पॉच बत्ती वाला चौराहा शहर मे पहचान, पता-ठिकाने और आवागमन का बहुचर्चित स्थान है। यह शायद शहर का सबसे व्यस्ततम स्थान हैं जहां अनवरत लोगो का तांता लगा रहता हैं, लाल बत्ती होती हैं तो दूर तक छोटे-बड़े वाहनो का काफिला लग जाता हैं। इसलियें यातायात पुलिस के भी 3-4 सिपाही वहां ड्यूटी देते है। कभी-कभी तो धन्नु कोई सामान्य पुलिस की गाड़ी भी वहां खड़ी देखता हैं, जिसमे वर्दी पर दो तारे लगे, काला चश्मा लगाये, कोई अफसर बैठा रहता है। धन्नु अपने कच्चे दिमाग से यही समझता है कि गाड़ी मे बैठा पुलिस वाला बडा अफसर है तो इन सबकी खैर-खबर लेने आता हैं, मानो वह इन सबका सरदार हैं।
चौराहे से एक रास्ता देहली की तरफ जाता हैं, तो उसकी 180 डिग्री उल्टी दिशा मे जयपुर की तरफ, लोग इस सड़क को देहली बाइपास कहते है। एक मार्ग अन्दर शहर की तरफ जाता हैं, जिस पर कुछ दूरी पर पड़चून की बड़ी-बड़ी दुकाने हैं, उसी ओर आगे जाकर कपड़ो - जूतो का बाजार शुरू हो जाता हें, उसके उल्टी दिशा मे जो मार्ग हैं, वह धन्नु को नही पता, शायद किसी अन्य शहर-कस्बे को जाता होगा, जिस पर बड़ी-बड़ी सी वाहनो , एजेन्सियां या कहे वर्कशॉप हैं, कई बैंको के ऑफिस, टायर की दुकाने, वाहनो के पाटर््स की दुकाने है। जयपुर की तरफ वाले मार्ग पर बड़े-बड़े मार्बल, टाईल्स की दुकाने हैं। इसी मार्ग पर चौराहे से 20-30 कदम दूरी पर, एक दुकान के बाहर अनाधिकृत रूप से बसायी गयी, एक चाय की थड़ी (दुकान) हैं, जिस पर धन्नु काम करता हैं, जब से घेरा संभाला हैं, वह उसी दुकान पर चाय के झूंठे गिलास धोता हैं और आस-पास की दुकानों पर चाय पहुँचाता हैं । इसी मार्ग पर 2-3 मील दूर चलकर कच्चे-पक्के से घरो-झोपड़ियों की एक बस्ती, सड़क के किनारें सी, कुछ हटकर 400-500 मीटर, बसी हैं जो गुलाब बस्ती के नाम से जानी जाती हैं, वही धन्नु का घर हैं, जिसमे उसकी एक बड़ी, एक छोटी बहन माँई के साथ रहती है। धन्नु माँ को ’’माँई’’ के नाम से ही पुकारता हैं, बस्ती के अन्य बच्चों की तरह।
धन्नु के जैसे और भी सैकड़ो बच्चे रहते होंगे बस्ते मे, जो हाथ खिलौन व कलम पकड़ने की आयु मे चाय के झूंठे गिलास, रद्दी के पुराने और पढ़ने के नये ताजा अखबार, कबाड़ी की काँच की बोतले आदि-आदि पकड़ रहे थे और बहुत जल्द व्यस्क होने की ओर अग्रसर थे, जिनमे कुछेक ऐसे सोभाग्यशाली थे जिन्हें पिता का नाम पता था या पिता को देखा था या कई लतों के साथ देख रहे थे, अनेक तो ऐसे थे जिनको पिता का नाम ही नही पता था और इस बात से कम से कम उसकी बस्ती वालों को को कोई गुरेज नही था, उस बस्ती मे यह आम चलन की बात थी। धन्नु भी उनमे से ही एक था जिसको अपने पिता का कोई अता-पता नही था और धनीराम से धन्नु बन गया, उसका उपनाम भी मानो उसके जीवन का उपहास उड़ाता सा प्रतीत होता था।
अधिकांश बच्चे उसी की तरह अपने उपनामों कल्लू, मोटू, छानू, लम्बू, छोटू, टंगा, डेढ़ टांग, डेढ़ फुटिया, कानिया, गोलू आदि नामो से जाने जाते थे। शहर के तथाकथित ऊंचे तबके, पढ़े-लिखे, सभ्य-शालीन समाज के लोग बस्ती को शहर की आभा पर एक बदनुमा दाग समझते थे। उनके अनुसार शहर मे होने वाले सभी गलत-अनैतिक कार्यों के लिये बस्ती और उसके वासिन्दे ही जिम्मेदार थे। बस्ती उनके लिये शहर की गन्दगी थी और वहां के लोग गन्दे थे। रात के अन्धेरे मे जब सारा शहर रंग-बिरंगी रोशनियों से जगमगाता था, बस्ती की गलियों मे लगे बिजली के खम्बों पर कोई एकाधा बल्ब ही टिमटिमाता था। बड़े लोगो को उसकी फिक्र भी कहां थी। नेता लोग चुनाव के समय ही बस्ती जाकर उनके हितैषी बनते थे और उनके लिये 1000-500 रूपयें, कच्ची-पक्की शराब मुहैया करवाते थे। इतनी ही कीमत उनके वोट की और इतनी ही औकात यहां रहने वाले वासिन्दो की समझते थे। यह बात अलग थी कि रात के अन्धेरे मे उन बड़े लोगो और नेताओ मे से कई को दबे पांव उन गलियों मे सरपट चलते देखा जा सकता था और वे कहीं उन्ही गन्दे लोगो की गन्दगी मे मुँह मारने को आतुर होते थे। शायद उनके लिये अन्धेरा माकूल होता होगा, इसीलिये वहां की रोड़लाइन्स पर भी कोई ध्यान नही देता था। दिन के उजाले मे गन्दा पानी उड़ेलती उन कच्ची नालियों वाली गलियों मे उनके पैर रखने की हिम्मत नही होती थी, गलती से गुजरना भी हुआ तो नाक-मुँह ढापकर पैर बचाते हुये ठिठकते हुये निकलते थे, जैसे जीवन का बहुत ही मुश्किल काम करते थे, किन्तु रात के अन्धेरे मे, पता नही उनके पैरो मे कहाँ से गति आ जाती, अन्धेरे मे आँखों मे कोई दिव्य रोशनी पैदा हो जाती थी और गन्ध कब खुश्बु मे बदल जाती थी, अनुमान ही नही होता। फिर ऐसे ही अन्धेरे मे कई धन्नु पैदा होते थे, जिनको अपने बाप का पता नही होता थे, जिनको अपने बाप का पता नही होता था।
इसीलिये तो धन्नु को भी कई दुकानो के सेठ ’’अन्धेरे की औलाद ’’ कहते थे जो शुरू मे जब 10-11 साल का चाय की दुकान पर काम करने लगा था तो उसे ज्यादा समझ नही बैठता था, किन्तु अभी 13-14 साल का हो गया था तो उसे लोगो के ये व्यंग्य-बाण समझ आने लगे थे जो हर बार उसके दिल के किसी हिस्से मे छेद सा कर जाते थे किन्तु उनका विरोध करने की क्षमता उसमे नही थी। वह अपने मालिक रामबाबू हलवाई की बड़ी कद्र करता था। उसके लगता कि यदि माँई के कहने पर उसने सहारा नही दिया होता, तो उन चारो घरवालो के पेट के लाले पड़ गये होते और आज तक उसकी दोनो बहनो सुशीला-बबीता, जिनको माँई ने गलत रास्ते पर नही जाने दिया, कभी घर से बाहर नही निकलने दिया, प्राईवेट परीक्षा दिलवाकर पढायी जारी रखी, शायद संभव नही हो पाता। इसलियें उसने अपने मालिक के प्रति आज तक पूरी निष्ठा बना रखी थी और ईमानदारी से जी तोड़ मेहनत करता था। पता नही वह हलवायी के नाम से क्यों जाना जाता था जबकि उसकी दुकान पर ज्यादातर चाय ही बिकती थी, कोई एकाधा मिठायी बेसन के लड्डू, जलेबी आदि ही बनाता था।
धन्नु की अधिक मेहनत और मालिक रामबाबू हलवायी, उसको भी धन्नु सेठ ही कहता था, की नेक नियत व सही दर के कारण बरकत ठीक होती थी और सेठ इसमे धन्नु का बहुत योगदान समझता था, इसलिये उसको जुगाड़ (तनख्वाह) भी ठीक सी देता था। शायद माँई ने भी जब बड़ी बहन समझने लगी होगी, अपनी देह बेचने का काम बन्द कर दिया था और इसी बात पर अपनी खुद की माँई व परिवार से झगड़कर अलग से रहने लगी थी, लड़-झगड़कर माँई से कुछ पैसे लिये, कुछ खुद के पास बचायी थोड़ी रकम होगी, तो थोड़ी दूर एक कमरा व रसोई का यह कच्चा-पक्का सा घर खड़ा किया था। तभी सेठ से मिन्नते कर माँई ने धन्नु को यहां चाय की दुकान पर लगा दिया था और खुद भी बाजार मे कई दुकानदारो से मिलकर छोटे-मोटे काज बटन, कढायी बुनाई के काम ले आती थी, जिसमे दोनो बहने मदद करती थी। इस तरह उसका परिवार जीने की जद्दो-जहद कर रहा था।
दुकान से लौटते वक्त धन्नु को देर रात हो जाती थी, वह अक्सर पैदल ही आया-जाया करता था। मन मे कई बार साईकिल खरीदने का विचार आता, एक दिन माँई को बोला- ’’ माँई दुकान से लौटते समय बहुत देर हो जाती हैं, बहुत थक जाता हूं, फिर 2-3 मील पैदल चलने की ताकत नही बचती, एक साईकिल खरीद ले। ’’
’’कहां से खरीदेगा धन्नु ? तू देखता नही अपनी पौड़ी का दरवाजा टूटा हुआ हैं, पहले उसको सही करवालें, घर खर्च से कुछ बचना ही नही।’’
’’माँई कोई पुरानी साईकिल ही ले लेते हैं, 1000-1500 मे आ जायेगी।’’
’’1000-1500 थोड़े होते है क्या धन्नु ? सुशीला बबीता के पास दो जोड़ी कपड़े भी ढंग के नही हैं, मुश्किल से इनकी परीक्षा फीस, किताबों का जुगाड़ हो पाता हैं, थोड़े दिन और इन्तजार कर, अगले महिने कोशिश करूंगा।’’
वह साईकिल खरीदने की कहता और माँई पौड़ी का दरवाजा ठीक करवाने की कहती, उनके घर का मुख्य दरवाजा जो गली मे खुलता था, उसको वे पोड़ी का दरवाजा ही कहते थे लेकिन माँई न तो दरवाजा सही करवाने का जुगाड़ कर पाती और न ही धन्नु की साईकिल का। माँई से कई बार कहां, किन्तु हर बार ’’अगले महिने कोशिश करेंगे।’’ माँई कहकर रह जाती थी और वह अगला महिना आज तक नही आया, बमुश्किल घर खर्च की पूरकश हो पाती थी और उसमे भी अगले महिने के लिये कुछ उधार बच जाता था।
बस्ती तक पहुँचते-पहुँचते देर रात घना अन्धेरा हो जाता था, रात के अन्धेर मे बस्ती के मुहाने पर अनेक महंगी गाड़िया सड़क के किनारे लगी होती थी। पास ही ’’शायरा रेस्टोरेन्ट कम होटल’’ था, शुरू मे धन्नु को लगता था कि शायद शहर के बड़े लोग रात्रि खाना खाने के लिये रेस्टोरेन्ट आते होंगे, किन्तु उसके अधकचे दिमाग मे यह बात नही आती थी कि दिन मे तो कभी उस रेस्टोरेन्ट पर भीड़ नही होती थी, ऐसा कोई प्रसिद्ध जायकेदार खाना हो ऐसा भी कभी उसने नही सुना, फिर रात को वह क्या स्पेशल बनाता था, धन्नु को समझ नही बैठता था। धन्नु गलियों से गुजरता था तो कई बार अजीब सी आवाजें, विचित्र सी खिल-खिलाहट, बेतरतीब बेहया से अल्फाज सुनता था, कई अपरिचित रहीशों के से चेहरे देखता था। धीरे-धीरे उसको उन सबका राज समझ आने लगा था।
अक्सर बस्ती के बच्चो मे कई व्यस्को के शौक या कहे लते स्वाभाविक रूप से पैदा हो जाती थी, जिसको कई उनमे से अपनी शान समझते थे, तो कई आनन्द का स्रोत, लेकिन धन्नु की माँई उसको हर दिन अपनी व्यथा-कथा सुनाकर याद दिलाती थी कि इन बुरी आदतो से जिन्दगी किस तरह बर्बाद होती हैं, फिर धन्नु के मन मे फिलहाल माँई के दुखद जीवन और बहनो का ख्याल हर वक्त रहता था, फिर बस्ती के अन्य लड़को के साथ गुजारने के लिये वक्त ही कहां मिलता था, इसलिये उसमे ऐसी कोई बुरी आदत अभी तक जन्म नही ले पाई थी।
आस-पड़ोस के दुकानदार लगभग सभी धन्नु से भलीभॉति परिचित हो गये थे और उसकी वफादारी, ईमानदारी और कड़ी मेहनत को देखकर, कईयो ने उसे अपनी दुकान पर काम करने तक का प्रस्ताव दिया था, किन्तु धन्नु ने अपने पुराने सेठ रामबाबू हलवाई के लिये ही काम करना बेहतर समझा।
धन्नु को चौराहे पर पुलिस वालो के लिये चाय देकर आना सबसे कठिन काम लगता था और प्रायः इस काम से वही जी चुराता था, वहां किसी और को ही भेजने की फिराक मे रहता था, क्योकिं एक वे हमेशा उसको गाली देकर बोलते थे, कभी उसको नाम से नही बुलाते थे, हमेशा ’’ अन्धेरे की औलाद ’’ कहते थे, ऊपर से चाय के पैसे भी नही देते थे। दिन मे 3-4 बार तो उनकी चाय तय ही थी, इसके अलावा जब भी कोई उनका अफसर या अन्य कोई यार-दोस्त आ जाता, तुरन्त सेठ जी को चाय भेजने के लिये फोन कर देते। धन्नु उनको देखकर मन ही मन कुढता था, चिड़ता था, किन्तु कोई प्रतिकार नही कर पाता था, कई बार तो वे सेठ जी को दुकान पर आकर ही धमका जाते थे। एक दिन सुबह ही दो पुलिस वाले दुकान पर आ गये, उनमे से एक बोला -
’’ क्या रामबाबू आजकल तेरी चाय मे कुछ स्वाद हल्का सा लगता है, दूध मे पानी मिलाने लग गया है क्या ? ’’
’’ नही साहब, ऐसा क्यो कहते हो हमेशा की तरह ही बनती हैं ? ’’
’’ नही ............. ? फिर भी हमने सोचा कि आज तेरी दुकान पर ही जाकर चेक ले। ’’ दूसरा बोला।
’’ चल जब तक चाय बने कुछ खाने कुछ खाने को दे दे, थोड़ी सी जलेबी और 2-3 समोसे, थोड़ा नाश्ता भी हो जायेगा, आज घर से जरा जल्दी आ गये थे। ’’
’’ कितनी तोलूं साहब ? ’’ धन्नु बोला।
’’ अबे साले, अन्धेरे की औलाद, क्या तौल कर देगा, मन भर गया हैं क्या काम करने से, रामबाबू तेरी दुकान यह लौंडा उठवायेगा यहां से ? ’’ दोनो एक साथ लाल-पीले हो गये।
’’ जाने भी दो साहब, बच्चा हैं, यह क्या जाने दुनियां के तौर तरीके, छोड़ भी दो। ’’ माफी माँगकर एक प्लेट मे 3-4 समोसे और दूसरी प्लेट मे बिना तौले कुछ जलेबी रखकर उनको पकड़ा दी, जो सामने पड़ी मुड्ढियों पर बैठ गये थे कई बेंच, स्टूल व मुड्ढियां दुकान के सामने सामने सेठ जी ग्राहको के लिये पड़ी रखते थे। धन्नु चुपचाप गर्दन नीचे किये चाय बनाता रहा और म नही मन उन पुलिस वालो को गाली देता रहा। ऐसा वाक्ये कई बार घटित होते रहते थे और धन्नु व सेठ दोनो अपनी-अपनी मजबूरी समझते थे।
आज जब धन्नु दुकान से रात्रि मे घर लौट रहा था, तो अचानक उसने बगल वाली गली मे एक शख्स दबे पाँव सरपट मुड़ते देखा। धन्नु को लगा कोई परिचित व्यक्ति हैं- ’’अरे हां, यह तो वही है जो पुलिस वालो का सरदार है, दो तारे लगी वर्दी पहनकर चौराहे पर खडी गाडी मे काला चश्मा पहने बैठा रहता है, लेकिन आज उसके चेहरे पर न तो चश्मा हैं, ना वर्दी, किन्तु धन्नु उसके कद-काठी, मूँछो और हाव-भाव से भली-भांति पहचानता है।’’
एकबारगी धन्नु के दिमाग मे आया िकवह यहां क्यो घूम रहा हैं, आवाज देकर पूंछ ले, लेकिन तुरन्त दिमाग ने झटका दिया, क्या मतलब पुलिस वालो से बात करने का ?’’ वैसे भी उसके दिन मे देखे गये रौब से धन्नु डरता था, किन्तु अभी वह किसी सियार की भांति दबे पांव तेजी से क्यो चल रहा था ? धन्नु ने दिमाग पर ज्यादा जोर नही दिया ,’’ आया होगा किसी अपराधी की सुराख मे या कुछ और ? उसे क्यां ? ’’
घर पहुंचकर खाना खाते समय मांई से बोला- मांई एक पुलिस वालो का अफसर हैं, कभी-कभी बत्ती वाले चौराहे पर पुलिस की गाड़ी मे आता हैं .....? ’’
’’हां, तो ...... ? ’’ पुलिस अफसर की बात सुनकर वह कुछ सकपकायी। ’’माँई उसको मैनें बगल वाली गली मे घुसते हुए अभी देखा था।
’’ होगी कोई बात, पुलिस वालो के पचास काम होते हैं, वैसे भी अपनी बस्ती मे अपराधियों, नशो-पतों की क्या कमी हैं, छोड़ो तुम सबर (सब्र) से खाना खाओ। ’’
’’जी’’ और धन्नु चुपचाप खाना खाने लगा।
आज रात जब धन्नु खाना खाकर सोया ही था कि शायद किसी सिरफिरे आवारा बिणजार (बैल) ने उनके पौड़ी के दरवाजे को सींग मारकर गिरा दिया और ’’धड़ाम’’ की आवाज के साथ दरवाजे का एक पल्ला आँगन मे गिर पड़ा। धन्नु की नींद उचट गई। माँई बोली - ’’धन्नु तू सो जा, मैं देखती हूं।’’
माँई कमरे से बाहर निकलकर दरवाजा खड़ा करने की कोशिक करने लगी। बड़ी बहन सुशीला जो अभी कुछ पढ़ रही थी, को आवाज देकर बुलाया ’’सुनीता, आ जरा मेरी मदद करना’’ बड़ी बहन और माँई जैसे-तैसे दरवाजे को खड़ा कर पुनः चिपकाने का प्रयास करने लगी, जिससे बाहर से गुजरते राहगीरो को लगा हुआ सा प्रतीत हो। तभी धन्नु के कानो मे कोई भारी-भरकम मर्दानी आवाज सुनायी पड़ी।
’’अरे दुलारी ! यहा रहने लगी हो क्या ? तभी कई वर्षो से दिखायी नही दी, तुम्हारे घर पूछा था तो उन्होनें बताया कि तुम यह शहर छोड़कर चली गई हो ?’’
माँई एकबारगी कुछ नही बोली, मर्दानी आवाज पुनः उभरी - ’’ अरे क्या हुआ ? दरवाजे को क्या हुआ ? किसी आशिक ने तोड़ दिया क्या ?’’
’’मैनें वह सब छोड़ दिया है साहब! आप जाइये, कुछ नही, हम देख लेंगे।’’
’’अरे! एक बार सेवा का मौका तो दो, बिल्कुल ही भुला दिया हैं, नया दरवाजा लगवा दुंगा ?’’
’’आप जाइये यहां से, हमे अपने हाल पर छोड़ दीजिये।’’
तभी दरवाजे के पल्ले के पीछे से सुशीला ने उस मर्द की ओर देखने की कोशिश की होगी।
’’ओह! ळो! यह कौन है दुलारी ? तेरी लौंडिया हैं क्या ? रसगुल्ला हो गयी हैं, सुन, एक बार इसका स्वाद चखने दे, तेरी सारी तंगहाली मिटा दुंगा।’’
’’ कुछ तो शर्म कीजिये साहब, यह तुम्हारी अपनी भी औलाद हो सकती है, तुम्हारा खून .....?’’
’’चुप साली, पता नही कितने खसम कर चुकी हैं, मेरी औलाद बताने चली।’’
’’क्यों तुम्हारी नही हो सकती? तुम नामर्द हो? जाइए यहां से कुछ तो भगवान से डरो?
’’सो-सो चूहे खाकर बिल्ली हज करने चली।’’ बड़-बड़ाता हुआ सा मर्दाना स्वर लुप्त हो गया।
ल्ेकिन धन्नु के कान मे उसके स्वर गूँजते रहे। उस मर्दाने स्वर को वह लगभग या कहे पूरी तरह पहचान गया था, उसी पुलिस अफसर का था जो चौराहे पर दो तारे लगी वर्दी पहनकर कार मे बैठा रहता था और कई बार रौब से उसको ’’ अंधेरे की औलाद पुकारकर चाय डालने को कहा था। धन्नु का शरीर पता नही क्रोध से कंपन कर रहा था, किन्तु शायद डर या उसके रौब की वजह से खड़े होकर बाहर आने के लिये उसके पैर हिम्मत नही जुटा पाये। कुछ देर बाद माँई और बहन दरवाजा खड़ाकर चिपकाकर कमरे मे आ गयी। धन्नु सोने का प्रयास करता रहा लेकिन नींद कोसो दूर थी, उसके कानो मे माँई के शब्द ’’ यह तुम्हारी भी औलाद हो सकती हैं ........ ?’’ और पुलिस वाले के ’’चुप साली कितने के खसम कर चुकी हैं ..........।’’ गूँज रहे थे।
पता नही उस दिन के बाद धन्नु शायद उस पुलिस अफसर मे अपना नाजायज बाप ढूँढने लगा था और मन ही मन उस पर घृणा मिश्रित क्रोध करने लगा था, उसकी शक्ल देखते ही ललाट पर सलवटे पड़ने लगती थी। जिन्दगी का भी अजीब विधान हैं, जिन्दगी कब-कब कितनी करवटें लेती है शायद विधाता ही जानता है या वो भी नही। कभी-कभी कोई करवट हमे इतने गहरे खड्डे मे धकेल देती है कि फिर वहां से निकल पाना नामुमकिन हो जाता है और हम वही दम तोड़ देते है। कभी-कभी कोई करवट हमारो पंख लगा देती हें और उन्मुक्त परिन्दे की तरह हम आकाश मे उड़ान भरते हुये सारा जहान नाप लेना चाहते है। कभी हमारा दृष्टिकोण इस कद्र बदल देती है कि सिर्फ एक हमारी नजर हमारी सोच के अलावा सारी दुनिया झूठी जान पड़ती है। कभी ऐसा भावावेश भर देती हैं कि हम कुछ ऐसा कर गुजरते हैं कि जिसके बारद करने को कुछ शेष नही बचता हैं और कभी-कभी ऐसे जुनून पर सवार कर देती हैं कि सिर्फ उसको पूरा करने के अलावा हमे कुछ भी दिखायी देना बन्द हो जाता हैं। धन्नु की जिन्दगी भी शायद ऐसी कृछ करवटे लेने को थी।
आज जब धन्नु चौराहे पर पुलिस वालो को चाय देने गया तो देखा वही पुलिस अफसर काला चश्मा पहने पुलिस कार मे बैठा हुआ था उसने गर्वीली आवाज मे पुकारा - ’’ अबे, अन्धेरे की औलाद, इतनी देर कर दी चाय लाने में ?’’
पता नही धन्नु के हाथ क्रोध से या कुछ और कंपन करने लगे थे, किन्तु जुबां से कोई शब्द चाहकर भी नही निकल पा रहा था।
’’अरे, साले ! अब खड़ा ही रहेगा या चाय डालेगा भी ? अन्धेरे की औलाद।’’
अचानक धन्नु के होंठ खुल गये और अनायास ही शब्द फूट पड़े - ’’आप चाय लीजिये साहब, और यह क्या हैं ’अन्धेरे की औलाद-अन्धेरे की औलाद’, यह आप जैसे किसी महान व्यक्ति के कुकर्मो का फल भी हो सकता है ? मैनें आपको मेरी बस्ती मे रात्रि मे दबे पांव सरकते देखा हैं।’’
पुलिस अफसर और पास खड़े दो पुलिस वाले भी, धन्नु के शब्दो को सुनकर सन्न रह गये। दोनो पुलिस वाले अफसर की तरफ कौतूहल भरी नजरो से देखने लगे। धन्नु काले चश्मे के भीतर उस पुलिस अफसर की आँखो को नही देख पाया, किन्तु चेहरे पर पड़ी परछाइयों से साफ दिखाई दे रहा था कि उसके चेहरे का रंग उड़ गया था, अचानक मिले ऐसे जवाब से, वह बहुत सकपकाया-हड़बड़ाया सा हो गया था। फिर तुरन्त संभलने की जल्दबाजी मे या आवेश मे बोला -
’’चुप साले! क्या बकवास करता हैं ?’’ और अचानक उसने धन्नु के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया और फुफकारा-
’’भाग यहां से, क्या फालतू बोलता हैं साला, खाल उधेड़ दुंगा, दुबारा ऐसी बकवास की तो ?’’
धन्नु क्रोधावेश से भर-भराने लगा, आज उसे डर नही लग रहा था, बल्कि थप्पड़ खाकर उसका भय खत्म हो गया था और उस अफसर की घबराहट देखकर लगा कि रौब केवल वर्दी का हैं, अन्दर से वह भी किसी आम आदमी की तरह कमजोर है। उसके जी मे आया कि केटली की गर्म चाय उस पुलिस अफसर के मुँह पर उड़ेल दे, किन्तु पता नही दिमाग ने साथ नही दिया और हाथ मे वह हरकत नही कर सके। किन्तु आज उसके दि लमे कुछ निर्भयता-आत्मविश्वास का संचार हुआ था और अपने गुस्से को दबाये हुये वापस दुकान की और लौट गया। तीनो पुलिस वाले कभी उसकी ओर, कभी एक दूसरे की ओर देखते रह गये।
कई दिन गुजर गये, धन्नु फिर उन पुलिस वालो को चाय देने नही गया, सेठ जी से पूरा वाक्या बताते हुये साफ कह दिया था कि वह चौराहे पर किसी और को भेजें, वह नही जायेगा, किन्तु मन मे उस पुलिस अफसर के प्रति कोई टीस सी थी, जो बढ़ती हो जाती थी, कुछ ऐसा करने की जो उसको सबक सिखा सके, किन्तु कुछ सूझ नही रहा था। घर आकर माँई को सारी घटना का बयान किया तो माँई भी जैसे हक्की-बक्की रह गई, अब तक वह समझ गई थी कि धन्नु किस पुलिस अफसर के बारे मे बात कर रहा था, क्योंकि धन्नु ने यह भी कहा था कि उस रात उसने जो मर्दानी आवाज सुनी थी, वह उसी पुलिस अफसर की थी। माँई ने समझाया -
’’देख धन्नु ! जाने दे इस बात को, पुलिस वालो की ना दोस्ती अच्छी, ना दुश्मनी, फिर अपनी औकात क्या है उनसे लड़ने की? दिमाग से निकाल दे इसको, अपना टेम (टाइम-समय) पास कर, दुुनियां जहाँन पड़ा हैं उनको लड़ने के लिये, हम जैसे-तैसे अपनी गुजर-बसर कर ले, वही बहुत है।’’
धन्नु बिल्कुल चुप था, लेकिन अन्दर ही अन्दर कोई बैचेनी खाये जाती थी, कोई तूफान हिलौरे ले रहा था। माँई पुनः बोली -
’’धन्नु सुन रहा हैं न तू, मेरी बात को ?’’
’’हूं’’ कहकर धन्नु चुप बना रहा। माँई ने खाना लगा दिया। धन्नु को कोई स्वाद नही आ रहा था, बस माँई की बैचेनी मिटाने के लिये कड़वी दवायी की तरह खाने के ग्रास निगल रहा था।
कई दिन हो गये, धन्नु सामान्य होने का प्रयास कर रहा था किन्तु उस पुलिस वाले की शक्ल उसके शब्द, माँई के शब्द जैसे सके दिल-दिमाग से बाहर ही नही निकल पा रहे थे। सेठ रामबाबू ने भी कई बार समझाया, धन्नु ऊपर से सामान्य व्यवहार दिखाने का भरपूर प्रयास करता किन्तु होनी को कुछ और ही मंजूर था।
आज देर रात जब खाना खाकर लगभग सभी सो गये थे तो किसी ने आकर पौंडी का दरवाजा खटखटाया। माँई तो शायद सतर्क होकर आधी नींद मे ही सोती थी, सो तुरन्त जाग गई और दरवाजे के पास किसी अनजाने से खतरे को भाँपते हुए बोली -
’’कौन हैं? ’’
’’ मैं हूं दुलारी, दरवाजा खोल।’’ बाहर से लड़खड़ाती सी वही मर्दानी आवाज आयी।
’’नही, तुम नशे मे हो, जाओ यहां से।’’
’’एक बार दरवाजा तो खोल साली।’’
’’नही तुम्हारा यहां कोई काम नही।’’
’’काम हैं....... मुझे तेरी लौंडिया को देखना हैं .... एक बार मुझे खुश कर दे, तुझे मालामाल कर दुंगा।’’
माँई ने पता नही क्या सोचकर कि धक्का देेने पर दरवाजा टूट जायेगा या गिड़गिड़ाने पर उसकी हिम्मत और बढ़ जायेगी, दरवाजा खोल दिया और बोली -
’’बदतमीजी की भी हद होती है साहब, जाओ यहां से, भगवान से डरो, तुम्हारी अपनी बेटी होती तो .....?’’
’’चल साली .... तुम्हारी भी बदतमीजी होती हैं क्या ? खुशी से हवाले करेगी तो ठीक हैं.......... वरना किसी दिन उठाकर ले जाऊंगा ..........।’’
माँई के हाथ मे शायद कोई डण्डा था, उसको धकियाते हुये, कहां -
’’निकल जाओ यहां से चुपचाप, वरना सिर फोड़ दुंगी और दुनिया तुम्हारा तमाशा देखेगी।’’
’’अच्छाा ........... साली शेरनी बन गई .......... फिर देखूंगा’’ ऐसा बकते हुये वह चला गया।
माँई ने राहत की हल्की सी साँस ली, किन्तु अन्दर ही अन्दर बड़ी उद्विग्न थी, मन ही मन कंपकंपा रही थी, भविष्य के खतरे की शायद ज्यादा ही बड़ा कर भॉप रही थी या दुनिया के यथार्थ को समझ रही थी।
धन्नु सब सुन रहा था, भावावेश से वह कांप रहा था, जी मे आया कि बाहर आकर किसी पत्थर से उसका सिर फोड़ दे किन्तु अब तक धन्नु का दिमाग इस बारे मे पहले ही काफी कुछ सोच विचार कर चुका था। वह बाहर आकर अपना परिचय उस पुलिस वाले को नही कराना चाहता था, किन्तु आज उसके दिमाग ने कुछ ठान लिया था, वरना बहनो व माँई को यह परेशान करता रहेगा, उनका जीवन मुहाल कर देगा। बड़ी बहन सुशीला भी जाग गयी थी और डर से थर-थर काँप रही थी। माँई कमरे मे वापस घुसी तो उससे चिपकाकर सिसकियाँ भरने लगी। लेकिन धन्नु जान-बूझकर आंख बन्द किये लेटे पड़ा रहा, शायद वह माँई को उस घटना से वाकिफ होना नही दर्शाना चाहता था। माँई ने सुबह जगाने पर भी इस बारे मे कोई जिक्र नही किया और सुशीला को भी धन्नु को बताने से मना कर दिया, किन्तु उन्हें क्या पता था कि धन्नु के दिल मे ज्वार उमड़ रहा था।
उस दिन धन्नु शहर के किसी कबड्डी की दुकान पर गया और लोहे का एक मोटा सा सरिया लेकर आया और उसको हाईवे से उसकी बस्ती की तरफ जो सड़क मुड़ती थी, उसके किनारे पर खड़ी झाड़ियों मे छुपा दिया।
कड़क ठण्ड का मौसम था, शाम ढलते ही कोहरा सा छाने लगता था, लोग देर रात तक बाहर नही घूमते थे। धन्नु दुकान से लौटता था तो उसकी बस्ती मे भी इक्का-दुक्का ही अपरिचित चेहरे इधर-उधर गुजरते दिखायी देते थे। उस रात धन्नु दुकान से आकर हाइवे से उसकी बस्ती वाले मोड़ पर झाड़ियों मे छुपकर बैठ गया और उस पुलिस अफसर का इन्तजार करने लगा कि जब वह आयेगा तो उसको सबक सिखायेगा। किन्तु डेढ़-दो घंटे इन्तजार करने के बाद भी वह नही आया, उलझे-थके मन से धन्नु घर आया, तो माँई ने पूछां -
’’धन्नु, आज बहुत देर हो गयी, इतनी रात तक भी दुकान चलती हैं क्या ?’’
’’नही माँई, सेठ जी सामान लेने बाजार चले गये थे, शायद रास्ते मे किसी ने रोक लिया होगा, देरी हो गयी, उनके आने के बाद ही दुकान बन्द हो पायी।’’
’’अच्छा, कोई बात नही, हाथ मुंह धो, मैं खाना लगाती हंू।’’ धन्नु ने बिना मन से खाना खाया और सो गया।
दूसरे दिन धन्नु ने फिर वही प्रक्रिया दोहरायी, किन्तु आज उसे ज्यादा इन्तजार नही करना पड़ा। 40-45 मिनट बाद वही पुलिस वाला उसकी बस्ती की सड़क की ओर पैदल चलता दिखायी दिया, शायद अपनी गाड़ी हाइवे के किनारे ही लगा दी होगी। हाइवे से बस्ती तक 400-500 मीटर का फासला था। मौसम धन्नु को बिल्कुल अनुकूल लगा, घने कोहरे से ज्यादा दूर तक दिखायी नही देता था। धन्नु सरिया हाथ मे लिये दबे पांव उसके पीछे चलने लगा और हाइवे से 100-150 मीटर बस्ती की तरफ आने पर दोनो हाथो मे सरिया पकड़कर किसी जुनून के साथ उसके सिर पर पीछे से भरपूर ताकत के साथ प्रहार किया। पुलिस वाले के मुँह से उफ तक नही निकल पायी, बेहोश सा होकर ढेर हो गया। धन्नु ने पुनः एक प्रहार और सिर पर ही किया, उसे लगा कि वह जिन्दा बच गया तो फिर उनमे से किसी को नही छोड़ेगा। पुलिस वाले की आँखे धन्नु को देखते हुये फटी की फटी रह गई। पता नही धन्नु मे कोई अनजानी शक्ति आ गई थी या भय और जुनून आदमी की क्षमतायें बढ़ा देते हैं, उसके दोनो पैर पकड़कर खींचते हुये झाड़ियो मे ले गया और फिर भी पता नही, उसने उस पर कई प्रहार किये, पूरी तरह से आश्वस्त होने पर कि वह मर गया है। धन्नु वही सरियां पटक कर घर की ओर भागा।
जुनून का ज्वार उतर गया था, अब दिमाग काम करने लगा था, दिल घबरा रहा था, जैसे-तैसे घर पहुँचकर माँई से लिपटकर रोने लगा। माँई उसकी हालत देखकर घबरा गई, खून के कई दाग उसके कपड़ो पर लगे थे, किसी अनहोनी को भांप कर धन्नु को छाती से चिपका लिया।
’’क्या हो गया धन्नु ? क्या बात हैं ? इतना क्यो घबरा रहा हैं ?’’
’’माँई मैनें उस पुलिस वाले को मार दिया हैं, अब वह आपको और बहिन को कभी परेशान नही कर पायेगा।’’
’’यह तूने क्या कर दिया धन्नु .............?’’ माँई सिसकने लगी, गला फाड़कर भी नही रो सकती थी।
अगले दिन प्रातः ही खबर आग की तरह फैल गयी, बुराई ज्यादा देर तक कहां छुपी रहती है। पुलिस को छानबीन-पड़ताल करने मे ज्यादा वक्त नही लगा, पुलिस अफसर था इसलिये और अधिक कुशलता से कार्य किया, फिर यह कार्य किसी शातिर अपराधी द्वारा नही किया गया था, इसलिये दूसरे दिन ही धन्नु को गिरफ्तार कर लिया गया। धन्नु कुख्यात हत्यारा बन गया जिसने एक तथाकथित दबंग पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी थी। न्यायालय मे धन्नु की पैरवी करने के लिये न तो कोई ढंग का वकील मिला, न लोगो का नैतिक सहारा, परिवार व उसकी बस्ती का चरित्र सबके दिमाग मे था, मानो वहां पैदा ही अपराधी होते है। न्यायाधीश ने आँखों पर बंधी पट्टी वाली मूर्तिं को सार्थक सिद्ध करते हुये उसको हत्या का दोषी अपराधी घोषित कर दिया, चूकिं व्यस्क की उम्र न थी तो बाल अपराधी मानते हुए सुधार गृह भेज दिया गया।
जिन्दगी की एक करवट ने धन्नु को मेहनकश, ईमानदार वफादार लड़के से कुख्यात नामचीन अपराधी बना दिया। सजा पर बाल सुधार गृह तो वह चला गया, किन्तु वहां कितने लड़के सुधरकर सही राह पकड़कर जिन्दगी को पटरी पर ला पाते हैं, इसका यथार्थ डरावना है।
आज धन्नु का माँई को खत आया -
’’ माँई ढोक,
माँई सचमुच ही मै अपराधी बन गया हूँ, मैं गुनहगार हूँ माँई तेरा, गुनहगार हूँ दोनो बहनो का, मेरे दिमाग मे यह ख्याल क्यों नही आया कि इसके बाद आप लोगो का क्या होगा ?
माँई, मै उसको मारना नही चाहता था, उसको सबक सिखाना चाहता था, कुछ हाथ पैर तोड़कर, लेकिन पता नही मन मे कौनसा डर घुस गया कि मै सरिये से उस पर प्रहार करता रहा, शायद यह कि अब वह हमे नही छोड़ेगा या कुछ और ...............। जिसका अन्दाज मैं पहले नही लगा सका।
मुझे क्या पता था कि तुम्हारी रक्षा करने की बजाय मैं तुम्हें कहीं और गहरी खायी, घने दलदल मे धकेल रहा हूं।
पता नही माँई जिन्दगी आगे किस तरफ जायेगी, सही रहा तो वापस घर आकर तेरी सारी शिकायतें दूर कर दुंगा। तेरा अच्छा बेटा बनकर दिखाऊंगा। पता नही भाई का फर्ज निभाने मे बहुत देरी हो जायेगी, लेकिन माँई तेरा बुढ़ापा खराब नही होने दुंगा, अपना और बहनो का ख्याल रखना।
तेरा अपराधी बेटा।
धन्नु ’’