कैसा हो बच्चों का साहित्य
यशवंत कोठारी
पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी व भारतीय भाषाओं में प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन हुआ है। अंग्रेजी के साहित्य से तुलना करने पर हिन्दी व भारतीय भाषाओं का साहित्य अभी भी काफी पीछे है। मगर संख्यात्यमक दृष्टि से काफी साहित्य छपकर आया है। सरकारी थोक खरीद, कमीशन बाजी तथा नये प्रकाशकों के कारण साहित्य में संख्यात्मक सुधार हुआ है, मगर गुणात्मक हास भी हुआ है। पाठ्यक्रम की पुस्तकों पर तो विचार-विमर्श तथा जांच परख होती हैं मगर अन्य जो खरीदी योग्य साहित्य छप कर आ रहा है उसकी स्थिति ज्यादा सुखद नहीं है। इन पुस्तकों का सम्पादन, प्रकाशन कैसा है ? लेखक बाल मनोविज्ञान से कितना परिचित है या नहीं ?
एक ही लेखक विज्ञान से लगाकर कविता, कहानी, बैंकिग या मुर्गी पालन पर लिख रहा हैं तो स्पष्ट हो जाता है, कि व्यावसायिकता बुरी तरह हावी हैं और गुणवत्ता नष्ट हो रही है। राष्ट्रीय बाल पुस्तक न्यास, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद तथा अन्य सरकारी संस्थाओं की स्थिति भी ज्यादा ठीक नहीं है। पुस्तकों की छपाई, कागज, कवर, जिल्द, प्रोडक्शन, गेट-अप और अन्दर की सामग्री की कठोर जांच परख बहुत जरूरी है। क्योंकि बच्चों और किशोंरों का साहित्य भविष्य में पूरे देश को प्रभावित करेगा। एक पूरी पीढ़ी इस साहित्य को पढ़ कर आगे बढ़ने का सपना देखती है, और यदि इस साहित्य में वांछित स्तर नहीं हैं, तो बच्चे दूसरे दर्जे के नागरिक बनेंगे।
अधिकांश बाल साहित्य हमारी संस्कृति, इतिहास, विश्वास, परम्परा और आचरण की दृष्टि से ठीक नहीं निकल रहा है। लेखक जो कुछ लिख कर देता हैं प्रकाशक वही छाप देता है, अधिकांश प्रकाशकों के पास सम्पादक नहीं है, वे लेखकों को एक मुश्त राशि देकर बाल व प्रौढ़ साहित्य की पाण्डुलिपि खरीद लेते हैं। और थोक खरीद में कमीशन देकर पुस्तक को बेचकर भारी मुनाफा कमा लेते है। प्रकाशकों को बच्चों की रूचि, पुस्तक के स्तर या सामग्री की स्तरीयता की चिंता नहीं है। वे शुद्ध व्यावसायिक दृष्टिकोण अपनाते हैं, और उन्हें भी बहुत ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता, जो पैसा लगायेगा वो पैसे का मूल्य भी वसूलेगा।
वास्तव में बाल साहित्य की पुस्तकों का प्रोडक्शन व गेट अप ऐसा सुन्दर व रोचक होना चाहिए कि बच्चों को पुस्तक खिलौनों की तरह आकर्षित करे। पुस्तकों की देखभाल भी आवश्यक हैं घर पर कम से कम बाल पुस्तकें तो अवश्य ही होनी चाहिए। वैसे भी जिस तेजी से बाल पत्रिकाएं बन्द हो रही है, उसे देखते हुए बाल पुस्तकों का महत्व और भी बढ़ जाता है। माता पिता, अध्यापक और अभिभावकों को बच्चों द्वारा पढ़ी जा रही पुस्तकों पर ध्यान देना चाहिए।
पुस्तकंे बच्चों का मानसिक भोजन है, और शारीरिक विकास के लिए जैसे दूध, फल, विटामिन चाहिए वैसे ही मानसिक विकास हेतु श्रेष्ठ पुस्तकें चाहिए। स्वस्थ व मनोरंजक साहित्य से बच्चे के चरित्र का समुचित और आवश्यक विकास होता है। अच्छी पुस्तकों से अच्छे संस्कार बनते है। महाभारत, रामायण, पुराण, गीता आदि की कहानियों से बच्चों में मनुष्यत्व का विकास होता है। बाल साहित्य के लेखक को यह ध्यान रखना चाहिए कि बच्चा भावी नागरिक है और उसके मन पर अभी जो अंकित हो जायेगा, वही आगे तक रहेगा। मनोवैज्ञानिक भी बाल मन पर पड़ने वाली छाप को बहुत महत्व देते हैं।
बच्चों के मन में जिज्ञासु प्रवृति बहुत होती है। वो ज्यादा से ज्यादा जानकारी चाहता है और इस जानकारी हेतु सदैव माता पिता, गुरू से पूछना चाहता है। यदि पूछना संभव न हो तो बच्चा पुस्तकों के माध्यम से ज्ञान चाहता है, अतः बाल साहित्य का महत्व बहुत अधिक है।
महात्मा गांधी का कहना है- सच्ची शिक्षा वही है, जो बच्चे के चरित्र का विकास करे। उसे यह सिखाया जाये कि जीवन के संघर्ष में सत्य द्वारा असत्य पर, प्रेम द्वारा घृणा पर और अंहिसा द्वारा हिंसा पर विजय किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है। इसी बात को ध्यान में रखकर बाल साहित्य की रचना की जानी चाहिए। बच्चों के चरित्र निर्माण में, बुद्धि व विवेक का विकास करने में बाल साहित्य का बडा योगदान होता हैं साहित्य से ही संस्कारित बच्चे बनते है। अतः पुस्तकें ऐसी होनी चाहिए, जो बच्चों को मनोरंजन, ज्ञान तथा संस्कार दें।
चित्रों का अपना महत्व हैं बडे, सुन्दर और स्वच्छ चित्रों के होने से पुस्तक का महत्व बहुत बढ जाता है। चित्र यदि कई रंगों में हों तो और भी अच्छा रहता है। आज कल आफसेट मुद्रण प्रणाली के विकास के कारण इस प्रकार की सचित्र पुस्तकों को मुद्रण बहुत आसान हो बया है। जो बच्चों को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करती है।
बाल साहित्य बच्चे के प्रतिदिन के जीवन से जुडा होने से बच्चे का झुकाव इस ओर अधिक हो जाता हे। भाषा, मुहावरा, शैली और शिल्प बच्चों की मानसिक आयु को ध्यान में रखकर प्रयुक्त की जानी चाहिए। धर्म, नीति शिक्षा, उपदेश, सच्चा चरित्र आदि गुणों का विकास हो यहीं कोशिश रहनी चाहिए। बच्चों को अश्लील, भय, निराशा, कुंठा, अंधविश्वास आदि का साहित्य नहीं पढ़ाया जाना चाहिए। उदासी आये, ऐसा साहित्य भी बच्चों के लिए उचित नहीं है। बच्चों के लिए लिखी जाने वाली कहानी, कविता, उपन्यास भी रोचक तथा जानकारी से पूर्ण होने चाहिए।
बच्चों को विज्ञान, पर्यावरण, रोजगार आदि की जानकारी भी पुस्तकों के माध्यम से दी जानी चाहिए। बच्चों को बैंक, पोस्ट ऑफिस, सरकारी कार्यालयों, सामाजिक रीति-रिवाजों, उत्सवों आदि की भी पुस्तकंे मिलनी चाहिए।
बच्चों में पुस्तक-प्रेम का विकास किया जाना चाहिए। बिना पुस्तक प्रेम के बच्चे अच्छी से अच्छी पुस्तकों को भी एक तरफ सरका देंगे। पाठ्यक्रम से इतर पुस्तकों को पढ़नें की भी प्रेरणा बच्चों को दी जानी चाहिए।
बच्चों को महान व बड़े व्यक्तियों की प्रेरणादायक जीवनियों को भी पढ़ाया जाना चाहिए। मेले, व्रत, त्यौहार, उत्सव, जन्मदिन, आजादी का संघर्ष आदि विषयों पर भी अच्छी पुस्तकों की आवश्यकता है।
आज का बालक क्या बनेगा ? यह इस बात पर निर्भर रहता है कि उसकी शिक्षा दीक्षा कैसी हुई है। उसके संस्कार कैसे हैं? और उसने किस प्रकार का बाल साहित्य पढ़ा है। बच्चों को जीवन के सत्य से परिचित कराया जाना चाहिए। उसे जीवन संधर्ष की प्रेरणा मिलनी चाहिए। उसे जीवन की कठोरता की पूण्र जानकारी मिलनी चाहिए। रोचक और हृद्यग्राही सामग्री से बच्चा जल्दी सीखता है। त्याग, तपस्या, ईमानदारी, आदर्श के सहारे बच्चा एक बहुत ही जिम्मेदार नागरिक बन सकता है। वीरता की कथाएं, ऐतिहासिक कथाएं, साहस की कथाएं, और महापुरूषों की जीवनियों को पढ़ पढ़कर हजारों लोगों ने अपने जीवन को सफल बनाया हैं एक सफल व्यक्ति की जीवनी पढ़कर प्रेरणा पाकर लाखों करोडों बच्चे अपने जीवन को सफल कर सकते है।
बच्चा जो पढ़े वह उसके माता पिता या अध्यापक द्वारा अनुमोदित हो, वही साहित्य श्रंेष्ठ बाल साहित्य होगा। हमारे देश में साक्षरता की कमी है, अतः बाल साहित्य की आवश्यकता और भी ज्यादा है। हमें श्रेष्ठ बाल साहित्य के संरक्षण, प्रकाशन की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। और उसे बच्चों तक उचित मुल्य पर पहंुचाना चाहिए। ताकि देश एक संस्कारित राष्ट्र बन सके। श्
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यशवन्त कोठारी
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