soi takdeer ki malikayen - 45 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | सोई तकदीर की मलिकाएँ - 45

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 45

 

45


उस दिन सुभाष घर से बस अड्डे के लिए निकला । कम्मेआना से साढे दस बजे निकली बस करीब डेढ घंटा चली और बारह बजने से पहले ही संधवा बस अड्डे पर जा लगी । कंडक्टर ने पुकारा – कम्मेआना वालो , उतरो भाई जल्दी । संधवा आ गया है । कंडक्टर के पुकारने पर सुभाष बस से उतरा और धीमे धीमे पैदल चलता हुआ हवेली की ओर चल दिया । रास्ते में कई लोग खेतों में काम निपटा कर घर लौट रहे थे , कुछ लोग इधर उधर आ जा रहे थे पर उसका परिचित कोई नहीं था । अनजान गाँव में अनजान लोगों के बीच इस तरह जाते हुए उसे थोङा भय अनुभव हुआ । कम्मेआना होता तो बस अड्डे से अपनी गली तक जाते जाते उसे अब तक लगभग पचासेक लोग मिल चुके होते । किसी को वह माथा टेकता । किसी के पैर छूता । किसी को सतश्री अकाल बुलाता । किसी के अभिवादन का जवाब देता । इस तरह तीन किलोमीटर का रास्ता पता भी न चलता , कब पूरा हो जाता । आज इस गाँव में वह चुपचाप सबकी नजरों से बचता हुआ सिर झुकाए चल रहा था । रास्ता कटने में ही नहीं आ रहा था । पाँव मन मन के हो गये लगते थे । पैर लगभग घसीटता हुआ वह हवेली की ओर जा रहा था । डेढ किलोमीटर का रास्ता कितना लंबा हो गया था कि खत्म होने में ही नहीं आ रहा था और वह इस गाँव में हमेशा के लिए बसने जा रहा था । कुल जमा चार जोङी कपङे , एक परना , दो पगङी और जेब में पाँच सौ रुपए , इतनी जमा पूंजी के साथ वह अपना घर और घर के लोगों का साथ छोङ कर यहाँ चला आया था । यह पागलपन उसका क्या हाल करने वाला है , इसकी उसे कोई चिंता नहीं थी । जैसे गुङ पर मंडराता ततैया उस गुङ में टांगें चिपकने का डर भूल जाता है । वह मर भी सकता है , इससे बेखबर वह गुङ पर बैठ कर उसका स्वाद लेने लगता है , बिल्कुल वही हालत इस समय सुभाष की हुई पङी थी ।
और इस समय वह भोला सिंह के बरांडे में बिछी चारपाई पर खेस लपेटे लेटा हुआ करवटें बदल रहा था । वक्त बहुत बलवान है । महीना भर पहले या सच कहें तो आठ दिन पहले तक क्या वह कभी सोच सकता था कि वह इस तरह घर से बेघर हो कर किसी बेगाने आँगन में रात को लेटा होगा । नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी । माँ , भाई और भाभी उसे रह रह कर याद आ रहे थे ।
उसे याद आया , जब वह छोटा था तो माँ के पास उसकी खाट पर ही सोता था । जब नींद न आती तो माँ कहती , आसमान के तारे गिनो या भेड गिनो । और वह मन ही मन भेड गिनना शुरु कर देता । एक .. दो .. तीन .. ग्यारह .. बारह .. इक्कतीस , बत्तीस और इक्यावन, बावन तक पहुँचते पहुँचते उसकी नाक बजने लगती और वह गहरी नींद में सो जाता । आज उसने फिर से माँ का वह पुराना फार्मूला आजमाने का फैसला किया । उसने मन ही मन गिनना शुरू किया – एक .. दो .. तीन .. चार .. पाँच और पैतीस तक पहुँचते ही वह नींद के आगोश में चला गया ।
अभी उसकी आँख लगे आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि उसे लगा , कोई उसकी चारपाई पर उससे सट कर लेट गया है । उसकी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे हो गई । नींद से जाग कर वह घबरा गया । उसने उठना चाहा पर उसके हाथ पैर उसका साथ ही नहीं दे रहे थे । वह चिल्लाना चाहता था पर उसकी आवाज गले में ही कहीं अटक गयी थी । जूङी चढे मरीज की तरह वह बुरी तरह से कांपने लगा । गाँव की चौपाल पर सुनी भूतों और चुडैलों की सैकङों कहानियाँ इस समय उसके दिमाग में घूम रही थी । उसने सुना हुआ था कि गांव के बाहर वाले पीपल के पेङ पर जुगनू चाचा और तेजो ताई का भूत रहता है जो कुसमय वहाँ से गुजरने पर छाती पर सवार हो जाता है । फिर आदमी बुरी तरह से कांपने लगता है । सयाने को बुला कर झाङ फूंक कराने से ही उस से छुटकारा मिलता है ।उसने खुद सयाने को भूत उतारते देखा था । कभी कभी तो सयाना चिमटे से मारता भी है तो भूत दुहाई करता है । बङी मुश्किल से वह अपने शिकार को छोङ कर जाने को राजी होता है । हे भगवान ये भूत मुझे कहाँ से चिपक गया । क्या चाहता है मुझसे ?
तभी जयकौर की फुसफुसाती आवाज उसके कानों में पङी – डर क्यों रहा है ? ये मैं हूँ , जयकौर ।
सौ वाट का करंट जैसे छू गया हो , बिल्कुल वैसे ही सुभाष उछल कर बैठ गया ।
तू , तू यहाँ , तू यहाँ क्या कर रही है ? वो भी आधी रात को ।
आधी रात को क्या करना चाहिए मुझे , बता तो सही ।
वो तेरा सरदार कहाँ है ?
होगा वहीं सरदारनी के पास चौबारे में और कहाँ जाएगा ?
पर तू जाएगी यहाँ से ? इस तरह आधी रात को तुझे यहाँ आना नहीं चाहिए था ।
तू मेरे लिए दो घंटे का सफर कर के यहाँ हवेली में रहने आ सकता है तो मैं कमरे से यहाँ क्यों नहीं आ सकती ?
कहते कहते जयकौर ने उसका माथा चूम लिया था । पहले से ही घबराए हुए सुभाष की हालत और पतली हो गयी ।
तू जा यहाँ से । किसी ने देख लिया तो बेमौत मारे जाएंगे ।
जयकौर ने अपनी बांहें सुभाष के गले में डाल दी और वक्ष उसकी छाती में गङा दिया ।
तू जा जयकौर यहाँ से – उसने हाथ बांध कर मिन्नत की । प्यास से उसका गला सूखने लगा था । उसने जयकौर को परे हटाया और पानी पीने के लिए उठ कर आँगन में आ गया । उसने नलका चला कर पानी पिया । ढेर सारा पानी पीने के बाद उसने एक लंबा सा सांस लिया ।
नलके के चलने की आवाज से केसर की नींद खुल गयी – कौन है भई । आधी रात को खटाक कौन कर रहा है ? वह हाथ में डंडा थामे आँगन में चली आई ।
मैं हूँ जी , सुभाष । प्यास लगी थी तो पानी पीने आया था ।
क्या बात है , नींद नहीं आ रही क्या ?
नींद तो आ गई थी , मैं पानी पीने के लिए उठा था ।
केसर हँस पङी – होता है , होता है । नयी जगह आकर बङी मुश्किल से नींद आती है और रात को कई कई बार खुल जाती है ।
जी ।
अभी बहुत रात पङी है । जाओ जाकर सो जाओ ।
जी । सुभाष अपनी चारपाई की ओर मुङा ।
केसर भी अपनी कोठरी की ओर चल पङी ।
सुभाष ने बरांडे में जाकर देखा , जयकौर वहाँ से जा चुकी थी । उसने सुख की साँस ली और खेस तान कर सो गया ।

बाकी फिर ...