राधे कृष्ण साथ तेरा मेरा
मथुरा जाते हुए श्री कृष्ण ने राधाजी से भेंट की।वृंदावन में कृष्ण के जाने से पूर्व ही जैसे सब कुछ उदास हो गया हो। यहां के नर- नारी,वृंदावन की लताएं और यहां तक कि पेड़-पौधे सब उदास हैं।कालिंदी का जल भी मानो ठहर गया हो।आज वृंदावन और ब्रज क्षेत्र में श्री कृष्ण की सुमधुर बांसुरी की भी आवाज नहीं गूंज रही है,लेकिन इस नीरवता में भी एक अद्भुत राग है।श्रीकृष्ण भले यहां वापस न लौटने वाले हों,उनकी बांसुरी से निकली मोहक तान जो आज भी वायुमंडल में व्याप्त है और जिसने समस्त ब्रज वासियों को सम्मोहित किया हुआ है,आने वाले कई कल्पों तक पूरी सृष्टि में उनके भक्तों को आनंदित करती रहेगी।
श्री कृष्ण के चेहरे पर वही तेज है।गले में गुंज की माला। पीत वस्त्र पहने हुए ।जगत के पालनहार मानवीय रूप में ……अपने कंधों पर भारत के भविष्य का निर्माण करने के लिए अनजान मथुरा नगरी की ओर प्रस्थान करते हुए।
"अरे कृष्ण तुम्हारी बांसुरी अब नहीं दिखाई दे रही है, कहां छिपा दी तुमने?"
"ओहो,वह तो मेरे ही पास है राधिके। उस बांसुरी के बिना कृष्ण कभी पूरा हो सकता है?"
कृष्ण ने अपने वस्त्रों में छिपाकर रखी गई बांसुरी हाथ में लेते हुए कहा
मुस्कुराते हुए कृष्ण का मोर पंख अचानक आए हवा के एक झोंके के कारण थोड़ा टेढ़ा हो गया।
"अरे… अरे मोर पंख जी….. सीधी तरह रहो कान्हा के सिर पर….. तुम्हें नहीं पता,यह कान्हा के सिर का मुकुट है,उसकी पहचान है।"
ऐसा कहते हुए राधा जी ने कृष्ण जी के सिर पर मोरपंख को सीधा किया।
ऐसा करती हुई राधा जी खिलखिलाकर हंस पड़ीं। कृष्ण भीतर से उदास हैं लेकिन राधा जी को यूं हंसते हुए देखकर उनके ओठों पर भी वही चिर परिचित मुस्कान आ गई।
"हां, यह ठीक है राधिके! तुम ऐसे ही हंसती रहना और जो मैं यहां नहीं रहूंगा,तब भी मेरी याद आने पर उदास न होना।"
श्रीकृष्ण के मुख से दार्शनिकता का पुट ली हुई बातें सुनकर राधा जी एकाएक गंभीर हो गईं।
"कृष्ण अब तुम ज्ञान की भारी-भरकम बातें करने लगे।अभी तुम मथुरा पहुंचे नहीं कि राजनीतिज्ञों की भाषा बोलने लगे।"
"नहीं राधा, ऐसा कैसे हो सकता है और मैं कोई अपनी इच्छा से तो मथुरा जा नहीं रहा। सम्राट कंस ने जो बुलवाया है।"
"जानती हूं कृष्ण।मैं यह भी जानती हूं कि एक बार जो तुम मथुरा चले गए तो फिर शायद लौटकर दोबारा वृंदावन क्षेत्र में वापस न आ पाओ। मैं तुमसे प्रेम करती हूं कृष्ण,लेकिन फिर भी तुम्हें रोकूंगी नहीं।अभी तुम्हें अपने अनेक दायित्वों को पूरा करना है।भारतवर्ष का भविष्य तुम्हारी ओर आशा से देख रहा है कृष्ण।ऐसे में मैं तुम्हारी राह में बाधक नहीं बनूंगी।स्वार्थी नहीं बनूंगी। यहां से निकल कर तुम और तुम्हारा प्रेम पूरे संसार और पूरे ब्रह्मांड में विस्तृत होता जाएगा कृष्ण……."
"तुम ठीक कहती हो राधिके,मैं इस योग्य तो नहीं लेकिन अगर मेरे नाजुक कंधों पर समय एक बड़ा दायित्व रखने जा रहा है तो फिर मुझे इसे पूरा करना ही होगा।….. फिर दाऊ भैया तो मेरे साथ रहेंगे ही।"
"तुम ठीक कह रहे हो कृष्ण…. तुम्हारा प्रेम केवल मुझसे नहीं है।इस ब्रज मंडल के हर एक प्राणी से है बल्कि हमसे ही क्यों,इस सृष्टि के कण-कण से तुम प्रेम करते हो कान्हा।"
"……. और मेरे इस प्रेम का आधार तुम ही हो राधिके…..मेरा सर्वस्व तुम ही हो।तुमसे ही प्रेरणा पाकर मैं अपने जीवन में इतना प्रसन्न,आनंदित और उत्साह से भरपूर रह पाता हूं…..। मुझे तो यह भी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं यहां से निकलकर मथुरा पहुंच भी गया तो वहां रह कैसे पाऊंगा।मुझे तुम्हारी, नंद बाबा, माता यशोदा,मित्रों,गोप- गोपिकाओं,गायों, कालिंदी तट,कदंब के पेड़,बांसुरी,दूध,माखन-रोटी.….. यहां की लताओं, पेड़- पौधों ….इन सबकी याद आती रहेगी। क्या मैं बिना इनके वहां जी पाऊंगा?"
"और तुम्हारे बिना यहां के लोग भी कैसे रहेंगे कृष्ण?अगर यह क्षेत्र स्पंदित है,चैतन्य है,प्राणवान है तो उसका एकमात्र कारण तुम हो कृष्ण।अगर तुम यहां से चले जाओगे तो यह समूचा क्षेत्र श्री विहीन हो जाएगा। जैसे यहां की आत्मा निकल गई हो और केवल शरीर शेष हो।"
".....अरे अब ऐसे ही बातें होती रहीं तो न मैं यहां से आगे बढ़ पाऊंगा और न तुम वापस जा पाओगी राधिके।"
राधा जी की आंखों से आंसुओं की कुछ बूंदे गिरने लगीं। कृष्ण ने तुरंत अपना पीत उत्तरीय निकालकर राधा जी के चेहरे पर ढलकी आंसुओं की उन बूंदों पर रखते हुए कहा:-
"अब ये तुम्हारी आंखों से मेरे लिए गिरने वाले आखिरी आंसू थे राधिके।मेरे उत्तरीय में समाहित इन आंसुओं को मैं हमेशा अपने पास संभाल कर रखूंगा…।"
ऐसा कहते हुए कृष्ण ने उस वस्त्र को अपने हृदय से लगा लिया।
"तुम भी मुझे वचन दो कृष्ण कि मेरी स्मृति में कभी दुखी नहीं होओगे।"
"हां राधिके,यह मेरा वचन है।मेरे हृदय में तुम स्थायी रूप से रहोगी और तुमने मुझे अपने हृदय में बसा रखा है…..इसलिए हम कभी दूर नहीं होंगे राधिके…. एक दूसरे में ही रहेंगे।मेरी हर सांस में तुम्हारा ही नाम है और इसीलिए तुम्हारे और मेरे प्राण एकाकार हैं।चाहे हम मीलों की दूरी पर क्यों न हों।अब संसार में राधा और कृष्ण इन्हें 'राधेकृष्ण' इस संयुक्त नाम से जाना जाएगा…..और जहां-जहां तुम्हारा नाम लिया जाएगा राधिके,वहां-वहां मैं स्वयं उपस्थित हुआ करूंगा।"
"हे कृष्ण यह संसार प्रेममय है और इस सृष्टि में जहां-जहां करुणा और प्रेम है, वहां तुम हो और वहां मैं भी रहा करूंगी।"
राधा जी ने उत्तर दिया।
"यह तुमने कितनी बड़ी बात कह दी राधिके, अब मथुरा मैं जा रहा हूं तो यही सच नहीं है कि तुम मेरी प्रतीक्षा करो, बल्कि सच यह भी है कि मैं भी तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा….।"
"अरे यह कैसे हुआ कृष्ण,पथिक की प्रतीक्षा तो उस मूल स्थान के लोग करते हैं,भला पथिक किसी की प्रतीक्षा क्यों करें?"
"अरे इतना भी नहीं समझी राधिका,जो चला जाता है,उसी की प्रतीक्षा नहीं की जाती है।वह गया हुआ व्यक्ति भी प्रतीक्षा करता है …. मूल स्थान पर अपनी वापसी की। तो क्या मुझे तुमसे पुनः मिलने की प्रतीक्षा नहीं रहेगी?"
"ओह,समझ गई कृष्ण।"
अपनी आंखों में आती जल की बूंदों को रोकते हुए राधा जी ने कहा।
राधा जी ने हाथ जोड़कर आंखें बंद कीं और तभी उन्हें लगा कि उनके हृदय में एक तेज समाहित हो रहा है….. जैसे सचमुच कृष्ण और वे एक ही प्राण से एकाकार हो गए हों।….सदा सदा के लिए।
कृष्ण मथुरा गए
राधिके अकेली रह गईं,
मथुरा में हजारों की भीड़ में
कृष्ण भी अकेले रह गए
लेकिन
राधा और कृष्ण
एक दूसरे के हृदय में
हमेशा के लिए विराजित हो गए,
और
प्रेम के सबसे बड़े स्रोत
कृष्ण से प्रवाहित
प्रेम की वह अजस्र धारा
आज भी प्रवाहित है,
ब्रज मंडल के कण-कण में,
कुंज गली में,
कालिंदी के जल में,
कदंब के पेड़ में,
गायों में,
दूध,माखन- रोटी में,
और
कृष्ण की बांसुरी की धुन
वहां आज भी सुनाई देती है,
जो कह रही है,
"मेरी कभी प्रतीक्षा न करना राधिके,
क्योंकि मैं तुमसे दूर कभी गया ही नहीं,
मैं धरती के किसी भी क्षेत्र में चला जाऊं
पर रहूंगा सिर्फ तुम्हारा,
और जो कभी तुम्हें मेरी स्मृति आए
तो अपने आसपास की हवाओं में बिखरी
बांसुरी की उसी धुन को अनुभूत कर लेना,
विदा मेरी प्रिय राधिके।"
(मेरे आराध्य भगवान श्री कृष्ण और माता राधिका जी के श्री चरणों में समर्पित भगवान कृष्ण के मथुरा जाने से पूर्व की घटना पर मेरी कल्पना व
मन के भावों पर आधारित कथा।)
योगेंद्र