श्री रामगोपाल ‘’भावुक’’ के ‘’रत्नाावली’’ कृति की भावनाओं से उत्प्रे रित हो उसको अंतर्राष्ट्री य संस्कृनत पत्रिका ‘’विश्वीभाषा’’ के विद्वान संपादक प्रवर पं. गुलाम दस्तोगीर अब्बानसअली विराजदार ने (रत्ना’वली) का संस्कृेत अनुवाद कर दिया। उसको बहुत सराहा गया।यह संयोग ही है, कि इस कृति के रचनयिता महानगरों की चकाचोंध से दूर आंचलिक क्षेत्र निवासी कवि श्री अनन्तगराम गुप्त् ने अपनी काव्यरधारा में किस तरह प्रवाहित किया, कुछ रेखांकित पंक्तियॉं दृष्टव्यी हैं।
खण्डकाव्य रत्नावली 11
खण्डकाव्य
श्री रामगोपाल के उपन्यास ‘’रत्नावली’’ का भावानुवाद
रचयिता :- अनन्त राम गुप्त
बल्ला का डेरा, झांसी रोड़
भवभूति नगर (डबरा)
जि. ग्वालियर (म.प्र.) 475110
एकादश अध्याय – होतव्यता
दोहा – मौसम परिवर्तन कभी, जनता को दुख देय।
बीमारी फैलन लगे, सबका सुख हर लेय।। 1 ।।
तारा को है ज्वर चढ़ आया। चीख चीख कर मात रुलाया।।
चढ़ा बुखार बहुत ही तेजी। रामू जबहि बुलावन भेजी।।
रामू ज्वर फसली बतालाया। गया तुरत वह औषधि लाया।।
दई दवा मन विनती कीनी। स्वस्थ शीघ्र हो आशा लीनी।।
एक पोटली हमें मिली है। देखा उसमें दवा भली है।।
रामू देख पहिचानन लागे। कछु समझे कछु भूलन लागे।।
बोली रतना लेते जायें। हमरे काम न कोई आयें।।
मन चिन्ता में डूबन लागा। फिर भी पूजा किया न नागा।।
दोहा – नाना कह तारापती, चिल्लाये कर शोर।
खबर भेज कहला दई, आई लौट बहोर।। 2 ।।
वो तो तीरथ करन गये हैं। रामू चक्कर लगा रहे हैं।।
तारा अब प्रलाप में आया। ज्वर तेजी से वह चिल्लाया।।
देख दशा कोई कहने लागे। चित्रकूट भेजो भई आगे।।
अभी खोद कर औषधि लाया। करे ठीक हो प्रभु की दाया।।
तीन दिवस यों बीते जाई। ज्वर में कमी न कुछ भी आई।।
तन पर कुछ अरुणाई आई। जगह जगह बूंदें सी छाई।।
बालक की यह हालत देखी। चेचक के सब लक्षण पेखी।।
अब तो दवा बन्द कर दीनी। मैया देख मनौती कीनी।।
दोहा – हँसिया खटिया तरे धर, द्वारे गाड़ी आग।
छोंक बघारी बंद की, मातन सेवा लाग।। 3 ।।
रामू रतना से यों बोले। अपना स्वास्थ्य भी रखना तौले।।
मुझको जी कर क्या है करना। तारा सुखी रहे यह सपना।।
अगले दिन ही माता दरसी। बड़ी बड़ी बूंदें सी परसी।।
तारा का दुख कोई न जाने। उसका कष्ट वही पहिचाने।।
फलाहार कर दिवस गमावै। कर विनती वह मात मनावै।।
जगदम्वा हे मात भवानी। सुत का कष्ट हरों निज जानी।।
हरको गई बुलावा देने। माता भेंट गवइयन लेने।।
जुरी औरतें भेंटें गावैं। सुत हित इच्छा मन में लावें।।
ला भभूत को तनहि लगावैं। भीगे दौल प्रसाद वटावें।।
दोहा – रतना यह विनती करे, मैया हो आराम।
भूलों को करके छमा, लाज राखियो राम।। 4 ।।
एक तरफ संसार है, राम दूसरी ओर।
जग से मैं तो जुड़ गई, तुम्हैं राम से जोर।। 6 ।।
वाढ़ी सांस विकल हो तारा। चीख चीख निज मात पुकारा।।
भजन बंद कर कानाफूसी। चली औरतन भई महसूसी।।
पांच भजन कह जल्दी करते। है वेचेनी आशा धरते।।
चीख सुनी सुत रतना धाई। देख दशा मन अति दुख पाई।।
घबराईं सब गावनहारीं। गीत बन्द, कर भीजें सारीं।।
कानाफूसी करने लागीं। हरको तब भीतर को भागी।।
आसपास के सुन सब आये। रामू ने उनको समझाये।।
रामू तब भीतर को भागा। देख दशा मन अति दुख लागा।।
तारा का जब हाथ टटोला। दुख से राम राम मुख बोला।।
रामू हरको तुरत बुलाई। भौजी को तुम देखा जाई।।
रतना को बेहाशी आई। तब सबने है टेर लगाई।।
दोहा – रामू भैया सोच मन, तारा को ले लीन।।
संस्कार हित चल दिये, पीछे सब चलदीन।। 6 ।।
रतना को बेहोशी छाई। धनियां गंगासागर लाई।।
छींटा दे दे होश कराया। गई निगाह सूना घर पाया।।
हाय हाय तब टेर लगाई। मुंह से बोला ही नहिं जाई।।
दन्ती बंधी खोल नहिं पाई। पानी डाल होश में लाई।।
गणपति मां बोली यों वानी। राखें प्रभु तिहि भांति रहानी।।
किसका बेटा कौन जमाई। लीला एक राम की छाई।।
जग के हैं सब झूटे नाते। सभी करिश्मा में फस जाते।।
रमजानी बोली सुन बानी। लौट आंय अब शायद स्वामी।।
दोहा – लौट आय संस्कार कर, सभी लोग हैं द्वार।
गणपति जी के पिता ने, समझाया कई बार।। 7 ।।
तुम्हारा ही उपदेस है, करता है सब राम।।
जैसे तुलसी ने भजा, तुम भी लो हरिनाम।। 8 ।।
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शोक गीत
बोलो राम राम राम, बोलो राम राम राम राम।।
सारा जग जादू की पुडि़या, चमत्कार अभिराम।।
अंत समय कोइ काम न आवै, इससे जप लो राम।। बोलो।।
नाम बड़ा नहिं राम बड़ा है, कहते भक्त तमाम।।
वह तो बड़ी मुश्किल मिलता, नामहि करता काम।। बोलो।।
इसीलिये वस नाम बड़ा है, है आराम हराम।।
जिसने जाना उसने माना, यों तो लोग तमाम।। बोलो।।
मन की माया छाई जगत में, लो इसको पहिचान।।
व्यर्थ ‘अनंत’ है कहना सुनना, सब ही है बेकाम।। बोलो।।