वीर जीवन में एक बार और कायर हर रोज मरता है।
द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी ने हॉलैण्ड के ऊपर हमला बोल दिया। हॉलैण्ड एक छोटा मुल्क है, ऊपर से वहां की जमीन
समुद्र से नीची है। समुद्र ऊंचा है और जमीन नीची है जिसके चलते हॉलैण्ड को दीवारें बनवाकर समुद्र से रक्षा करनी पड़ती है, जिसमें हॉलैण्ड की आधी ताकत समुद्र से बचाव करने में खर्च हो जाती है। दूसरे हॉलैण्ड के पास बड़ी फौजें भी नहीं हैं, हवाई जहाज नहीं है, युद्ध साम्रगी आदि भी नहीं है। अतः जर्मनी ने तय किया कि हॉलैण्ड को तो मिनटों में पराजित किया जा सकता है। हमला हुआ तो हॉलैण्ड ने सोचा गुलाम रहने से बेहतर होगा लड़ते हुए मर जाना। उन्होंने एक तरकीब निकाली जिस गांव पर जर्मनी का हमला हो उस गांव की दीवार तोड़ दी जाए ताकि जर्मन सैनिदोकों के साथ पूरा गांव पानी में डूब जाए। हॉलैण्ड की तरकीब काम कर गई। अंततः हिटलर ने कहा, “आज मुझे पता चला कि संगीनों, बंदूकों और बमों से भी ज्यादा ताकतवर होती है लोगों की आत्मा, उनके इरादे अगर लोग मरने को तैयार हैं तो उनको गुलाम बनाना नामुमकिन है।
प्राचीन काल में दो एशियाई देश चीन तथा भारत ने अनेक मनीषियों एवं दार्शनिकों को जन्म दिया, जिनके दर्शन तथा शास्त्र ने संपूर्ण विश्व की सैद्धांतिक विचारधार को नई गति एवं दिशा प्रदान करके जड़ों तक प्रभावित किया, जिससे यह साबित होता है कि ये लोग अपने समय से बहुत आगे थे।
इनमें पहला नाम है— सुन त्ज़ू का, जिन्होंने रणनीति को नए सिरे से परिभाषित किया, जिसके परिणामस्वरूप सुरक्षा विषय को नई दिशा एवं बल मिला तथा दूसरा नाम है— आचार्य चाणक्य का, जिन्हें अपने अद्वितीय राजनैतिक ज्ञान एवं कूटनीति के चलते आज भी राजनीति का गुरु माना जाता है। दूसरे शब्दों इन दोनों को समय एवं ज्ञान की विशेष उपज कहा जा सकता है।
सुन त्ज़ू का जन्म लगभग 2500 वर्ष पूर्व चीन में हुआ था। तब चीन एक एकीकृत राष्ट्र नहीं था बल्कि छह अलग-अलग राज्यों में बिखरा हुआ था, जो हमेशा आपस में लड़ते-झगड़ते रहते थे। इसी प्रकार आचार्य चाणक्य का जन्म भी आज से लगभग 2300 वर्ष पूर्व भारत में हुआ था, तब भारत भी अनेक राज्यों एवं गणराज्यों में बंटा हुआ था, जो हमेशा एक दूसरे के साथ लड़ाई करते रहते थे। अतः अराजकता एवं अनिश्चितता के बीच भारत तथा चीन दोनों देशों में खुद को एकीकृत करने के अनेक प्रयास हुए। भारत का यह सपना आचार्य चाणक्य के शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य ने 321 ई.पू. में साकार किया तथा चीन का सपना सुन त्ज़ू की राजनीतियों का पालन करते हुए 221 ई. पू. में किन शिहुआंग द्वारा पूरा किया गया। सुन त्ज़ू तथा आचार्य चाणक्य दोनों ही युद्ध के खिलाफ थे। परंतु युद्ध को शांति एवं व्यवस्था की स्थापना के रूप में पसंद भी करते थे। सुन त्ज़ू ने बदले की भावना अथवा राजा की सनक को पूरा करने के लिए किए जाने वाले युद्ध का खुलकर विरोध किया है। सुन त्ज़ू के अनुसार “युद्ध देश एवं प्रजा की रक्षा की खातिर लड़ा जाए तथा कम से कम समय में समाप्त किया जाए ताकि अनावश्यक आर्थिक तथा मानवीय हानि को नियंत्रित किया जा सके।” उधर आचार्य चाणक्य एक ओर जहां अर्थव्यवस्था, कानून, सुरक्षा तथा राजकाज से संबंधित अनेक पहलुओं की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर लम्बे-लम्बे युद्ध अभियानों को राष्ट्रहित के लिए घातक एवं विनाशकारी मानते हैं, तभी तो 'सुन त्ज़ू' तथा 'चाणक्य' दोनों कूटनीति, गठबंधन तथा सत्ता के संतुलन के द्वारा शांति बनाए रखने की सलाह भी देते हैं। सुन त्ज़ू के अनुसार “युद्ध लड़ना और जीतना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उसे टालना। लड़े बिना युद्ध को जीतना आपकी सबसे बड़ी सफलता है।” अतः शांति एवं व्यवस्था स्थापित करनी हो या फिर सैन्य अभियान का संचालन, दोनों ही अवस्थाओं में सुन त्ज़ू तथा आचार्य चाणक्य के सुझाव सामायिक तथा प्रासंगिक हैं।