"जी ठीक है !"
कहकर बिरजू की माँ जैसे ही पलटी उसे रजनी दिखी, हाथों में लोटे से भरा हुआ पानी लेकर बाहर आती हुई।
रामलाल को पानी देकर वह बोली, "अंकल जी, आप बस पाँच मिनट और इंतजार कीजिए। पाँच मिनट बाद हाथ मुँह धोकर आइए, मैं प्रयास करती हूँ।"
और उनके जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही वह जल्दी से आंगन में आ गई जहाँ बाहर से आकर बिरजू की माँ दाल बघार रही थीं।
चावल की हांडी पहले ही वह उतार चुकी थी। उसके नजदीक जाकर रजनी बोली, "आंटी जी, आप आटा कहाँ है बता दीजिए, रोटी मैं बना देती हूँ।"
बिरजू की माँ कसमसाई, "अरे..नहीं नहीं बिटिया, तुम तो रहने ही दो। चुल्ही पर पकाना आसान नहीं होता और फिर तुम इतने रईस घराने से हो, घर में नौकरों की भरमार होगी। तुम्हें चुल्हाचौकी से क्या मतलब रहा होगा ? क्यों खुद को इतना तकलीफ देने की कोशिश कर रही हो ?"
"आंटी जी! आप लोगों की यही बात तो हमें पसंद नहीं आती। हमारा रईस होना हमारा गुनाह है क्या ? ..और फिर हमने कब अपनी रईसी झाड़ी है ? रईस लोग चाँदी के सिक्के नहीं खाते आंटी जी, रोटियाँ ही खाते हैं और इसीलिए रसोई में मेरी शुरू से दिलचस्पी रही है।
आपने सही कहा, नौकरों की पूरी फौज है हमारे घर में, लेकिन जब भी समय मिलता है पापा के लिए रोटियाँ मैं ही पकाती हूँ ...और अंकलजी मेरे लिए पापा जैसे ही हैं। रह गई बात चुल्हे पर बनाने की तो उसमें किसी रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं समझती मैं। बस थोड़ी सी तकलीफ होनी है, थोड़ा धुआँ लगना है... तो आंटी धुएं से तकलीफ तो आपको भी होता होगा,... फिर क्या फर्क पड़ता है कि वह तकलीफ आप उठाये या मैं उठाऊँ ? और फिर अभी ये वक्त की माँग भी है कि मैं आपकी थोड़ी सी मदद कर दूँ तो खाना जल्दी मिल जाए अंकलजी को ।" कहते हुए रजनी मुस्कुराई।
इसके तुरंत बाद ही वह आँगन में आ गई, जहाँ उसने चुल्हे के करीब ही आलू और प्याज एक टोकरी में पड़ा हुआ पहले ही देख लिया था।
कुछ प्याज निकालकर उन्हें छिलने का उपक्रम करती हुई रजनी बोल पड़ी, "अधिक समय नहीं है आंटी ! बताइये सब्जी क्या बनेगी ?"
"आज मुई सब्जी कुछ है भी तो नहीं। तुम इधर आ जाओ। मैं आलू प्याज की मसालेदार सब्जी बना देती हूँ। इनको बहुत पसंद है।" आटे के डिब्बे से बड़ी परात में आटा निकालते हुए बिरजू की माँ बोली।
पाँच मिनट बाद रजनी चुल्हे पर तवा रखकर चौके पर रोटियाँ बेल रही थी।
बिरजू की माँ हंडी में सब्जी चलाकर उसे एक बर्तन से ढँकते हुए बोली, "बेटी ! समझ लो बस अब सब्जी लगभग पक ही गई है। तुम बिरजू के बाबू को बुला दो खाने के लिए, तब तक मैं उनके लिए खाना थाली में लगा देती हूँ। जब वो खाने बैठेंगे, मैं रोटियाँ पका दूँगी। ऐसा है न कि वो गरम रोटियाँ ही खाना पसंद करते हैं।"
वक्त लगभग आधा घंटे गुजर चुका था। रामलाल भोजन करके वापस बाहर जा चुका था।
बिरजू की माँ ने आग्रह करके रजनी के लिए भी भोजन परोस दिया था।
रजनी भोजन करने बैठी। सुबह नाश्ता करने की अभ्यस्त रजनी ने अब तक नाश्ता भी नहीं किया था। उस पर लंबी ड्राइविंग से वह पहले ही थक चुकी थी, लेकिन माँ द्वारा दिये गए संस्कार के चलते उसने रसोई में बिरजू की माँ का हाथ बंटाना जरूरी समझा।
भोजन के लिये पहला कौर उठाते ही अमर का चेहरा उसकी आँखों के सामने नाच उठा। उसके हाथ जहाँ के तहाँ रुक गए।
विचारों में एक बार फिर अमर छा गया।
'सुबह इतनी जल्दी गया है अमर, नाश्ता भी नहीं किया था। उसे भी भूख लगी होगी। पता नहीं भोजन मिला भी होगा उसे कि नहीं ?' फिर जमनादास की याद आते ही वह आश्वस्त हो गई कि उसके पापा भी तो गए हैं उसके साथ सो उसे कोई तकलीफ नहीं होने देंगे। उसके मन ने यह सोचकर इत्मीनान की साँस ली और पहला निवाला उसके मुँह में पहुँच गया।
भोजन करने के बाद अपनी जूठी थाली लेकर आँगन में जाती हुई रजनी को बिरजू की माँ ने टोका, "अरे बेटी ! अब रहने भी दो ! क्यों पाप चढ़ा रही हो मुझ गरीब पर ?"
"पाप ? ?.....कैसा पाप ?" रजनी कुछ न समझने वाले अंदाज में बोली।
"बेटी, यहाँ गाँवों में अतिथि को देवता समान माना जाता है। रसोई में हमारी मदद पहले ही कर चुकी हो, अब बर्तन माँजकर और पाप न चढ़ाओ।" बिरजू की माँ ने बड़ी आत्मीयता से उसे समझाया।
"ऐसा कुछ नहीं होता आंटी,.. और फिर मैं तो आपकी बेटी समान हूँ। क्या यह अच्छा लगेगा कि मैं बैठी रहूँ और आप अकेली काम करें ?.. नहीं बिल्कुल नहीं !" कहते हुए वह आँगन में लगे नल के नीचे बर्तन माँजने बैठ गई।
"बिटिया रानी, तुम शहर में रईसी में पली बढ़ी हो। आज यहाँ हो, कल तुम फिर उसी दुनिया में लौट जाओगी। एक दिन के लिए क्यों तकलीफ करना ? तुम्हें यहाँ की जिंदगी रास न आएगी बेटा ?" उसने फिर से उसे समझाया।
"क्यों रास नहीं आएगी आंटी ? क्या मैं आपको कहीं से कमजोर नजर आती हूँ ? क्या आपने मेरे अंदर रईसों के चोंचले महसूस किए जो ये तथाकथित रईस हमेशा दिखाते रहते हैं ? दूसरों को अक्सर जताते रहते हैं कि हम खानदानी रईस हैं ...और फिर रही बात मुझे यहाँ की जिंदगी रास न आने की, तो आंटी ! आपने प्रेम की शक्ति को प्रत्यक्ष देखा है, महसूस किया है। याद कीजिये जब अमर के पापा पहली बार यहाँ गाँव आये थे और यहीं के होकर रह गए थे। वो तो यहाँ इस कदर रच बस गए थे कि यहाँ से जाना ही नहीं चाहते थे। क्या वो रईस नहीं थे ?"
बर्तन माँजकर व धोकर रसोई में रखते हुये रजनी ने आगे कहा, "आंटी जी ! दरअसल अब मैंने फैसला कर लिया है कि अमर के साथ ही रहना है, वह चाहे जहाँ रहे, जिस हाल में रहे। यदि उसे गाँव में रहना पसंद है तो मैं उसके साथ यहाँ भी सुख से रह लूँगी। यहाँ जो प्यार, ममता व अपनापन मुझे मिल रहा है वह नौकरों की भीड़ और आधुनिक सुख सुविधाओं से सुसज्ज अपने बंगले में भला मुझे कैसे मिलेगा आंटी ?.. और इंसान की फितरत होती है कि उसके पास जो चीज न हो उसका मन उसी के लिए तरसता रहता है। धनदौलत सुख सुविधाओं को बचपन से ही देखती आई हूँ इसलिये अब इनके लिए मेरे मन में कोई आकर्षण नहीं है। मुझे तो कमी है अपनेपन के अहसास की, प्यार की.. और प्यार मुझे मिला है अमर के रूप में और अपनेपन का अहसास मुझे आप सभी परिवारवालों से मिलकर हो रहा है।.. और क्या चाहिए मुझे ?"
"बस बस ! अब और भाषण नहीं।" कहते हुए बिरजू की माँ हँस पड़ी, "ये आजकल की नई पीढ़ी भी न ऐसी ही है। इनसे कोई बातों में जीत सकता है भला ? अब जाओ और बैठके में थोड़ी देर आराम कर लो। थक गई होंगी तुम।"
अंतिम वाक्य बिरजू की माँ ने इतने प्यार व मनुहार से कही कि वह बिना एक पल गँवाये वहाँ से तुरंत ही बैठक में चली आई जहाँ एक खटिये पर रामलाल लेटे हुए थे।
उससे थोड़ी दूरी पर बिछी हुई एक दूसरी खटिये पर बैठ कर वह अपने मोबाइल पर कुछ देखने में व्यस्त हो गई।
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जमनादास का हाथ थामे हुए गोपाल ने दफ्तर के उस कमरे में प्रवेश किया जहाँ अमर और बिरजू पहले ही पहुँचकर उनका इंतजार कर रहे थे। कमरे में छाई खामोशी को देखकर यही लग रहा था जैसे दोनों ने गोपाल के बारे में साधना से कोई बात न किया हो। कमरे में छाई खामोशी देखकर एक बार तो जमनादास का माथा ठनका लेकिन फिर यह सोचकर कि शायद अमर ने सरप्राइज देने की नीयत से साधना को गोपाल के बारे में कुछ न बताया हो वह सामान्य हुआ और गोपाल के साथ उस जगह पहुँच गया जहाँ मेज के पीछे अपनी कुर्सी पर बैठी साधना उनकी ही तरफ देख रही थी।
जमनादास पर नजर पड़ते ही वह हडबडाकर उठ खड़ी हुई और मेज के पीछे से निकलकर उनकी तरफ बढ़ी लेकिन साथ ही चल रहे गोपाल पर नजर पड़ते ही वह ठिठक गई। पल भर के लिए उसके चेहरे पर कई भाव आए और गए मगर उसकी निगाहें एकटक गोपाल पर ही टिकी रह गईं।
सपाट भावहीन चेहरा और एकटक खुद को निहारती साधना की निगाहों का सामना गोपाल अधिक देर तक न कर सका। उसकी खामोशी उसे चुभने लगी। तड़प उठ वह।
अचानक आगे बढ़ा गोपाल। साधना के दोनों हाथों को थामते हुए उसकी आँखें बरस पड़ीं, " ......साधना ....!" भर्राये गले और काँपते हुए उसके होठों से बस इतना ही निकल सका और अपने घुटनों पर झुका गोपाल जोर से फफक पड़ा। जमनादास की आँखें भी डबडबा आई थीं गोपाल की अवस्था देखकर।
उसकी निगाहें साधना के चेहरे पर जमी हुई थीं जिन्हें सपाट व भावहीन देखकर उसका कलेजा बैठा जा रहा था और चेहरे पर चिंता के बादल गहराने लगे। जो वहाँ हो रहा था उसकी कल्पना से परे ही था। साधना का व्यवहार बिल्कुल भी उसके गले नहीं उतर रहा था।
जिसके एक झलक की आस लिए उसका एक एक पल कटता रहा हो उसी के आने के बाद वह इस कदर भावशून्य कैसे रह सकती है ? क्या चल रहा है उसके दिमाग में ? जैसे कई सवाल जमनादास के मगज में शोर मचा रहे थे और उसकी निगाहें गोपाल और साधना की हर हरकत का सूक्ष्म निरीक्षण कर रही थीं।
क्रमशः