आस्था के तार ह्रदय के साथ जुड़े हुए होतें हैं एवं हमारी आस्था हमारी संवेदना से जुड़ी होती है,हमारे मन का विज्ञान ही आस्था को मान सकता है और समझ सकता है,आस्था प्रार्थना और विश्वास दोनों से ही जुड़ी होती हैं,आस्था में इतनी शक्ति होती है कि ये असम्भव को भी सम्भव बना देती है,ऐसा भी कह सकते हैं कि विज्ञान और धर्म एक दूसरे के पूरक होते हैं, ईश्वर में विश्वास करने के लिए तर्क को नहीं त्यागना पड़ता है क्योंकि तर्क आस्था के साथ जुड़ा होता है,आस्था मन -मस्तिष्क को शांत व संतुलित रखकर हमारा पथ -प्रदर्शन करती है,विश्वास से की गई प्रार्थना ,अंधकार के सारे बंधनों को तोड़ देती है,
जीवन में आस्था का महत्व सर्वोच्च है,आस्था का सामान्य अर्थ विश्वास की चरम सीमा पर स्थापित हो जाना है,आस्था एक परमशक्ति है,ये एक विशेष प्रकार की निष्ठा है जिससे आराधना, उपासना और साधना जुड़े हुए होते हैं, व्यक्तिगत अनुभूतियों में फलित होने वाली क्रियाओं में आस्था का मुख्य योगदान होता है,
व्यक्ति की आस्था उसका नितांत निजी विषय है, उसकी आस्था को किसी को छेड़ने का अधिकार तब तक नहीं होता है जब तक आस्था घर की सीमा में है,जब आस्था घर की चहारदिवारी से बाहर आ जाती है तो वह सामुदायिक विषय-वस्तु बन जाती है,उसके घर के बाहर आने से अनेक लोग प्रभावित होते हैं, ऐसी दशा में उसे सत्य की कसौटी पर कसे जाने की आवश्यकता होती है,
आस्था का अर्थ है किसी विषय-वस्तु के प्रति विश्वास का भाव,साधारण शब्दों में कहें तो ज्ञान के आधार के बिना किसी भी परिकल्पना को सच मान लेना आस्था कहलाता है,परन्तु इसका व्यापक अर्थ समझ पाना अत्यन्त कठिन है क्योंकि किसी परिकल्पना पर विश्वास कर लेने के लिए बुद्धिमता की आवश्यकता नहीं होती, आस्था के विस्तृत रूप को जानने के लिए ज्ञान एवं बुद्धिमता की आवश्यकता पड़ती है,वास्तव में आस्थावान होने का आशय आस्तिक होने से है.....
साधारण मनुष्य जिसे आस्था समझता है वह कभी कभी अंधविश्वास का रुप भी ले लेता है, क्योंकि विश्वास बुद्धि से नीचे होता है,आस्था और विश्वास दो ऐसे शब्द हैं, जिसके आशय एक जैसे प्रतीत होते हुए भी भिन्न होते हैं, ये एक नदी के दो किनारे की तरह हैं जो एक साथ चलते तो हैं किन्तु दोनों का अस्तित्व एक दूसरे के कारण है,लेकिन फिर भी ये एक दूसरे से भिन्न हैं,इन दोनों किनारों को मिलाने के लिए नदी को मिटना पड़़ता है,
विश्वास का जन्म तो मनुष्य के जन्म लेते ही हो जाता है, जन्म लेने के साथ ही उसमें विश्वास आ जाता है कि उसके रोने की आवाज़ सुनकर मां उसे दुध पिलायेगी, विश्वास एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, मनुष्य अपना सारा जीवन इसे के सहारे जीता है, कभी वह अपने जन्मदाता पर, कभी समाज पर तो कभी प्रकृति पर, अपने छोटे-बड़े हर कर्म, हर कदम पर वह विश्वास करता आता है,लेकिन इसके विपरीत आस्था का उदय मनुष्य में उसके जन्म लेने के पश्चात होता है,जीवन के अनुभवों के आधार पर उसकी आस्था निर्मित होती है,कभी कभी आस्था मनुष्य को विरासत में भी मिलती है, साधारण मनुष्य उसी में विश्वास कर लेता है, जिसके विषय में उसके पूर्वज उसे बताते आएं हैं, विश्वास मनुष्य की मूल प्रकृति है, जबकि आस्था उसके संस्कारों का परिणाम होता है.....
असल में बात तो यह है कि आज संसार में लगभग सभी लोग किसी न किसी समस्या से ग्रसित हैं, भौतिक समस्या, शारीरिक समस्या, सामाजिक समस्या, पारिवारिक समस्या, भावनात्मक समस्या से लेकर वैभव की कामना, विलासिता के सपने, सम्मान की भूख, सत्कार की प्यास जैसे अनगिनत कारण हैं जिससे मानव इस मकडजाल में जकडता जा रहा है, वे इस नाशवान शरीर के एक दिन समाप्त हो जाने की सच्चाई को भी झुठलाये बैठे हैं, ऐसे लोग ज्यादा से ज्यादा धन संचय, सम्पत्ति संचय और वैभव संचय कर लेना चाहते हैं ताकि उनका तथा उनके परिवारजनों का भविष्य सुरक्षित हो सके, यह सारा परिदृश्य उन लोगों की देन है जो स्वयं को परमशक्ति के सबसे निकट होने का दावा करते हैं, ऐसे लोग न तो सत्य को जानते हैं और न ही सत्य को जानने देने चाहते हैं, पीड़ित मानवता के हित में काम करने के लिए सभी धर्मों में बहुत से निर्देश दिये गये हैं ,लेकिन ये निर्देश सीमित लोगों के समुदाय तक सिमट कर रह गए हैं,एक समान आचरण करने वालों के हितों को साधने का काम करना ही धार्मिक आचरण है, ऐसा कहकर उन लोगों ने सर्वोच्च सत्ता के निर्देशों को ही विकृत कर दिया है,गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि दूसरों को धर्म की शिक्षा देने वाले स्वयं के लिए तथा अपनों के लिए दोहरे मापदण्ड अपनाते हैं और यह सही नहीं है,आस्था के नाम पर लोगों का शोषण करना अपराध है,किन्तु ऐसे लोंग आस्था के नाम पर लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं और लोग अपनी अकल लगाए बिना बेवकूफ बन रहे हैं,आस्था को प्रायः धर्म के नाम पर जोड़ा जाता है, परन्तु आस्था रखना हमारे जीवन के प्रति सकारात्मक भाव को दर्शाता है,यदि आप आस्थावान नहीं हैं तो आपका आशावान होना भी असम्भव ही होगा, जिस तरह व्यक्ति को स्वस्थ जीवन के लिए आस्तिक होना आवश्यक है उसी प्रकार आस्थावान होना भी अनिवार्य है,इसलिए आस्था के नाम पर द्वेष ना फैलाएं, धर्म प्रेम की शिक्षा देता है द्वेष की नहीं,इस बात को सदा याद रखें,अपनी आस्था का उपयोग जन कल्याण के लिए करें,समाज में अराजकता फैलाने के लिए कतई ना करें.....
आस्था हमारी संस्कृति से जुड़ी होती है और संस्कृति हममें संस्कार विकसित करती है और ये संस्कार हमें एक अच्छा व्यक्तित्व प्रदान करने में सहायता करते हैं,इसलिए आस्था के बिना कोई भी मानव सुसंस्कृत नहीं हो सकता...
समाप्त....
सरोज वर्मा....