Prem Gali ati Sankari - 23 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 23

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प्रेम गली अति साँकरी - 23

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प्यार के बारे में बात करना जितना आसान है उतना ही उसे महसूस करके उस राह पर चलना कठिन! प्यार बाँधता नहीं, खोलता है, मुक्ति देता है | प्यार भौतिक से आध्यात्म की यात्रा है इसीलिए जब प्यार शरीर पर आकर ठहर जाता है तब आपस में बैर-भाव, अहं ---अपने साथी को समझने की जगह उस पर दोषारोपण बड़ी आसानी से होने लगता है | दरसल, बिना किसी समझदारी के हमबिस्तर होना प्यार नहीं | हाँ, उसे शारीरिक ज़रूरत कहा जा सकता है| मेरे सामने शरीर की ज़रूरत के कई उदाहरण थे और मेरे मन में जो प्यार की परिभाषा थी उसमें केवल अम्मा-पापा का उदाहरण मुझे आकर्षित करता| वे ही मेरे प्यार के खांचे में फ़िट बैठते| कीर्ति मौसी का जीवन भी बहुत सुंदर बीत रहा था जिससे मन में एक बात तो स्पष्ट हो चुकी थी कि प्रेम किसी जाति, वर्ग, स्थान में बंधना नहीं है| प्यार यानि किसी भी बंधन से मुक्ति !मुस्कान, खिलखिलाहट, संवेदना, करुणा और सबही प्राकृतिक तत्वों व प्रभु के आशीष से भरपूर हृदय जो किसी को कष्ट नहीं दे सकता, जिसमें विवेकशीलता और सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात समायोजन यानि होता है ‘एडजस्टमेंट’!

मनुष्य ही क्या हर प्राणी प्रेम के बिना अधूरा है लेकिन प्रेम के अनजाने कंधे पर स्वार्थ की बंदूक रखकर चलाना मेरी बुद्धि में कभी आया ही नहीं | उम्र के इतने बड़े अंतराल में मैं किसी से यदि समीप नहीं हो पाई थी, उसका कारण यही था कि मैं पहले किसी में मित्र ढूँढना चाहती थी, मैं सम्मान लेना-देना चाहती थी, न कि आँखें मूंदकर किसी भी राह पर चलना | यह अम्मा-पापा भी नहीं चाहते होंगे, मैं आश्वस्त थी लेकिन उनको शायद यह समझने में परेशानी थी कि आखिर मुझे ऐसा तो क्या चाहिए था जो मैं अब तक तलाश रही थी, क्या प्यार तलाश करने से मिलता है?प्यार! जो इश्क है, प्यार! जो ईश्वर है, प्यार ! जो प्रकृति है वह कितने चुपके से आकर दिल की कोटर में आकार सिमट जाता है और उसमें नव-पल्लव फूटते रहते हैं | मैं एक सीधा-सादा अम्मा-पापा जैसा स्नेहिल जीवन चाहती थी जैसा अपने घर में शुरु से देख रही थी| इस बारे में अम्मा-पापा से क्या बात करती, सारे मित्र अपने जीवन में सैटल हो चुके थे, एक मैं ही थी| कोई-कोई अपने बच्चों को लेकर भी आते तो अम्मा की दृष्टि में न जाने कैसा बदलाव आ जाता कि मैं अपराग़-बोध से उस दृष्टि का सामना नहीं कर पाती थी | बल्कि कुछ मित्रों के तो बच्चे भी संस्थान में प्रवेश लेने आ चुके थे | 

हमारे परिवार के इतना करीब और कोई रिश्ता तो था नहीं, केवल कीर्ति मौसी थीं जिनकी लड़की भी बाहर पढ़ने चली गई थी और उसने वहीं पढ़ाई करके काम करना शुरू कर दिया था| जर्मनी में अम्मा एक बार संस्थान के ग्रुप को लेकर गईं थीं | वहाँ कीर्ति मौसी की बेटी अंतरा भी अपने ब्वाय फ्रैंड को लेकर आई थी जो जर्मन का ही निवासी था| उनकी कोर्टशिप चल रही थी| मौसी और मौसा जी जानते थे और उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी| 

जर्मनी से वापिस आकर अम्मा ने पापा को बताया और दोनों ने फिर से मेरे बारे में चर्चा की| वे चिंता करने लगते थे और मेरे पास उसका कोई उपाय नहीं था | उत्पल बहुत बार मेरे पास आने की कोशिश करता रहा था| अच्छी दोस्ती होने लगी थी मेरी उससे लेकिन वह इतना छोटा था मुझसे कि मेरी समझ में ही नहीं आता कि मैं उससे किस प्रकार व्यवहार करूँ? वैसे मैं उसको पसंद करती थी और वह भी मेरा साथ पसंद करता था, मुझे पता चल रहा था लेकिन ---हमारे बीच में ‘लेकिन’ था ---!!मेरी और उसकी आयु की दूरी इतनी अधिक थी कि उसके बारे में सोचने का सवाल ही नहीं था| मैं देख रही थी, मैं ही क्या अम्मा-पापा, शेष सबही देख रहे थे कि उत्पल चौधरी मेरे पास, मेरे साथ अधिक से अधिक समय व्यतीत करना चाहता था| अम्मा को महसूस हो रहा था कि उत्पल का आकर्षण मुझमें बढ़ता ही जा रहा था| अम्मा ने कुछ भी नहीं कहा, शायद पापा से कभी जिक्र किया होगा लेकिन मेरे सामने कोई कुछ नहीं कहता था| अम्मा-पापा इसलिए खुश थे कि कोई तो था जो मेरे करीब रहने के लिए उत्सुक रहता था लेकिन ---

मौसी की बिटिया अंतरा भी मुझसे काफ़ी छोटी थी और अम्मा-पापा की दृष्टि में मुझसे अधिक समझदार थी कि उसने अपने लिए एक ‘दोस्त’तलाश कर लिया था जो जरूरी था | उन दोनों ने मुझसे कभी यह बात स्पष्ट रूप से नहीं कही लेकिन उनके बीच हुए वार्तालाप सुनने से भी अधिक उनके चेहरों पर उतरे सूने अवसाद से मुझे उनकी चिंता तो पता चल ही जाती थी जो स्वाभाविक था| 

कुछ बातें ऐसी होती हैं जिनको किसी पर थोपा नहीं जा सकता, न ही जिनके बारे में कोई निर्णय लिया जा सकता है | यदि ऐसे रिश्ते हों तो वो रिश्ते समाज की मर्यादाओं के भय से खींचे जाते हैं, उन्हें जीया नहीं जा सकता| जैसे जगन और उस सामने वाले मुहल्ले के कुछ रिश्ते जिन्हें खींचा ही जा रहा था| और उन्हें ही क्यों मैं अपने तथाकथित उच्च शिक्षित वर्ग में भी बहुत से रिश्ते ऐसे ही तो देखती आई थी कि बँध गए तो उन्हें घसीटना ही पड़ रहा था | ’लोग क्या कहेंगे’उन रिश्तों पर हर पल हावी रहता था | लेकिन वो जिनमें दोस्ती और प्यार नहीं, शरीर की ज़रूरत और भूख थी| उस भूख को जितना बढ़ाओ बढ़ती जाती है लेकिन उसमें मानसिक तृप्ति का सदा अभाव रहता है | प्रेम ऐसा संवेग है जो प्राणी की ज़रूरत है, उसकी सुगंध से सब सराबोर होते हैं, जीवन है तो प्रेम है, प्रेम है तो जीवन है| बस, यह ढाई आखर समझ में आ जाए तो तन-मन दोनों ही न तृप्त हो जाएँ ?

ऊट-पटाँग सोचने में तो माहिर थी मैं इसीलिए तो अपने कमरे की खिड़की पर जब देखो जाकर लटक जाती थी | अम्मा-पापा की चिंता किए बगैर कि उन्हें कैसा लग रहा होगा ?क्या इस दुनिया में केवल मैं ही थी जो समाज से अलग होकर सोचती थी ?मेरे जैसे न जाने कितने और भी होंगे, यह तो बिलकुल पक्का था| साथ ही यह भी पक्का होता जा रहा था कि उत्पल का मेरी ओर दिनों-दिन अधिक झुकाव होता जा रहा था और मैं--?