खण्डकाव्य रत्नावली 1
श्री रामगोपाल के उपन्यास ‘’रत्नावली’’ का भावानुवाद
रचयिता :- अनन्त राम गुप्त
बल्ला का डेरा, झांसी रोड़
भवभूति नगर (डबरा)
जि. ग्वालियर (म.प्र.) 475110
‘’रत्नावली’’ पर एक दृष्टि
बद्री नारायण तिवारी
आज वातानुकूलित कमरों में बैठ कर जो लिखा जा रहा है उसका क्षणिक प्रचार तो मिल जायेगा किन्तु वह रचनायें कालजयी नहीं हो पातीं। भक्तवत्सल श्रीराम पर एक ओर जहॉं जनभाषा में विश्वकवि तुलसी ‘’रामचरित मानस’’ की रचना करके घर घर पहुँच गये – वहीं दूसरी ओर पांडित्य प्रदर्शन में केशव की ‘’रामचन्द्रिका’’ पुस्तकालयों की अलमारी में ही सीमित हो गई।
महापुरूषों के जीवन की कुछ घटनायें इतनी हृदय स्पर्शी होती हैं जो उनकी जीवन धारा को एक नया मोड़ दे देती हैं। आज कालजयी संत कवि गोस्वामी तुलसीदास को उनकी अतिसुंदर पत्नी रत्नावली की एक घटना ने उनको ‘’काम’’ से आसक्त त्याग कर (राम) की ओर समर्पित कर अमरत्ब प्रदान कर दिया।
रत्नावली पर अनेक रचनाकारों ने अपनी लेखनी में संजोने वालों में राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त, महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी (निराला), राष्ट्रकवि पद्मश्री सोहनलाल द्विवेदी, विकल गोंडवी, सुकवि डॉ. लक्ष्मीशंकर मिश्र (निशंक), डॉ. सय्यद महान हसन रिजवी, (पुण्डरीक), श्री दीन मोहम्मद (दीन), श्री जय गोपाल मिश्र फतेहपुरी आदि की काव्य परम्परा की लीक से हट कर चर्चित उपन्यास (मानस का हंस) में रत्नावली का वर्णन श्री अमृत लाल नागर ने प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया है। उसी प्रकार म. प्र. के ग्वालियर जन पद के भवभूति नगर (डबरा तहसील) के श्री रामगोपाल ‘’भावुक’’ ने (रत्नावली) उपन्यास प्रकाशित किया। भावुक जी के भावना प्रधान ‘’रत्नावली’’ उपन्यास ने अपने नाम की सार्थकता प्रदान की। उसी कृति की भावनाओं से उत्प्रेरित हो उसको अंतर्राष्ट्रीय संस्कृत पत्रिका ‘’विश्वभाषा’’ के विद्वान संपादक प्रवर पं. गुलाम दस्तगीर अब्बासअली विराजदार ने (रत्नावली) का संस्कृत अनुवाद करके धारावाहिक प्रकाशन भी कर दिया। उसको बहुत सराहा गया।
यह संयोग ही है, कि इस कृति के रचयिता महानगरों की चकाचोंध से दूर आंचलिक क्षेत्र निवासी कवि श्री अनन्तराम गुप्त ने अपनी काव्यधारा में किस तरह प्रवाहित किया, कुछ रेखांकित पंक्तियॉं दृष्टव्य हैं।
....रतना पितु गृह आगई, तुलसी लौटे आय।
घर सूचना लख चल पड़े, ससुर गृहहिं अकुलाय।।
... घर पर चढ़ पत्नी ढिंग आये। जिसने ताने दिये सुनाये।।
... हाय बाबरी मति भई, दिया तुम्हें उपदेश।
पतनी गुरु नहिं बन सके, बिन गुरु ज्ञान न लेस।।
इसके आगे कवि ने कितनी मार्मिकता से समाज में प्रचलित सामान्य दिनचर्या की तुलना करते हुए कितने सुन्दर ढंग से भावों को व्यक्त करते हैं।
... क्या क्या बात न कहती नारी। सुन कर पुरूष न तजते प्यारी।।
दो दिन को बस मैके आई। वापिस वहीं पहुँचती जाई।।
माना प्यार आप अति करते। विरह न दो दिन का सह सकते।।
निकली बात तीर की नांई। चुभी हृदय चल दिये गुसांई।।
... हाड़ मास हित इतनी प्रीती। रटते राम कहीं यह रीती।।
तो उद्धार तुम्हारा होता। ये ही मान लगाया गोता।।
तुलसी फिर भी कहते हैं –
.... देख विचारो आप ही, जो कुछ कहा क्या सत्य।
कहते रत्ने तुम बिना, लगता कहीं न चित्य।।
.... कुछ दिन बाद पता यह पाया। साधू उनको बनना भाया।।
सुन रतना चिंतित हुई भारी। साधु व्याधि क्या होती नारी।।
रचनाकार की निम्न लिखित पंक्तियों में जो भाव प्रस्तुत है वह कितनी सहजता से नारी के दोनों रूपों का कितना सुन्दर रूप प्रस्तुत करते हैं –
नारी का स्तर घटा, कहें नर्क का द्वार।
पतनी धरनी एक सम, उपजावै संसार।।
इस प्रकार रचनाकार नें जिस चिंतन को अपनी लेखनी से रेखांकित किया वह स्तुत्य है।
.... हाड़ मांस से प्रीत कर, जान सके जग झूट।
ऐसा को तलवार दो, धरै म्यान इक जूट।।
मानस संगम कविवर अनन्त राम गुप्त के रत्नावली खंडकाव्य के प्रकाशन हेतु आभारी हैं। पाठक इसके पठन पाठन से निर्णय करेंगे कि कृति के भाव कितनी सरलता से व्यक्त हुए हैं।
2 नवम्बर 2000 बद्रीनारायण तिवारी
हस्ताक्षर
सम्मति
कवि अनन्त राम कृत ‘रत्नावली’
उपन्यास रत्नावली, भावुक जी की दैन।
परित्यक्ता रत्ना सदा, व्यथित रही दिन रैन।। 1।।
नारी जीवन की व्यथा, सहन न हुई अनंत।
उपन्यास की कथा को, किया पद्य मय संत।। 2 ।।
रामायण सा वन गया, रत्ना चरित्र महान।
कृति-अनंत-अनुपम सुघर, प्रेरक सुन्दर गान ।। 3 ।।
रत्नावली चरित्र लिख, वन तुलसी से सन्त।
साधबाद तुमको अमित, कविवर ! श्रेष्ठ अनंत।। 4 ।।
डॉ. जमुना प्रसाद बड़ैरिया
सेवा नि. सहा. प्राध्यापक
सुभाष गंज – भवभूति नगर (डबरा)
जिला ग्वालियर (म.प्र.) 475110
आपकी सारस्वत अनुभूतियों द्वारा भावुक जी रचित रत्नावली का भाव रूपान्तर बड़ी सादगी, सरल एवं स्व वाचित भाषा में सटीक तथा सारगर्भित बन पड़ा है। रचना तथा पद्यानुवाद में पूर्ण साम्यता का पाया जाना आपकी अनूठी प्रतिभा का अवर्णीय धोतक है।
आपकी लेखन शैली, चिंतन एवं लेखनी की प्रतिभा को उत्तर प्रगति की कामना सहित सहस्त्रश: साधुवाद।
वेदराम प्रजापति ‘’ मन मस्त ‘’
भवभूति नगर (डबरा )
ग्वालियर (म.प्र.) 475110
रत्नावली की पीड़ा
तुलसी को काम से राम की ओर मोड़ने का श्रेय उनकी पत्नी रत्नावली को ही है। आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व वुद्ध ने घर छोड़ा था। दूसरों की पीड़ा से क्षुब्ध होकर, तुलसी ने पांच सौ वर्ष पहले घर छोड़ा था, पत्नी की फटकार से मर्माहत होकर। तुलसी सामान्य गृहस्थ से संत हो गये। वुद्ध राजकुमार से भगवान पर इतिहास के पास न यशोधरा के आंसुओं का हिसाब है न रत्नावली की पीड़ा का।
तुलसी के जीवन को आधार बना कर नागर जी ने मानस का हंस लिखा रागेय राघव ने भी रत्ना की बात पुस्तक लिखी है भवभूति नगर (डबरा) के उपन्यास कार रामगोपाल भावुक ने भी अपनी बहुचर्चित कृति रत्नावली को रत्नावली के सूखे आंसुओं से गीला करने का प्रयास किया है। इसी उपन्यास का भाव मय रूपान्तरण कवि अनन्त राम गुप्त ने अपनी वुन्देली मिश्रित हिन्दी में किया है। दोनों कृतियों में केवल गद्य और पद्य का ही अन्तर नहीं है। बल्कि दोनों व्यक्तित्वों का भी अन्तर है। एक का उपनाम भावुक है दूसरे का मन भावुक है। तभी तो इन्होंने इस कृति का भाव मय अनुवाद किया है यह अनुवाद कैसा है इसका निर्णय तो सुधी पाठक ही करेंगे।
रमाशंकर राय
अध्यक्ष – मुक्त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समिति
भवभूति नगर (डबरा) 475110
राजापुर को तज किया चित्रकूट में बास।
रामायण रच के हुये तुलसी तुलसीदास।।
भावुक ने रत्नावली, लिखडाला इतिहास।
भावानुवाद अनन्त ने लिख कर किया प्रकाश।।
सियाराम सर्राफ, उपाध्यक्ष मुक्त मनीषा
रत्ना नारी रत्न हैं, अनुपम जिनका त्याग,
राम काज के हित लिया, प्रियतम से बैराग।
तुलसी-रत्ना प्रेम की, गायें कथा अनन्त,
रोम-रोम में रम रहा भावुक हिय अनुराग।।
धीरेन्द्र गहलोत ‘’धीर’’ सचिव, मुक्त मनीषा
हृदय से
कवि न होउँ नहिं वचन प्रवीनू । सकल कला सब विद्या हीनू।।
प्रिय पाठको
श्री भावुक जी का उपन्यास रत्नावली पढ़़ा। उसे पढ़ कर मेरे मन में यह बात आई कि महिलाओं एवं हरि भक्तों के ज्ञान वर्धन तथा समाज को सुझाव देने हेतु इसमें बहुत से तथ्य हैं। यही समझ कर उसका भावानुवाद करने की उत्कंठा जाग्रत हुई। यह उसी का साकार रूप है जो परमहंस मस्तराम गौरीशंकर बावा की कृपा से आप सब लोगों के समक्ष प्रेषित हुआ है।
परमहंस मसतराम गौरीशंकर सत्संग समिति,
कमलेश्वर कालोनी, भवभूति नगर (डबरा)
के समस्त साधक महानुभावों की कृतज्ञता का आभार स्वीकार करता हूं कि जिनके सहयोग से इस कृति का मुद्रण हो सका।
मुक्त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समिति, सुभाषगंज, भवभूति नगर (डबरा) के समस्त पदाधिकारी एवं सदस्य गणों का आभार मानता हूं जिनके सत्संग एवं संगोष्ठियों द्वारा ज्ञान अर्जित करता रहा।
अंत में डॉ. सतीश सक्सेना ‘शून्य’ राजवली सिंह चदेंल, आर.पी. सक्सेना ‘रज्जन’, डॉ. जमुनाप्रसाद बड़ेरिया एवं वेदराम प्रजापति ‘मनमसत’ का आभार व्यक्त करता हूं इन्होंने पुस्तक के संशोधन में सहयोग देकर मुझे कृतार्थ किया है।
7 दिसम्बर गीता जयंती 2000
अनन्त राम गुप्त
।। श्री हरिवंश – चरण – शरणं ।।
रत्नावली – भावानुवाद
मंगलाचरण
दोहा – श्री गुरू संतन चरण रज, सिर धर हिय सों लाय।
रत्नावलि रूपान्तर, लिखता पद्य बनाय।। 1 ।।
तुलसी जगत प्रसिद्ध है, राम चरित गुन गाय।
रत्नावलि की ख्याति त्यों, उन उपदेश सुनाय।। 2 ।।
’’भावुक’’ रामगोपाल कृत, ‘’रत्नावलि’’ साकार।
ताहि का ले आश्रय, प्रगट करूं उद्गार।। 3 ।।
तुलसी की गाथा लिखी, सब ही संत महन्त।
रत्नावलि संघर्ष की, नहिं कोउ कथा कहंत।। 4 ।।
सो ‘’भावुक’’ के उर – बसी, कछु इक चित्त ‘’अनन्त‘’।
ता ही का वर्णन करूं, रीझे भीजें सन्त।। 5 ।।
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प्रथम अध्याय – महेवा ग्राम
दोहा – माता रत्ना मायका, ग्राम महेवा जान।
राजापुर ससुराल है, तुलसी जन्म स्थान।। 6 ।।
चौपाई
चित्रकूट सब ही जन जाना। तहँ ते साधन सुलभ बखाना।।
राजापुर पहुंचौगे जाई। है उस पार महेवा भाई।।
बीच भाग यमुना बह आई। ब्रम्ह जीव विच माया गाई।।
तँह रत्नावलि केर निवासा। पाठक दीनबन्धु पितु पासा।।
बिन्देश्वर रहु काका नामा। सोई स्वर्ग गये तज धामा।।
गंगेश्वर रह भ्रात चचेरा। भाभी शान्ति नाम कह टेरा।।
घर की मालिक केशर काकी। बाहर दीनबन्धु की झांकी।।
रक्षा बन्धन निकट बिचारी। बहिन लिवावन मन निरधारी।।
मिले नहीं घर तुलसी दासा। दो दिन की कह बाहर बासा।।
दोहा – रतना पितु गृह आ गईं, तुलसी लौटे आय।
बिन पतनी व्याकुल भये, चले ससुर गृह धाय।। 7 ।।
मारग चढि़ यमुना मिली, कैसेहु कीनी पार।
अर्ध रात्रि का समय था, नहिं खटकाया द्वार।। 8 ।।
धर पर चढ़ पतनी ढिंग आए। जिसने ताने दिए सुनाए।।
लौटे तुरत भये बैरागी। हरि प्रेरित सुमती उर जागी।।
रतना रही रात भर जगते। मिलन प्रतीक्षा करते करते।।
सोचत मन, मैं वृथा दुखाये। मिलती उनसे हँस मुस्काये।।
जान सुभाव शंक मन आई। मिलन कठिन आभाष जनाई।।
पति नत्नी में यों ही चलता। ताने बाने जीवन पलता।।
तुम भी तो कह गूढ़ पहेली। मुझ से करते रहे ठिठोली।।
यदि मैंने कुछ कह ही डाला। जपने लगे राम की माला।।
दोहा – भाभी बड़ी मजाकिया, चुटकी लेकर बोल।
जग जाती यदि उस समय, खुलती सारी पोल।। 9 ।।
चोरी छिपे आय ससुराला। जगता कोई पड़ता पाला।।
इसीलिये मैने कह डाला। बुरा मान मुझको तज डाला।।
अब मुझसे क्या लोग कहेंगें। भगा दिया पति सभी हँसेंगे।।
काकी भाभी भी डाटेंगी। पिता सोच कहँ तक आंकेंगी।।
कब से खड़ी द्वार मन आई। खोजूं कहां अँधेरी छाई।।
घन छाये हैं चारो ओरी। हवा चल रही दे झक झोरी।।
बिजली चमक देख लूं दूरी। नजर न आवत है मजबूरी।।
रात जान नहि टेर लगाऊँ। मन की व्यथा किसे बतलाऊँ।।
दोहा – हाय बाबरी मति भई, दिया तुम्हे उपदेश।
पतनी गुरु नहिं बन सके, बिन गुरु ज्ञान न लेश।। 10 ।।
क्या क्या बात न कहती नारी। सुन कर पुरूष न तजते प्यारी।।
दो दिन को बस मैके आई। वापिस बहीं पहुंचती जाई।।
माना प्यार आप अति करते। विरह न दो दिन का सह सकते।।
निकली बात तीर की नाईं। चुभी हृदय चल दिये गुसांई।।
गहरी निद्रा में रहि सोई। स्वप्न देख आनंदित होई।।
आहट पा एका इक चौंकी। निरख सामने तासे भोंकी।।
हाड़ मांस हित इतनी प्रीती। रटते राम कही यह रीती।।
तो उद्धार तुम्हारा होता। ये ही मान लगाया गोता।।
दोहा – प्रात काल अब होत है, आओ स्वामी वेग।
हँसी ठिठोली बीत गई, करौ मिलन के नेग।। 11 ।।
जानत हौं तुम हठी सुभाऊ। ठान लेत मन मान न काऊ।।
थी मैके से कब की आई। पर जाने की राह न पाई।।
कूकर हू इक घाट न साधै। औरत जाति कहॉं तक बॉंधै।।
काकी याद सताबै मोई। आव लिवावन भाई सोई।।
तुम हू बादा दो दिन कीना। लौट पड़े क्या बात प्रवीना।।
दो दिन बाद अगर तुम आते। तो यह अवसर ही ना पाते।।
अब तो चिडि़यां भी चहचानी। सत्वर लौट पड़ौ हे ज्ञानी।।
समझ नहीं मेरे यह आता। हठ योगी का रूप दिखाता।।
दाहा – दृढ़ संकल्पित व्यक्ति ही, सारे काम बनाय।
ता ही के बल जगत की, प्रभुता रही लखाय।। 12 ।।
भये भोर खवास इक आयौ। पालागन कर सीस नवायो।।
दीनबन्धु पाठक आसीसा। सुखी रखें तुमको जगदीसा।।
बड़े सबेरे क्यों चल आये। बोला रात दृश्य इक पाये।।
लग रहे दस्त गयौ मैदाना। देखत रातै लगा भयाना।।
लखा आदमी तुम गृह पासा। भूत प्रेत का ज्यों हो बासा।।
घर भीतर तुम देखो जाई। चोर मोर कोउ धसौं न आई।।
मुगली राज्य प्रबन्ध न नीका। केवल करन बढ़ावन सीखा।।
यह कह निज घरको चलदीना। पाठक जी गृह शोधन कीना।।
दोहा – वैजू कह मुझसे गया, कोउ आदमी रात।
गृह पीछे अपने रहा, देखो सब कुशलता।। 13 ।।
यह कहते रतना ढिंग आये। रतना खड़ी खड़ी पछताये।।
कहती काकी बात कहा है। क्यों उदास मन आज हुआ है।।
वे आये थे पुन: चले गये। पूछा तुलसी क्या क्या कह गये।।
रोका क्यों नहिं बात कहा थी। चोरी छुपे जरूरत क्या थी।।
ऐसा ढीट नजर नहिं आता। जो पतनी पीछे लग जाता।।
दीनबन्धु पाठक तब बोले। पौधा नरम संभालो हौले।।
सुन हक्के बक्के घर वाले। आई भाभी होश संभाले।।
कहने लगी कहा क्या तुमने। बोली उपदेसा है हमने।।
दोहा – ननदी भाभी बात सुन, भ्राता जी गये आये।
जो मैं ऐसा जानता, लाता नहिं लिवाय।। 14 ।।
बोली शांति कही का वानी। करती उनसे प्यार सयानी।।
यह सुन रतना उर भर आया। रोने लगी चैन नहिं पाया।।
हिलकी ले ले भरै उसांसें । भई मूर्छित चलती सांसें।।
बहुत देर में रतना बोली। इतनी कही न करी ठिठोली।।
हाड़ मांस हित व्याकुल जितने। कहीं राम प्रति होते इतने।।
तो उद्धार तुम्हारा होता। यही बात बन गई सरौंता।।
सुन शान्ति बोली गृदु बाता। यह तो नारि पुरूष का नाता।।
यहि सुन रूठ गये गोसांई। चिन्ता मत कर लौटहिं आईं।।
दोहा – एकहि दोई दिवस में, लौट आयँ महाराज।
रोना धाना छोड़ कर, धर धीरज कर काज।। 15 ।।
आवें जभी लौट महराजा। नाक रगड़वा लऊँ करसाजा।।
बन विद्वान वे घर घर डोलें। बात न तिरिया की मन तौलें।।
औरत रखना खेल नहीं है। हाथी जैसा मेल कही है।।
अब गृह लौटन की कर आसा। ज्यों जहाज पंछी कर बासा।।
धर धीरज गृह काज संवारौं। खोज खबर का तांता डारौ।।
रत्नावलि मन यही समानी। कब आयें वे पन्डित ज्ञानी।।
जब हम दोनों चलत विवादा। नास्तिक खण्ड ईश प्रतिपादा।।
समझे सत्य, यही हम जानी। मेरे निकट बनत अज्ञानी।।
दोहा – हाड़ मांस से प्रीति कर, जान सके जग झूंठ।
ऐसा को, तलवार दो, धरै म्यान इक जूट।। 16 ।।
मैं ये तर्क सोच रह जाती। सत्ता ईश न निश्चय पाती।।
मनुष जन्म संस्कार अधीना। त्यों ही गुण संगत लव लीना।।
जा समाज पांडित्य दिखावैं। घर भीतर सब बात भुलाबैं।।
कथनी करनी अन्तर होई। परख पारखी लेबें सोई।।
त्याग तपस्या बातें करते। नहीं आचरण में अनुसरते।।
घर भीतर माया में फसते। ग्रन्थन ज्ञान ताक में रखते।।
सब पांडित्य रखा रह जाता। लोभ वासना मन भरमाता।।
देख चरित नफरत हो आती। घंटों डूब सोच में जाती।।
दोहा – देख विचारो आप ही, कहा सो सब कुछ सत्य।
कहते रतने तुम बिना, लगता कहीं न नित्य।। 17 ।।
पूजा करता तुम दिख जाती। भजन करूं तो नहीं भुलाती।।
ऐसी पूजा रही तुम्हारी। मुझको डाल दिया भ्रम भारी।।
मेरी बुद्धि भ्रमित कर डाली। समझें हम तुमको संसारी।।
ईश्वर कहीं नहीं है कोई। केवन मन कल्पित पथ सोई।।
काकी केशर बाई आई। बोली भैया खोजन जाई।।
करौ कलेवा धीरज धारौ। आवत होगो खोज दुलारौ।।
कुछ दिन बाद पता यह पाया। साधू उनको बनना भाया।।
सुन रतना चिंतित हुई भारी। साधु व्याधि क्या होती नारी।।
दोहा – नारी का स्तर घटा, कहें नर्क का द्वार।
पतनी धरनी एक सम, उपजावै संसार।। 18।।
एक बार यह बहस छिड़ी थी। मैंने तो सब साफ कही थी।।
रूप बाहरी नारी देखा। अंतर मन का किया न लेखा।।
नारी अथवा नर हो स्वामी। सबका मालिक अन्तर्यामी।।
पुरूष भले बाधा कर माने। शक्ति बिना शिव-शव सम जाने।।
रीति पुरातन यह चल आई। रिषि मुनि सबके पतनी पाई।।
नारी के संग करी तपस्या। वेद रिचा लिख दीनी शिक्षा।।
क्या उनका कल्याण न भयेऊ। नवपुराण कहं से गढ़ लयेऊ।।
घर ही रहत साधना करते। तो क्या वो भव से नहिं तरते।।
दोहा – बाबा बन भागे फिरैं, भीख मांगवे खात।
नवयुग की यह दैन है, तिरिया तज भज जात।। 19 ।।
समय साथ सब काम कराबै। नीति न्याय ये ही सिखलाबै।।
यवनी शासन पाप बढ़ाबै। धर्म कर्म सब तुरत नसाबै।।
कैसे में समझाऊं तुमको। विरह व्यथा कितनी है हमको।।
घर ही रह कर भजन करोगे। तो सब साधन सुक्ख भरोगे।।
आगे पीढ़ी शिक्षा लेगी। और दोष नहिं तुमको देगी।।
लेकिन आप हठी जो ठहरे। मन मौजी बन जग में विहरे।।
मेरी बात तीर सी लागी। तो चल दीने बन वैरागी।।
यदी सोच मन में करते हो। घर वापस आने डरते हो।।
दोहा – तो मैं कहती सत्य कर, दूं नहिं मानस ठेस।
जैसा तुम जो कहोगे, वैसा करूं हमेश।। 20 ।।