Agnija - 117 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 117

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अग्निजा - 117

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-117

इलाज, अच्छा खाना-पीना और खासतौर पर प्रेम, दया पाकर इस कुत्ते में बहुत फर्क पड़ गया। भावना, यदि काम हो तो ही घर के बाहर निकलती थी। केतकी फोन करके उसका हालचाल पूछती रहती थी। लेकिन दोनों कुत्तों को संभालते समय कभी कभी गड़बड़ हो जाती थी। भावना समझ नहीं पा रही थी कि क्या किया जाए।

उस दिन शाम को केतकी भी इसी तरह के विचारों में खोयी हुई थी। स्कूल के गेट के पास जीतू आकर खड़ा था। उसकी ओर देखे बिना ही केतकी ने स्कूटर स्टार्ट कर दिया। उसका ध्यान नहीं था, लेकिन जीतू ने भी एक रिक्शा रुकवाया और वह उल्टी दिशा की ओर निकल गया। केतकी को किसी भी हाल में जीतू का विचार अपने दिमाग से बाहर निकालना था। उसने भावना को फोन किया, ‘पिल्लू कैसी है?’

‘केतकी बहन कौन सा?’

‘अरे नए के बारे में पूछ रही हूं न?’

‘नया मजे में है...नया और पुराना...छोटा और बड़ा...कितना अजीब लगता है न ये कहना?’

‘यानी?’

‘यदि अपना भी नाम नहीं होता और कोई इस तरह छोटी, बड़ी, बीच की, मोटी, पतली, काली कहकर पुकारता तो?’

इस सवाल से केतकी भूतकाल मे पहुंच गयी। उसका नाम भी नाना ने रख दिया तो ठीक, वरना बाप, शांतिदादी या किसी और को भला कहां चिंता थी? भावना ने केतकी को झकझोरा,‘कहां खो गयी? ’

‘कहीं नहीं। नाम रखना चाहिए। तुम्हें कुछ सूझ रहा है क्या?’

‘मुझे टॉमी, टोनी, रॉनी ऐसे नाम नहीं रखना है। लेकिन मेरे मन में एक अफलातून आइडिया है।’

‘तो बोलो जल्दी ...’

‘दोनों के नाम में केतकी का ‘क’ होना चाहिए। ’

‘अरे, उसकी क्या आवश्यकता है?’

‘मुझे है। मेरे बस में होता तो मैं भी भावना का भावक, भावकी, भावकु...या ऐसा ही कुछ कर लेती...’

‘हे भगवान, ये लड़की तो एकदम पागल है...ठीक है, तुम्हें जो करना हो सो करो...’

भावना ने तुरंत एक कागज की थैली सामने रखी। ‘इसमें से दो चिट्ठियां निकालो।’

केतकी ने हंसते हुए दो चिट्ठियां उठा लीं और भावना को दे दीं। भावना ने उसमें लिखा हुआ पढ़ा, ‘कीकू। ठीक... अब दूसरी बड़ी थैली मे से दो चिट्ठियां निकालो। पहला शब्द कुतिया के लिए।’

केतकी ने एक चिट्ठी उठायी, ‘नी..’।

भावना ने ताली बजाते हुए कुतिया को उठा लिया, ‘आज से तुम्हारा नाम निकी...ओके?’ और निकी खुश होकर भौंकने लगी। उसकी आवाज सुनकर कुत्ता भागते हुए आया। और वह अपनी गर्दन लंबी करके शांति से सबके सामने बैठ गया मानो उसके साथ बहुत बड़ा अन्याय हो गया हो। केतकी ने भावना को आदेश दिया, ‘दूसरी चिट्ठी तुम उठाओ और बताओ कि उसमें कौन सा अक्षर है...’

भावना ने चिट्ठी उठायी, खोली और बोली, ‘पु... यानी इसका नाम पुकु...चलेगा न दोस्त?’

पुकु लड़ियाते हुए अपने पैर चाटने लगा।

केतकी और भावना अब निकी-पुकुमय हो गयी थीं। उन्होंने दो केक मंगवाकर काटे। दोनों को खिलाकर खूब सारे फोटो खींचे। केतकी ने ये फोटो फेसबुक पर अपलोड किए तो देखते-देखते 1034 लाइक्स और 382 कमेंट्स आ गये। कुछ सनकी लोग नीकी-पुकु को शुभकामनाएं देने के बजाय केतकी की फोटो की तारीफ कर रहे थे।

चारों का जीवन मजे से कट रहा था। कम से कम ऊपर से देखने पर तो ऐसा ही लग रहा था लेकिन केतकी को किसी बात की कमी महसूस हो रही थी। ‘कुछ लोग मेरी तरफ तिरस्कार से देखते हैं, तो कुछ सहानुभूति से...मुझे ये दोनों ही पसंद नहीं। कोई मुझ पर नाराजगी जताये, ये भी अच्छा नहीं लगेगा और कोई मुझ पर दया दिखाए ये भी मंजूर नहीं। मुझे अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व चाहिए। मुझे मेरी पहचान चाहिए। कोई खास पहचान। लेकिन वह कैसे मिलेगी? क्या किया जाए?’ इसने इस पर बहुत विचार किया। चिंतन किया। आखिर वह सोचते-सोचते थक गयी। उठकर बेसिन के पास गयी और चेहरे पर पानी मारा। रुमाल से मुंह पोंछते हुए आईने में अपना चेहरा देखा। और बड़ी देर तक देखती रही। उसके चेहरे पर खुशी झलक गयी। बाएं हाथ से चुटकी बजाते हुए वह बोली, ‘वाह, क्या आइडिया है..’ उसी समय भावना वहां आ गयी। ‘केतकी बहन, अब मैंने सबकुछ फटाफट और संक्षेप में करना शुरू किया है।’

‘मतलब?’

‘देखो, स्कूल की पिकनिक जा रही है शिमला-मनाली। दस दिनों के लिए। मैं तुमसे पूछूंगी, तुम हां कहोगी. मैं नाम लिखवाऊंगी, उससे अच्छा मैंने पहले ही अपना नाम लिखवा दिया है. प्लीज, पुकु-निकी को इतने दिनों तक तुम्हें संभालना होगा। अकेले...’

केतकी कुछ बोली नहीं। उसने केवल एक स्माइल दी। फिर से आईने में देखकर उसने अपने दोनों हाथ अपने बिना बालों वाले सिर पर फेरने लगी।

भावना के पिकनिक पर चले जाने के बाद केतकी ने एक अलग ही कदम उठाया। सच कहा जाए तो यह एक तरह से असंभव ही था, बहुत पीड़ादायक था। न भूतो न भविष्यति ऐसा था। लेकिन केतकी कहां झुकने या डरने वाली थी। वैसे भी उसके दिन-रात तो वेदना झेलते हुए ही गुजर रहे थे। इसमें कष्ट था लेकिन मन में आनंद की लहरें उठ रही थीं। कष्ट होक भी वह प्रसन्नता का अनुभव कर रही थी। किसी ने कभी सोचा भी नहीं होगा, ऐसा उसके मन में आया। किसी ने किया न हो, ऐसा उसने किया था। लोग क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे? ऐसे सारे सवाल उसने किनारे कर दिये थे। वेदना तो असहनीय थी लेकिन आत्मविश्वास आइफल टॉवर जितना ऊंचा था। दस दिवसों की इस प्रक्रिया के बाद केतकी को संतोष हुआ। कुछ हासिल करने जैसी अनुभूति हो रही थी। और दस दिनों की पिकनिक पूरी करने के बाद भावन जब घर लौटी तो दरवाजा खोलते ही केतकी को देखकर अचंभे में वहीं खड़ी रह गयी। केतकी को देखकर उसे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। वह अपनी आंखें मसलने लगी। केतकी ने हंसकर उसका हाथ पकड़ा और उसे अंदर खींच लिया। वह अपनी ट्रॉली बैग खींचते हुए अंदर आयी।

‘ केतकी बहन...ये क्या? कैसे किया ये?’

‘पांच मिनट बैठो शांति से...’

‘नहीं, एक मिनट का भी धीरज नहीं है मुझमें...जल्दी बताओ...ये सब क्या है? कैसे हुआ? कहां किया? किसके पास किया?...मुझे जल्दी से बताओ...प्लीज’

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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