाँधे दूल्हा बना था। फूला हुआ मुँह जिस पर कोई मुस्कुराहट नही थी अनायास केतकी बोल पड़ी- "देखा ब्याह पर भी कचौड़ी सा मुँह सूजा है तुम्हारा, ब्याह कोई जबरदस्ती किया था बोलो इसीलिये छोड़ गये न?? मेरा जीवन बर्बाद कर दिया रामेश्वर, तुम्हारा बच्चा मैं अकेले कैसे पालूँगी ??? किससे कहूँ और क्या कहूँ? अनाथ हूँ अनाथालय में पली न रिश्ते पता हैं न रिवाज़, जब तुम्हारे बापू जूते बनाने बैठे थे हमारे आश्रम में तब उन्होनें बगैर पूछे माँग लिया था मुझे, मैं भी खुश हो गयी थी कि पति मिलेगा, घर मिलेगा, पिता मिलेगा और रसोई मिलेगी पूरी की पूरी। सब ढह गया कुछ न मिला, ढाई महीना संग रह कर तुम भी चले गये अब न आश्रम है न साथ है। रसोई का दाल भात दिल खोल कर खाती कि समय रोने-धोने और भाग्य को कोसने में कट रहा है, रामेश्वर! मैं कहाँ जाऊँ मुझे जीना है खूब खुश रहना है सुशीला की तरह हँसना है ठाहके मार के कैसे मारुँ? तुमसे प्रेम भी न कर पाई , कैसे होता है प्रेम? मैं क्या जानूँ? क्या साथ रहते-रहते होता है या एकदम पता नही? वो सुशीला को हुआ था एक लड़के से प्रेम और वो अनाथालय छोड़ कर उसके साथ भाग गयी थी बाद में पता चला कि उसने ब्याह कर लिया। पर कभी उसने बताया नही प्रेम के बारे में? रामेश्वरम की आँखों में आँखें डालती हुई केतकी झिझकी -"एक बात बताऊँ किसी से कहोगे तो नही, वो रेहड़ी वाला बद्री मुझे छुप-छुप कर देखता है उस दिन पाव लौकी के जगह आधा कि. तोल दी पैसे पाव के काटे मूरख ने, जे उसका मूरखपन काहे भाता है मुझे? मन गुदगुदाता है तो तुम्हारे जाने का सूनापन फीका पड़ने लगता है। नींद में रंग-बिरंगे सपने आते हैं क्या मैं पापन, डाकन, कुलक्षणी? जब देखो मेरी ओर देख रहा होता है पहले से, कभी चोरी से कभी सामने से पर कभी हँसता नही है मैं घबराती हूँ पर उसे देखने को जी करता है रामेश्वर! मेरी मुठठी में दबे पैसे छोड़ वह रेहड़ी आगे बढ़ा लेता है और मैं देखती हूँ गली के मोड़ तक। जे चोर सी हलचल दिल की धुक -धुकी को धौकनी बना देती है जैसे मैंनें अभी-अभी दौड़ कर मैदान कर चक्कर मारा हो, रामेश्वरम! प्रेम को तरसता हुआ सूखा मन क्या दूसरे मर्द से तर हो रहा है?
तुम तो दगाबाज हो रामेश्वरम!.......अब क्या बद्री? कहीँ ये ही तो प्रेम नही? ऐसे ही धड़कता हुआ कलेजा सुशीला दिखाती थी मुझे और फिर अकेले बैठ कर खोई रहती थी। मुझे भी तो भीतर का कमरा अच्छा लगने लगा है सुशीला की तरह खुद में खोये रहना, कोई आकर दुख में रोने को उकसाता है तो आँसू निकलते ही नही।"
केतकी भीतर के कमरें में अपने जीवन के उलझे माजें को समेट रही थी कि बाहर से औरतों ने बुलवा भेजा। गोद भराई की रस्म है चंदन चावल का तिलक लगा कर होने वाले बच्चे को आशीष देना है- "अरे आजा रे बहुरिया तनिक बाहर आकर गोद पड़वा ले रे।"
नौबत खुश था। आज दुकान वाले ने पेटी के पैसे छोड़ दिये थे और माखन ने भी मोतीचूर के लडडू उधार भिजवाये थे नही तो गुड़ बताशे से काम चल जाता 'माखन वैसे बुरा था आज अच्छा क्यों हो गया?' नौबत ने लडडू के टोकरे को निहारा मन-ही-मन बुदबुदाया और हँस पड़ा, शायद बच्चा पैदा होने की खुशी में दूसरे 'क्या पता रामेश्वर लौट आये बच्चे के रूप में? तब तक केतकी का ध्यान मैं रखूँगा फिर वह बच्चा पालेगी जब बच्चा बड़ा हो जायेगा तो रामेश्वर की तरह घर संभालेगा और केतकी की खुशियां लौट आयेगीं।'
मुस्कुराता हुआ नौबत चबूतरे पर बीढ़ी सुलगाता रहा और धुँये में धुँधलाता वक्त अपना चेहरा साफ करने की जुगत लगाता रहा। हाथों से चमड़े की बू साफ करने को लोटा भर पानी को आवाज़ लगाई थी पर ढोलक की धमक में गुम हो गयी।
औरतें केतकी को पुकारने लगीं , बैठने को पीला कपड़ा पड़ी चौकी तैयार थी पूजा का सामान, लडडू का थाल और परिवार की बुजुर्ग महिला गोद भरने को बैठी थी। सब में उत्साह था गाने-बजाने का, मंजीरों की धुन का, मंदिरा काकी की छुटकी तो एक के बाद एक चार-चार गानों पर ठुमक चुकी थी केतकी उसकी पक्की सहेली जो ठहरी। समां बंधा था संगीत का, कि एक बच्चे ने जोर-जोर से शोर मचाना शुरू कर दिया -'केतकी भाभी भीतर नही है पूरे घर में कहीं नही है।' ढोलक की थाप रूक गयी गीत बंद हो गये सबकी आँखें केतकी को ढूँढने लगीं। अन्दर से लेकर बाहर तक सब जगह तलाश लिया केतकी कहीं नही थी। हर जगह तलाशी गयी।
बंद हुये संगीत का सन्नाटा औरतों की काना-फूसी में बदल चुका था। तरह-तरह की बातें औरतों में रोमांच भर रही थीं लडडू के थाल परे धकेल दिये गये सबके धोती से ढके कान दूसरी के मुँह के करीब आ गये थे अल्प इन्तजार के बाद सर्व सहमति से घोषणा हुई- 'नौबत की सुशील विधवा बहू कुलक्षणी निकली किसी ने आकर बताया कि वह बद्री की रेहड़ी पर लेटी अस्पताल की ओर जा रही थी जचकी के लिये या बच्चे को पिता का नाम देने? ये तो नही पता उसको रेहड़ी पर दर्द से तड़पते हुये सबने देखा, बद्री को तेजी से रेहड़ी दौड़ाते भी देखा बद्री उसको भगाता हुआ ले जा रहा था और उस पर लेटी विधवा कुलक्षणी को भी देखा जो निर्लज्ज निकली।
आँगन में बैठा नौबत अब भी चमड़े की बू में उलझा पानी का लोटा तलाश रहा था।
छाया अग्रवाल
बरेली