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नाना जी का स्वर्गवास हुआ तब ज्योत्सना सलोनी को लेकर कोलकाता आई थी। ज्योत्सना के अतिरिक्त नानी जी की कोई सन्तान नहीं थी। इसलिए सब उत्तरदायित्व ज्योत्सना को ही पूरे करने होते थे। नाना देवी सहाय कोलकाता में बारदाने की दलाली करते थे तो नानी शारदा देवी अपना घर सँभालती थी। नानी पढ़ी तो थी केवल आठ दर्जे तक, लेकिन उनका गला बहुत मीठा था, इसलिए आस-पड़ोस के शादी-विवाह, तीज-त्योहार पर उनको बुलाया जाता और गाने का आग्रह भी किया जाता। नानी गाने के लिए भजन स्वयं लिखा करती थी। नाना जी प्रायः अस्वस्थ रहते थे, फिर भी उन्होंने कोलकाता में एक बाडी को ख़रीद लिया था, जिसका पर्याप्त किराया उनको आने लगा था।
नानी के घर में शोक प्रकट करने वालों का ताँता लगा रहता था। बाहर से कोई आता तो सामूहिक रुदन आरम्भ हो जाता। रोते-रोते नाना जी को याद किया जाता, फिर एक-दूसरे को सांत्वना देकर चुप कराया जाता। स्थानीय महिलाएँ आतीं तो बैठकर नानी को धीरज बँधातीं, नाना देवी सहाय के भले कार्यों, उनकी सज्जनता की चर्चा करतीं। नानी सब महिलाओं के साथ बैठती तो ज्योत्सना घर आने-जाने वालों के चाय-पानी, बाहर से आने वालों के भोजन की व्यवस्था करती।
तीन बजे गरुड़ कथा पढ़ने के लिए पंडित जी आते तो घर में रोना धोना बंद हो जाता। सलोनी को सब अच्छा नहीं लगता। नानी की सहेली और पड़ोसन बिमला उसे अपने घर छोड़ आती। उनका बेटा सुकांत तथा उसके पड़ोसी दोस्त मिलकर खेलने लगते। सुकांत ने अपने सभी साथियों से सलोनी का परिचय करा दिया - ‘दोस्तो, यह सलोनी है, सामने वाली नानी की नातिन, कुछ दिनों के लिए यहाँ आई है। जब तक सलोनी यहाँ रहेगी, वह हमारे साथ खेलेगी।’
सब मिलकर लूडो खेलने लगे। एक घंटा खेलने के बाद बारी-बारी सब अपने घर चले गए। सलोनी को तो दो बजे तक यहीं ठहरना था। सुकांत ने अलमारी से अपनी ड्राइंग की फाइल निकालकर उसमें बनाए गए चित्र उसे दिखाए। उन चित्रों पर मैडम द्वारा दिए गए रिमार्क - गुड, वैरी गुड, एक्सीलेंट आदि भी दिखाए। चित्रकला प्रतियोगिता में मिले पुरस्कार भी निकालकर दिखाए।
‘क्या हमको भी ऐसे चित्र बनाना सिखाओगे,’ सलोनी ने उन चित्रों से प्रभावित होकर पूछा।
‘हाँ, सिखा दूँगा। मेरे पास सब सामान है। ड्राइंग शीट, कलर, सब है। कल से मैं तुम्हें चित्र बनाना सिखा दूँगा।’
‘लेकिन, कल तो तुम स्कूल जाओगे …. हम अकेले यहाँ क्या करेंगे?’
‘सलोनी, कल शनिवार को हमारे स्कूल में कुछ पढ़ाई तो होती नहीं, केवल एक्टिविटीज होती हैं। इसलिए कल मैं स्कूल नहीं जाऊँगा। फिर रविवार आ जाएगा। उसके बाद दो दिन स्कूल लगेगा तो मैं तुम्हारे लिए कुछ बाल पुस्तकें निकालकर रख दूँगा, मेरे पास बहुत अच्छे-अच्छे कॉमिक्स हैं। उसके बाद चार दिन तक दुर्गा पूजा का अवकाश हो जाएगा, फिर हम सब मिलकर खेलेंगे।’
‘चलो, थोड़ी देर लूडो और खेलते हैं,’ सलोनी ने कहा।
दोनों मिलकर लूडो खेलने लगे। सलोनी की गोटी फटाफट आगे बढ़ने लगी तो सुकांत ने कहा - ‘सलोनी, लूडो खेलने में तो तुम बहुत तेज़ हो!’
‘इसमें तेज होने की तो कुछ विशेष बात नहीं है। हमारे पासे में अधिक नंबर आ जाते हैं तो गोटी तेज चल पड़ती है। यह तो सब क़िस्मत का खेल है।’
‘क़िस्मत का खेल तो है, परन्तु किस गोटी को कहाँ बिठाना है, किस को आगे बढ़ाना है, इसमें तो दिमाग़ ही लगता है,’ बातों-बातों में सलोनी ने दूसरा गेम भी जीत लिया। दो बार लगातार हारने के बाद सुकांत निराश हो गया, ‘सलोनी, अब और नहीं खेलते।’
‘क्यों, अब क्या हो गया?’ सलोनी ने उत्साह से पूछा।
‘दो बार तो लगातार हार चुका। आज मेरा दिन अच्छा नहीं है,’ सुकांत ने उदास होकर कहा।
‘सुकांत, खेलने में हार-जीत तो चलता रहता है। अच्छा, एक काम करते हैं, हम अपनी दोनों विक्ट्री में से एक विक्ट्री तुमको दे देते हैं। अब तो हो गया सब बराबर। न कोई जीता न कोई हारा। दोनों बराबर।’
‘ऐसे तो तुम्हारा क़र्ज़ मुझ पर चढ़ जाएगा…।’
‘नहीं-नहीं सुकांत, दोस्ती में किसी का किसी पर क़र्ज़ नहीं चढ़ता। सब एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। कल यदि हम बार हार गए तो तुम अपनी विक्ट्री हमें दे देना।’
‘ठीक है, आओ, एक बाज़ी और खेल लेते हैं।’
दोनों पुनः खेलने लगे। सलोनी मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रही थी कि इस बार सुकांत की जीत पक्की करा देना और सचमुच हुआ भी ऐसा ही। सुकांत वह बाज़ी जीत गया। इस बाज़ी के जीतने से वह उत्साह से भर गया।
बिमला घर लौट आई। इसका अर्थ था कि शोक प्रकट करने वाले सब लोग चले गए थे। सलोनी भी माँ के पास आकर काम में उनकी सहायता करने लगी।
नाना की अस्थियाँ विसर्जित करने के बाद, रात को माँ ने नानी से पूछा - ‘माई, अब तुम कोलकाता में अकेली कैसे रहोगी?’
‘रहना ही पड़ेगा, ज्योत्सना…. भगवान की मर्ज़ी … भाग्य में रंडापा लिखा था, किसको दोष दूँ?’ कहते-कहते नानी फ़फक पड़ी।
ज्योत्सना ने बात को आगे बढ़ाया, ‘माई, क्या तुम हमारे साथ दिल्ली चल सकती हो?’
‘नहीं ज्योत्सना। बेटी के घर … नहीं …. यहाँ हमारे मिलने-जुलने वाले कई लोग हैं। सबसे मेरा मेल-जोल है। सारी बाडी का किराया लेना होता है। मेरा यहाँ मन लगा हुआ है। तुम्हारे बाबू जी ने इस मकान को मेरे नाम से ही ख़रीदा था। इसलिए जब तक मेरे हाथ पाँव चलते हैं, मैं यहीं रहूँगी।’
‘माई, तुम ठीक समझो तो छुटकी को तुम्हारे पास छोड़ दूँ। घर में बच्चा हो तो उसके बहाने दिन कट जाता है। छोटे-मोटे सब काम वह हँसते-हँसते चुटकियों में कर देती है।’
‘अच्छी बात है बेटी, यदि उसका मन लग जाए तो पूछ लेना।’
‘हमारी छुटकी बड़ी समझदार है। उससे कहूँगी तो वह इंकार नहीं करेगी।’
‘ठीक है बेटी, जैसी तुम्हारी इच्छा।’ बातें करते-करते दोनों को नींद आ गई।
…….
बाल स्मृतियाँ भी पीछा कहाँ छोड़ती हैं! चित्र बनाते हुए बीच-बीच में आकर अटक जाती हैं।
‘लो, बाल फुलवारी का चित्र तो बन गया।’ सलोनी ने उसे कैनवस से उतार दोनों हाथों में पकड़ा, गौर से देखा। अच्छा बन गया। फिर उसे ख़्याल आया, ‘हमने तो मैम से दो चित्र बनाने का वादा किया था। एक और चित्र बना देते हैं,’ सोचकर उसने कैनवस पर एक और पेपर चढ़ा दिया।
तभी माँ की आवाज़ आ गई, ‘सलोनी, आज खाना नहीं खाएगी क्या?’
उसने घड़ी की ओर देखा। सचमुच लंच का समय हो गया था, फिर भी आज न खाने का मन था न ही थकावट…..।
सलोनी ने अनेक बार यह अनुभव किया है कि जब वह अपने मनपसन्द कार्य में लगी होती है तो ना भूख लगती है और ना थकान होती है। शायद यह एक कलाकार की साधना है जो उसे अतिरिक्त ऊर्जा प्रदान करती है।
सलोनी दूसरे चित्र पर ध्यान केन्द्रित करने लगी। हमारे स्कूल में केवल प्राथमिक कक्षा के छात्र ही नहीं हैं, बल्कि किशोर अवस्था के बालक भी हैं। किशोरावस्था में तो मन और तन खुले आकाश में उड़ना चाहता है … सपनों को, कल्पना को खुला छोड़ देता है …. जो असीम सागर की बड़ी-बड़ी लहरों पर सवार होकर पृथ्वी के अंतिम छोर तक यात्रा करने की सोचता है ….।
चिंतन करते हुए सलोनी सुकांत बाबू पर केन्द्रित हो गई। वे सामने जंगले के पास कभी खड़े, कभी बैठे चित्र बनाते रहते थे। वहाँ खड़ी होकर सुकांत बाबू को चित्र बनाते हुए देखना उसे अच्छा लगता था। तब उसे भी आश्चर्य होता था कि सुकांत बाबू घंटों खड़े होकर कैसे चित्र बनाते हैं, थकते क्यों नहीं?
हमसे अधिक बड़े नहीं हैं। जब हम नानी के पास कोलकाता में रहते थे, तब हमारा दसवीं बोर्ड परीक्षा का और सुकांत बाबू का बारहवीं कक्षा का परीक्षा परिणाम आया था। हमारे पास होने पर नानी ने प्रसाद मँगवाया तो हम सुकांत बाबू को देने चले गए। तब हमने पहली बार उनके कैनवस पर लगा चित्र देखा था।
चित्र देखकर हम तो चौंक ही गए थे, ‘सुकांत बाबू, आपने तो हमारा ही चित्र बना रखा है! क्या हम इतनी ख़ूबसूरत हैं?’ यकायक मुँह से निकल गया।
‘तुम्हारी सुन्दरता के कारण ही माँ-पिता ने तुम्हारा नाम सलोनी रखा है। तुम बहुत सुन्दर हो तभी तो हमारी तूलिका ने तुम्हारे चित्र का चुनाव किया।’
‘सुकांत बाबू, आप बहुत सुन्दर चित्र बनाते हो। हमारे गुरु बनोगे क्या? हमें भी सिखाओगे चित्र बनाना ….. बनोगे हमारे गुरु …?’
बचपन की बातें भूलकर सलोनी ने पूछा था। उसकी दृष्टि ज़मीन पर पसर गई और वह अपने पाँव के अंगूठे से फ़र्श पर कुछ कुरेदने लगी थी।
‘सलोनी, कला का कोई गुरु नहीं होता। इसका ज्ञान कोई नहीं दे सकता। यह तो ईश्वर प्रदत्त होता है जो समय आने पर स्वयं प्रस्फुटित हो जाता है। हाँ, इतना अवश्य है कि कोई कलाकार हो तो अपनी प्रतिभा से कला मार्ग को सीधा व सरल बना देता है।’
‘अरे, वही तो हमें चाहिए,’ अचानक सलोनी को ख़्याल आया, ‘सुकांत बाबू, असल बात तो हम भूल ही गए, नानी ने आपके लिए प्रसाद भेजा है।’
‘किस बात का प्रसाद है?’
‘आज हम दसवीं कक्षा में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हुए हैं,’ चहकते हुए सलोनी ने बताया।
‘अरे वाह, यह तो बहुत ख़ुशी की बात है। फिर तो तुम्हारे आने से दो-दो ख़ुशियाँ घर में आ गईं।’
‘दो कैसे?’
‘एक तो मीठा-मीठा रसगुल्ला और दूसरा, हमारे घर में वर्षों बाद तुम्हारा प्रवेश,’ कहते हुए सुकांत ने प्रसाद के लिए अपना हाथ फैला दिया।
‘वर्षों बाद प्रवेश कैसे? हम तो पहले से तुम्हारे घर में उपस्थित हैं।’
‘वो कैसे?’
‘तुम्हारे कैनवस पर।’
‘अरे हाँ, परन्तु सजीव रूप में तो अभी आई हो।’
तभी सुकांत की माँ भी मन्दिर से वापस आ गई। उसके हाथ में पूजा की थाली थी।
‘अरे सलोनी, तुम्हारी नानी मन्दिर में मिली थी। उन्होंने बताया कि तुम दसवीं कक्षा में उत्तीर्ण हो गई हो,’ कहते हुए उन्होंने धोक देने के लिए थाली उसकी ओर बढ़ा दी।
‘हाँ नानी, इसी उपलक्ष्य में हम प्रसाद देने आई थी,’ सलोनी ने थाली से उठाकर एक रसगुल्ला उनकी ओर बढ़ा दिया।
‘ख़ुश रहो बेटी। ऐसे ही जीवन में सफलता प्राप्त करती रहो,’ सुकांत की माँ ने उसको भरपूर आशीर्वाद दिया और सारे घर में अगरबत्ती की सुगंध फैलाने चली गई।
‘तो बताइए सुकांत बाबू, आप हमारी चित्रकला के गुरु बनोगे?’
‘वैसे मैं यह तो नहीं जानता कि मुझमें किसी का गुरु बनने की प्रतिभा है या नहीं, परन्तु मैं आज भी अपने आपको एक विद्यार्थी ही समझता हूँ। हाँ, इतना आश्वासन दे सकता हूँ कि हम दोनों साथ-साथ सीखते-सिखाते आगे बढ़ते रहेंगे।’
‘बहुत-बहुत धन्यवाद। अब हम चलें?’
‘ठीक है, तुम कभी भी आ सकती हो, सदैव तुम्हारा स्वागत होगा।’
‘धन्यवाद सुकांत बाबू,’ आभार प्रकट कर सलोनी वापस लौट आई।
दूसरा चित्र भी पूरा हो गया। उत्साह व जोश से भरपूर एक युवक अपने स्कूल के खेल के मैदान में कंधे पर क्रिकेट का बैट लिए खड़ा है। उसके चेहरे में सुकांत बाबू की झलक आ रही थी। दोनों चित्रों को देखकर प्रिंसिपल मैडम बहुत ख़ुश होंगी। बड़े संतोष के साथ चित्रों को सँभालकर सलोनी किचन में भोजन करने चली गई।
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