खण्डकाव्य रत्नावली 7
खण्डकाव्य
श्री रामगोपाल के उपन्यास ‘’रत्नावली’’ का भावानुवाद
रचयिता :- अनन्त राम गुप्त
बल्ला का डेरा, झांसी रोड़
भवभूति नगर (डबरा)
जि. ग्वालियर (म.प्र.) 475110
सप्तम अध्याय – राजापुर
दोहा – राजापुर के घाट पर, जाके लागी नाव।
बच्चे यों कहने लगे, मैया आगई गॉंव ।। 1 ।।
ऊपर घाट मकान रहावै। सीधे चढ़े शीघ्र पहुंचावै।।
सब बच्चे सामान लियाये। मैया को घर पहुंचा आये।।
हरको नाम इक जोगिन रई। आवत जावत मन मिल भई।।
जनकू जोगी की घरवारी। प्रसव न एकउ भयो विचारी।।
लेकर राय दूसरी राखी। ताकी इक पुत्री है भाखी।।
पति निकाल दीनी तब जेठी। तुलसी शरण लइ घर पैठी।।
स्वाभिमान बस घर नहिं जाई। करै गुजर अपनी जनवाई।।
झाड़फूक के कामै जाने। सबही गांव ताहि सन्माने।।
दोहा – जनसेवा नित प्रित करे, यह था उसका काम।
जो बुलाय तहं जाय के, हरती बाधा ग्राम।। 2 ।।
सुन कर हरको दौरी आई। मुन्ना ले मन में हरषाई।।
करूं याद आये कब रतना। आकर भवन संभाले अपना।।
पग छू कर रतना से बोली। भली आईं निज बाखर खोली।।
गुरू जी गये नींद नहिं आई। का जाने मन कहा समाई।।
इससे तो तुमको गुरू करती। दर्शन कर मोदन मन भरती।।
जो जो सुने सोइ सोइ दौरै। भई भीर रतना के पौरै।।
भागवती गणपति की माता। कहत भई रतनहि समझाता।।
आजकाल मानुष लघुबाता। गुनबुन खूब बढ़ावत ताता।।
दोहा – बहिन वहीदा यों कही, मुझको लगें फकीर।
लक्षन ऐसे ही रहे, सोइ सत्य भई वीर।। 3 ।।
रहो चैन से अपने घर मैं। हमसब तो हैं तुम्हरे संग में।।
दूजी कहन लगी सुन मैया। कुशल वहां पर तुम्हरे भैया।।
पिता तुम्हारे का मन आई। करवो तीरथ उन मन लाई।।
बस यह तारापति पल जावै। चिंता मुझको यही सतावै।।
सुनबोली चिन्ता नहिं आनी। ईश्वर की गति जात न जानी।।
एक हाथ लेता है बोई। दूजे हाथ देत है सोई।।
गोसवामी हनुमंत पधराये। निकट परौसी को संभराये।।
दोहा – सेवा पूजा सोई करें, श्री हनुमत के धाम।
चढ़े चढ़ौती ताहिसे, चलता उनका काम।। 5 ।।
अब मैया राजपुर रहती। आये पुजारी लिये चढ़ौती।।
बोले रतना याहि संभारौ। देखत बोली हक्क तुम्हारौ।।
मेरी चिन्ता मत तुम करियो। सेवा कर मेवा ही भरियो।।
गये पुजारी अपने घर पर। लगी सोचने रतना जीभर।।
ब्राहम्मण पर सोने की झोली। खूब प्रथा पुरखना ने खोली।।
भीख मांगना अति दुख दाई। स्वाभिमान इससे गिर जाई।।
उदर पूर्ति हित भिक्षा मांगे। अपनी सभी प्रतिष्ठा त्यागे।।
इससे बालक क्यों न पढ़ाऊँ। विद्या दाना करूं सुख पाऊँ।।
दोहा – ब्राहम्मण का ही काम यह, अति उत्तम निरधार।।
इससे ही हो जायेगा, मेरा बेड़ा पार।। 6 ।।
अष्टम अध्याय हरको
दोहा – प्रति दिन उठकर सुबह से, करती पूजा पाठ।।
गोस्वामी जी की तरह, बांधा अपना ठाठ।।
पुन तारापति चर्या करती। धनियां आकर जल को भरती।।
हरको फूल चढ़ाने लाती। रतना को भौजी बतलाती।।
धनियां मजदूरिन ले आई। घर की करन सफाई पुताई।।
रतना तब उससे यह बोली। पैसा कहां मत करै ठिठोली।।
अपना काम स्वयं कर लेंगे। धीरे धीरे निपटा लेंगे।।
हरको धनियां रतना तीनो। काम बांट आपस में लीनो।।
बकसा एक काठका रहई। बहुत दिनों से जो नहिं खुलई।।
कई बार हरको कह हारी। मन में सोचत होय दुखारी।।
दोहा – यदि वे आये लौट कर, तो सोचेंगे और।।
ऐसी जल्दी कौन थी, इस पर कीनी गौर।। 2 ।।
एक दिवस की जीत ही, बनी जनम की हार।
नारी का पथ प्रदर्शन, करना है अधिकार।। 3 ।।
जो परित्यक्ता नारी होती। अपना कारज स्वयं संजोती।।
मुझको ऐसे कारज करना। जिससे लांक्षन लगे कोई ना।।
कर विचार बकसा को खोला। रखते जिसमें वस्त्र अमोला।।
हरको को सन्देश सुनाई। इन वस्त्रों को धूप दिखाई।।
त्रय कालों का भाव बतावै। पिछली बातै ध्यान दिलावैं।।
जो जो वस्तु सन्दूकै पाई। सो सो छटनी कर विलगाई।।
थैली एक धरी रह तामें। मुहरें सात रही है जामें।।
इक थैली में दवा दिखानी। ताहू धूप दिखाय सुखानी।।
दोहा – अब केवल पुस्तक रहीं, तब तक हो गई शाम।
कल के ऊपर छोड़ कर, कीना गृह का काम।। 4 ।।
अगले दिन कारज निपटाये। फिर पुस्तक से हाथ लगाये।।
वेद पुरान उपनिषद पाये। कछु ज्योतिष के ग्रन्थ सुहाये।।
हस्त लिखित सब पर निगरानी। धूप दिखाय धरीं सयानी।।
देखत बड़ बड़ाई रत्नावलि। पड़ी रहो सूखी सुमनावलि।।
किस मुहूर्त में तुमको लाया। अब स्पर्श हेतु तरसाया।।
चलौ बनो अब ममेरि सहेली। इक दुख सुख की मात्र अकेली।।
तुम मेरी अरु मैं हूं तेरी। विपिदा काटें बनकर चेरी।।
दोहा – शिक्षा लें इस बात की, कितना कोइ महान।
शेष काम रह जात हैं, जीवन के दरम्यान।। 5 ।।