दो बहनें थीं। बड़ी का नाम था सरिता और छोटी का नाम चंचल। यथा नाम तथा गुण। बड़ी बहन जितनी समझदार और सौम्य थी, छोटी बहन उतनी ही ज़िद्दी और शैतान थी। सरिता घर के सभी कामों में माँ का हाथ बटांती और स्कूल पढ़ने जाती जबकि चंचल स्कूल तो जाती मगर घर के किसी काम में हाथ बटाने के बजाए वह खेलने में ज़्यादा ध्यान देती। जब भी पिताजी बाहर से कोई खाने की वस्तु लेकर आते, सबसे पहले चंचल खाती और बच जाती तो सरिता को मिलती। सरिता जब कभी माँ या पिताजी से शिक़ायत करती तो दोनों हंस कर टाल जाते। उन्हें चंचल की हरकतों में मज़ा आता। रात को सरिता अलग चारपाई पर अकेली सोती जबकि चंचल माँ के साथ ही सोती। कितना फ़र्क था दोनों बहनों में? लेकिन कभी सरिता के मन में यह नहीं आया कि उसके माता-पिता चंचल को ही अधिक प्यार करते हैं और न ही माँ-बाप ने सोचा कि दोनों बेटी उन्हीं की हैं, दोनों को बराबर प्यार करना चाहिए। यहाँ तक कि सरिता ख़ुद भी चंचल से बेहद प्यार करती थी। वह अपने खाने-पीने से पहले चंचल के खाने-पीने का ख़याल रखती।
धीरे-धीरे दोनों बड़ी हो गईं। साथ ही साथ उनके पिताजी की चिंताएं भी बढ़ गईं। पिताजी पहले सरिता का विवाह करना चाहते थे जबकि माँ चाहती थी कि दोनों का विवाह साथ ही हो जाए। सरिता और चंचल की पढ़ाई भी पूरी हो चुकी थी। चंचल तो अब घर में ही रहती थी जबकि सरिता ने एक स्कूल में सहायक अध्यापिका की नौकरी कर ली थी।
जब कभी घर में दोनों बहनों की शादी का ज़िक्र होता तो चंचल बिदक जाती वह अकड़ कर कहती- ‘मेरी चिंता मत करो, मुझे नहीं करनी शादी। मैं तो बस क्वाँरी ही रहूँगी।’ माँ या पिताजी उसे चिढ़ाने के लिए और कुछ कहते तो वह घर में तोड़-फोड़ मचा देती। लेकिन माँ-बाप को तो उसकी शादी भी करनी ही थी इसीलिए उन्होंने उपयुक्त वर की तलाश जारी रखी।
सरिता के लिए मनचाहा वर तलाश कर लिया गया। वर पक्ष आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से सुदृढ़ था। वर का नाम सुमित था और वह डाॅक्टर था। डाॅक्टर पति का ख़याल आते ही सरिता की खुशियों का ठिकाना न रहा। अब उसमें पहले से ज़्यादा फुर्ती आ गई थी। उसने विद्यालय से मिलने वाले अपने वेतन से अपने दहेज़ के लिए काफ़ी सामान एकत्र कर लिया था। बाक़ी दहेज़ का सामान भी ख़रीदा जाने लगा था। मंगनी हो गई थी। ख़्वाबों के शहज़ादे के साथ फोटो खिंचवाकर सरिता गौरव अनुभव कर रही थी। जब मंगनी हो गई तो पंडित जी से ब्याह की तारीख़ सुझाई जाने लगी। अभी कोई ठीक सी तारीख़ निकल पाती कि सरिता के पिता बीमार हो गए। वो इतने बीमार हुए कि अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। सरिता की शादी की ख़ुशी और तैयारियों का सभी उत्साह ठंडा पड़ गया। अब पिताजी को बीमारी की हालत में भी यह चिंता रहती कि सरिता की शादी कैसे होगी जबकि सरिता को चिंता अपने पिताजी के जल्दी ठीक होने की थी।
इधर तो सरिता के पिताजी ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रहे थे उधर लड़के वाले जल्दी शादी करने के लिए आफ़त मचा रहे थे। उनका कहना था कि यदि सरिता के पिताजी की मृत्यु हो जाती है तो फिर एक साल तक शादी नहीं हो पाएगी। यही नहीं उन्होंने दहेज़ में कार देने की माँग भी रख दी थी।
एक तो घर का माहौल वैसे ही ग़मज़दा था उस पर लड़के वालों का दहेज़ माँगना और शादी के लिए जल्दी मचाना सरिता तथा परिवार को और भी ज़्यादा मानसिक कष्ट पहुँचा रहा था। वह कोई भी फैसला नहीं ले पा रही थी।
जिन दिनों यह सब कुछ चल रहा था उन्हीं दिनों सरिता के भाई के दोस्त भी घर पर आ जाया करते थे। सब मिलकर सरिता तथा परिवार को धैर्य बंधाते और मदद भी करते। उन्हींे दिनों रक्षा बंधन का त्यौहार भी आया तो सरिता ने अपने भाई के अलावा उसके दोस्त के हाथ में भी राखी बांधी जिस पर चंचल उससे झगड़ा करने लगी वह कहने लगी- ‘हमें सब के हाथों में राखी नहीं बांधनी चाहिए भगवान ने राखी बांधने के लिए हमें भाई दिया है।’ सरिता बेचारी क्या करती। वह चुप रही और अपने काम में लग गई। भाई के दोस्त का नाम रमेश था। रमेश उनके घर के प्रत्येक कार्य में हाथ बंटाता था।
एक दिन सरिता रमेश के साथ अस्पताल जाने के लिए तैयार हो ही रही थी कि तभी उसके होने वाली ससुराल से संदेश आया कि उन्हें जो भी कुछ करना है जल्दी जवाब दें वरना कहीं और रिश्ते की बात चलाई जाए। यह बात सुनते ही सरिता के हाथ-पांव ढीले पड़ गए। उसका पूरा वजूद पसीने से सराबोर हो गया और ब्लड प्रेशर लो होता चला गया। सरिता की माँ तथा अन्य लोग उसे धैर्य बंधा रहे थे मगर उसके मस्तिष्क में मचा द्वंद्व किसी निर्णय पर पहुँचना चाहता था और अंत में वह जब सामान्य हुई तो अकेली ही घर से निकल गई। वह रिक्शा पकड़ लड़के वालों के घर पहुँची और जो अंगूठी उन्होंने पहनाई थी जिसे सरिता रात को न जाने कितनी बार चूमती और अपने ख़्वाबों के शहज़ादे का अक्श उसमें देखती उसने वह अंगूठी वापिस कर दी, यह कह के -‘अब शादी के नाम पर हमारी चैखट पर भी मत चढ़ जाना।’ वापिस आ गई। उसने किसी विजेता की भांति घर में प्रवेश किया। माता जी का परेशान होना तो लाज़िमी था मगर उसकी बहन चंचल की तो जैसे भूख ही भाग गई थी। जबकि सरिता अपने व्यवहार से सामान्य ही नज़र आ रही थी। वह पुनः अपने पिता जी की तिमारदारी मेें व्यस्त हो गई।
जब चंचल को खाना खाए दो-तीन दिन हो गए तो सरिता ने उससे पूछा- ‘तू क्यों परेशान है? शादी मैंने तोड़ी है, और अच्छा रिश्ता मिल जाएगा।’ तब चंचल ने तपाक से कहा- ‘हाँ तेरे लिए तो सब क्वारे बैठे रहेंगे, घर में और किसी की शादी तो होनी ही नहीं है।’
चंचल की बात सुनकर सरिता के मस्तिष्क में एक धमाका सा हुआ। वह सोचने लगी कि शादी का विरोध करने वाली चंचल आज अपनी शादी के लिए इतनी फ़िक्रमंद क्यों है और फिर रक्षा बंधन वाली वह घटना याद आती चली गई जब चंचल ने अपने सगे भाई के अलावा किसी अन्य के हाथ में राखी बांधने से इंकार कर दिया था। यही नहीं और भी ऐसी घटनाएं उसे याद आने लगीं जिससे उसे अहसास हाने लगा कि ज़रूर चंचल और रमेश के बीच प्रेम संबंध बन गए हैं। सरिता ने उस वक़्त तो चंचल से कुछ नहीं कहा अलबत्ता उन दोनों की हरकतों पर निगाह रखनी शुरू कर दी।
एक दिन माता जी अस्पताल गई हुई थीं चंचल और सरिता घर में थीं और उनका भाई किसी काम से बाहर गया था। सरिता बैड पर लेटी थी चंचल कोई किताब पढ़ रही थी कि तभी रमेश घर में आ गया। सरिता ने जानपूछकर सोने का नाटक किया ताकि वह उन दोनों के मध्य होने वाली बातें सुन सके। चंचल रमेश के आते ही उठी और रमेश को कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। रमेश के कुर्सी पर बैठते ही वह बोली- ‘अब क्या करना है रमेश! मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा है।’ चंचल ने कहा तो रमेश भी समझ गया कि सरिता सो रही है इसलिए वह भी निडर होकर बातें करने लगा उसने कहा- ‘मैंने सब इंतज़ाम कर लिया है जल्दी ही हम कोर्ट मैरिज कर लेेंगे।’
उन दोनों की बातों से सरिता के मस्तिष्क में धमाका सा हुआ। उसे अपनी बहन से ऐसी उम्मीद नहीं थी। रमेश के चले जाने के बाद वह उठी और सीधी अस्पताल गई। वहाँ जाकर उसने अपनी माँ तथा पिताजी को समझाया- ‘मेरी शादी तो बाद में भी हो सकती है, रमेश अच्छा लड़का है चंचल की शादी उसके साथ की जा सकती है। कम से कम आपको एक लड़की से तो निजात मिलेगी।’ माता जी और पिताजी सरिता के चेहरे की तरफ़ देखते रह गए। वो दोनों सरिता को समाज की ऊँच-नीच समझा पाते इससे पहले सरिता ने रमेश और चंचल की सभी बातें उन्हें बता दीं। और फिर थोड़ी सी बहस के बाद माँ-बाप को सरिता के फैसले के आगे झुकना पड़ा।
अंततः सरिता के पिताजी की अभी अस्पताल से छुट्टी भी नहीं हुई थी कि सरिता ने अपनी छोटी बहन का विवाह रमेश के साथ करा दिया। चंचल ख़ुशी-ख़ुशी अपनी ससुराल चली गई।
और सरिता! उसकी आँखों में ग़म और ख़ुशी के मिले-जुले आँसू के सिवा कुछ न था।