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स्नेहिल नमस्कार दोस्तों !
कभी कभी बरसों पुरानी गलियाँ खुल जाती हैं और हम उनमें अनजाने ही प्रवेश कर जाते हैं | विचरण करने लगते हैं | कभी किसी की कोई बात सुनकर, कभी किसी को देखकर स्मृति मन के द्वार पर दस्तक दे ही जाती है |
यह सबके साथ होता है किसी के साथ कम तो किसी के साथ कुछ अधिक ही | मेरे साथ काफ़ी होता है और उन्हें मैं सँजो लेती हूँ | कभी किसी उपन्यास के चरित्र का हिस्सा बनाकर, कभी किसी कहानी में तो कभी संस्मरण या गीत में भी |
सवाल यह ज़रूर उठ रहा होगा दोस्तों आपके मन में कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो इतनी बड़ी भूमिका बांधी जा रही है ? नहीं--नहीं --ऐसा कुछ अभी तो नहीं लेकिन हाँ, बरसों पहले हुआ था जब बच्चे काफ़ी छोटे थे | मेरे बारे में अधिकतर सब मित्र जानते हैं कि मैं एकमात्र ऐसी बिटिया हूँ जो अपनी माँ के ग्यारह शिशुओं में एकमात्र शेष रही थी | अजीब भी लगता था, मुझे तो बहुत ही --आजकल जो मुझसे आत्मकथा लिखवाई जा रही है, उसको लिखते हुए जब मैं अपने दिलोदिमाग की गलियों में विचरण करने लगती हूँ तो आज भी मुझे अपने से ही बाबस्ता बातें चौंकाने वाली लगती हैं | लेकिन अब कई मित्रों ने राज खोले --
"किसी गलतफ़हमी में मत रह, ऐसे बहुत से परिवार होते थे जिनमें दर्जन भर बच्चे जन्म लेते थे मगर एक-या दो को ही यह संसार-सुख प्राप्त होता था |"
अच्छा जी ! हम तो बड़े नखरे दिखा रहे थे कि हम एक ऐसा कोहिनूर का टुकड़ा हैं जो भई कोई कोई ही होता है | ठीक है जी, जो है, वो है ! हम तो उसमें कुछ बदलाव कर नहीं सकते | मान लिया लेकिन कुछ तो लिखना ही था, वो भी इसलिए कि अचानक मेरे सामने एक ऐसी तस्वीर आ गई जिसको देखकर मुझे उस स्मृति की गली में उतरना ही पड़ा |
इस घटना का रहस्य खोल दूँ जो मुझे अचानक ही माँ गंगे की शरण में ले गई थी |
हाल ही में अपने से काफ़ी छोटे ममेरे भाई की डी.पी देखी, उसे देखकर मैं चौंकी | ख्याल तो आ ही गया था कि ये उसके ही नौनिहाल हैं अपने दादा जी के साथ | फिर भी पूछा ये कौन हैं ?
"पहचानती नहीं हो दीदी ? दोनों बच्चों के छुटपन की तस्वीर है |"
मुझे ख्याल आ गया था क्योंकि उन बच्चों के साथ जो बुजुर्ग हैं वो मेरी अम्मा के मामा जी के बेटे यानि मेरे ममेरे मामा जी थे | उन्हें देखा और मुस्कान से चेहरा खिल गया | माँ भी मेरे जैसी एकमात्र संतान थीं और इन वाले मामा जी के साथ उनकी काफ़ी पटरी बैठती थी | दोनों के विचार काफ़ी मिलते थे | माँ शिक्षिका थीं मुजफ्फरनगर में और मामा जी रुड़की इंजीनियरिंग में पढ़ रहे थे |
रैगिंग के दिनों में तो वे अक्सर भागकर रुड़की से घर आ जाया करते थे और मेरे साथ खूब खेलते, मुझे चिढ़ाते | अपने आप कहीं मुझसे ऊपर के स्थान पर जा चढ़ते फिर कहते --
"राजा राजा ऊपर, भंगी भंगी नीचे---" बहुत छोटी थी मैं । शायद 5/6 साल की | उछल उछलकर उनसे ऊंची जगह तलाश करती। एक बार तो मैं ऊपर जाने वाली सीढ़ियों में चढ़ गई थी और वहाँ से चिल्ला रही थी।
"अब बताइए, राजा कौन ? भंगी कौन ?"
सीढ़ियाँ बंद थीं, कई मिनट तक किसी को समझ में नहीं आया, आखिर थी कहाँ ? जब जोर से खिलखिलाई तब मामा जी सीढ़ियों में आए और कहा नीचे उतरो | ऊपर की छत की पैराफिट वॉल बहुत छोटी थी और मैं जब भी ऊपर जाती थी, उस पर चढ़कर अपनी कलाकारी दिखाने से बाज नहीं आती थी |
मुझे याद है जब छात्र जीवन में ही उनकी शादी की बात चली वे अम्मा के पास आकर बैठ गए थे कि शायद माँ उनकी शादी को रोक सकें लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और उनकी शादी छात्र जीवन में ही हो गई | इसके दूसरे कारण थे | वे उदास हो गए थे और अम्मा के पास जब भी आते ज़रूर शिकायत करते |खैर दिनों को व्यतीत होना होता है, हो ही जाते हैं |
मामा जी के तीन बेटे और एक बेटी हुए | वे सिंचाई-विभाग में इंजीनियर के पद पर नियुक्त थे | जब तक मेरा विवाह हुआ, बच्चे हुए वो एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर के पद पर आ गए थे | अधिकतर वे अलीगढ़, बुलंदशहर आदि स्थानों पर रहे | अपनी शादी से पहले मैं माँ के साथ उनके पास जाती रहती थी |
शादी के लंबे अरसे तक मैं मामा जी से नहीं मिल सकी थी | उनका अनुरोध रहता था कि मैं बच्चों को लेकर उनके पास जाऊँ | खैर, एक ऐसा समय मिल गया कि मैं अम्मा के साथ उनके पास बुलंदशहर पहुँच गई | वे उसी प्रकार मेरे साथ शरारत करते, चिढ़ाते जैसे हम बचपन में एक-दूसरे को चिढ़ाते थे |
एक दिन सुबह सुबह मामा जी ने जीप भेजी और कहा कि जैसे हो वैसे ही उठकर सब गाड़ी में बैठकर आ जाओ | नरौरा पास में ही था जहाँ मामा जी को 'फ्लाइंग विज़िट'के लिए जाना था | वे दूसरी गाड़ी में निकल चुके थे | उनके अनुसार हम सब गंगा जी में स्नान करके कुछ पाप-वाप धो लेंगे फिर लंच उनके किसी ऑफ़िसर के यहाँ करना तय हुआ था | हम सब बड़े खुश हुए और मैं, अम्मा, दोनों बच्चे, मामी जी और उनके दो छोटे वाले बच्चे जो मेरे अपने बच्चों से कुछ साल ही बड़े थे चल पड़े, ठुँसकर उस जीप में |
शायद एक-डेढ़ घंटे में हम सब मस्ती करते हुए नरौरा गंगा जी के तट पर पहुँचे | वहाँ कई घाट थे जिनमें पुरुषों व स्त्रियों का अलग था | एक जगह काफ़ी खुली हुई थी जहाँ सीढ़ियाँ दिखाई दे रही थीं | अम्मा और मामी जी तो स्त्रियों के घाट पर चले गए और बच्चे मुझे घसीटकर उस खाली जगह ले चले जहाँ कोई नहीं था और सीढ़ियों से मोटी लोहे की चेन बँधी दिखाई दे रही थी |
तैरना वैरना तो आता नहीं था मुझे, बच्चे जिधर ले गए मैं चल पड़ी | यहाँ बच्चों ने मुझे आगे किया और एक-दूसरे के कंधे पकड़कर रेल जैसी बना ली और मुझे आगे चलने को कहकर मस्ती करने लगे | मुझे तो क्या पता था कि कितनी सीढ़ियाँ हैं, कहाँ तक हैं ? बच्चे मुझे आगे लेते गए और मैं चलती गई और अचानक गड़प, यानि सीढ़ियों से नीचे पानी में गिर पड़ी | बच्चे सहम गए और जहाँ खड़े थे, वहीं खड़े रह गए | मैं पानी में बहती सी आगे पानी में पता नहीं किस ओर बढ़ चली | तैरना तो आता नहीं था, मैं ऊपर-नीचे होती हुई गुडुप गुडुप पानी मुँह में भरकर निकालने लगी | पता नहीं कहाँ बहती जा रही थी | बच्चे घबरा गए और चिल्लाने लगे | पुरुषों और स्त्रियों के घाट तक बच्चों के चिल्लाने की आवाज़ पहुंची और पुरुषों के घाट से दो पुरुष उस तरफ़ तैरकर आने लगे जिधर मैं बही जा रही थी |
मुझे अपने सामने जैसे मगरमच्छ दिखाई दिया और मन में भाव उठा कि हे भगवान ! मारना हो तो मेरे अपने घर ले जाकर ही मारना, यहाँ बेचारे मामा जी के मुँह पर क्यों कालिख पोत रहे हो ?
पता नहीं कैसे एक लहर आई और मैं आगे भँवर में बढ़ने की जगह पीछे की ओर आई जहाँ बच्चों ने मुझे बालों से पकड़कर खींच लिया | मामा जी के बच्चे चिल्ला रहे थे कि वहाँ पर भँवरा है और जो उसमें फँस जाता है, उसका वापिस आना एक तरह से नामुमकिन है |
खैर, घसीट तो ली गई लेकिन मैं अर्द्धसुप्तावस्था में थी | मामा जी की बेटी चिल्ला रही थी कि दीदी ने काली साड़ी पहन रखी है और इसलिए भँवरे में से निकलना और भी बहुत मुश्किल है | पता नहीं काली साड़ी से इस बात का क्या संबंध था ?
मामा जी के पास खबर गई, वे बेचारे घबराए हुए आए | वहाँ मुझे उलटा लिटाकर पेट से पानी निकाल दिया गया था लेकिन मैं जैसे होश में नहीं थी | सब घबराए हुए थे | मुझे पकड़कर ले जाया गया | मैंने खाना भी खाया और हम लोग रात तक वापिस बुलंदशहर पहुँच गए |
बस, एक बात थी, मैं बोल नहीं रही थी | चुप सी हो गई थी | सबको चिंता हुई लेकिन शेष सब ठीक था | मैं रोज़ाना के काम ठीक ठाक कर रही थी |
मामा जी बड़ी उलझन में थे कि इतनी बोलने वाली मैं अचानक किसी बात पर कोई विद्रोह क्यों नहीं कर रही थी | एक छुट्टी के दिन सुबह डाइनिंग टेबल पर हम सब नाश्ता कर रहे थे | मामा जी ने अचानक मेरे चेहरे के पास चुटकी बजाई |
"ओ गंगा ! कहाँ है ?" मुझे आज तक अच्छी तरह याद है कि तब मुझे चेतना सी आई और मैंने सोचा कि मैं तो ठीक है कि यहाँ हूँ लेकिन मामा जी यहाँ क्या कर रहे हैं ? मतलब, मुझे लगा कि मैं तो पहुँच चुकी हूँ दूसरी दुनिया में लेकिन मामा जी क्यों मेरे साथ थे ?
मामा जी ने मुझे ज़ोर से झँझोड़ दिया, तब मुझे पता चला कि मैं तो अच्छी -खासी जिंदा थी |
उस दिन के बाद मैं धीरे-धीरे सहज होनी शुरू हुई लेकिन कई वर्षों तक मैं पानी का बहाव देखकर असहज होती रही |
मामा जी ने मेरा नाम 'गंगा'तो रख ही दिया था | जिससे वे मुझे अंत तक मज़ाक में पुकारते रहे |
आज मामा जी इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनसे जुड़ी कितनी ही बातें चित्र को देखकर मुझे याद या गईं जिन्हें मैं साझा करने से खुद को रोक नहीं सकी |
न जाने ऐसी स्थितियाँ कितनी बार सामने आती हैं, हम उन्हें भुला नहीं पाते और वे गहरे हमारे मनोमस्तिष्क में ताउम्र आती-जाती रहती हैं |
अगली बार किसी और संस्मरण अथवा विचार के साथ !!
सस्नेह
आपकी मित्र
डॉ प्रणव भारती