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बचपन का तो सलोनी को बहुत कुछ याद नहीं। माँ के पास तो वह आठ वर्ष तक की आयु तक रही। तीसरी कक्षा में माँ उसे नानी के पास छोड़ गई थी। भाग्या उससे दो वर्ष बड़ी थी। इतना तो उसे याद है कि बड़ी होने के कारण भाग्या उससे फल-मिठाई छीन कर खा जाया करती थी। सलोनी कभी उससे झगड़ा नहीं करती बल्कि भाग्या के व्यवहार को देखकर माँ ही उसे डाँटती, ‘बड़की, तुझे लाज नहीं आती, अपनी छुटकी से मिठाई छीन कर खा जाती हो।’ माँ हम दोनों को प्यार से छुटकी और बड़की ही बुलाती थी।
बड़की झगड़े में कभी हाथापाई भी करती तो छुटकी रो देती और रोती-रोती माँ के पास चली जाती। कुछ देर माँ की गोद में बैठकर सुबकती और फिर बड़की दीदी कहते हुए उसके साथ खेलने लगती। नानी के पास रहते हुए जब कभी छुट्टियों में सलोनी माँ के पास दिल्ली आती तो बड़की के लिए छोटा-छोटा ढेर सारा सामान लाती। चाबी से हँसने वाला बंदर, पैन, पेंसिल, पाउडर। बड़की एक-दो दिन ख़ुश होकर उसके साथ खेलती, फिर लड़ने-झगड़ने लगती। वहाँ की सब वस्तुओं पर अपना अधिकार जमाते हुए कई बार क्रोध से कह भी देती, ‘यह तो मेरी माँ का घर है, तेरा घर तो कोलकाता में है।’ माँ भाग्या को समझाती भी, परन्तु अकेली रहकर वह बहुत अभिमानी और ज़िद्दी बन गई थी। माँ सलोनी की तुलनात्मक प्रशंसा करती तो भी उसे बड़ा क्रोध आता।
माँ छुटकी को दुलारती तो भाग्या क्रोध से झल्ला उठती - ‘हट, मेरी माँ की गोद से, यह मेरी माँ है। तुम्हारी माँ तो कोलकाता में है। उसी की गोद में जाकर बैठ,’ कहते हुए सलोनी का हाथ खींच कर भाग्या उसे माँ की गोद से उठा देती, ‘जा, अपने मच्छी वाले कोलकाता में, वहाँ तो हरदम मच्छियों की बदबू आती रहती है।’
‘नहीं, हमारा कोलकाता बहुत अच्छा है। वहाँ सब मीठा-मीठा बोलते हैं और मीठे-मीठे रसगुल्ले खाते हैं। हमारे बंगाली मानुष बहुत अच्छे हैं। हमारे रवीन्द्र बाबू का राष्ट्रीय गान और बंकिम चन्द्र बाबू का राष्ट्रीय गीत सारे देश में गाया जाता है।’
‘गंदा है तुम्हारा बदबू वाला कोलकाता,’ भाग्या गंदा-सा मुँह बनाकर चिढ़ाती।
माँ ने भाग्या को समझाया - ‘ऐसा नहीं बोलते। कोलकाता में मेरी माई का घर है और सलोनी तेरी सगी बहन है, तेरी छुटकी दीदी। वह कुछ दिनों के लिए यहाँ अपनी माँ के पास आई है। तुझे अपनी छोटी बहन से प्यार करना चाहिए। जब तुम कोलकाता जाती हो तो यह तुमको कितना प्यार करती है, कितना सामान देती है, तुमको बाज़ार में घुमाकर लाती है, सड़क पर चलने वाली ट्राम दिखाती है। इसलिए जब यह तुम्हारे पास दिल्ली आए तो तुम्हें भी इसका ख़्याल रखना चाहिए।’
‘फिर यह बिना पूछे मेरे खिलौनों को क्यों छेड़ती है,’ बातों से पराजित होने के बाद भी भाग्या ने अपनी दलील दी।
‘ठीक है भाग्या दीदी, आगे से हम तुमसे पूछकर खिलौने लिया करेंगे,’ सलोनी ने विनम्रता से कहा।
‘फिर ठीक है छुटकी, आओ, तुम्हें अपने सारे खिलौने दिखाती हूँ,’ प्यार से हाथ पकड़कर भाग्या उसे अपने कमरे में ले गई।
दोनों बहनों को परस्पर प्यार से खेलते देख ज्योत्सना निश्चिंत हो गई।
कभी-कभी दोनों बहनें मिलकर खेलने के लिए सुन्दर-सुन्दर गुड़िया गुड्डे बनातीं। उनकी शादी रचातीं। उसमें सदैव छुटकी का गुड्डा सुन्दर बनता तो बड़की लड़ाई करती, ‘तेरा गुड्डा अच्छा नहीं है। काला कलूटा बंगाली है। मेरा गुड्डा दिल्ली का दिलवाला है, सबसे सुन्दर।’ इतना कहने पर भी उसको संतोष नहीं होता और वह छुटकी के हाथ से गुड्डा छीनकर पड़ोस में भाग जाती। बदले में माँ उसे दुलारती।
जैसे-तैसे सलोनी बड़ी हुई तो उसका मन अपने बंगाल में, अपने कोलकाता में और अपने सुकांत बाबू में अटक गया। छुट्टियों में भी उसका मन दिल्ली आने को नहीं करता।
…….
सुकांत खिड़की के पास आया तो सलोनी ने देख लिया। उसने हाथ का इशारा करके सलोनी को अपने घर बुलाया।
‘कहिए सुकांत बाबू, हमको क्यों बुलाया है?’ चहकते हुए सलोनी ने कमरे में प्रवेश किया।
‘सलोनी, मुझे कला अध्यापक प्रशिक्षण केन्द्र शान्तिनिकेतन में प्रवेश मिल गया है।’
‘यह तो ख़ुशी का समाचार है और आप ख़ुशी मनाना भी नहीं जानते।’
‘वो कैसे, सलोनी?’
‘अच्छा समाचार मिलने पर तो इंसान का मन ख़ुशी से भर जाता है और मिठाई बाँटने के बहाने ख़ुशी को फैलाना चाहता है।’
‘सलोनी, इसमें इतना ख़ुश होने की बात नहीं है।’
‘क्यों?’
‘मुझे तुमसे दूर हॉस्टल में रहना पड़ेगा,’ सुकांत उदास हो गया।
‘तो इसमें उदास होने की क्या बात है? बीच-बीच में छुट्टियों में तो आना होगा। तब हमें चित्रकला सिखा देना। वहाँ रहकर तो आप बहुत बड़े चित्रकार बन जाओगे। और हाँ, सचमुच के कला गुरु भी बन जाओगे। यह तो बहुत ख़ुशी की बात है! बोलो, कब जा रहे हो शान्तिनिकेतन?’
‘अगले सप्ताह,’ तुम पीछे माँ का ध्यान रखना।
‘ठीक है, चिंता नहीं,’ कहती हुई चंचल सलोनी उड़ती हुई कमरे से बाहर चली गई।
सुकांत सोचने लगा, ‘कैसी है यह सलोनी! …. आती है तो बसंत की फुहार जैसी और जाती है तो सारी महक अपने साथ लपेट ले जाती है …।’
दूसरे दिन सुकांत एक सुन्दर मटकी में रसगुल्लों का गिफ़्ट बनाकर सलोनी के घर पहुँच गया। सलोनी की नानी बरामदे में बैठी चावल बीन रही थी।
‘सुकांत बेटा, कुछ ख़ुशी का समाचार लाए हो तभी तो हाथ में रसगुल्लों का गिफ़्ट है।’
‘अम्मा ने आपके लिए भेजा है।’
‘सो तो ठीक है, परन्तु यह तो बता, ख़ुशी का समाचार क्या है?’
‘मेरा शान्तिनिकेतन में प्रवेश हो गया है, इसी ख़ुशी में नानी।…. सलोनी कहाँ है?’
‘अन्दर कमरे में बैठी चित्रकारी कर रही है। जाओ अन्दर, उसकी चित्रकारी भी देख लो और मिठाई भी उसी को सौंप दो।’ सलोनी के साथ-साथ आसपास वाले भी उन्हें नानी कहने लगे थे।
‘सलोनी, अम्मा ने तुम्हारे लिए मिठाई भेजी है,’ अन्दर आकर सुकांत बोला।
‘भेजी है? … तो आप केवल लाने वाले ही बने! आप अपने मन से तो लाए नहीं।’
‘यह सच है सलोनी, क्योंकि वहाँ जाने से मैं अधिक खुश नहीं हूँ, परन्तु जाना तो पड़ेगा ही। दिखाओ तो, क्या चित्र बना रही हो?’ सुकांत ने बात को मोड़ दिया।
‘हम क्या दिखाएँ? हम तो अभी कच्ची चित्रकारी करते हैं ….।’ सुकांत सामने अलमारी से निकालकर चित्र देखने लगा।
‘अरे वाह, तुम तो बहुत सुन्दर चित्र बनाने लगी हो। अच्छा, यह मेरा चित्र! चोरी-चोरी …!’
‘आपने भी तो हमारा चित्र चोरी-चोरी बनाया था।’
‘हमने तो तुम्हारी स्मृतियों को सहेजकर रखने के लिए बनाया था। अब एकांत में वह हमसे बातें करेगा,’ सुकांत गंभीर हो गया।
‘आपका चित्र रोज़ हमारी सहायता करेगा।’
‘सच!’ सुकांत ने आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता व्यक्त की।
‘अपने दिल-दर्पण से पूछना, वही आपको सच बता देगा।’
सलोनी ने सब चित्र लेकर अपनी अलमारी में रख दिए और सुकांत बार-बार उसे देखते हुए कमरे से बाहर चला गया।
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