Yugantar - 4 in Hindi Moral Stories by Dr. Dilbag Singh Virk books and stories PDF | युगांतर - भाग 4

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युगांतर - भाग 4

जब जवानी का जोश और अमीरी का नशा हो, तब पढ़ना कौन चाहेगा? फिर यादवेन्द्र के लिए तो यह पढ़ाई आफत के सिवा और कुछ थी ही नहीं, इसलिए उसका बैल के सींग पकड़ना दुश्कर ही लग रहा था लेकिन उसने यह दुस्साहस भी कर ही लिया, क्योंकि उन दिनों 2 स्कूल और कॉलेज दोनों में होती थी और उसने सुन रखा था कि कॉलेज में स्कूलों की तरह न पढ़ने पर मार नहीं पड़ती, अनुशासन भी उतना सख्त नहीं होता और इसी बात को ध्यान में रखते हुए, उसने 10 1 के लिए कॉलेज में दाखिला ले लिया। कॉलेज के जिस खुले वातावरण की तस्वीर उसने अपने दिमाग में बिना रखी थी, वास्तविक वातावरण उससे बढ़कर ही था, कम नहीं। इस माहौल को पाकर उसकी दशा ठीक वैसी ही थी, जैसी खूँटे से छूटे बछड़े की होती है। वह अपनी कक्षाएँ नहीं लगाता, तो अगले दिन कोई उससे यह नहीं पूछता था कि तुम कल आए क्यों नहीं? काम किया है या नहीं, इसकी भी कोई सुध न लेता था। वह कक्षाओं के सामने से बड़ी शान से गुजरा करता था, मगर कोई भी जवाबतलब करने की जुर्रत नहीं करता। इन सब बातों को देख उसका हौसला बढ़ता गया। बचपन में उद्दंडता की जो खुराक उसने पाई थी, वह स्कूली अनुशासन में तो रंग नहीं दिखा पाई थी, लेकिन अब उसके रंग दिखाने के दिन थे।
लंबे कद और मजबूत शरीर के कारण वह अपने हमउम्र के लड़कों से बड़ा दिखता था। उसने शरीर बनाने के लिए जिम ज्वाइन किया था और मजबूत कद-काठी के कारण वह कॉलेज के पहले वर्ष में ही अपना दबदबा बनाने में कामयाब हो गया। स्कूल में वह चाहकर भी अपनी ताकत का प्रदर्शन नहीं कर पाया था, लेकिन अब उसे अपने भीतर मौजूद उग्रता को बाहर निकालने की खुली छूट थी। इससे उसे एक निराले आनंद का अनुभव होता था, इसीलिए वह कभी भी उग्रता दिखाने वाले अवसर को हाथ से नहीं जाने देता था। कॉलेज के प्रेजीडेंट के चुनावों में भी वह बढ़ चढ़कर भाग लेता था। 'कॉलेज में वह पढ़ाई करने के लिए आया है।' यह बात तो उसे याद ही नहीं थी। याद था, तो बस इतना कि वह कॉलेज का दादा है। और उसकी दादागिरी का रंग तब और अधिक जम गया, जब लगातार तीन वर्ष तक वही लड़के प्रेजिडेंट बने जिनका उसने समर्थन किया था।
शीर्ष पर पहुँचने की तमन्ना भला किसे नहीं होती, फिर जिसने अनेक लोगों को अपने माध्यम से शीर्ष पर पहुँचते देखा हो, वह स्वयं शीर्ष के लिए लालायित क्यों न हो? यादवेन्द्र के सहयोग से अब तक तीन लड़के कॉलेज के प्रेजिडेंट बन चुके थे, इसलिए इस बार उसने स्वयं चुनाव में खड़े होने की घोषणा कर दी। यादवेन्द्र अपने बीस-तीस समर्थकों के साथ मार-पीट का उस्ताद था, लेकिन चुनाव जीतने के लिए इतना ही काफी न था। औरों के चुनाव में भले ही यह काफी होता था, मगर अपने चुनाव में उसे दोस्त बनाने की कला को सीखने की जरूरत भी अनुभव हुई। इसके लिए सबके आगे हाथ जोड़ना ज़रूरी था, लेकिन उसका स्वभाव उसे इसकी इजाजत नहीं देता था, इसलिए उसने दूसरा रास्ता निकाला। यह रास्ता था, धन लुटाने का और धन लुटाकर दोस्त बनाना कौन सा मुश्किल काम है। इस प्रकार वह मारपीट और धन दौलत के सहारे कॉलेज के प्रत्येक विद्यार्थी से मिलने की योजना बनाने में मग्न हो गया। कॉलेज के लगभग सभी विद्यार्थी उससे प्रभावित थे, क्योंकि उसके दिल में दिलेरी थी। जिस प्रकार कोई छोटा पौधा तब तक विकसित नहीं हो सकता, जब तक उसे पर्याप्त मात्रा में खुराक न मिले, उसी प्रकार दिलेरी भी तब तक नहीं आती, जब तक उसे प्रोत्साहन न मिले। यह प्रोत्साहन तो यादवेंद्र को बचपन से ही मिल रहा था। तब उसे 'बिल्ली आ जाएगी कहकर डराया नहीं जाता था, बल्कि बिल्ली का गला पकड़ना सिखाया गया था।' अब वह पौधा ऐसा वृक्ष बन चुका था, जिसे किसी प्रोत्साहन की जरूरत न थी। वह खुद धरती से अपने लिए पर्याप्त मात्रा में खुराक प्राप्त कर सकता था। यादवेन्द्र अपनी दिलेरी का दिल खोल कर प्रयोग करता था। चुनाव के लिए उसकी पार्टी की मीटिंग हुई। खर्च का अनुमान लगाया गया। चंदे का अंदाजा भी लगाया गया। पचास हजार रुपये देने की जिम्मेदारी यादवेन्द्र ने ख़ुद उठा ली|
यादवेन्द्र को विश्वास था कि वह अपने पिता से इतने रुपए प्राप्त कर लेगा, क्योंकि उसे कभी भी मना नहीं किया गया, हालाँकि इतनी राशि एक साथ माँगने की ज़रूरत उसे आज तक नहीं पड़ी थी। राशि थोड़ी ज्यादा होने के कारण वह मौका बनाकर पैसे माँगना चाहता था, क्योंकि एक बार इंकार होने पर बात बिगड़ सकती थी, इसलिए उसने उचित अवसर का इंतजार शुरू किया। शाम के समय जब यादवेन्द्र का पिता फुरसत में था और माँ रजवंतकौर उसके पास बैठी थी और दोनों गृहस्थी की समस्याओं पर विचार-विमर्श कर रहे थे, तभी यादवेंद्र को लगा कि यह उचित अवसर है। वह अपनी बात उसी समय शुरु करना चाहता था, जब उसकी माँ पास हो, क्योंकि माँ के सहयोग की उसे पूरी-पूरी आशा थी। वह इकलौता पुत्र था। माँ-बाप दोनों का खूब स्नेह उसे मिला था। माताओं की अनुकंपा तो अपनी संतान पर रहती ही है और जब संतान एकमात्र बेटा ही हो, तो यह अनुराग और भी बढ़ जाता है। यादवेन्द्र उनके पास आ बैठा और बोला, "पापा मुझे कुछ रुपए चाहिए?"
प्रतापसिंह बड़ा हैरान हुआ कि अब तक तो उसने उससे पैसे माँगने की जरूरत ही नहीं समझी थी, फिर आज क्या हुआ? फिर उसने सोचा, बेटे को शिष्टाचार की याद आ गई होगी। कृतज्ञ होकर बोले, "सेठजी से ले जाओ।"
यादवेन्द्र पहले भी आढ़त की दुकान वाले सेठजी से रुपए ले जाया करता था। वह विनम्रता से बोला, "जी, ले जाऊँगा। वैसे मैं कॉलेज में चुनाव लड़ रहा हूँ, इसलिए कुछ ज्यादा की जरूरत थी, तभी आपसे पूछा है।"
"कितने चाहिए?"
"यही कोई चालीस-पचास हजार से काम चला लूँगा, बाकी तो हमारी पार्टी इकट्ठे कर ही रही है।"
"चालीस-पचास हजार !" - प्रतापसिंह के पाँवों के नीचे से जमीन खिसक गई। फिर अपने आपको कुछ संभालते हुए बोला, "बेटा क्यों इन झंझटों में पड़ते हो, हमने क्या लेना है राजनीति से और फिर कॉलेज की राजनीति से कौन सी मिनीस्टरी मिलने वाली है।"
लोहे को गर्म होते देख यादवेन्द्र ने फिर प्रहार किया, "कॉलेज की राजनीति से ही तो आगे बढ़ा जाएगा, यह तो पहला कदम है और इसी से मंजिल का रास्ता निकलता है, जो कभी न कभी मिल ही जाएंगी।"
प्रतापसिंह की गंभीर मुद्रा देखकर रजवंत बोली, "अजी क्यों रोक रहे हो मुन्ने को, भगवान की दया से एक ही तो बच्चा है, फिर हम कमाते किसलिए हैं। इस उम्र में न खर्चा न करेगा तो कब करेगा। कर लेने दो उसको शौक पूरे।"


क्रमशः