Chutki Didi - 20 in Hindi Fiction Stories by Madhukant books and stories PDF | छुटकी दीदी - 20

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छुटकी दीदी - 20

- 20 -

ज्योत्सना तो अकेली पड़ गई है, यह सोचकर भाग्या ने एक सप्ताह के कपड़े अपने बैग में डालने आरम्भ कर दिए। अपनी सूती साड़ी को बैग में रखने लगी तो सोने का कंगन निकल कर फ़र्श पर घूमने लगा। कंगन उठाकर एक दृष्टि उसने अपनी कलाई में पहने कंगन पर डाली और दूसरी दृष्टि हाथ में लिए कंगन पर। दोनों कंगन अपने पास देखकर उसका दिमाग़ घूम गया। कंगन के चोरी होने और सलोनी द्वारा खोज कर देने का सारा दृश्य उसकी नज़रों के आगे आ गया।

अचानक वह बहुत ज़ोर से चिल्लाई, ‘हे भगवान, आज मेरी माँ मर गई …,’ बोलकर वह बेहोश हो गई। चीख सुनकर उसकी सास किचन से भागी आई। पति जो अलमारी से सामान निकाल रहा था, ने उसे सहारा देकर लिटाया। माँ की आँखों में तैरते प्रश्न को भाँपकर भाग्या के पति ने बताया, ‘माँ, यह ‘हे भगवान, आज मेरी माँ मर गई’ कहकर बेहोश हो गई है।

‘लेकिन, गुजरी तो इसकी बहन सलोनी है ..?’

‘हाँ माँ, सलोनी ही गुजरी है।’

सास की निगाह भाग्या के हाथ में पकड़े कंगन पर पड़ी तो उसने पूछा, ‘बहू के पास एक जैसे दो कंगन, उसके पास तो एक ही कंगन था?’

भाग्या के मुँह पर पानी के छींटे मारे गए तो वह होश में आई। 

‘बहू, हमें तो सूचना मिली थी कि तेरी बहन गुजरी है?’

‘हाँ माँ, आज वही मेरी माँ बन गई।’

‘वह कैसे?’

‘ये दोनों कंगन देख रही हैं ना आप! नानी की छमाही बरसौदी पर जब मैं दिल्ली गई थी, तब वहाँ मेरे कंगन खोने की घटना के बारे में मैंने आप सबको बताया था। छुटकी ने मेरा कंगन ढूँढ कर नहीं दिया था बल्कि अपना कंगन निकालकर दे दिया था। आज खोया हुआ यह कंगन अटैची में रखी सूती साड़ी में से निकला है। अब मेरी आँख खुली है। इतना त्याग तो मेरी माँ भी शायद मेरे लिए ना करती! … मैं जब भी दिल्ली जाती थी तो मेरे लिए, मेरे बच्चों के लिए ढेरों सामान ख़रीद कर रखती थी,’ भाग्या बोलते-बोलते रोने लगी, ‘मैं उसकी बड़ी बहन हूँ, पर आज उसने मुझे बहुत छोटी बना दिया और खुद छुटकी से बड़की बन गई।’

‘बहू को सँभालो, … छुटकी ने तो हमारी भी आँखें खोल दी हैं। … तुझे जाना भी है बहू … मैंने तुम्हारे पापा से प्लेन के टिकट कराने के लिए बोल दिया है। समधन बेचारी अकेली हैं, तुम फटाफट दिल्ली जाकर सारे काम सँभालो।’

सास की इतनी सहानुभूति वाली बातें सुनकर भाग्या का हौसला बढ़ गया। आज पहली बार उसे अपनी सास माँ जैसी लगी।

…….

शवयात्रा ले जाने से पूर्व भाग्या की प्रतीक्षा की जा रही थी। फ़्लैट के बाहर रखे सलोनी के शव से लिपट कर भाग्या बहुत रोई, ‘छुटकी, मरने के बाद तुमने मुझे छोटा कर दिया। हमें तो बेबस करके चली गई। … कैसे हम तेरे उपकार का बदला चुकाएँगे? …’ माँ ने उसको सँभाला। वह माँ के गले से लगकर बहुत रोई।

सुकांत सामने पत्थर पर बैठे सलोनी के मृत शरीर को एकटक देखे जा रहा था। उसके वश में होता तो वह तुरन्त अपनी सलोनी को खड़ा कर लेता। … उसके ख़्यालों में सलोनी की बहुत-सी बातें घूम रही थीं। सलोनी ने अंतिम दिनों में सौगंध दी थी कि ना मैं उससे मिलूँ और ना उसे फ़ोन करूँ … एक नया जीवनसाथी तलाश लूँ तथा कैंसर के प्रति जागरूकता फैलाने में सहयोग करूँ … नया साथी कैसे तलाशा जाए … सलोनी, तुम्हारे जैसा और कोई नहीं हो सकता … कैसी है यह सौगंध … ना निभाई जा सकती है, ना तोड़ी जा सकती है … हाँ, कैंसर के प्रति जागरूकता फैलाई जा सकती है … मेरी तड़पन … मेरी बेचैनी को तुमने नहीं पहचाना, सलोनी! जब से जान-पहचान हुई, एक मृग-मरीचिका ही बनी रही।

धीरे-धीरे स्कूल का स्टाफ़ भी आने लगा। दो बसों में भरकर नौवीं और दसवीं कक्षा के छात्र भी आए। अपने पीटीआई की अगुवाई में सबने सलोनी के शव पर पुष्पांजलि अर्पित की। शिक्षकों ने शव पर माल्यार्पण किया और फिर देखते-ही-देखते बिलखते हुए लोगों ने शव को एंबुलेंस में रख दिया।

‘राम नाम सत्य है, सत्य बोलो, गत्य है’, सामूहिक उच्चारण के साथ छुटकी की अंतिम यात्रा आरम्भ हो गई। सभी घरवाले एंबुलेंस को जाते एकटक देखते रहे।

परिवार के अलावा सब लोग अपने-अपने घरों को लौट गए। घर में रह गईं भाग्या और माँ।

भाग्या बोली, ‘माँ, हमारे परिवार को किसी की नज़र लग गई। एक के बाद एक सदस्य मौत के मुँह में जा रहा है!’

‘भाग्या, ऊपर जाने का तो मेरा समय था, यह कच्ची कली तो फूल भी नहीं बन पाई थी कि साख से टूट कर बिखर गई,’ माँ का मन भर आया। ‘माई ने इसकी शादी के लिए पचास लाख रुपया जमा करवा रखा है, पचास हज़ार सरकारी वेतन मिलता … सब मुझे सौंप देती। फिर छोटे-छोटे ख़र्चों के लिए मुझसे पैसे माँगती। आज के जमाने में है कहीं ऐसी लड़की… पैसे से तो उसका मोह ही नहीं था।’

‘माँ, मुझे तो उसने बहुत बड़ा धोखा दिया। नानी की छमाही पर आई थी तो मेरा कंगन जो तुमने मुझे दिया था, गुम हो गया था। शोर-शराबा होते देख उसने अपना कंगन मुझे यह कहकर दे दिया था कि उसने गुम कंगन ढूँढ लिया है। अब जब मैं यहाँ आने के लिए कपड़े सँभालने लगी तो एक साड़ी में उलझा मेरा कंगन मिल गया। अपना कंगन मुझे देते हुए तनिक ज़ाहिर नहीं होने दिया छुटकी ने। अब वह इस दुनिया से जा चुकी है, बताओ, मैं कैसे उसके उपकार की बदला उतारूँ?’

‘यह बात उसने मुझे भी कभी नहीं बताई। कैसी लड़की थी! … देवी थी वह, हमारी नज़रों के सामने गुजर गई और भाग्या, हम उसकी पूरी देखभाल भी नहीं कर पाए। बेटी, अब पछताने से क्या लाभ! मेरी तो समझ में यह भी नहीं आता कि उसकी शादी के लिए जमा रुपयों का क्या करूँ?’

‘माँ, उसने मुझे इतना दिया है, मैं तो उसके बोझ तले दबी जा रही हूँ,’ अचानक उसे एक विचार आया, ‘माँ, अंतिम दिनों में सलोनी कैंसर के रोगियों के लिए बहुत काम करती रही, क्यों ना हम यह रक़म कैंसर रोगियों के लिए दान कर दें। इससे उसकी आत्मा को भी शान्ति मिलेगी।’

‘भाग्या, बात तो तेरी बहुत ठीक है। स्वामी जी के आश्रम में कैंसर रोगियों के लिए दान करना बहुत नेक कार्य होगा। एक-दो दिनों में स्वामी जी के साथ बात कर लेते हैं। यह काम होने पर मन से बहुत बड़ा बोझ उतर जाएगा।’ इस बातचीत के बाद निश्चिंत भाव से माँ किचन में चली गई।

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