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कितने लोगों का काफ़िला तैयार हो रहा था | पहले तो कई बार अम्मा-पापा के बीच चर्चा हुई कि भविष्य में कार्यक्रम न लिए जाएं या लिए भी जाएं तो बहुत कम और महत्वपूर्ण कार्यक्रम ही लिए जाएं लेकिन ऐसा हो कहाँ पाता है ? अधिकतर महत्वपूर्ण स्थानों से महत्वपूर्ण लोगों के द्वारा ही निवेदन किया जाता था| स्थिति कुछ ऐसी बन गई थी कि सिर ओखली में था और अम्मा उसमें से निकलने की कोशिश करें तो भी कठिन था कि उसमें से निकल सकें क्योंकि जब निकलने की कोशिश करते कि एक नया प्रहार हो जाता |
इस बात को कोई नहीं समझ सकता था, सबको गुलाब दिखाई देते उससे लिपटे काँटे नहीं| जैसे-जैसे व्यस्तताएं बढ़तीं वैसे वैसे सभी व्यस्त से व्यस्ततम होते जा रहे थे| उत्पल चौधरी का आना-जाना बढ़ गया था| अभी अम्मा को यू.के जाने के लिए भी उसकी अधिक ज़रूरत पड़ने लगी थी| अम्मा उससे अपने कार्यक्रमों की ‘शॉर्ट-फ़िल्म्स’ बनवा रही थीं | संस्थान के काम में अधिक व्यस्तता आने लगी थी और प्रत्येक अपने-अपने कर्तव्यों से न्याय करने का प्रयास कर रहा था |
उत्पल मुझसे काफ़ी छोटा था लेकिन वह मुझमें रुचि लेता रहा था और मैं उससे दूर रहने का प्रयास करती थी लेकिन काम के सिलसिले में मुझे उसके साथ बैठना, रहना, चर्चाओं में भागीदारी करनी पड़ती| नाना, नानी के बाद तो और भी परिस्थितियाँ जटिल होती जा रही थीं | पापा कभी मस्ती करने के मूड में आते भी तो अम्मा उस मूड को स्वीकार नहीं कर पा रहीं थीं इसलिए पापा भी कुछ चुप से होते जा रहे थे| कैसा घर था, कैसा होता जा रहा था?मेरी बैचेनी बढ़ती जाती, मन था कि किसी काम में न लगता लेकिन परिस्थति थी कि साँस न लेने देती | होना तो यह चाहिए था कि यदि व्यस्तता के कारण मन व तन थकता तो और अच्छी, गहरी नींद आती लेकिन ऐसा नहीं था नींद मेरा साथ छोड़ती जा रही थी| मैं किसी अनजानी, अनदेखी, अपरिचित गहरी गुफ़ा में डूबती-उतरती रहती | घर की परिस्थिति कुछ ऐसी थी कि किसी से भी यह सब शेयर करने का साहस न होता | था भी कौन जिससे यह सब साझा करती ?अम्मा-पापा ---जो स्वयं ही इतने व्यस्त रहते थे, उन्हें परेशान करने का कोई अर्थ न था |
पापा का व्यवसाय काफ़ी पहले से ही बहुत फैला हुआ था लेकिन उनका स्टाफ़ पुराना था वह सभी समस्याओं का हल निकाल लेता| अब उन्होंने कोई भी नई शाखा न खोलने का पक्का निश्चय कर लिया थवैसे कभी ज़रूरत पड़ती घर पर भी आ जाते उनके मैनेजर्स व स्टाफ़ के लोग| पापा के सभी शाखाओं के मैनेजर बहुत समझदार व निर्णय लेने में सक्षम थे| पापा उन पर व्यवसाय छोड़कर निश्चिंत रहते थे| कभी कोई बहुत आवश्यक निर्णय लेना होता तब पापा को मीटिंग के लिए जाना होता अन्यथा वे अधिकांशत: अम्मा के संस्थान में उनके स्टाफ़ के साथ बने ही रहते|
चाहते हुए भी अम्मा अपने संस्थान का फैलाव रोक नहीं पा रही थीं क्योंकि अम्मा का संस्थान इतना प्रसिद्धि पा चुका था कि विदेशों में उनके कला-संस्थान की‘फ्रैंचाइज़ी’ के नाम पर लोग अम्मा को मुँहमाँगा पैसा देने को तैयार रहते | कई देशों में संस्थान की शाखाएं शुरू हो ही चुकी थीं लेकिन अब लोग उन्हें और भी बढ़ाना चाहते थे | इस संस्थान से शिक्षा प्राप्त छात्र पूरे विश्व में यहाँ-वहाँ फैले थे और यू.के की तरह ही अन्य देशों में सबकी इच्छा रहती कि एक बार तो अम्मा वहाँ चक्कर मार लें जो उनके लिए मुश्किल होता जा रहा था|
सड़क पार के सामने वाले मुहल्ले की वही स्थिति थी | हा, वहाँ के बच्चे बड़े हो चुके थे दिव्य जैसे और बड़े हो रहे थे डॉली जैसे ---लेकिन उन लोगों के व्यवहार में कोई खास बदलाव नहीं आया था| हाँ, रतनी से पता लगता रहता कि दिव्य के साथ के कई लड़के/लड़कियाँ दिल्ली के अच्छे कॉलेजों में शिक्षा ग्रहण करने जाते थे| अधिकतर पिता सोचते कि उनका जीवन तो जैसे तैसे निकाल गया है अथवा निकल जाएगा, उनकी भावी पीढ़ी तो कम से कम आगे बढ़े और उन्होंने ज़ोर लगाकर अपने बच्चों की रुचि के अनुसार बच्चों को उनके मनचाहे स्कूल और ब्रांच में दाखिल दिलवा दिया था | जगन न जाने किस मिट्टी का बना था, उस पर कोई असर नहीं पड़ा था जबकि दिव्य के साथ के कुछ लड़के कितने आगे निकल गए थे|
दिव्य का ग्रेजुएशन हो गया था और वह पिता से छिपकर संगीत साधना कर रहा था | उसका स्वर और शैली इतनी सुंदर थी कि कार्यक्रमों में जाने के लिए उसको आमंत्रण मिलते थे लेकिन पिता के डर से वह वहाँ न जाने के लिए लाचार था |
अम्मा ने पापा से कहा था कि शीला व रतनी से चर्चा करके उसे कहीं बाहर भेज दिया जाए जिससे उसका जीवन बन जाएगा | सबको उस पर पूरा विश्वास था कि वह अपना, परिवार का, संस्थान का नाम रोशन करेगा| लेकिन वह जगन का बेटा था, जब संगीत की शिक्षा के लिए उसने बेटे को आज्ञा नहीं दी थी तो बाहर जाने की आज्ञा क्या देता?उसे यह बात कुछ हज़म नहीं होती थी कि यदि उसके बच्चे आगे बढ़ेंगे तो उसका नाम भी तो रोशन होगा| बहुत से लोग वाकई मूढ़ बुद्धि होते हैं, इनमें ही जगन भी था |