alms in Hindi Moral Stories by प्रवीण कुमार शर्मा books and stories PDF | ख़ैरात

Featured Books
Categories
Share

ख़ैरात

"ख़ैरात"
दीनू से उसकी मां ने पूछा डीलर के पास मिलने गया था; वहाँ कुछ मिला कि नहीं ?
"नहीं मिला माँ ",दीनू ने सिर ना में हिला दिया और उदास होकर बैठ गया.
"क्या कहा उसने"? माँ ने पूछा.
कह रहा था कि हमारा बीपीएल से नाम हट गया है;
"क्यों"? माँ अचानक गुस्से में चिल्लायी.
कह रहा था कि नया सरपंच बना है उसने हटवा दिया है

"ऐसे कैसे हटवा सकता है", माँ तिलमिला उठी.

"दूसरे मौहल्ले का सरपंच भले ही हो लेकिन है तो अपनी बिरादरी का. मैं खुद उससे मिलने जाउंगी पिछले कुछ समय से ये डीलर सड़ा - गला अनाज दे रहा था तब भी हमने कुछ नहीं कहा अब इसने नाम भी हटा दिया और हमारे सरपंच के ऊपर रख दिया. ये ऊँची बिरादरी के लोग न जाने कब तक हमारा खून चूसेंगे?,माँ ने कहा.

माँ अपनी बैसाखी के सहारे उस डीलर के पास पहुंची और बोली ,"क्यों वे डीलर तू समझता क्या है अपने आपको , इतने दिन से हम चुप थे, सड़ा - गला खाके काम चला रहे थे लेकिन अब बहुत सहन कर लिया."

थोड़ी देर बाद दीनू भी वहाँ आ पहुंचा , "मुझे अभी -अभी पता चला है कि ये काम डीलर का नहीं है; डीलर का लड़का लखन अपने कानों से सुन कर आया है इसमें सरपंच का ही हाथ है ; इसलिए अब चुप कर माँ ! अब तो सरपंच को ही देखना है",
दीनू ने लाठी ऊपर की ओर लहराए तिलमिलाते हुए चेहरे से कहा."

"तू नहीं जानता इन ऊँची बिरादारी वालों को ये बहुत ही चालाक और शातिर होते हैं. इसी ने उस भोले भाले सरपंच को बहला फुसला कर बातों में लेकर हमारा नाम अलग करवा दिया है" ,माँ ने डीलर की ओर घूरते हुए कहा.

"इसने मुझसे पिछले महीने की खुन्नस निकाली है पिछले महीने इसने सड़े चावल दे दिए थे तो मैंने कुछ महिलाओं को इकट्ठा करके पूरी बस्ती के सामने इसकी पोल खोल दी थी ; उसी का बदला लिया है इसने आज;माँ ने रूँधे गले से कहा; हम बदनसीबों का कोई सहारा नहीं होता हमारा खोट इतना ही है कि हम अछूतों में पैदा हुए हैं बस."


तभी वहां लखन आ पहुंचा, "ऐसा कुछ नहीं है काकी मेरे दादा ने ना तो तुम्हारा नाम अलग करवाया और न ही सड़ा अनाज अपनी इच्छा से दिया है ; सरपंच के दवाब में आकर ही मेरे दादा को ना चाहते हुए ये सब करना पड़ा.काकी ऊँचा वो नहीं है जो ऊँचे कुल में पैदा हुआ हो आज तो जिसकी लाठी है तो भैंस भी उसी के ही पास रहती
है ".

"मैं कुछ समझी नहीं, बेटा!", माँ कुछ अचरज भरे सुर में बोली .
"अपने मोहल्ले के वोट लेने के चक्कर में उसने वहां के रहीसों का भी नाम हम पर जबरन जुड़वाँ लिया और तुम जैसे गरीबों का नाम हटवा दिया और उस ने ही तुम्हारे मोहल्ले वालों के लिए सड़ा गला अनाज बाँटने को बाध्य किया था . वह अपने वोट खराब नहीं करना चाहता क्यूंकि पहले उसी मोहल्ला ने उसे जितवाया था इसलिए उसने फर्जीवाड़ा करवाकर लिस्ट को अपडेट करवाकर उसमें उसने अपनी बिरादरी के रहीसों का नाम जुड़वा दिया और कई ऊँची विरादरी के लोगों के,जिन्होंने उसके लिए पिछली बार वोट नहीं दिए;नाम हटवा दिए; इसलिए जातपांत को इस पचड़े में शामिल ना ही करे तो बेहतर होगा, काकी!"

लखन के लाख समझाने के बाद भी काकी की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था उसे तो अपने छोटे से परिवार के पेट भरने की ही पड़ रही थी. दीनू के बापू तभी चल बसे जब वह सिर्फ पांच साल का था;माँ ने ही उसका पालन पोषण किया और कभी भी उसे बाप की कमी महसूस नहीं होने दी चाहे खुद ने लाखों कष्ट उठाए पर अपने बच्चे का पेट जरूर भरा. वैसे उनके परिवार में उन दो के अलावा था ही कौन ? जो वह इतना कष्ट ले; पर दो हों या चार पापी पेट को तो भूख लगती ही है ना. इसीलिए ही तो आज उसे इस डीलर के पास आना पड़ा था खराब अनाज से तो भूखा रहना बेहतर है कम से कम सब्र तो रहता है कि घर में कुछ खाने को नहीं है तो चलो भूखे ही सो जाएं पर घर में अनाज हो और पशुओं के खाने के लायक भी ना हो तो नींद भी नहीं आती और खून जले सो अलग.
पांच साल पहले तक तो सब ठीक चल रहा था जब वह टोकरियाँ बना कर न केवल जीविका चला रही थी बल्कि दीनू को सोलह दर्जा पढ़ा भी दिया. पर जब से उसे लकवा मारा है तब से सब खत्म सा हो गया पेट भरने के भी लाले पड़ने लगे हैं. दीनू ने लाख कोशिश कर ली पर जीविका चलाने का उसे कुछ सूझा ही नहीं ; अभी तक. कोई भी उसे काम ही नहीं देता; वो गाँव-शहर सब जगह भटक लिया और माँ पर अब कुछ होता नहीं;रोटियाँ तो मुश्किल से ही बना पाती है; उसकी एक बगल बिल्कुल काम नहीं करती;वैशाखी के सहारे ही चलकर अपनी बची- कुची जिंदगी जी रही है;बिचारी!
दीनू के साथ ही शुरू से सरपंच का लड़का पढ़ता आया है और उसने अभी-अभी लखन से सुना था कि वह कोई अफसर बन गया है तभी तो उसके खून में पहले से लगी आग में और आग लग गयी थी.वह वहां से चुपके से खिसक गया और सरपंच के घर जा धमका उसके तो सीने में आग धधक रही थी.

"ऐ रे सरपंच! असली माँ का दूध पिया हो तो बाहर निकल तुझे आज सिखाता हूं कि भूखों की जठराग्नि में कितनी लपटें उठती हैं आज तू इन लपटों में ही जला देना है; तेरे कई एहसान चुकता करने हैं;अभी तो मुझे".

सरपंच तो वहां नहीं मिला पर उसका लड़का माणिक्या बाहर निकला और दीनू को देखते ही उसका मुँह कसैला हो गया क्योंकि दीनू ने उसे एक भी दर्जे में अपने से आगे नहीं जाने दिया और आज वह अफसर बन गया था परन्तु वह खुद की औकात जनता था.

"और भाई दीनू कैसा है तू ; पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है तेरी; कहीं रोजगार मिला कि नहीं;झुकी हुई नजरों से उसने पूछा".

"पहले मुझे ये बता तेरा दादा कहाँ है ? उसी से बात करनी है मुझे", दीनू ने उसकी बातों को नजरअंदाज करते हुए पूछा.

क्यों क्या काम है उनसे; मुझे ही बता दे! माणिक्या ने पूछा?

नहीं, तेरे दादा से ही बात करनी थी;दीनू ने लगभग उसे घूरते हुए कहा.

तभी सरपंच की गाड़ी वहां आके रुकी.

जैसे ही सरपंच गाड़ी से उतरा तो दीनू उस पर झपट पड़ा और उसकी गलेबान पकड़ ली; "बोल तूने हमारा नाम बीपीएल से क्यूं हटवाया?क्यूं हमें सड़ा अनाज दिलाया?क्यूं हमें दर दर की ठोकर खाने को मजबूर किया?"
एक साथ कई प्रश्न दीनू ने उस सरपंच पर दाग दिए और जब तक वह कुछ बोल पाता उस के गाल पर तमाचा जड़ दिया; सरपंच देखता ही रह गया.

यह दृश्य देखकर इकट्ठी भीड़ भोंचक्की रह गयी इस फटे हाल लड़के ने ये क्या कर दिया? दिन भर उस मोहल्ले में यही चर्चा का विषय बना रहा. सरपंच को उस दिन गुस्सा तो बहुत आया पर राजनितिक कारण की वजह से चुप रहा. अगले दिन उसने उसे बुलावा भेजा लेकिन दीनू नहीं आया. दीनू की माँ अपने बेटे की हरकत सुन कर बहुत उदास हुई.उसे बहुत ही दुःख हुआ यह सुनकर कि उसके लड़के ने बीते दिन सरपंच के तमाचा जड़ दिया.

उसकी माँ ने डीलर के लड़के को खूब गलियां दीं,"ये ऊँची बिरादरी के लोग न जाने कब तक हमारा खून चूसेंगे ? सदियों से चूसते आये हैं पर न जाने कब इनकी प्यास बुझेगी ? बड़े चालाक और शातिर होते हैं ये लोग! मेरा लड़का अपने झांसे में ले लिया और हमें आपस में ही लड़वा रहे हैं", माँ ने रोते हुए लम्बा चौड़ा भाषण दीनू को सुना दिया .

दीनू को भी अपनी करनी पर बड़ा पछतावा हुआ और उसने सोचा कहीं लखन ने कोई जाल तो नहीं फेंका. अब सरपंच से मुझे मांफी मांगने जाना चाहिए हमें आपस में ही नहीं लड़ना चाहिए नहीं तो ये ऊँची बिरादरी वाले हम पर ऐसे ही अपनी हुकूमत चलाते रहेंगे और हमारा शोषण करते रहेंगे. नहीं-नहीं, हम भूखे मर जायेंगे पर अब इन ऊँची बिरादरी वालों की एक न सुनेंगे और ना ही इनकी बातों में आएंगे.

ये सब बातें सोचते हुए दीनू घर से निकल गया और सरपंच के घर की ओर भारी मन से चल दिया. पैर तो आगे बढ़ रहे थे पर उसका मन उसे पीछे की ओर धकेल रहा था और सोचता जा रहा था कि अब मैं किस मुंह से उससे मांफी मागूंगा. मुझे अपने बापू की उमर वाले के साथ ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए था. उसके लड़के से भी मुझे नहीं जलना चाहिए उसकी नौकरी लग गयी तो ये उसकी किस्मत; मेरी नहीं लगी तो ये मेरी किस्मत.तभी उधर से भीखू आता दिखाई दिया जो सरपंच के यहां से ही आ रहा था. भीखू भी उसके साथ ही पढ़ा था. पढ़ने में वह दीनू की बराबर ही होशियार था और उसे भी कोई रोजगार नहीं मिला था.
दीनू ने भीखू से उसका हाल चाल पूछा तो उसने बताया कि हाल चाल तो पहले जैसे ही हैं कुछ भी नहीं बदला है अभी तक रोजगार के लिए ही भटक रहे हैं. "तुझे तो मिल गयी होगी नौकरी तू तो हम सबसे होशियार था, दीनू!", भीखू ने उतसुक्तापूर्वक पूछा .

"अभी तो नहीं मिली यार, भीखू!", दीनू ने उदास मन से कहा.

"मैंने सुना हम नीची बिरादरी वालों को छूट मिलती है नौकरी में",भीखू ने कहा.

"तुझसे कौन कह रहा था ?",दीनू ने आँखों में चमक लाते हुए पूछा .

"लखन कह रहा था मुझसे", भीखू ने उत्साह से कहा.

"वही लखन जो ऊँची बिरादरी का है,डीलर का बेटा!", दीनू ने तुनक कर पूछा ."

"हाँ-हाँ वही कह रहा था, उसका नाम सुन कर तू इतना क्यों तुनक रहा है?" भीखू ने अचंभित होकर पूछा .

" उसी लखन के बच्चे ने ही तो मुझे सरपंच के खिलाफ भड़काया है, ना जाने कितनी उलटी-सीधी बातें भर दी थीं मेरे मन में और कह रहा था की सरपंच ने अपने लड़के को जालसाजी से लगवाया है जबकि ये तो अपनी -अपनी किस्मत है; है न भीखू!", दीनू ने भोलेपन में कहा.

"तू भी कितना भोला है, दीनू! तू जिस अपराध बोध से पीड़ित हो रहा है उसकी तुझे कोई जरुरत नहीं है", भीखू ने उसके भोलेपन पर तरस खाते हुए कहा."

" लखन ने जो कुछ बताया है; सब सच बताया है. माणिक्या की जिसमें नौकरी लगी है उसमें छूट थी तभी तो उसका नंबर आसानी से आ गया जबकि हमें तो पता भी नहीं चला तभी हम रह गए इसमें किस्मत का कोई दोष नहीं है. सरपंच को मालूम था इसलिए उसने अपने लड़के के छूट मिलने के कागज बनवा लिए और आसानी से उसकी नौकरी लग गयी. जात-पांत के चक्कर में हमें नहीं पड़ना चाहिए. अगर ऐसा ही डीलर के मन में कोई जात - पांत को लेकर कपट होता तो वह ऊँची बिरादरी वाले गरीबों का नाम बीपीएल में से क्यूं हटने देता? दीनू ! गरीब की कोई जात-पांत नहीं होती. अमीर तो गरीबों का खून सदियों से चूसते आये हैं और ये सब आगे भी चलता रहेगा. कार्ल मार्क्स ने कहा तो है यह अमीरी - गरीबी की खाई समय के साथ और चौड़ी होती चली जाएगी और आज जो हो रहा है कल भी यही होता रहेगा, भीखू ने दीनू को समझाया.

" मैं अभी अभी सरपंच के ही पास से तो आ रहा हूँ ", भीखू ने कहा.

"सरपंच से तुझे क्या काम पड़ गया?", दीनू ने बेरुखी से पूछा.

"माणिक्या कह रहा था कि उसका दादा यानि सरपंच कुछ पैसे लेकर नौकरी के कागज बनवा सकता है जिससे छूट मिल जाएगी और आसानी से नंबर आ जायेगा. पर ये बड़े लोग किसी के भी सगे नहीं होते मैंने उस सरपंच को पैसे भी दे दिए फिर भी मेरे कागज नहीं बने और हमारे पास जो दो-चार बकरियां थी वो भी इन पैसों की खातिर बेच दीं. अब पेट भरने के भी लाले पड़ गए हैं.अब गया तो कह रहा था कि अभी कुछ कागज रह गए हैं और उन्हें बनवाने के लिए कुछ और पैसों की जरूरत है इसलिए नौकरी चाहिए तो और पैसों का इंतजाम कर ले; अब कहां से पैसे लाऊँ? जबकि लखन का कोई जानकार कह रहा था जो पेशे से वकील है कि नौकरी में छूट तो हमारा अधिकार है और इतनी पढाई करने के बाद तो हमारी बिरादरी में कोई भी बिना नौकरी के नहीं रह सकता. सरपंच नहीं चाहता कि हमारी बिरादरी में और कोई लगे तथा उसकी बराबरी करे वह हमारी बिरादरी वालों में सब पर हुकूमत चलाना चाहता है. इसलिए नौकरी की आस तो अब छूटी हुई सी मान. मैं सरपंच को धमकी दे आया हूँ कि मैं और दीनू लखन के साथ मिलकर उस वकील के पास जा रहे हैं.हमें नौकरी का झांसा देकर जो पैसे हमसे लिए हैं और हमको गुमराह जो किया है उस सब की रिपोर्ट लिखवानी है", भीखू ने रुंधे गले से कहा.

भीखू और दीनू बात कर ही रहे थे कि अचानक एक गाड़ी उनके सामनेआके रुकी. सर्दी की शाम थी दिन भी ढलने को आ गया था और कुछ कोहरे की धुंध भी छाने लगी थी इसलिए गाड़ी में कौन था; ये स्पष्ट दिख नहीं रहा था तभी माणिक्या तेज आवाज में बोला पकड़ लो इन दोनों को और ले चलो दादा के पास. तभी उसके और साथी बोले पहले इनकी धुलाई तो कर लें तेरे दादा को किसने मारा पहले उसको बता फिर दूसरे को देखेंगे. तभी माणिक्या ने दीनू की गलेबान पकड़ ली और एक थप्पड़ रसीद कर दिया और उसके बाद उस पर लात-घूसों की बरसात होने लग गयी जैसे ही भीखू उसे बचाने आया तो उसका भी स्वागत लात-घूसों से हुआ इतने में माणक्या लाठी निकाल लाया और दीनू की तब तक धुनाई की जब तक कि उसके मुंह से खून नहीं निकलने लग गया. दीनू के शरीर पर ताबड़तोड़ लाठी, लात-घूंसे पड़ रहे थे और उसकी आँखों के सामने अन्धेरा सा छा गया. उन दोनों को घायल अवस्था में छोड़ कर वो लोग नौ दो ग्यारह हो गए.

वहां के आसपास के लोग तमाशाबीन बने रहे लेकिन कोई डर के मारे उनकी सहायता करने नहीं आया. दीनू अचेत पड़ा हुआ था जबकि भीखू होश में था पर खड़े होने की स्थिति में नहीं था. शाम और गहराती जा रही थी. ठण्ड बढ़ती जा रही थी दीनू की माँ को चिंता होने लगी तो उसने वैशाखी का सहारा लिया और बाहर निकल गयी. दरवाजे पर खड़े होकर उसने दीनू को आवाज दी सोचा लखन के घर होगा पर लखन ने मना कर दिया.

लखन दीनू की माँ के पास आया और पूछा, "कहाँ गया दीनू , कुछ बता के नहीं गया, काकी?"

" नहीं , बता के इतना गया था कि बाहर जा रहा हूँ; थोड़ी देर में आता हूँ; अभी तक तो आया नहीं; रात होने को आयी", माँ ने उदास होकर कहा .

लखन और दीनू की माँ दीनू की खोज में बाहर निकल गए.

तभी माणिक्या की आवाज आयी,"सुन री बुढ़िया! तेरे बेटे का इंतजाम कर दिया है और साथ में उस रिपोर्ट के लिए जाने वाले भीखू का भी."

"जा उठा ला उसे और इस चमचे को भी साथ में ले जा; इस का भी इंतजाम करना पड़ेगा",माणिक्या ने लखन की ओर घूरते हुए कहा और गाड़ी धूल उड़ाती हुई वहां से चली गयी.

लखन और दीनू की माँ दोनों भीखू के घर की ओर चल दिए क्योंकि वह गाड़ी उधर से ही आके रुकी थी और माणिक्या भी उधर ही इशारा कर रहा था; इसके अलावा लोगों की भीड़ भी उधर ही जा रही थी. थोड़ी देर बाद वे दोनों वहां पहुंच गए. दीनू को अभी होश नहीं आया था. भीखू थोड़ा लखन का सहारा लेके उठा और दीनू की माँ के पास आ गया और फूट फूट कर रोने लगा. अब रात और गहराने लगी, धुंध और बढ़ता जा रहा था और साथ में लोग भी.
भीखू दीनू की माँ से बार-बार मांफी मांग रहा था और कह रहा था,"काकी! काश आज मैं उस सरपंच को रिपोर्ट करने की धमकी नहीं देता और दीनू रास्ते में नहीं मिलता तो दीनू का ये हाल न हुआ होता."

ठण्ड और बढ़ती जा रही थी साथ में ओस बढ़ती जा रही थी और लोगों के आंसू भी. तभी थोड़ी देर बाद गांव का हकीम वहां आ पहुंचा और दीनू की नब्ज टटोलने लगा लेकिन उसकी नब्ज भी ठंडी पड़ गयी.

दीनू की माँ पथरीली आँखों में आस लिए हकीम की ओर देखने लगी लेकिन हकीम ने अपनी आँख झुका दी.

दीनू की माँ जोर से चीखने लगी," अरे ज़माने के आलाकमानो! काश मेरा बेटा आज पढ़ा - लिखा नहीं होता तो मुझे आज ये दिन ना देखना पड़ता. आज कल के पढ़े लिखे होने से तो अनपढ़ होना अच्छा. अनपढ़ कैसे भी अपना पेट भर लेता; मेरे साथ टोकरी बनाना ही सीख जाता तो आज ऐसे नहीं पड़ा होता".

" सरकार! नहीं चाहिए मुझे तेरा दाना पानी और न ही चाहिए मेरे बेटे को अब नौकरी..........नहीं चाहिए तुम्हारी खैरात"!!!!!!! कहते-कहते दीनू की माँ हमेशा के लिए अपने बेटे की बगल में निढाल होकर गिर पड़ी.

(प्रवीण कुमार शर्मा)