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आज आचार्य प्रमेश बर्मन की क्लास थी, मुझे नहीं मालूम था | मैंने उन्हें दूर से देखा, वे अपनी सितार की कक्षा लेने में तल्लीन थे| 4/5 छात्र उनके सामने थे जिन्हें वे कुछ समझा रहे थे| मेरी दृष्टि दूर से प्रमेश के ऊपर पड़ी, वे अपने छात्रों के साथ कार्य में निमग्न थे | मेरे मन में अम्मा-पापा की बात घूम रही थी | अधेड़ावस्था के प्रमेश का पूरा व्यक्तित्व मुझे कुछ ऐसा नहीं लगा कि वे कहीं से मेरे साथ फिट बैठेंगे | मैं भी तो उम्र की उस ड्योढ़ी पर आ खड़ी हुई थी जहाँ अम्मा-पापा के अनुसार ‘चौयस’बहुत कम रह जाती है | कमाल ही है न ! प्यार में भी बंधन ! इस विशाल छोटे से ढाई आखर में जितनी गहनता, विशालता थी उसे उसके अनुसार उसे कहाँ समझा या तोला जाता था –या फिर मैं कितना गलत सोचती हूँ, उसे तोला जाता? प्यार तोलने की चीज़ है क्या? कैसी सोच हो रही है मेरी? मैंने स्वयं को बहुत छोटा महसूस किया |
प्रमेश के लिए मैंने ज़बरदस्ती अपनी दृष्टि बदलने की असफ़ल कोशिश शुरू तो की किन्तु एक तो उनके इस भारी भरकम ‘आचार्य’से मुझे बड़ी आपत्ति लगती| मुझे पता नहीं उनकी ‘आचार्य’की पदवी अपने लिहाज़ से कहीं भी फिट बैठती दिखाई नहीं देती | वे बहुत शालीन लगते थे लेकिन मुझे इस उम्र में भी उनमें कोई ऐसा आकर्षण नहीं लगता था जो मेरे मन में कोई मीठी बयार सी महका सके !प्रेम !एक झौंका, एक सिहरन, एक धड़कन, एक ऐसी संवेदना जिसमें खिलना-खुलना हो, जिसमें स्वतंत्रता के साथ बंधन का अहसास हो। जिसमें परवाह हो, जिसमें आह हो, साथ भी वाह भी !मैं प्रेम को न जाने कितनी परिभाषाओं में बाँटती रहती फिर अपने पागलपन पर स्वयं ही झीनी सी मुस्कुराहट ओढ़ लेती | क्यों परिभाषा का बंधन हो प्रेम? प्रेम –बस प्रेम हो, जागीर नहीं किसी की| सुनती रही हूँ, प्रेम वो बयार लेकर आता है जिसमें बसंत की तरुणाई, बरखा की बूंदों की शहनाई और बिना छूए एक छुअन की लरज होती है| मुझे प्रमेश ---नहीं, आचार्य प्रमेश को देखकर ऐसी कोई भावना महसूस नहीं हुई थी| मेरे लिए तो प्रेम जैसे किसी संकरी गली में फँसी हुई एक बेचैनी थी !
उन्हें देखती हुई मैं आगे मेन ऑफ़िस की ओर बढ़ गई जहाँ शीला दीदी फ़ाइलों की अलमारी के पास खड़ी किसी फ़ाइल को ढूंढ रही थीं | ये सार-संभाल का सारा काम उनका ही था जिसे वे बड़ी शिद्दत से करती थीं| उनके काम संभालने के बाद अम्मा को कुछ देखने की ज़रूरत नहीं थी लेकिन प्रश्न वहीं खड़ा था कि इस संस्थान का काम अब कैसे कम किया जाए?
“जब तक हम संभाल पा रहे हैं, ठीक है लेकिन जब ऐसा लगेगा कि हम अशक्त हो गए हैं तब बाहर की शाखाएँ चलने दीजिएगा, यहाँ कुछ कम करने की सोचेंगे –” शीला दीदी ने एक बार अम्मा-पापा से कहा भी था| वे भी नहीं चाहती थीं कि अम्मा का इतना श्रम व्यर्थ हो जाए|
‘अरे! आओ---‘उन्होंने मुझे देखते ही एक मुस्कान सी ओढ़कर मुझसे कहा| मैं समझ सकती थी, वह मुस्कान उनकी सहज, सरल, स्वाभाविक मुस्कान नहीं थी |
“नमस्ते शीला दीदी –” मैंने उन्हें नमस्ते की तो उन्होंने मुस्कुराकर उसका उत्तर दिया |
“अम्मा से मिलीं क्या आप ? ”मैंने उनसे अचानक ही पूछा |
“उनकी कोई मीटिंग चल रही है ‘ऑन-लाइन’---वो यू.के वाले चैन कहाँ लेने दे रहे हैं ? ”वे वास्तव में खीजी हुई दिख रही थीं |
“वही तो---मैं अम्मा से कितनी बार कह चुकी हूँ, बंद करिए, बहुत शौक पूरा हो गया –”मैंने भी शायद कुछ खीजकर ही कहा था |
“तुम भी ऐसा सोचती हो ये शौक भर है क्या उनका ? ” उन्होंने प्रश्नवाचक दृष्टि से मुझे जैसे घूरा और उनकी वह दृष्टि मेरे चेहरे पर ही चिपककर रह गई |
“नहीं, मेरा मतलब यह नहीं था, आप समझती हैं ---” मैंने उन्हें अनजाने में ही अपने विचार से सहमत कराने की कोशिश की |
“मैं जानती, समझती हूँ ---सोचती भी हूँ ---पर उनके श्रम व निष्ठा के प्रति हम इतनी हल्की सोच नहीं रख सकते न !तुमने तो अम्मा को जीवन भर अपनी कला के प्रति समर्पित देखा है---| ”
वैसे बात ठीक कह रही थीं वे लेकिन यह भी सच था कि वे अम्मा की बहुत बड़ी चमची थीं |
‘आज क्या हुआ ?’ मेरे पूछने पर शीला दीदी अचानक फूट-फूटकर रोने लगीं | शीला दीदी जो सदा से इतनी विवेकी और सभी संबंधों को संभालकर रखने वाली थीं | आज कुछ ऐसी फूट पड़ीं थीं मानो उन पर कुछ पहाड़ टूट गया हो | मेरा मन सब कुछ भूलकर उनकी ओर मुड़ गया | आज आखिर फिर से ऐसा क्या हो गया जो शीला दीदी इतनी परेशान थीं? मुझे लगा, मैं उठकर उनके आँसु पोंछ दूँ लेकिन न जाने क्यों मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी कुर्सी में धँसी उन्हें देखती ही रही| वे अपने को व्यवस्थित करने के लिए अपने दुपट्टे में आँसु भर रही थीं | मैंने धीरे से उठकर मेज़ पर से कोस्टर ढका पानी का ग्लास उनकी ओर बढ़ा दिया जो उन्होंने मेरे हाथ से लेकर दो घूँट में गटक लिया जैसे वे प्रतीक्षा ही कर रही थीं कि मैं उन्हें पानी का ग्लास दूँ |
बहुत देर तक हम दोनों के बीच चुप्पी पसरी रही और मैं उनके चेहरे के उतार-चढ़ाव को देखती रही| कुछ बड़ी ही बात थी, कुछ ऐसी घटना जिसे वे शब्द भी नहीं दे पा रही थीं | मेरा मन सोचने के लिए बाध्य होने लगा, मैं उनकी उठती-गिरती साँसों और बहकर आए गालों के आँसुओं को व्यर्थ रोकने की चेष्टा करने का उपक्रम देखती रही|
“आज रतनी आने वाली हैं ?” इन शब्दों के माध्यम से मैं कुछ और ही पूछना चाहती थी, मैं जानती हूँ, वे समझ रही थीं लेकिन उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया | इतने दिनों तक एक-दूसरे की गतिविधियाँ व व्यवहार देखते हुए हम सब एक-दूसरे के चेहरों को देखकर काफ़ी कुछ समझ तो जाते ही थे |
काफ़ी देर हो गई चुप्पी पसरे, उन्होंने मेरे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और अपने दुपट्टे को अपनी आँखों, नाक और चेहरे पर फिराती रहीं जैसे अपनी असहजता को पोंछने का प्रयास कर रही हों |
“मैं चलती हूँ अभी, फिर मिलती हूँ ---” मैंने कुर्सी से उठने की कोशिश सी की जिसमें मैं धँसी पड़ी थी |
कबसे शीला दीदी कह रही थीं कि या तो मेज़ के सामने आकर बैठने वालों की कुर्सियाँ बदल दी जाएँ, या ठीक करवा ली जाएँ---वैसे बदलना ही अधिक सही था, पता नहीं क्यों ये छोटा सा काम नहीं हो पा रहा था? सामने मेज़ के सामने की मेन कुर्सी रिवॉलविंग, बड़ी शानदार मंहगी थी जो मेज़ के उस पार विशेष अथवा प्रमुख व्यक्ति के लिए थी लेकिन उसी कुर्सी के सामने वाली दोनों कुर्सियों पर बाहर आने वाले यानि वे आगंतुक बैठते थे जिन्हें यहाँ किसी काम के सिलसिले में कोई बातचीत करने के लिए, किसी विशेष बात के, पूछताछ के लिए आना होता था | बाहर से देखने पर कुर्सियाँ बिलकुल फर्स्टक्लास लगतीं, उन पर पॉलिश हर दो वर्ष बाद संस्थान के सारे फर्नीचर के साथ होती फाही है लेकिन उन पर बैठने के बाद उनकी चमड़े से मढ़ी गद्दियों की असलियत का पता चलता जो बैठने वाले को धीरे-धीरे नीचे धँसाने लगतीं, शायद उन पर बैठने से उनके स्प्रिंग दब जाते थे और जब बैठने वाला खड़ा होता, वे फिर अपनी शेप ले लेते | दरअसल, उन पर बैठकर ही यह आभास होता था अन्यथा किसी को कुछ पता ही न चलता | संस्थान में कुछ न कुछ काम तो चलता ही रहता था, वो भी शीला दीदी की निगरानी में, फिर ये छोटा सा काम क्यों नहीं हो रहा था ? मैं जब यदा-कदा उन कुर्सियों पर से किसी पर बैठती तब ख्याल आता| क्या ऐसा नहीं था कि उन्हें जान-बूझकर ऐसे ही छोड़ा गया था, सामने वाले सड़क पार के मुहल्ले और इस सोसाइटी के बीच के फ़र्क की तरह ? ?
मुझे लगा, मैं उनसे इस बात का ज़िक्र कर दूँ, पहले एक बार अम्मा से उन्हें बात करते देखा भी था फिर ऐसा क्या हुआ जो इस बात को व्यवहारिक जामा नहीं पहनाया गया| खैर, बात मन में आई लेकिन यह समय इस बात का तो था नहीं | बेकार ही मन को इधर-उधर की बातों में फँसाए बैठी रहती थी मैं !