Danveer Karna in Hindi Biography by Gurpreet Singh HR02 books and stories PDF | दानवीर कर्ण

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दानवीर कर्ण



सूर्य पुत्र कर्ण
कर्ण की वास्तविक माँ कुन्ती थीं और कर्ण और उनके छ: भाइयों के धर्मपिता महाराज पांडु थे। कर्ण के वास्तविक पिता भगवान सूर्य थे। कर्ण का जन्म पाण्डु और कुन्ती के विवाह के पहले हुआ था। कर्ण दुर्योधन का सबसे अच्छा मित्र था और महाभारत के युद्ध में वह अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ा।

करण हरा नही था उसे हराया गया था
वरना जो अपने बनो से अर्जुन का रथ हिला देता था जिस पर भगवान विराजवान थे उसके लिए अर्जुन का वद क्या था उसको हराया गया चाल से

महाभारत में एक सबसे रोमांचित और सबको अपनी ओर मोहित करने वाला किरदार था जिसका नाम था कर्ण. सूर्य पुत्र कर्ण एक महान योद्धा और ज्ञानी पुरुष थे. आज से लगभग दो दशक पहले महाभारत लिखी गई थी, तब से अब तक जब भी उसकी बात होती है तो ज्यादातर लोग पांडव व कौरवों में से अर्जुन, दुर्योधन, दुर्शासन की बात करते है. बहुत कम लोग कर्ण के बारे में बात करते है और कम लोग ही इनके जीवन के बारे में जानते है. आज हम आपको कर्ण के जीवन से जुडी रोचक बातें करीब से बतायेंगें.

महाभारत में जितना मुख्य किरदार अर्जुन का था, उतना ही कर्ण का भी था. कर्ण को श्राप के चलते अपने पुरे जीवन काल में कष्ट उठाने पड़े और उन्हें वो हक वो सम्मान नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे. कर्ण एक क्षत्रीय होते हुए भी पुरे जीवन सूद्र के रूप में बिताया और युधिस्थर, दुर्योधन से बड़े होने के बावजूद कर्ण को उनके सामने झुकना पड़ा।

महर्षि दुर्वासा द्वारा दिए वरदान की कथा और कर्ण का जन्म -
एक बार कुंती नामक राज्य में महर्षि दुर्वासा पधारे. महर्षि दुर्वासा बहुत ही क्रोधी प्रवृत्ति के ऋषि थे, कोई भी भूल होने पर वे दंड के रूप में श्राप दे देते थे, अतः उस समय उनसे सभी लोग भयभीत रहते थे.

कुंती राज्य की राजकुमारी का नाम था – कुंती. राजकुमारी कुंती बहुत ही शांत, सरल और विनम्र स्वभाव की थी. अपने राज्य में महर्षि दुर्वासा की आगमन का समाचार सुनकर राजकुमारी कुंती ने उनके स्वागत, सत्कार और सेवा का निश्चय किया और मन, वचन और कर्म से इस कार्य में जुट गयी. महर्षि दुर्वासा ने लम्बा समय कुंती राज्य में व्यतीत किया और जितने समय तक वे वहाँ रहें, राजकुमारी कुंती उनकी सेवा में हमेशा प्रस्तुत रही. उनकी सेवा भावना से महर्षि दुर्वासा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने राजकुमारी कुंती को “ वरदान स्वरुप एक मंत्र दिया और कहा कि वे जिस भी देवता का नाम लेकर इस मंत्र का जाप करेंगी, उन्हें पुत्र की प्राप्ति होगी और उस पुत्र में उस देवता के ही गुण विद्यमान होंगे.” इसके बाद महर्षि दुर्वासा कुंती राज्य से प्रस्थान कर गये.

पुराणों के अनुसार महर्षि दुर्वासा के पास भविष्य देखने की शक्ति थी और वे जान गये थे कि राजकुमारी कुंती का विवाह कुरु कुल के महाराज पांडू से होगा और एक ऋषि से मिले श्राप के कारण वे कभी पिता नहीं बन पाएँगे. इसी भविष्य की घटना को ध्यान में रखते हुए महर्षि दुर्वासा ने राजकुमारी कुंती को इस प्रकार मंत्रोच्चारण द्वारा पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया ताकि वे कुरु कुल को उसका उत्तराधिकारी दे सके.

जिस समय महर्षि दुर्वासा ने राजकुमारी कुंती को यह वरदान दिया था, उस समय उनकी आयु अधिक नहीं थी और इस कारण वे इतनी समझदार भी नहीं थी. अतः उन्होंने महर्षि दुर्वासा द्वारा प्राप्त वरदान का परिक्षण करना चाहा और उन्होंने भगवान सूर्य का नाम लेकर मंत्र का उच्चारण प्रारंभ किया और कुछ ही क्षणों में एक बालक राजकुमारी कुंती की गोद में प्रकट हो गया और जैसा कि ऋषिवर ने वरदान दिया था कि इस प्रकार जन्म लेने वाले पुत्र में उस देवता के गुण होंगे, यह बालक भी भगवान सूर्य के समान तेज लेकर उत्पन्न हुआ था. इस प्रकार बालक कर्ण का जन्म हुआ. इस प्रकार कर्ण की माता कुंती और पिता भगवान सूर्य थे.

राजकुमारी कुंती द्वारा बालक कर्ण को त्याग देने का निर्णय:
जिस समय कर्ण का जन्म हुआ, उस समय राजकुमारी कुंती अविवाहित थी और बिना विवाह के पुत्र होने के कारण वे राज्य में अपनी, अपने पिता की, अपने सम्पूर्ण परिवार और राज्य की प्रतिष्ठा और सम्मान के प्रति चिंतित हो गयी और भगवान सूर्य से इस प्रकार उत्पन्न हुए पुत्र को वापस लेने की प्रार्थना करने लगी. साथ ही वे अपने कौमार्य [ Virginity ] के प्रति भी चिंतित थी. तब भगवान सूर्य ने उन्हें आश्वस्त किया कि इस प्रकार पुत्र के जन्म से उनके कौमार्य को कोई क्षति नहीं पहुँचेगी क्योंकि भगवान सूर्य इस पुत्र के जैविक पिता [ Biological Father ] नहीं हैं. परन्तु वे इस पुत्र को वापस नहीं ले सकते थे क्योंकि वे महर्षि दुर्वासा द्वारा दिए गये वरदान से बंधे हुए थे और वरदान को पूरा करने हेतु विवश भी थे. इस स्थिति में राजकुमारी कुंती ने लोक – लाज के कारण पुत्र का त्याग करने का निर्णय लिया. परन्तु वे अपने पुत्र प्रेम के कारण उसकी सुरक्षा हेतु चिंतित थी. इस कारण उन्होंने भगवान सूर्य से अपने पुत्र की रक्षा करने की प्रार्थना की, तब भगवान सूर्य ने अपने पुत्र की सुरक्षा के लिए उसके शरीर पर अभेद्य कवच और कानों में कुंडल
प्रदान किये, जो इस बालक के शरीर का ही हिस्सा थे. इन्ही कुण्डलो के कारण इस बालक का नाम कर्ण रखा गया.

सारथी अधिरथ द्वार कर्ण को पुत्र रूप में पालना :
जब राजकुमारी कुंती अपने पुत्र कर्ण की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हो गयी, तब उन्होंने बड़े ही दुःख के साथ इस प्रकार जन्मे अपने नवजात बालक को एक टोकरी में रखकर गंगा नदी में बहा दिया. इस प्रकार बहते – बहते यह हस्तिनापुर नगरी पहुँच गया और इस प्रकार अधिरथ नामक एक व्यक्ति को नदी में टोकरी में बहकर आता हुआ बालक दिखाई दिया और इस व्यक्ति ने इस बालक को अपने पुत्र के रूप में अपनाया. यह व्यक्ति हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र का सारथी [ रथ – चालक था. अधिरथ और उनकी पत्नि ‘राधा’ ने बड़े ही स्नेह के साथ इस बालक को अपनाया और अपने पुत्र के रूप में इस बालक का पालन पोषण किया और इस प्रकार बालक कर्ण को माता – पिता प्राप्त हुए और जन्म लेते ही उन्होंने इस संघर्ष का सामना किया.
कर्ण अंग देश के राजा थे, इस कारण उन्हें अंगराज के नाम से भी जाना जाता हैं. आज जिसे भागलपुर और मुंगर कहा जाता हैं, महाभारत काल में वह अंग राज्य हुआ करता था. कर्ण बहुत ही महान योध्दा थे, जिसकी वीरता का गुणगान स्वयं भगवान श्री कृष्ण और पितामह भीष्म ने कई बार किया. कर्ण ही इकलौते ऐसे योध्दा थे, जिनमे परम वीर पांडू पुत्र अर्जुन को हराने का पराक्रम था. अगर ये कहा जाये कि वे अर्जुन से भी बढकर योध्दा थे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि इतनी शक्ति होते हुए भी अर्जुन को कर्ण का वध करते समय अनीति का प्रयोग करना पड़ा. अर्जुन ने कर्ण का वध उस समय किया, जब कर्ण के रथ का पहिया भूमि में धंस गया था और वे उसे निकाल रहे थे और उस समय निहत्थे थे.

कर्ण का आरंभिक जीवन –
कर्ण धनुर विद्या का ज्ञान पाना चाहते थे जिसके लिए वे द्रोणाचार्य के पास गए लेकिन गुरु द्रोणाचार्य सिर्फ क्षत्रीय राजकुमारों को इसकी शिक्षा देते थे उन्होंने कर्ण को सूद्र पुत्र कहके बेइज्जत करके मना कर दिया, जिसके बाद कर्ण ने निश्चय किया कि वो इनसे भी अधिक ज्ञानी बनेगा जिसके लिए वो उनके ही गुरु शिव भक्त परशुरामजी के पास गए. परशुराम सिर्फ ब्राह्मण को शिक्षा देते थे, कही परशुराम मना ना कर दे ये सोच कर कर्ण ने उनको झूट बोल दिया कि वो ब्राह्मण है. परशुराम ने उन्हें बहुत गहन शिक्षा दी जिसके बाद वे कर्ण को अपने बराबर का ज्ञानी धनोदर बोलने लगे. एक दिन जब कर्ण की शिक्षा समाप्त होने वाली थी तब उसने अपने गुरु से आग्रह किया कि वो उसकी गोद में लेट कर आराम कर लें, तभी एक बिच्छु आकर कर्ण को पैर में काटने लगा, कर्ण हिला नहीं क्यूनी उसे लगा अगर वो हिलेगा तो उसके गुरु उठ जायेंगे. जब परशुराम उठे तब उन्होंने देखा कि कर्ण का पैर खून से लथपथ था, तब उन्होंने उसे बोला कि इतना दर्द एक ब्राह्मण कभी नहीं सह सकता तुम निश्चय ही एक क्षत्रीय हो. कर्ण अपनी सच्चाई खुद भी नहीं जानता था, लेकिन परशुराम उससे बहुत नाराज हुए और गुस्से में आकर उन्होंने श्राप दे दिया कि जब भी उसे उनके द्वारा दिए गए ज्ञान की सबसे ज्यादा जरुरत होगी तभी वो सब भूल जायेगा.

कर्ण-दुर्योधन की दोस्ती –
दुर्योधन 100 कौरव में सबसे बड़ा था. दुर्योधन अपने कजिन भाई पाडवों से बहुत द्वेष रखता था, वह नहीं चाहता था कि हस्तिनापुर की राजगद्दी उससे भी बड़े पांडव पुत्र युधिस्थर को मिले. कर्ण दुर्योधन की मुलाकात द्रोणाचार्य द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में हुई थी. यहाँ सभी धनुर्वि अपने गुण दिखाते है, इन सब में अर्जुन श्रेष्ट रहता है, लेकिन कर्ण उसे सामने से ललकारता था तब वे उसका नाम जाती पूछते है क्यूंकि राजकुमार सिर्फ क्षत्रीय से ही लड़ते थे. कर्ण जब बोलता है कि वो सूद्र पुत्र है तब सभी उसका मजाक उड़ाते है भीम उसे बहुत बेइज्जत करता है. ये बात कर्ण को अंदर तक आहात करती है, और यही वजह बनती है कर्ण की अर्जुन के खिलाफ खड़े होने की. दुर्योधन ये देख मौके का फायदा उठाता है उसे पता है कि अर्जुन के आगे कोई भी नहीं खड़ा हो सकता है तब वो कर्ण को आगे रहकर मौका देता है वो उसे अंग देश का राजा बना देता है जिससे वो अर्जुन के साथ युद्ध करने के योग्य हो जाता है. कर्ण इस बात के लिए दुर्योधन का धन्यवाद करता है और उससे पूछता है कि वो इस बात का ऋण चुकाने के लिए क्या कर सकता है, तब दुर्योधन उसे बोलता है कि वो जीवन भर उसकी दोस्ती चाहता है. इसके बाद से दोनों पक्के दोस्त हो जाते है.
दुर्योधन कर्ण पर बहुत विश्वास करते थे, उन्हें उन पर खुद से भी ज्यादा भरोसा था. इनकी दोस्ती होने के बाद दोनों अधिकतर समय साथ में ही गुजारते थे. एक बार दोनों शाम के समय चोपड़ का गेम खेल रहे थे, तभी दुर्योधन वहां से चले गए तब उनकी पत्नी भानुमती वहां से गुजरी और अपने पति की जगह वो खेलने बैठ गई. किसकी बारी है इस बात को लेकर दोनों के बीच झगड़ा होने लगा, तब कर्ण भानुमती से पांसा छीनने लगता है, इसी बीच भानुमती की माला टूट जाती है और मोती सब जगह फ़ैल जाते है और उसके कपड़े भी अव्यवस्थित हो जाते है. तभी दुर्योधन वहां आ जाता है और दोनों को इस हाल में देखता है. दुर्योधन कर्ण से पूछता है कि किस बात पर तुम लोग लड़ रहे हो, जब उसे कारण पता चलता है तब वह बहुत हंसता है. इसके बाद भानुमती दुर्योधन से पूछती है कि आपने मुझपर शक क्यूँ नहीं किया, तब दुर्योधन बोलता है कि रिश्ते में शक की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए, अगर शक आ जाये तो रिश्ता ख़त्म होने लगता है. मुझे कर्ण पर पूरा विश्वास है वो कभी मेरे विश्वास को नहीं तोड़ेगा.

कर्ण के अन्य नाम :
महाभारत काल में वे कर्ण नाम से प्रसिद्ध हुए, जिसका अर्थ हैं – अपनी स्वयं की देह अथवा कवच को भेदने वाला

राधेय_राधा का पुत्र होने के कारण

वैकर्ताना-जिसने भगवान इन्द्र को अपने अभेद्य कवच और कुंडल दान दे दिए
जो हिन्दुओं के देवता भगवान सूर्य से सम्बंधित हो.

वासुसेन_जो धन के साथ जन्मा हो सोने के कवच और कुण्डलों के कारण.

अंगराज_अंग राज्य का राजा होने के कारण.

दानवीर_जो व्यक्ति दान देने का स्वभाव रखता हो.

वृषा_जो सत्य बोलता हो, तपस्या में लीन, प्रतिज्ञा का पालन करने वाला और शत्रुओं पर भी दया करने वाला व्यक्ति.

सूतपुत्र_सूत का पुत्र होने के कारण अथवा सारथी / सूत जाति से सम्बंधित होने के कारण.

कौन्तेय-कुंती का पुत्र होने के कारण.

राधे करन _राधा का पुत्र होने के कारण

कर्ण को दानवीर क्यों कहा जाता है ?
एक दानवीर राजा होने के कारण भगवान कृष्ण ने कर्ण के अंतिम समय में उसकी परीक्षा ली और कर्ण से दान माँगा तब कर्ण ने दान में अपने सोने के दांत तोड़कर भगवान कृष्ण को अर्पण कर दिए.

तब कृष्ण ने कर्ण को बुलाया और सोने को बांटने के लिए कहा तो कर्ण ने बिना कुछ सोचे समझे गांव वालों को कह दिया के ये सारा सोना गांव वालों का है और वे इसे आपस में बाँट ले. तब कृष्ण ने समझाया के कर्ण दान करने से पहले अपने हित के बारे में नहीं सोचता. इसी बात के कारण उन्हें सबसे बड़ा दानवीर कहा जाता है.

हिन्दू धर्म ग्रंथों में अपने दानी स्वभाव के कारण 3 लोगों ने बहुत ख्याति प्राप्त की. वे हैं -: राक्षसों के राजा बलि, राजा हरिश्चंद्र और कर्ण. इनका नाम सदैव दूसरों की मदद करने में, साहस में, अपनी दानवीरता में, निस्वार्थ भाव के लिए और अपने पराक्रम के लिए लिया जाता हैं.

अर्जुन एक बार कृष्ण से पूछते है कि आप क्यूँ युधिस्थर को धर्मराज और कर्ण को दानवीर कहते हो, तब इस बात का जबाब देने के लिए कृष्ण अर्जुन के साथ ब्राह्मण रूप में दोनों के पास जाते है. पहले वे युधिस्थर के पास जाते है और जलाने के लिए सुखी चन्दन की लकड़ी मांगते है. उस समय बहुत बारिश हो रही होती है, युधिस्थर अपने आस पास सब जगह बहुत ढूढ़ता है लेकिन उसे कोई भी सुखी लकड़ी नहीं मिलती जिसके बाद वो उन दोनों से माफ़ी मांगकर उन्हें खाली हाथ विदा करता है.इसके बाद वे कर्ण के पास जाते है, और वही चीज मांगते है. कर्ण भी सभी जगह सुखी चन्दन की लकड़ी तलाशता है लेकिन उसे भी नहीं मिलती. कर्ण अपने घर से ब्राह्मण को खाली हाथ नहीं जाने देना चाहता था तब वो अपने धनुष ने चन्दन की लकड़ी का बना दरवाजा तोड़ कर उन्हें दे देता है. इससे पता चलता है कि कर्ण बहुत बड़े दानवीर थे.

महाबली कर्ण ने वैसे तो अनेक दान किये , परन्तु उनके जीवन के दो महत्वपूर्ण दानों का वर्णन निम्नानुसार हैं -:

भगवान इन्द्र को दिया गया दान : पुराणों के अनुसार कर्ण प्रतिदिन अपने पास आए याचकों को मनचाहा दान देते थे, ये उनकी दिनचर्या में शामिल था. महाभारत के युद्ध के समय जब वे अपने स्नान और पूजा के पश्चात् याचको को रोज की तरह दान देने लगे, तब उन याचकों में भगवान इन्द्र अपना रूप बदलकर एक साधु के रूप में सम्मिलित हो गये और उन्होंने दान स्वरुप कर्ण के कवच और कुंडल मांग लिए और कर्ण ने बिना अपने प्राणों की चिंता किये अपने कवच और कुंडल को अपने शरीर से अलग कर उन्हें दान स्वरुप दे दिया. इस प्रसंग में महत्वपूर्ण बात यह थी कि महाबली कर्ण को यह बात पहले ही उनके पिता भगवान सूर्य से पता चल चुकी थी कि भगवान इंद्र अपने पुत्र अर्जुन के प्राणों के मोह वश उनसे इस प्रकार छल पूर्वक कवच और कुंडल का दान मांगने आएंगे और भगवान सूर्य ने अपने पुत्र कर्ण को अपने पुत्र मोह के कारण उन्हें ये दान देने से मना किया. परन्तु कर्ण ने इस प्रकार याचक को खाली हाथ लौटाने से मना कर दिया और अपने कवच और कुंडल सब कुछ जानते हुए भी ख़ुशी से दान कर दिए.
अपनी माता कुंती को दान : कर्ण ने अपनी और पांडु पुत्रों की माता महारानी कुंती को भी अभय दान दिया था. अर्थात् उन्होंने महारानी कुंती को दान स्वरुप ये वचन दिया था कि “ वे हमेशा पांच पुत्रों की माता रहेंगी, उनके सभी पुत्रों में से या तो अर्जुन की मृत्यु होगी या स्वयं कर्ण मारे जाएँगे और वे महारानी कुंती के अन्य चार पुत्रों का वध नहीं करेंगे. ” अपने इस वचन को निभाते हुए उन्होंने युद्ध में अवसर प्राप्त होने पर भी किसी भी पांडू पुत्र का वध नहीं किया और उन्हें भी जीवन दान दिया.

इस प्रकार कर्ण के जीवन से हमें अदम्य साहस, वीरता, दानशीलता, कर्तव्य, वचन – बद्धतता और सदैव धर्म की राह पर चलने की सीख मिलती हैं.