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सलोनी के फ़्लैट के पीछे कुछ झुग्गियाँ थीं। वहाँ की अधिकांश औरतें यहाँ की पॉश कॉलोनी के घरों में काम करती थीं। एक कामवाली के माध्यम से सलोनी ने पढ़ाने के लिए कुछ बच्चे एकत्रित कर लिए। माँ तो इस काम से खुश नहीं थी, परन्तु नानी ख़ुश थी। नानी की सहमति मिलने पर माँ भी कुछ विरोध नहीं कर पाती थी।
धीरे-धीरे नानी भी यहाँ के समाज से जुड़ने लगी। सुबह मन्दिर जाती। दोपहर को मन्दिर में कथा पढ़ी जाती तो नानी प्रतिदिन सुनने जाती।
बाड़ी को बेचने से मिली रक़म की व्यवस्था अग्रवाल जी की सहायता से सलोनी ने कर ली थी। सब निश्चिंत हो गए थे।
सायं को वीणा अग्रवाल जी के साथ मिलने आई, ‘ज्योत्सना बहन, सब काम ठीक-ठाक निबट गए। कल हम अपने बेटे के पास अमेरिका जा रहे हैं। अब यह फ़्लैट, सब सामान आपका हुआ।’ वीणा ने घर की सब चाबियाँ उन्हें सौंप दीं। केवल मेन गेट की एक चाबी रख ली जो सुबह जाते समय देनी थी।
‘वीणा बहन, देखो, सामान का भरा हुआ फ़्लैट छोड़ कर जा रहे हो, इसका कुछ मूल्य तो ले लो …। भाई साहब की मेहरबानी से रुपए-पैसे की तो कोई कमी रही नहीं।’
‘हमने इसकी क़ीमत ले ली है,’ अग्रवाल जी ने कहा।
‘भाई साहब, आपके पहले ही हम पर बहुत उपकार हैं। व्यवहार की बात है, आप इसका उचित मूल्य ले लें,’ ज्योत्सना ने आग्रह किया। ‘वीणा बहन, आप ही कुछ बोलिए, किसी पर इतने उपकार नहीं करते कि वह उनके नीचे दब जाए।’
‘यह उपकार नहीं है, भाभी जी। सच मानिए, हमने मकान की क़ीमत आपसे पहले ही वसूल ली है।’ जवाब अग्रवाल जी ने दिया।
‘वो कैसे, कुछ बताओ तो सही भाई साहब …?’
‘देखो भाभी जी, आपकी कोलकाता वाली बाड़ी दो करोड़ पन्द्रह लाख की थी तो मैंने एक प्रतिशत कमीशन ख़रीदार से ले लिया। उसका हमें दो लाख पन्द्रह हज़ार रुपए मिल गए। अब आप लोगों से इस काम के हम कमीशन खाएँ तो हम जैसा घटिया आदमी कौन होगा? …. तो हमने निश्चित कर रखा था कि यह रक़म आपको लौटाकर जाएँगे…. अब यह रक़म हमने आपसे सामान की क़ीमत के रूप में ले ली। अब बताओ, हिसाब बराबर हुआ कि नहीं?’
‘आपने तो कमाल कर दिया, भाई साहब! कोई अपना भी इतना उपकार नहीं कर सकता। आपका इतना सहारा था …. अब आप भी चले जाएँगे तो बहुत अकेलापन लगेगा …।’ ज्योत्सना की आँखें भर आईं, जिसे वीणा ने गले लगाकर सँभाल लिया।
सुकांत का पहले भी फ़ोन आया था। तब सलोनी किसी के साथ बैठी थी। बार-बार सोचती रही कि फ़ोन लगा लूँ, परन्तु कुछ-न-कुछ व्यस्तता चलती रही। अग्रवाल जी बैठे थे, तब भी फ़ोन आया और सलोनी को फ़ोन काटना पड़ा।
उनके जाने के बाद सलोनी ने सुकांत बाबू को फ़ोन लगाया।
‘अरे सलोनी, आज कहाँ थी? मैं कब से तुम्हें फ़ोन लगाकर परेशान हो रहा हूँ,’ ग़ुस्सा जताते हुए सुकांत ने अपना विरोध व्यक्त किया।
‘सुकांत बाबू, आप तो बहुत सहनशील हैं, आज ऐसे उद्विग्न कैसे हो गए?’
‘मुझे तुमको ख़ुशी का समाचार देना है। वही देने के लिए मैं बेचैन हो रहा हूँ।’
‘अच्छा, तो बताओ ना जल्दी से! अब हम भी ख़ुशी का समाचार सुनने के लिए अधीर हो रहे हैं।’
‘तो सुनो, मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ।’
‘वो कैसे?’
‘दिल्ली से सत्तर किलोमीटर दूर हरियाणा में एक सुपवा विश्वविद्यालय है। वहाँ के लिए मुझे नियुक्ति पत्र मिला है और अगले माह तक सब औपचारिकताएँ पूरी करके मैं तुम्हारे पास आ जाऊँगा।’
‘यह तो बहुत शुभ समाचार है। बहुत-बहुत बधाई।’ सलोनी को लगा, आकाश में बैठा चाँद अचानक उसकी मुट्ठी में आ गया हो! एक-एक करके सारे सपने सच होते जा रहे थे, उसने दोनों हाथ ऊपर उठाकर ईश्वर का धन्यवाद किया।
…….
बनर्जी मैम देर रात तक सलोनी के बारे में चिंता करती रही। उसने सलोनी को चिंता मुक्त करने के लिए, उत्साहित करने के लिए झूठ तो बोल दिया था, परन्तु जबसे उसने सलोनी की ब्रेस्ट को देखा है, तब से वह चिंतित है। … क्या करना चाहिए … वह निर्णय नहीं कर पा रही … झूठ-मूठ का दिलासा देकर सलोनी को भुलावे में रखा जाए तो वह भी ठीक नहीं होगा … इस बीमारी की उचित जाँच में जितना विलम्ब होगा, उतना ही अधिक ख़तरा है। … बीमारी की जाँच कैसे कराई जाए … यदि सच में ही बीमारी हुई तो … हे भगवान, इस बच्ची का क्या होगा जो अभी-अभी फूल बनकर मुस्कुराने लगी है। … अपनी माँ-नानी का कितना ख़्याल रखती है …इतना तो कोई लड़का भी नहीं रख पाता। दोनों की सेवा के कारण आज तक उसने विवाह नहीं किया है। बहन और उसके बच्चों के लिए हर दिन कुछ-न-कुछ ख़रीद कर भिजवाती रहती है। ऐसा लगता है जैसे यह उस परिवार की माँ हो! स्कूल में ड्राइंग विषय को लेकर छात्रों में इतनी रुचि पैदा हो गई है कि वे अधिकांश समय चित्रकला में ही लगे रहते हैं। कई शिक्षक सलोनी से शिकायत भी करते हैं, ‘आपके छात्र हमारे पीरियड में भी चित्रकला करते रहते हैं। स्कूल की दीवारों पर सुन्दर स्लोगन लिखना, बरामदे में महापुरुषों के चित्र बनाना, श्यामपट्ट पर प्रतिदिन समाचार लिखना, कक्षा में नया विचार लिखकर श्यामपट्ट तैयार करना, उसपर बेल-बूटे बनाना, सब कार्यों में छात्र-छात्राएँ सलोनी मैम के निर्देशन में लगे रहते थे।
गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस, वन महोत्सव, ऊर्जा संरक्षण, जल संरक्षण, पृथ्वी संरक्षण, मिट्टी संरक्षण, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, एक भारत श्रेष्ठ भारत … सरकार की कोई भी योजना हो, उसके लिए चित्र सेन्ट्रल स्कूल दिल्ली में ही तैयार होते। राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होने वाले वाली ‘बाल चित्रकला प्रतियोगिता’ की राष्ट्रीय कमेटी में सलोनी भी एक सदस्य है।
इस प्रकार सलोनी के होने से स्कूल की प्रतिष्ठा बढ़ी है। फलस्वरूप शिक्षक मंडल व छात्र सलोनी का बहुत आदर करते हैं।
स्कूल में भी सलोनी बहुत समर्पण भाव से काम करती थी। दूसरे शिक्षक तो ख़ाली पीरियड आते ही प्रिंसिपल मैम से छुपते फिरते, किन्तु सलोनी ख़ाली होते ही उनके ऑफिस में जाकर कहती, मैम! कोई काम है तो बताइए। प्रिंसिपल मैम ने एक दिन प्यार से उसे डाँटते हुए कहा, ‘सलोनी, तूने मुझे पंगु बना दिया है … टाइम टेबल लगाना … वेतन रजिस्टर तैयार करना …. प्रतिदिन की डाक पढ़ना … उनका जवाब देना … लगता है, तुमने मुझे राष्ट्रपति बना दिया है … केवल रबर स्टैंप।’
‘ऐसी बात नहीं है मैम, हमने आपसे ही तो सीखा है। आपका आशीर्वाद ही हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।’
‘सलोनी, काश! तू मेरी बेटी होती। … बीस वर्ष की नौकरी में इतना समर्पित टीचर तो मैंने कभी देखा नहीं।’
‘आपकी बेटी ही तो हूँ,’ नटखट बच्चे की भाँति सलोनी ने कहा।
‘सलोनी, मुझे सब पता है, तुम अपनी माँ और नानी की समर्पित बेटी हो। मेरे स्कूल की होनहार शिक्षक हो। तुम एक राष्ट्र- निर्माता हो। तुम जैसी कुछ और बेटियाँ हमारे भारत में पैदा हो जाएँ तो हमारा देश विश्व का सिरमौर बन सकता है।’
प्रिंसिपल मैम की बातें सुनकर सलोनी का मन अत्याधिक उत्साह से भर गया और वह पीटीआई मैम के पीरियड में जाकर कुछ छात्रों की मदद से स्कूल में पौधे लगाने लगी।
लंच में सलोनी ने बनर्जी मैम को बताया कि सुकांत बाबू की नियुक्ति सुपवा यूनिवर्सिटी में हो गई है और वे अगले माह दिल्ली आ रहे हैं। यह बताते हुए सलोनी लज्जा गई।
बनर्जी मैम आज घर से सोचकर आई थी कि सलोनी को डॉक्टर से टेस्ट कराने के विषय में कहूँगी, परन्तु उसकी ख़ुशी और उमंग को देखकर उसने इस दुखद प्रसंग को छेड़ना ठीक नहीं समझा।
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