Chutki Didi - 4 in Hindi Fiction Stories by Madhukant books and stories PDF | छुटकी दीदी - 4

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छुटकी दीदी - 4

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नानी के पास ज्योत्सना का फ़ोन आया कि भाग्या की शादी निश्चित कर दी है। कानपुर का व्यापारी परिवार है। लड़का हमारी भाग्या से तो कम पढ़ा है, परन्तु लोहे की दुकान पर बैठता है, खूब कमाता है। घर का मकान, दुकान, ज़मीन, जायदाद सब अच्छा है। फ़ोन दूसरे कान से लगाकर कहा, ‘माई, परिवार थोड़ा लालची तो लगता है, परन्तु एक बार ताक़त लगा देंगे तो लड़की सारी उम्र सुख से रहेगी। शादी का दिन निश्चित होने पर आपको खबर दूँगी। आप दोनों एक सप्ताह पूर्व आकर सब काम सँभाल लेना।’

नानी हाँ-हूँ करते हुए सुनती रही। सलोनी पास बैठी सब बातें सुन रही थी। दीदी के विवाह की बात सुनकर वह खुश तो हुई, क्योंकि उसने अपने परिवार में अभी तक कोई शादी नहीं देखी थी, परन्तु माँ के मुँह से दहेज की बात सुनकर उसको अन्दर-ही-अन्दर क्रोध आ रहा था। जब भाग्या उससे अधिक पढ़ी लिखी है, अधिक सुन्दर है, फिर दहेज भी साथ देना पड़े …. यह तो बहुत नाइंसाफ़ी है। हे भगवान, किसने बनाए हैं ये शादी के नियम क़ानून! इन दहेज के लोभी लोगों के साथ तो सम्बन्ध ही नहीं जोड़ना चाहिए।

यह प्रश्न सलोनी के मन में घूमता-घूमता मुँह तक आ गया, ‘नानी, लड़की के विवाह में दहेज क्यों देना पड़ता है?’

‘बेटी, यह विवाह में कन्यादान करने की परम्परा है। बहुत समय से चली आ रही है। कन्यादान करने से बड़ा पुण्य भी मिलता है।’

‘और नानी, किसी के पास कन्यादान करने की सामर्थ्य ना हो तो …?’

‘सब अपनी हैसियत के अनुसार सम्बन्ध जोड़ते हैं। तू चिंता ना कर, मैंने तेरे लिए सब दहेज सहेज कर रखा है,’ नानी ने अपनी बुद्धि के अनुसार समझा तो दिया, परन्तु सलोनी को कुछ समझ में नहीं आया। दीदी के विवाह का समाचार सुनकर वह अधिक खुश नहीं थी।

साँझ होते-होते सलोनी भाग्या की शादी के विषय में सोच-सोच कर इतनी आत्मविभोर हो गई कि भाग्या से बातचीत करने के लिए अपने आप को रोक नहीं पाई। सलोनी ने भाग्या को फ़ोन लगाया तो घंटी बजती रही। कुछ देर घंटी बजने के बाद फ़ोन पर आवाज़ आने लगी - आप जिस व्यक्ति को कॉल कर रहे हैं, वह उत्तर नहीं दे रहा है। कृपया कुछ समय पश्चात प्रयास करें।

कितने उत्साह से फ़ोन लगाया था, झुंझलाकर सलोनी पाँव पटकने लगी। यह भाग्या भी न जाने कहाँ चली गई … वैसे इस समय वह घर से बाहर जाती तो नहीं … ज़रूर उसने अपने फ़ोन को इधर-उधर रख दिया होगा और महारानी बैठी टीवी देख रही होगी ….तभी फ़ोन की घंटी बज उठी। सलोनी ने देखा, सचमुच भाग्या का फ़ोन था। तुरन्त उसने फ़ोन को चालू करके कान से लगाया, ‘भाग्या देवी, कहाँ चली गई थी, हम तो कितनी देर से तुमसे बातें करना चाह रहे हैं।’

‘अरे, एक मिनट तो हुआ है, किचन में आटा गूँथ रही थी। तुम्हारा फ़ोन देखकर आटा गूँथना भी अधूरा छोड़ दिया और तुरन्त हाथ धोकर तुम्हारे दरबार में हाज़िर हो गई हूँ।’

‘अरे वाह भाग्या, तुमने तो कमाल कर दिया! अब तो तुम्हारी ज़ुबान बहुत मीठी हो गई है, लेकिन अब तुम्हें हमारे दरबार में आने की फ़ुर्सत कहाँ, अब तो तुम्हारे लिए नया दरबार सजकर तैयार हो रहा है।’

‘सलोनी, एक पुराना और दूसरा नया, अब दो दरबारों की मालकिन बन जाएँगे। जहाँ मन करेगा, उसी दरबार में चले ज़ाया करेंगे।’

‘कहने की बातें हैं दीदी। एक बार नए दरबार का रंग चढ़ गया तो पुराना दरबार भूले से भी याद नहीं आएगा।’

‘ऐसा नहीं है सलोनी, अपनी प्यारी-प्यारी संघर्षशील माँ को कैसे भूल सकते हैं …. पिताजी को गुज़रे तो बरसों बीत गए … उसके बाद माँ ने ही हमें ममता और पिता जैसा संरक्षण दिया है, और सलोनी जैसी छुटकी दीदी को कैसे भूल सकती हूँ जो उम्र में कम होते हुए भी सदैव मेरी बड़ी बहन बनकर मार्गदर्शन करती रही है,’ आत्मीय संवेदनाओं के फलस्वरूप भाग्या का स्वर गीला हो गया। मीलों दूर बैठी सलोनी ने उसे भाँप लिया तो तुरन्त उसने इस विषय को झटककर बदल दिया, ‘भाग्या, ज़रा यह तो बता, हमारे जीजू कैसे हैं?’

‘फ़ोटो भेजा है तुम्हारे व्हाट्सएप पर …।’

‘अरे दीदी, फ़ोटो से किसी के रंग-रूप का क्या पता लगता है! शादी के लिए फ़ोटो भेजा जाता है तो फ़ोटोग्राफ़र अपने हुनर से सबका फ़ोटो सुन्दर ही बना देता है। ख़ैर दीदी, चेहरे का नाक नक़्शा तो बहुत अच्छा है। मेरा अनुमान है, रंग-रूप भी अच्छा होगा, परन्तु यह बताओ, जीजू का स्वभाव कैसा है?’

‘पाँच मिनट में स्वभाव का क्या पता लगता है, परन्तु उनको दिखावा करना नहीं आता। मुझे तो एकदम सरल स्वभाव लगा।’

‘फिर तो राज करेगी हमारी दीदी, वाह मज़े आ गए …. परन्तु दीदी, एक बात बताओ, क्या तुम्हारी एकांत में बातचीत हुई?’

‘हाँ, पाँच मिनट तक …।’

‘तो उन्होंने आपसे क्या पूछा?’

‘उन्होंने पूछा, भाग्या तुम्हारा नाम क्या है? सुनकर मैं खिलखिला कर हँस पड़ी। तुरन्त उन्हें ध्यान आया तो वे एकदम झेंप गए। फिर उन्होंने कुछ नहीं पूछा तो मैं ही बोल पड़ी, कहिए, आपको क्या-क्या पसन्द है? …. ‘मुझे सब पसन्द है, बिल्कुल सब पसन्द है,’ कहते-कहते उनके चेहरे पर पसीने की बूँदें छलकने लगीं। मैंने पूछा, आपने अपनी पढ़ाई बीच में क्यों छोड़ दी? तो बोले, ‘पापा दुकान पर अकेले थे, इसलिए उन्होंने मुझे पढ़ाई से उठा लिया..।’ उनकी आवाज़ में कंपन था, इसलिए मैंने आगे कुछ नहीं पूछा। एक मिनट इंतज़ार करके वे बाहर निकल गए।’

‘वाह दीदी, तुमने तो पहली मुलाक़ात में ही बिल्ली को मार लिया। अब उम्र भर अपने मियाँ को उँगलियों पर नचाना।’

‘धत् सलोनी, तू भी बिल्कुल बेशर्म हो गई है,’ हल्के से भाग्या ने छुटकी को डाँटा।

‘अच्छा है दीदी, मन में तो लड्डू फूट रहे हैं और ऊपर से ग़ुस्सा कर रही हो। चलो, यह तो अच्छा हुआ। अब आप काम की बातें सुन लो। माँ के पास बैठकर शादी की सब योजना बना लो … एक डायरी में लिख लो …. नानी ने तुम्हारी शादी की बहुत सारी तैयारी कर रखी है और क्या-क्या तैयार करना है, वह लिस्ट मैं आपको भेज दूँगी। जो सामान ख़रीदना है, माँ से पूछ कर उसकी भी लिस्ट बनाकर हमें भेज देना। अधिकांश ख़रीदारी हम कोलकाता से ही करेंगे, समझ गई?’

‘समझ गई मेरी बड़ी अम्मा, समझ गई। अब मुझे आटा गूँथ कर खाना बनाना है। शेष बातें बाद में करेंगे।’

‘ओ.के. भाग्या दीदी, नमस्कार।’ दोनों का फ़ोन चुप हो गया।

धीरे-धीरे विवाह का दिन भी आ गया। कितने उत्साह और ख़ुशी से विवाह की तैयारियाँ चल रही थीं। सभी स्त्री-पुरुष, सगे-सम्बन्धी नए-नए परिधान पहने चहकते-महकते घूम रहे थे। महिलाएँ भाग्या को उबटन लगाकर गीत गाते हुए स्नान कराने की तैयारी कर रही थीं।

बारात धर्मशाला में पहुँच गई थी। सीताराम जी उनका स्वागत करने, खिलाने-पिलाने में भागदौड़ कर रहे थे। 

पंडाल के दूसरे छोर पर बाल, युवा लड़के-लड़कियाँ फ़िल्मी गानों के साथ अंत्याक्षरी खेल रहे थे। पंडाल के बीच में पंडित जी वेदी सजा रहे थे। फूलवाला जल्दी-जल्दी सजाने का कार्य पूरा कर रहा था। पूरा पंडाल सेंट की सुगंध से महक रहा था। 

अचानक से सुबकती हुई ज्योत्सना ने कमरे में प्रवेश किया। नानी भी उसके पीछे-पीछे चली आ रही थी, ‘अरे ज्योत्सना, क्या हुआ है, बता तो सही?’

सलोनी भी सतर्क होकर माँ के पास आ गई।

‘माई, लड़के वालों ने पंडित जी द्वारा संदेश भेजा है कि लड़के की अंगूठी हल्की बनवाई है। कहते हैं, डेढ़ तोले की बात हुई थी और अब एक तोले की अंगूठी भेजी है,’ कहते-कहते ज्योत्सना माई के कंधे से लगकर रोने लगी, ‘कोई मर्द-मानस होता तो उनसे कुछ कहा-सुनी भी करता, परन्तु अब मैं क्या करूँ?’

‘माँ, तुम चिंता मत करो, इन दहेज के लोभी लोगों को हम देखते हैं,’ सलोनी का चेहरा क्रोध से लाल हो गया। 

नानी ने उसका हाथ पकड़ कर रोक लिया, ‘ऐसे मामलों में जल्दबाज़ी करना ठीक नहीं। बारात घर के बाहर बैठी है। सब तैयारियाँ हो चुकी हैं। परिवार-समाज सब एकत्रित है। मैं जैसा कहती हूँ, तुम वैसा करो …।’

सलोनी और माँ नानी की ओर देखने लगीं।

नानी ने अपनी उँगली से एक अंगूठी निकालकर ज्योत्सना को देते हुए समझाया, ‘माना कि वे लालची हैं, परन्तु इतने बड़े काम में छोटे-छोटे त्याग कर देने चाहिएँ। अब पंडित जी के द्वारा उनको यह कहलवा दो कि एक के बदले हमने दो अँगूठियाँ बनवा दी हैं। दूसरी अंगूठी हमारे यहाँ विदाई के अवसर पर भेंट की जाती है। …. और तुम किसी विश्वासपात्र को भेजकर इस पुरानी अंगूठी को बदलवा कर नई मँगवा लो।’

मन तो ख़ुश नहीं था, परन्तु एक रास्ता निकल आया। अब औपचारिकताएँ पूरी होने लगीं। 

सलोनी ने बहुत सारे सवाल जीजा जी से पूछने के लिए, हँसी-मज़ाक़ करने के लिए, मान-सम्मान करने के लिए तैयारी कर रखी थी, परन्तु अब उसका सारा उत्साह समाप्त हो गया। अब तो केवल रस्म-रिवाजों की औपचारिकताएँ पूरी हो रही थीं।

…….

भाग्या के विदा होने के पश्चात् भी सबके मन में नाना प्रकार की शंकाएँ भरी थीं, परन्तु दो दिन बाद जब सलोनी बड़ी बहन को लिवाने गई तो वहाँ सब ठीक-ठाक था।

सबने सलोनी का बहुत सम्मान किया। सलोनी ने जीजू से कहा कि दूर से आने के कारण हम फल और मिठाई नहीं लाए हैं, हमारी अम्मा ने इसके लिए दो हज़ार रुपए दिए हैं। आप हमें फल और मिठाई ख़रीद दें तो आपकी बहुत मेहरबानी होगी।

‘अरे सलोनी, इसमें मेहरबानी की क्या बात है? यह तुमने अच्छा किया। पहले ही तुम्हारे पास इतना सामान था, ऊपर से फल-मिठाई लाती तो सामान और बढ़ जाता तो तुम्हारी आफ़त हो जाती। कुछ समय बाद मुझे बाज़ार जाना है, वहीं से तुम्हारा सामान ख़रीद लाऊँगा।’

‘जीजू, क्या मैं भी आपके साथ चलूँ?’

‘क्यों?’

‘सामान उठाने-रखने में आपकी सहायता कर दूँगी …।’

‘अच्छा! कानपुर में बुलाकर तुमसे सामान उठवाऊँगा? बहुत ताकतवर बनती हो ना!’

यह बात सुनकर सलोनी झेंप गई। वैसे तो उसने इसलिए कहा था कि सामान की पेमेंट वह अपने पास से कर देगी, क्योंकि जीजू ने उससे रुपए पकड़े नहीं थे। घर वापस आकर सलोनी ने अपनी समझ से समस्या का समाधान करते हुए फल और मिठाई के दो हज़ार रुपए भाग्या दीदी को पकड़ा दिए।

‘सलोनी, तुमको हमारा कानपुर कैसा लगा,’ अमर ने चाय की चुस्की लेते हुए पूछा।

‘जीजू, मैं तो दो घंटे पहले ही आई हूँ। इतनी शीघ्र कैसे कुछ बता सकती हूँ, परन्तु मेरी दीदी को यहाँ रहते तो दो-तीन दिन हो गए, वह ठीक-ठीक बता सकती है।’

‘तो अपनी बहन से पूछ लो, उसको हमारा घर परिवार कैसा लगा?’

‘आपकी सब बातें उनको पसन्द हैं।’

‘क्या मतलब?’

‘सगाई के अवसर पर जब आप मेरी दीदी से अकेले में मिले थे, तब दीदी ने आपकी पसन्द पूछी थी तो आपने यही कहा था कि मुझे सब पसन्द है।’

‘अच्छा तो तुम्हारी दीदी ने हमारी सब बातें तुम्हारे कान में डाल दीं?’

‘जी हाँ, जीजी और आपकी एक और मज़ेदार बात भी दीदी ने मुझे बताई है …।’

‘वह क्या?’

‘आपने दीदी से पहला सवाल यही पूछा था - भाग्या, तुम्हारा नाम क्या है?’

यह सुनकर सब खिलखिला कर हँस पड़े।

‘सलोनी, सचमुच मैं नर्वस हो गया था। क्या है … जीवन में कभी किसी लड़की के साथ अकेले में सवाल पूछने का काम ही नहीं पड़ा था।’ 

चाय की आख़िरी घूँट लेकर अमर उठ गया।

अमर कमरे से बाहर गया तो सास ने कमरे में प्रवेश किया, ‘सलोनी बेटी, भाग्या के इस घर में आने से हमारे भाग्य खुल गए हैं। हमारी दुकान का दस वर्ष से केस चल रहा था। कल फ़ैसला हमारे फेवर में आ गया। भाग्या के घर में पैर पड़ते ही परिवार में ख़ुशियाँ बरसने लगी हैं। क्या बताऊँ सलोनी, भाग्या तो मुझे कुर्सी से उठने ही नहीं देती। घर का सारा काम अच्छे से सँभाल लिया है। मेरे बेटे ने कोई पुण्य कार्य किए थे जो भाग्या जैसी पत्नी उसे मिली है। तेरी माँ और नानी भी बड़े दिलवाली हैं, शादी में इतना दहेज दे दिया कि मेरा तो घर ही भर गया।’

तभी किचन से कुकर की सिटी बजी तो सास अपनी बात अधूरी छोड़कर किचन में चली गई।

वापस कोलकाता पहुँच कर सलोनी ने भाग्या के ससुराल का सब समाचार बड़े चाव और उत्साह के साथ नानी को सुनाया। शगुन के फल, मिठाई, दो ड्रेस, कंगन आदि अनेक सामान भाग्या की सास ने सलोनी के लिए दिया था। भाग्या भी बहुत खुश थी। अपनी सास की प्रशंसा करते नहीं थकती थी। फिर भी ज्योत्सना बार-बार सलोनी के पास बैठकर भाग्या के ससुराल के विषय में पूछती रही।

भाग्या ने भी घर आकर बताया कि सब उसको बहुत चाहते हैं और सम्मान भी देते हैं। वह अंगूठी वाली घटना उनके एक बहनोई की शरारत थी अन्यथा उनके मन में कोई लालच नहीं था।

अपनी तसल्ली के लिए ज्योत्सना भाग्या से गहराई से खोद-खोद कर हर सवाल पूछ रही थी, ‘तुम्हारी सास कैसी है भाग्या?’

‘सास अच्छी है। सुबह सायं मन्दिर में बैठकर पूजा करती है। सबके साथ मिलकर काम कराती है। मुझे गले से लगा कर बोली, ‘पिछले वर्ष शादी करके एक बेटी को विदा किया था, उसका अभाव पूरा करने के लिए दूसरी आ गई। बेटी, मुझसे कोई संकोच ना करना। तुझे कोई समस्या लगे तो मुझे बता देना। बहू बनकर नहीं, बेटी बनकर राज करना इस घर में।’

सुनकर ज्योत्सना निश्चिंत हो गई, ‘बाक़ी घर में कोई कैसी भी हो, एक सास अच्छी हो तो उस घर में बहू को कभी कठिनाई नहीं आती, क्योंकि अधिकांश समय बहू को सास के साथ रहना होता है।’

सलोनी का अनुभव अलग था। उसे उस घर में स्वच्छता की कमी लगी। सारा घर अस्त-व्यस्त लगा। मकान बड़ा था, परन्तु पुराने जमाने का था। घर में कई बच्चे घूम रहे थे। उनकी अच्छे से देखभाल नहीं हो रही थी। फिर सलोनी ने सोचा कि व्यापारियों का घर ऐसा ही होता है …. उसे क्या? भाग्या ख़ुश है तो ठीक है, आख़िर रहना तो उसी को है। यह सोचकर सलोनी निश्चिंत हो गई।

…….

शादी के बाद सलोनी नानी के साथ कोलकाता लौट तो आई, फिर भी वह गमगीन रही। दहेज की अंगूठी वाली बात उसके ज़ेहन से निकल ही नहीं रही थी। वह सोचने लगी, हम लोग कितने भयभीत हो गए थे। शादी में हमेशा लड़की वाला ही क्यों भयभीत होता है? यह समानता, समता, बराबरी की बातें नक़ली हैं। वास्तव में, नारी को अभी भी समानता का अधिकार नहीं मिला है। फिर क्यों जीवन भर किसी का ग़ुलाम बना जाए। पति के लिए सजो-संवरो, उसकी पसन्द का खाना बनाओ, उसके विचारों के साथ समझौता करो, अपने संस्कारों को उसकी अच्छी-बुरी आदतों पर न्योछावर करो। तब मिलेगा पतिव्रता होने का प्रमाण पत्र। सलोनी के चेहरे पर विद्रूप-व्यंग्य की रेखाएँ पसर गईं। इससे तो बिना शादी के, अपने ढंग से जीने में बहुत सुख है। सोचते-सोचते उसका विचार दृढ़ होने लगा ….. हम शादी के बंधन में नहीं बंधेंगे।

यह सब क्रोध तात्कालिक था, जो सुकांत बाबू को देखते ही उड़न छू हो गया। सुकांत बाबू भी दुर्गा पूजा की छुट्टियों में घर आए हुए थे। सलोनी ने उनको जंगले में बैठे देख लिया था, लेकिन जो आकर्षण, तत्परता और जिज्ञासा पहले होती थी, वह कहीं कमजोर पड़ गई थी। चंचल उड़ती हुई सलोनी मंथर गति से चलने वाली नदी में बदल गई थी।

दो दिन बाद जीना चढ़ते-उतरते सलोनी और सुकांत बाबू का आमना-सामना हो गया। 

‘सलोनी, इस बार तुम हमें कुछ उदास दिखाई दे रही हो?’

‘नहीं सुकांत बाबू, ऐसी तो कोई बात नहीं है। हम सोचते हैं, उम्र के अनुसार लड़कियों के स्वभाव में बदलाव आता रहता है।’

‘यह तो ठीक है। वैसे आजकल क्या कर रही हो?’

‘हमारे कॉलेज में आर्ट एंड क्राफ़्ट टीचर की ट्रेनिंग शुरू हुई है तो हमने उसी में प्रवेश ले लिया है।’

‘यह तो बहुत अच्छा किया। इसमें तो नौकरी मिलने की संभावना बहुत अधिक है।’ एक क्षण रुककर सुकांत बाबू ने विषय बदल दिया, ‘सलोनी, मैं तुम्हारे लिए कुछ आधुनिक रंग, पेंटिंग ब्रश और ड्राइंग शीट लाया हूँ।’

‘धन्यवाद। कल रविवार है, हम आपके घर आकर ले लेंगे और आप हमें चित्रकला करने की नई-नई बातें भी बताना।’

‘हाँ, यह ठीक है, तो कल मिलते हैं …।’

‘जी,’ सलोनी धीरे-धीरे सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ती गई और सुकांत बाबू नीचे उतरते गए।

घर आकर सलोनी ने नानी से पूछा - ‘नानी, अभी-अभी जीने में सुकांत बाबू मिले थे। कह रहे थे कि वे हमारे लिए उपहार स्वरूप पेंटिंग का सामान लाए हैं। कल हमें उनके पास सामान लेने जाना है, तो क्या हमें भी उनको कोई उपहार नहीं देना चाहिए?’

‘अवश्य देना चाहिए,’ नानी ने तपाक से कहा, ‘वह टेबल लैंप भेंट कर देना जो तुम्हारी माँ ने शादी में दिया था। उसके काम भी आ जाएगा।’

‘बिल्कुल ठीक कहा, नानी। उनके लिए एकदम सुन्दर उपहार है। हम अभी जाकर उसका गिफ़्ट पैक बना देते हैं,’ कहते हुए सलोनी कमरे में चली गई।

दोनों हाथों में उपहार लिए सलोनी ने सुकांत के घर में प्रवेश। 

‘अरे नानी, … नानी … आप कहाँ हो?’

सलोनी को पता था, नानी इस समय मन्दिर में गई हैं। सुकांत से मिलने का यही उपयुक्त समय जानकर तो वह उपहार देने आई थी।

सलोनी ने सुकांत के कमरे के अन्दर आकर आवाज़ लगाई, ‘नानी कहाँ है?’

‘मन्दिर गई हैं,’ सुकांत सलोनी के स्वागत में कुर्सी छोड़ उठ खड़ा हुआ।

‘लो, आपके लिए भी हम एक उपहार लाए हैं।’

‘किस ख़ुशी में?’

‘अरे, हमारी बड़की दीदी की शादी हो गई ना! उनकी शादी में बाँटे गए थे। इसलिए एक उपहार हम आपके लिए ले आए।’

‘परन्तु शादी के बारे में तो तुमने बताया ही नहीं? मालूम होता तो कन्यादान भिजवा देता।’

‘आप तो गए थे शान्तिनिकेतन। कैसे बताते? हाँ, नानी को बताया था, इसलिए उन्होंने अपना कन्यादान भेज दिया था। दोनों हाथों को आगे बढ़ाते हुए, ‘लो, अब शादी का उपहार ले लो।’

‘अरे हाँ,’ चौंकते हुए जाने-अनजाने में जैसे ही सुकांत बाबू ने दोनों हाथों में उपहार पकड़ना चाहा तो सलोनी के दोनों हाथ बीच में आ गए। दो जोड़ी हाथों में बिजली-सी कौंध कर धरती में समा गई। एक उन्माद सा था गया था दोनों में।

पहले सलोनी को ही होश आया, ‘सुकांत बाबू, उपहार को सँभालो, नहीं तो हाथ से छूट जाएगा।’

सुकांत सचेत हुआ। उसने उपहार को कसकर पकड़ा तो सलोनी के दोनों हाथ स्वतन्त्र हुए। लगा जैसे समय ठहर गया हो! बंद होंठ गुनगुनाने लगे। आँखें बोझिल होकर झुक गईं। जीवन में यह कैसा पल आया जो उम्र भर की एक मधुर स्मृति बन गया। दोनों जैसे मूर्ति बन गए, परन्तु दिल अधिक तीव्र गति से धड़कने लगा। 

पुनः सलोनी ने ही मौन तोड़ा, ‘अब हम जाएँ?’

सुकांत चौंक कर स्वप्न-लोक से बाहर आया।

‘अरे, ऐसे कैसे! मैंने तो उपहार देने के लिए तुमको बुलाया था।’ उसने अलमारी से रंगों का डिब्बा, सुन्दर पैकिंग में बंधे ब्रश व कुछ ड्राइंग शीट्स निकाले। सब वस्तुओं से ख़ुशबू बिखर रही थी। दो आत्माओं के समीप आने से बिखरी उष्णता से सुगंध विस्तृत हो रही थी।

‘सलोनी, इन वस्तुओं से ऐसे चित्र बनाना, जिससे तुम्हारी कीर्ति चारों दिशाओं में फैल जाए।’

‘धन्यवाद,’ सलोनी ने हाथ बढ़ाकर सब सामान पकड़ लिया।

‘सम्भव है, नानी जी मन्दिर से लौट आई होंगी,’ कहते हुए सलोनी कमरे से बाहर निकलने लगी तो भी चौखट पर आकर पुनः सुकांत की ओर देखा। वह अभी भी उसको जाते हुए एकटक निहारे जा रहा था। 

घर लौटने के उपरान्त भी दोनों दिन भर मिलन की उस सुगंध को, मृदुल छूअन को बार-बार अनुभव करते रहे। आँखें बंद कर उस दृश्य का चिंतन करते … उस स्पर्श का आनन्द लेते रहे। यह एक अजीब-सा मधुर उन्मादित करने वाला अनुभव था, जिसे सोचकर अब भी सारे शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती है।

*****