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रतनी की आँखों के आँसू मुझे सदा बेचैन करते थे | जीवन है या कचराखाना? शायद जगन के लिए मयखाना और परिवार के बाकी सदस्यों के लिए कचराखाना, कबाड़खाना---झुंझलाहट के मारे कई बार तो मेरा काम में मन लगता ही नहीं था| दिव्य कितना प्यारा निकल आया था और डॉली एक भरी हुई गोलमटोल युवा सीढ़ियों पर जाने को तत्पर गुड़िया सी लगने लगी थी लेकिन उनके चेहरों पर वह स्वाभाविक मुस्कान नहीं थी जो इस उम्र के बच्चों के चेहरों पर झलकती है| एक बेफिक्र और अल्हड़ मुस्कान ! मुझे लगता कि उन दोनों को वहाँ से निकालकर ले आऊँ और उस खाली पड़े हुए फ़्लैट में उनका इंतज़ाम कर दूँ | लेकिन मैं होती कौन थी, जगन का परिवार था| वह मुखिया था उस परिवार का और वही राजा ! अब राजा चाहे नालायक हो या शराबी-कबाबी फिर भी उसके नियम-कानून पर तो चलना ही पड़ता है | इस परिवार की महिलाओं में इतना दमखम नहीं था कि उस बेहूदे आदमी को मुँह तोड़ जवाब दे सकें|
हाँ, बीच में मैं अपनी कीर्ति मौसी की बात तो करना भूल ही गई | अधिक दूरी व व्यस्तता के कारण दोनों परिवारों में आना-जाना तो कम ही हो पाता था किन्तु त्योहारों पर, फ़ंक्शंस में, विशेषकर संस्थान के वार्षिक उत्सव में जब भारत और विदेश से सभी विधाओं के बड़े-बड़े कलाकार विद्यालय में आते थे उन दिनों लगभग प्रतिदिन उनकी उपस्थिति रहती | यह वार्षिक उत्सव पाँच दिनों का होता था और इसमें बहुत लोगों की संलग्नता होती थी और सबको ऐसे व्यस्त रहना पड़ता था जैसे घर में कोई शादी-ब्याह हो | फिर भी सहायक काम ही पड़ जाते थे |
पीछे के भाग में जहाँ गार्ड का परिवार रहता था और सड़क के पार वाला मुहल्ला जहाँ से दिखाई देता था वहाँ, उसकी बाउंड्री वॉल के सहारे बहुत बड़े स्थान में टैंट से कवर कर दिया जाता था| महाराज के पूरे परिवार के साथ अन्य न जाने कितने महाराज और सेवक और जुड़ जाते थे और सब कलाकारों के रहने, खाने-पीने और तमाम सुविधाओं की व्यवस्था करने में लगभग डेढ़-दो माह का समय आसानी से लग जाता था | उस समय मौसी का पूरा परिवार ज़रूर आता | कई वर्ष बनारस से नाना जी डॉ.मुद्गल और नानी भी आतीं और लगभग 10/15 दिन रहकर जाते | दादी के रहने तक अम्मा को पता ही नहीं चलता था, कैसे व्यवस्था हो जाती थीं लेकिन उनके जाने के बाद----- न जाने भविष्य की किस आशंका से, अनुभूति से दादी शीला जीजी को ऐसा ट्रेंड कर गईं थीं कि शीला जीजी ने सारी परिस्थिति को ऐसे संभाल लिया मानो उनके न जाने कितने हाथ हों, दादी अपनी जैसे सारी ऊर्जा और कुशलता उनको दे गई थीं | जब वे काम करतीं, उनमें नव दुर्गा के सब रूप विद्यमान नज़र आते|
दादी के जाने के बाद तो एक वर्ष वार्षिक उत्सव का कार्यक्रम हुआ भी नहीं था | अम्मा को न तो अच्छा लग रहा था और न ही उनकी इच्छा थी | उनका मन जैसे बुझ गया था लेकिन यह संस्थान की एक परंपरा बन चुकी थी और एक साल दादी के अफ़सोस में इसे बंद रखा जाना फिर भी ठीक था लेकिन उसके बाद तो फिर से परंपरा का पालन करना ही पड़ता| यह आना-जाना जीवन ही था और आध्यात्म से जुड़े इस संस्थान में यह उतना ही महत्वपूर्ण था जितना जीवन ! उस वर्ष नाना
जी व नानी दोनों आकर अम्मा के पास काफ़ी दिन रहे थे| नाना रिटायर हो चुके थे और उनका मन था कि बनारस छोड़कर अब दिल्ली बेटियों के पास ही कहीं घर ले लिया जाए | उन्होंने कुछ वर्ष पहले कीर्ति मौसी के और हमारे घर के बीच एक सोसाइटी में फ़्लैट ले लिया था और यहीं शिफ़्ट कर गए थे| नाना, नानी दोनों गाड़ी ड्राइव करते थे लेकिन उम्र के बढ़ने के साथ अब ‘विज़न’ की स्पष्टता नहीं रही थी| अब वे अशक्त भी होने लगे थे और अम्मा-पापा ने उन्हें ज़बरदस्त ताकीद कर दी थी कि अब वे दोनों गाड़ी नहीं चलाएंगे | उनके लिए एक ड्राइवर का इंतज़ाम कर दिया गया था |
दिल्ली में होने वाले बढ़ते अपराधों को देखते हुए अम्मा-पापा ने उनसे अपने पास आकर रहने के लिए कितना कहा| कितना बड़ा घर था और हमारे वाले पोर्शन में रहने वाले तो गिनती के ही थे लेकिन वे नहीं माने| हाँ, बीच-बीच में आ जाते थे| जब तक स्वस्थ थे तब तक विश्वविद्यालय में उन्हें व्याख्यान के लिए बुलाया जाता था, बाद में दर्शन के विद्यार्थी उनके पास घर पर ही चर्चा करने व गाइडैंस लेने आते| अम्मा-पापा को बहुत ही कम समय मिलता था उनके पास जाने का जिसका उन्हें क्षोभ भी होता था| पहले मैं और भाई चले जाते थे, उसके जाने के बाद मुझे जब भी समय मिलता मैं शीला दीदी या रतनी के साथ उन्हें मिल आती| नाना-नानी मेरे लिए चिंतित रहते | मुझे बहुत अपराध-बोध होता कि मेरे लिए कितने लोग चिंतित रहते हैं लेकिन कुछ भी मेरे बस में नहीं था |
नाना अक्सर फ़ोन पर मेरे बारे में अम्मा से बात करते थे | अम्मा पापा को तो पहले ही मेरी चिंता रहती थी, उनकी उम्र बढ़ रही थी | उनकी दिली इच्छा थी कि मैं अपने लिए एक साथी तो ढूंढ सकूँ लेकिन उनकी दृष्टि में मैं बेकार निकली थी | आज के जमाने में कोई ऐसा होगा जो इतनी उम्र तक अकेला घूमता रहे| मैंने अपने सामने जीवन के इतने रंग देखे थे कि मुझे यह समझ में नहीं आता था कि कौनसा रंग कच्चा है ? कौनसा पक्का ? हाँ, अम्मा-पापा के प्रेम का रंग विशुद्ध सात्विक था, पक्का था, यह मैं जानती थी | भाई की गृहस्थी की गाड़ी भी पटरी पर चल रही थी विदेशी लड़की के साथ, वह बहुत खुश था| परिवार के साथ आता-जाता रहता और उसकी उन्नति देखकर अम्मा-पापा, मैं---–हम सब खुश थे|
मुझे लगता है कि मेरी खुशी एक जगह बंधा हुआ चौपाया नहीं है जो कुछ देर बंधी रहती, वह तो डाल पर बैठी हुई वह कोयल है जो मीठे सुर में ज़रा सा कूकती है और ज़रा सी आहट पाते ही फुर्र से उड़ जाती है | मेरा तो यही अनुभव रहा था | प्रेम की गली के रास्ते कोई न कोई ऐसा मोड़ आ जाता कि मेरे सामने ऐसी सँकरी गली आ खड़ी होती कि मैं भयभीत हो जाती|
हमारे परिवार में जो होता अचानक ही होता दादी गईं थीं तो इतनी अचानक कि हमारा परिवार जैसे अपंग होकर रह गया था | नाना, नानी अभी दो महीने तक ठीक थे, हर दूसरे दिन अम्मा-पापा से मेरे बारे में अपनी चिंता प्रगट करते रहते | वे मुझसे भी बात करते और मैं उन्हें मुस्कुराकर उत्तर देती कि जल्दी ही उनके कहे अनुसार अपने साथी को खोज ही लूँगी | वे मुस्कुरा देते और दोनों मेरे सिर पर हाथ फिराते, उनके मन में मुझे दुल्हन के रूप में देखने का भाव होता|
अचानक एक दिन नानी भी बिना किसी से कुछ बात किए, बिना किसी को कुछ बताए चल दीं और ठीक उसी दिन अगले महीने नाना जी भी यूँ ही अचानक चल दिए | हम सब बौखलाते रह गए| वह समय था जब अम्मा की बहन यानि कीर्ति मौसी और मौसा जी और अम्मा-पापा नानाजी के घर जाकर रहे और चार दिनों के अंदर उनके सारे कर्मकांड व शांति-यज्ञ आदि करके एक कष्टप्रद चुप्पी ओढ़े वापिस अपने-अपने घरों को लौट गए |
मैं अपनी दादी को ही नहीं नाना, नानी को भी वो खुशी नहीं दे पाई जिसकी प्रतीक्षा की चौखट पर वे अपनी दृष्टि टिकाए बैठे थे| मैं उस चौखट के आगे ही नहीं निकल पाई थी जिधर मेरे प्यार, दुलार देने वाले वो मेरे अपने बुज़ुर्ग हवा में आँखें टिकाए बैठे थे |
सब टूट रहे थे, अम्मा-पापा, मौसी-मौसा जी सब ही तो ---उस समय फिर से संभाला तो शीला दीदी और रतनी ने | स्थिति ऐसी थी कि मेरी रुलाई अचानक ही मेरे दिल पर आकर अटक जाती, आँसुओं की परत दिल को लपेटकर जैसे दिल निचोड़ने लगती और आँसु आँखों तक भी न पहुँच पाते| शायद आँसु आँखों के रास्ते निकल जाते तो मैं और हम सब जिसमें विशेष रूप से अम्मा शायद कुछ सहज हो सकतीं|
उधर ये नया प्रोजेक्ट सिर पर खड़ा था, इधर अम्मा के आँसु रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे| फिर भी उन्हें व्यस्तताएँ ओढनी थीं | बाहर वालों को ऐसा लग सकता है कि कितना पैसा है!कितना नाम है! आखिर किस चीज़ की कमी है| सब मस्त हैं, आनंद में हैं?मन के भीतर कहाँ कोई उतर पाता है?जीवन की गति यूँ ही ऊपर-नीचे चलती रहती है|
यूँ कमी होती भी नहीं है लेकिन इस सबके पीछे कितना प्रयास, कितना समर्पण, कितनी श्रम होता है, कोई कहाँ समझ पाता है? वो भी एक-दो की नहीं, न जाने कितने लोगों की सहभागिता से ये सब काम होते हैं और जो लोग समर्पित हों, उनके लिए तो दिन और रात में कोई फ़र्क ही नहीं होता|