Yugantar - 12 in Hindi Moral Stories by Dr. Dilbag Singh Virk books and stories PDF | युगांतर - भाग 12

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

Categories
Share

युगांतर - भाग 12

शांति जानती थी कि बड़ी मंजिल पाने से पहले छोटे-छोटे मोर्चे फतेह करने पड़ते हैं। वह सरकारी नौकरी करती थी, लेकिन नौकरी तक सीमित रहना उसका मकसद नहीं था। उसका पहला पड़ाव था अपने महकमें में धाक जमाना, लेकिन उसका अफसर मि. चोपड़ा थोड़ा खडूस किस्म का था। नियमों पर चलता था और शांति का लावण्य उस पर असर नहीं दिखा रहा था। शांति अपनी सुंदरता के इस अपमान को सहन नहीं कर पा रही थी, इसलिए वह अपनी फरियाद लेकर यादवेंद्र के पास पहुँची। वैसे भी वह जब से शहर में आई थी, यादवेंद्र से मिलना चाह रही थी। आते ही उसने अपने अनुपम सौंदर्य और मधुर आवाज के सामंजस्य से बने खूबसूरत जाल को फैलाना कर दिया। चेहरे की तमाम शोखियों को छुपाकर, मासूमियता के आवरण को ओढ़ते हुए वह बोली, "नेता जी, मैं अबला औरत, पुरुषों की ज्यादतियों से पिस रही हूँ, आपका नाम सुनकर आपके पास आई हूँ, अब तो आप ही बचाने वाले हैं, प्लीज मुझे निराश मत करना।"
लोगों के बीच रहने वाला नेता यदि लोगों के मनोविज्ञान को समझ न पाए तो वह नेताओं के संसार में कलंक है। यादवेन्द्र यह कलंक कदापि नहीं था। वह शांति के रंग-ढंग को देखते ही समझ गया कि मामला इतना सीधा नहीं है, लेकिन कृत्रिमता का सामना करने के लिए कृत्रिमता का ही सहारा लेते हुए वह बोला, 'आप तो मुझे शर्मिंदा कर रही है, मैं तो पार्टी का मामूली सा वर्कर हूँ।"
यादवेन्द्र के रूख को देखकर शांति दिल ही दिल खुश हुई और अपनी सुन्दरता के चैक को कैश कराने का उचित अवसर पाकर बोली, "यही तो आपका बड़प्पन है, जो इतनी सेवा करके भी स्वीकार नहीं करते, वरना यहाँ तो ऐसे लोग भी हैं, जो चूहा मारकर शेर मारा बताते हैं। हमारे ऑफिसर मि० चोपड़ा को ही लीजिए। मुआ जाने क्या समझता है अपने आप को। थोडी सी पॉवर क्या आ गई, खुदा ही बन बैठा। किसी को आदमी ही नहीं समझता।"
दुख में डूबते हुए यादवेन्द्र ने कहा, "मैडम जी ऐसा क्या कर दिया मि. चोपड़ा ने जो आप इतनी लाल-पीली
हो रही हैं।"
"जी पूछो ही मत।" - अपने परंपरागत हथियार आँसुओं का प्रयोग करते हुए वह आगे फिर बोली, "मेरे नारी होने का नाज़ायज फायदा उठाना चाहता है।"
"आप अपने आँसू पोंछिए और धैर्य पूर्वक सारी बात बताएँ, हमारे रहते किस में इतनी जुर्रत जो किसी अबला पर अत्याचार करें।"
अपने प्रहारों की अचूकता पर अन्दर-ही-अन्दर प्रसन्न होती हुई और बाहर से आसू पोंछती हुई मैडम शांति फिर बोली, "तभी तो मैं सीधी आपके पास आई हूँ। दरअसल कल मैं थोड़ा लेट पहुँची, वैसे ज्यादा लेट नहीं थी, सिर्फ आधा घंटा ही लेट थी और कर्मचारी भी लेट आते हैं, मेरे साथ ही काम करने वाली शीला तो रोज ही दो-दो घण्टे लेट आती है, लेकिन उसे वे कुछ नहीं कहते। मेरे साथ आने वालों को भी कुछ नहीं कहा गया मगर मुझे आधा घण्टा लेट आने पर पूरा एक घण्टा गालियाँ सुननी पड़ी। यह पहला मौका नहीं, वे अक्सर मुझे डाँटने का बहाना ढूँढ़ते रहते हैं, लेकिन इस बार तो वे हद ही पर कर गए।"
"आपने उनसे पूछा नहीं कि वे औरों को कुछ क्यों नहीं कहते?"
"पूछा था लेकिन जबाब देने की बजाए मुझी पर बिगड़े। कहने लगे पहले बाकी सभी जैसे कार्य करो, फिर उनकी बराबरी करना। कभी तुमने हमारी सुध ली है, सेंत-मेंत में ही छूट नहीं मिला करती।"
यादवेन्द्र बाल-ब्रह्मचारी बनते हुए इस बात के अर्थ को समझने में अपनी असमर्थता का दिखावा करते हुए बोले, "बस इतनी सी बात है। मेरे विचार में तो गलती तुम्हारी ही है। तुम्हारे अधिकारी हैं, हो सकता है उम्र में भी तुमसे बड़े हों। उनका आदर सत्कार तो आपको करना ही चाहिए और फिर जब गुड़ खिलाने से काम निकलता हो, तो जहर खिलाने की क्या जरूरत है।"
मैडम शांति यादवेन्द्र के इस भोलेपन पर मुग्ध होते हुए और अपनी शिकायत पर मसाला लगाकर उसे चटपटी बनाकर पेश करते हुए बोली, "जी आप ठहरे शरीफ आदमी। आप क्या जाने सुध लेने का मतलब। मैं इस दुनिया में बिल्कुल अकेली हूँ।" - आँखों में आँसू भरकर थरथराती हुई आवाज में फिर आगे कहने लगी, "माँ- बाप तो बचपन में ही भगवान को प्यारे हो गए। आगे-पीछे अब कोई नहीं है। वे मेरी मजबूरी को जानते हैं और इसी कारण वो मेरे नारीत्व पर नजरें टिकाए हुए हैं।"
यादवेन्द्र ने मछली को अपनी मारक-शक्ति के भीतर पाकर अपना जाल फैंका, "ओह! तो आप बिल्कुल अकेली हैं।" फिर लंबी साँस भरते हुए बोले, "भगवान भी कितना जालिम है, ऐसे जालिम समाज में वह अबलाओं को अकेला क्यों और किन के सहारे पर छोड़ देता है।"
"आप जैसे शरीफ लोगों के सहारे पर ही छोड़ता होगा।"
"क्या मतलब है आपका?" शांति के दिल के रहस्य को जानने की कोशिश करते हुए यादवेन्द्र कहा।
"क्या मतलब होगा मुझ अभागिन का। अब तो आप ही एकमात्र सहारा हैं और मेरा दिल कहता है कि आप भगवान जैसे जालिम कदापि न होंगे। आप मेरी सहायता जरूर करेंगे।" - अपनी आँखों में मादकता भरते हुए उसने फिर प्रश्न किया, "करेंगे न।"
यादवेन्द्र चेहरे पर गंभीरता का आवरण ओढ़ते हुए उदासी भरी आवाज में बोले, "विवश और मजबूर लोगों की सेवा करना तो हमारा धर्म भी है और कर्तव्य भी, मगर बिना किसी सबूत के किसी को दोषी भी तो नहीं ठहराया जा सकता। आप यदि कोई सबूत ले आती तो शायद हम कुछ ...."
यादवेन्द्र की बात को बीच में काटते हुए शांति बोली, "तो क्या आप चाहते हैं कि मैं बर्बाद हो जाऊँ?"
"मैंने ऐसा तो नहीं कहा।"
"ऐसा ही तो कहा है आपने।"
"मैंने तो सिर्फ सबूत की बात की थी।"
"और सबूत तो अपनी ईज्जत लुटाकर ही मिल सकता है। तो क्या यह मेरी बर्बादी नहीं ? क्या मैं सबूत के लिए अपने आप को बर्बाद कर लूँ।" - इतना कहते-कहते शांति फिर बिफर पड़ी। औरत के पास सहानुभूति पाने का सर्वश्रेष्ठ साधन हैं उसके आँसू और अगर आँसू बहाने वाली औरत खूबसूरत और जवान भी हो तो सोने पर सुहागा हो जाता है। खूबसूरत और जवान शांति के आँसू भी पहले से ही पिघलने के लिए तैयार बैठे यादवेन्द्र के दिल को बेकाबू कर गए। बड़े उतावले होकर वह बोले, "नहीं नहीं मेरा यह मतलब नहीं था। भला मैं यह कैसे देख सकता हूँ कि मेरे रहते किसी अबला नारी के नारीत्व पर आँच आए।"
शांति आँसू पोछते हुए कुर्सी से उठकर उनके सोफे पर उनके साथ बैठते हुए बोली, "तो फिर कुछ कीजिए मेरी इज्जत अब आपके हाथ हैं।"
बैठते हुए उसने बड़ी चालाकी से साड़ी के पल्लू को नीचे सरका दिया ताकि यादवेंद्र क्लीवेज देख सके और यादवेंद्र ने न सिर्फ उसकी चालाकी को देखा अपितु उसके आमंत्रण को स्वीकार करते हुए बड़े गौर से उसके यौवन को देखा।

क्रमशः