[पौत्र को तत्त्वोपदेश तथा उनको बन्धन से छुड़ाना, प्रह्लाद चरित्र का माहात्म्य]
दैत्यर्षि प्रह्लाद की रुचि प्रायः राज-काज में नहीं रह गयी थी, वे उदासीन-भाव से इसी प्रतीक्षा में राज-काज करते थे कि अपने किस उत्तराधिकारी को राजभार सौंपें जो प्रजारञ्जन में निपुण हो। प्रह्लाद के हृदय में यह भी एक खटकने की बात थी कि वे अपने चाचा हिरण्याक्ष के पुत्रों को भी राज्य का अधिकारी समझते थे और अपने पुत्र गवेष्ठि तथा विरोचन को भी शासनसूत्र के चलाने के योग्य समझते थे; किन्तु वे इस चिन्ता में रहते थे कि उनके बारम्बार उपदेश देने एवं समुचित शिक्षा पाने पर भी भाइयों, लड़कों तथा भतीजों में से कोई ऐसा न था जो दैत्यर्षि प्रह्लाद के स्वभावानुसार द्विज-देवताओं का भक्त एवं भगवान् विष्णु का उपासक हो। जितने भाई-भतीजे थे, जितने पुत्र थे, सब-के-सब अपनी जाति के स्वभावानुरूप थे और उन सबके आन्तरिक भाव पूरे-पूरे आसुरी थे तथा वे अपने भावानुसार भगवान् शंकर उपासक थे।
विप्र-वेषधारी इन्द्र के द्वारा शीलापहरण से-राज्यच्युत होने के समय से प्रह्लाद की त्यागवृत्ति और भी बढ़ गयी थी और वह त्यागवृत्ति शील के और समस्त साम्राज्य के पुनः प्राप्त होने से भी कम नहीं हुई। अतएव तपोवन से लौटकर दैत्यर्षि प्रह्लाद ने फिर से राजभार अपने ऊपर रखते हुए भी उसपर ममत्व नहीं रखा। फिर भी भगवद्भजन में बाधक जानकर वे राज्यभार से सर्वथा दूर ही रहना चाहते थे अतएव उन्होंने अपने चचेरे भाई अन्धक की अनुमति से सारे साम्राज्य को अपने भाइयों तथा पुत्रों में विभाजित कर दिया तथा उन सब पर एकाधिपत्य रक्खा राजकुमार विरोचन का। अर्थात् साम्राज्य का उत्तराधिकार विरोचन को सौंपा और इस प्रकार राजपाट सबको सौंपकर परम भागवत प्रह्लाद ने तपोभूमि में जाकर भक्तियोग करने का निश्चय किया। उनके इस निश्चय से उनकी छायास्वरूपा पतिव्रता पत्नी सुवर्णा बहुत घबरायी और उसने भी उनके साथ तपोभूमि में जाने की इच्छा प्रकट की, किन्तु त्यागी प्रह्लाद ने ऐसा करना उचित नहीं समझा। उन्होंने समझा बुझाकर सुवर्णा को पुत्रों की देखभाल करने के लिये हिरण्यपुर में ही रहने के लिये राजी कर लिया।
दैत्यर्षि प्रह्लाद अकेले ही तपोभूमि नैमिषारण्य को चले गये और वहीं वे अपना अन्तिम जीवन भगवत् स्मरण में बिताने लगे। जो महापुरुष बालकाल में योगी था, त्याग की मूर्ति था और संसार के इतिहास में बालजीवन का अद्वितीय आदर्श था, युवाकाल में साम्राज्य के पद पर रहकर भी जो शान्त और दान्त था, एक स्त्रीव्रती और एकनारीब्रह्मचारी था तथा आतंक एवं अत्याचार से नहीं; अपने शील-सौन्दर्य से तीनों लोक का प्रभु था, जिसने कारागार में नहीं, प्रेमागार में सभी दिक्पालों और देवराज इन्द्र को भी अपने वशीभूत कर रखा था और जो तीनों लोक का स्वामी और सर्वाधिपत्य का पात्र था, वही प्रह्लाद इन सब बातों के होने पर भी पद्मपत्रवत् राजलक्ष्मी से निर्लेप, भगवद्भक्ति में मग्न था और राजाधिराज कहलाने तथा तपस्वी के वेष में तपोभूमि के निवास करने को समान समझता था। वही महापुरुष यदि भगवान् के उपदेशानुसार वृद्धावस्था में त्यागी बन तपोभूमि में जा बसे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। जो मनुष्य, गर्भाधान के समय से ही ‘ॐ नमो नारायणाय' इस परम पावन मूलमन्त्र से महर्षि नारद द्वारा अभिमन्त्रित और उन्हीं की भगवद्भक्ति की शिक्षा से दीक्षित था, जिसकी कठिन परीक्षा बालकाल ही में शस्त्रों के आघात, पर्वतों से गिराये जाने, समुद्र में डुबाये जाने, अग्नि में जलाये जाने, विष के पिलाये जाने और साँपों के द्वारा कटवाये जाने से ली जा चुकी थी और एक बार नहीं, बारम्बार—समुद्र तट पर, राजसभा में, नारायण के युद्ध में और न जाने कितनी बार भगवान् के साक्षात् दर्शन और वरदान मिल चुके थे, उस परम पावन प्रह्लाद का वृद्धावस्था में योगिराज बन, तपोभूमि में निवास करना स्वाभाविक ही था। अचरज की बात थी तो केवल यही कि परम दयालु करुणा-वरुणालय ने अपने ऐसे परम भागवत को इतने अधिक दिनों तक इस मर्त्यलोक में किसी-न-किसी रूप और किसी-न-किसी अवस्था में अपने अक्षुण्ण कैंकर्य से दूर रक्खा।
प्रह्लाद भक्तियोग में लीन तपोभूमि में रहते थे और न जाने कितने त्यागी महात्मा और विद्वान् ब्राह्मण उनके समीप जाते एवं भगवद्भक्ति की अनन्यता के आनन्द का अनुभव करते थे। उधर त्यागमूर्ति प्रह्लाद, तपोभूमि में भक्तियोग की आराधना कर रहे थे और इधर दैत्यराज विरोचन के शासन का समय बीत गया एवं उनके सुपुत्र परम प्रतापी राजा बलि का शासनकाल आ गया। राजा बलि ने अपनी धार्मिकता और प्रताप से अपने साम्राज्य को इतना प्रभावशाली बनाया कि चारों ओर उनकी प्रशंसा-ही-प्रशंसा सुनायी पड़ने लगी। इसी बीच में देवराज इन्द्र के भी बुरे दिन आये और उनको महर्षि दुर्वासा का शाप हो गया। शाप के प्रभाव और अपने प्रबल पराक्रम से राजा बलि ने इन्द्रासन पर भी अपना अधिकार जमा लिया और यहाँ का शासन मन्त्रियों को सौंप, अपना निवास, स्वर्ग की अमरावतीपुरी में रक्खा। स्वर्ग के सिंहासन पर राजा बलि राज करने लगे और देवराज इन्द्र तथा उनके अधिकारी अन्यान्य देवगण मारे-मारे फिरने लगे। शाप का समय अभी समाप्त नहीं हुआ था, अतएव दैवीशक्ति की रक्षा करने वाले दयालु भगवान् विष्णु भी चुपचाप यह तमाशा देखते थे।
स्वर्ग के सिंहासन पर विराजमान परम प्रतापी राजाधिराज राजा बलि अपने पुराने मन्त्रियों से विशेषकर महर्षि शुक्राचार्य से अपने पितामह दैत्यर्षि प्रह्लाद की अनुपम ज्ञान-गरिमा की प्रशंसा सुना करते थे और उनकी अलौकिक भगवद्भक्ति तथा उनके त्याग की महिमा सुन-सुन कर वे उनके चरणों के दर्शनों के लिये उत्कण्ठित हो उठते थे। एक दिन राजा बलि ने महर्षि शुक्राचार्य जी से प्रार्थना की कि यदि आप हमारे पितामहजी के दर्शन हमें एक बार करा दें तो बड़ी कृपा हो। दयालु शुक्राचार्यजी ने राजा बलि की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और प्रसंगवश तपोभूमि में जाकर उन्होंने प्रह्लादजी से उनके पौत्र की सारी कथा और उनकी प्रार्थना कह सुनायी। प्रह्लादजी संसार से नाता तोड़ चुके थे, उनकी दृष्टि में या तो उनका कोई पुत्र-पौत्र था ही नहीं या सभी पुत्र-पौत्र उन्हीं के थे, किन्तु आचार्यचरणों का वे बड़ा आदर करते थे और वे अपने शरीर के रहते उनकी आज्ञा टालना उचित नहीं समझते थे। अतएव त्यागी और विरागी होने पर भी प्रह्लादजी ने उनकी आज्ञा मान ली। शुक्राचार्यजी की आज्ञानुसार वे एक दिन स्वर्ग की अमरावती में जा पहुँचे।
पूज्यचरण तपस्वी वेषधारी पितामह प्रह्लादजी को देखकर राजा बलि ने सिंहासन से उठकर उनके चरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम किया और आग्रहपूर्वक उनको अपने सिंहासन पर बैठाया। राजा बलि ने हाथ जोड़कर कहा कि “हे पूज्यचरण पितामहजी! आज मेरे सौभाग्य की सीमा नहीं, आज मैं आपके चरणों के दर्शन से कृतकृत्य हो गया हूँ। आर्यचरण! आप ही की कृपा और प्रताप से आज मैं तीनों लोक को जीत सका हूँ और 'पौत्रोऽनन्ताय कल्पते' को चरितार्थ कर रहा हूँ। इन्द्र ने छल-बल से आपसे शील-भिक्षा माँग आपको राज्यच्युत किया था, यह बात मेरे हृदय में शूल-सी साल रही थी किन्तु मैंने तीनों लोक के आधिपत्य को राजधर्म के अनुसार अपने बाहुबल तथा आपके आशीर्वाद से प्राप्त किया है। अब मेरा हृदय शान्त है। फिर भी मेरी यही हार्दिक इच्छा है कि आप इसी सिंहासन पर बैठकर शासन करें और मैं आपके चरणों की सेवा कर अपने जीवन को सफल बनाऊँ। देवराज इन्द्र भी आपको फिर इसी सिंहासन पर आसीन देखें। यही मेरी आन्तरिक कामना है।”
राजा बलि की प्रेमभरी बातें सुनकर योगिराज प्रह्लाद ने हँसकर कहा कि “वत्स वैरोचन! तुमने जो कुछ कहा वह शिष्टाचार की दृष्टि से भले ही ठीक हो, किन्तु मेरे लिये ठीक नहीं। मैंने बहुत दिनों तक राज्य किया है। मेरी वासना अब राज्य करने की नहीं है। मुझे देवराज इन्द्र के कपट-व्यवहार का कुछ भी ध्यान नहीं है और उन्होंने स्वयं अपने किये हुए व्यवहार के लिये क्षमा माँग ली है। मेरे सात्त्विक जीवन का लक्ष्य कभी ऐसा नहीं था कि किसी को शत्रु मान कर उससे बदला लेने की इच्छा करूँ। फिर अब तो मेरी दृष्टि में तुम और सुरराज दोनों ही समान हो। दोनों ही पर मेरा समान प्रेम और ममत्व है अतएव तुम राज्य करो और राजमद से सदा विरक्त रहो किन्तु चतुर्वर्ग के पालन के साथ राज्य करो। भगवान् तुम्हारा मंगल करेंगे ”
इसी बीच में महर्षि शुक्राचार्य भी जा पहुँचे और उनके अनुरोध से योगिराज प्रह्लाद ने अपने पौत्र राजा बलि को राजधर्म का समुचित उपदेश दिया। प्रह्लादजी ने जो कुछ कहा उसका सारांश यही था कि “धर्मानुकूल धनोपार्जन करना ही राजा का कर्तव्य है। राजा, राजपरिवार, राजवंशज, विपत्तिग्रस्त, मित्र, बूढ़े, गुणी और ब्राह्मणों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर प्रतिदिन उनका आदर सत्कार और भरण पोषण करे तथा यथोचित रक्षण करे। लोक और परलोक दोनों में यही कार्य सबसे अधिक कल्याणकारक है। राजा को चाहिए कि धर्मानुसार चारों वर्ण और चारों आश्रम का यथोचित पालन करे, वर्णविप्लव एवं आश्रमविष्ठव न होने दे। राजा का सब से परम धर्म प्रजारञ्जन, अतएव प्रजा में सन्तोष बना रहे, राजभक्ति बनी रहे तथा राजा प्रजा का साधु सम्बन्ध बना रहे, इसके लिये सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए।” इस उपदेशामृत को पान कर राजा बलि परमानन्दित हो गये। राजा बलि से विदा हो योगिराज प्रह्लाद पुनः अपनी तपोभूमि को गये और वहीं भगवच्चरणारविन्द के अनुचिन्तन में समाधि लगाकर बैठ गये। उनके चले जाने पर स्वर्ग में चारों ओर उनकी प्रशंसा होने लगी।
धीरे-धीरे वह समय भी आ गया जब कि देवराज इन्द्र के शाप का समय व्यतीत हो गया। देवराज का प्रताप बढ़ने लगा और दैत्यों का बल घटने लग। राजा बलि को अपशकुन होने लगे। यह सब दशा देखकर राजा बलि बड़े चिन्तित हुए। इसी चिन्ता से ग्रस्त राजा बलि एक दिन, अपने पितामह की सेवा में तपोभूमि में जा पहुँचे। प्रह्लादजी समाधि लगाये हुए बैठे थे। राजा बलि ने जाकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया और प्रह्लादजी के कुशल प्रश्न पूछने पर हाथ जोड़कर घबराये हुए चित्त से कहा “पूज्य आर्यचरण! मुझे आजकल बहुत बुरे-बुरे स्वप्न हो रहे हैं और देश में चारों ओर भाँति-भाँति के दिव्य, आन्तरिक्ष तथा भौतिक अपशकुन और उत्पात हो रहे हैं। इतना ही नहीं, हर तरह से देवताओं का प्रभुत्व बढ़ रहा है। दैत्यों का बल-पराक्रम धीरे-धीरे घट रहा है। इन सबका कारण मेरी समझ में नहीं आता। अतएव मुझे बड़ी चिन्ता हो रही है। मैं आपकी सेवा में आया हूँ। अवश्य ही आप अपने योगबल से इनके कारणों को जानते होंगे और मुझे बतलाने की कृपा करेंगे।”
योगिराज प्रह्लाद ने अपने योगबल से वर्तमान और भविष्य का सारा हाल जान कर राजा बलि से कहा “हे वैरोचन बलि! इस समय देवताओं की उन्नति और दैत्यों की अवनति के कारण तुम ही हो। तुमने तीनों लोक को जीत, समस्त देवताओं को अपने-अपने पदों से च्युत कर स्वयं उनके अधिकारों को ग्रहण कर लिया है। इसी कारण देवता लोग दुखी होकर भगवान् की शरण में गये थे। अशरणशरण भगवान् ने उनकी विपदा सुन उनकी रक्षा के लिये अदिति के गर्भ से अवतार लेना निश्चय किया है। वे 'वामन' रूप से अवतार ले देवताओं के अधिकारों की रक्षा करेंगे, जिससे दैत्यों को अपनी करनी का फल मिलेगा। इसी भावी के प्रकाशनार्थ ही तुम्हें बुरे स्वप्न और तुम्हारे साम्राज्य में अपशकुन एवं उत्पात होने लगे हैं। अभी समय है तुम सावधान हो, दैत्यों की रक्षा का उपाय कर सकते हो।”
दैत्यराज बलि योगिराज प्रह्लाद की हितपूर्ण सत्य बातों को सुन बहुत ही बड़बड़ाया। भावीवश उसकी बुद्धि नष्ट हो रही थी। उसने क्रोध के आवेश में कहा “हे आर्यचरण! आप कैसी बातें कर रहे हैं? यदि देवताओं की रक्षा करने में विष्णु समर्थ होते, तो अब तक वे क्यों चुप रहते? न जाने कितनी बार हमारे असुर वीरों ने देवताओं को सताया है और उनसे अपने जातिगत वैर का बदला लिया है। परन्तु न कहीं विष्णु आये और न ब्रह्मा। अब इस समय विष्णु आवेंगे तो आवें। उनको भी अपने देव-पक्षपात का फल मिल जायगा। मैं इसके लिये जरा भी चिन्तित नहीं।" राजा बलि की बातें योगिराज प्रह्लाद के हृदय में वज्र के समान लगीं। उनके सात्त्विक हृदय में भी (नाटकवत्) क्रोध आ गया और फिर भी उन्होंने शान्तभाव से कहा “रे मूढ़ वैरोचन! तू उस करुणावरुणालय की निन्दा कर अपनी जिह्वा को कलुषित क्यों कर रहा है? मैं जानता हूँ कि भावी प्रबल है। वह टलने वाली नहीं। अतएव तेरी बुद्धि नष्ट हो गयी है। अस्तु, जैसा करेगा वैसा तुझको फल मिलेगा किन्तु मेरे सामने भगवान् की निन्दा कर मेरे हृदय को कष्ट न दे, जा, तू शीघ्र चला जा, यहाँ तेरा कुछ काम नहीं।” योगिराज के शापतुल्य वचनों को सुनकर बलि को बड़ा सन्ताप हुआ, किन्तु उसके लाख गिड़गिड़ाने पर भी योगिराज प्रह्लाद ने उसकी ओर आँख उठाकर नहीं देखा और मानों उन्होंने महात्मा तुलसीदासजी के वचनों को अपने आचरणों से दिखलाया कि
“जिनके प्रिय न राम वैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही ।”
बारम्बार की प्रार्थना पर भी जब योगिराज प्रह्लाद ने उनकी ओर आँख उठाकर नहीं देखा, तब राजा बलि असफल मनोरथ हो अपनी राजधानी को वापस गये। उनके वापस जाने पर प्रह्लादजी अपने पापों के प्रायश्चित्त स्वरूप हरि-कीर्तन करने लगे। प्रह्लादजी ने विचार किया कि
“न केवलं यो महतोऽपभाषते शृणोति तस्मादपि यः स पापभाक्।”
अर्थात्– “जो बड़ों की निन्दा करता है केवल वही नहीं,
प्रत्युत जो उससे निन्दा सुनता है वह भी पाप का भागी होता है।” प्रह्लादजी के हृदय में बड़ी ग्लानि हुई और राजा बलि के प्रति जो उनके पहले सुन्दर भाव थे वे जाते रहे। जिस महापुरुष ने बालपन में अपने प्रतापी पिता के मुख से भी भगवन्निन्दा सुनना और चुप रहना उचित नहीं समझा था, वह अपने पौत्र के मुख से, सो भी अपने अन्तिम समय, त्याग की दशा में, भगवान की निन्दा सुनना कब स्वीकार करता?
अन्त में वही हुआ जिसकी आशंका राजा बलि के हृदय में थी और जो योगिराज प्रह्लाद ने कहा था। देवताओं की रक्षा के लिये नहीं, दैवी सम्पदा की रक्षा के लिये और राजा बलि के राज्यापहरण के लिये नहीं, प्रत्युत आसुरी भाव और शक्ति को मिटा कर सृष्टि की प्राकृतिकता को कायम रखने के लिये भगवान् ने अदिति के गर्भ से 'वामन' अवतार ले राजा बलि के सारे ऐश्वर्य और प्रभुत्व को क्षणभर में दान के रूप में ले लिया और राजा बलि न केवल राजा से रङ्क बन गये, किन्तु राजाधिराज से भगवान् वामन के बन्दी बन गये। जब राजा बलि को भगवान् वामन ने बन्दी किया तब उनको फिर अपने पितामह राजा प्रह्लाद, नहीं, भक्ताग्रगण्य योगिराज प्रह्लाद का स्मरण आया और उन्होंने ‘त्राहि माम्’ कह कर उनको पुकारा। योगिराज प्रह्लाद तो दिव्य दृष्टिवाले थे, उन्होंने देखा कि अब राजा बलि को अपने पापों का फल मिल गया है और उसका हृदय अनुतापरूपी प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध हो गया है। उसके अभिमान का मद लोप हो गया है। तब वे फिर पौत्र की रक्षा के लिये, नहीं, एक आर्त की रक्षा के लिये और भगवान् वामन की अपूर्व मूर्ति के दर्शन के लिये वहीं जा पहुँचे जहाँ भगवान् वामन ने अपने दाता राजा बलि को बन्दी बना रखा था।
योगिराज परम भागवत प्रह्लाद के अनुरोध से राजा बलि बन्धन से मुक्त किये गये। यह कोई अचरज की बात नहीं। जिन प्रह्लाद ने अपने बालपन में ही अपने पिता-जैसे निर्दय दैत्यराज के हाथों से न जाने कितने बन्दियों को छुड़ाया था, वही प्रह्लाद दयानिधान भगवान् से यदि उनके दाता को बन्धन से छुड़ाते हैं, तो एक साधारण बात है। हाँ, राजा बलि को पाताल का राज्य और भावी मन्वन्तर में इन्द्र पद दिलाने का श्रेय एक अचरज की बात कही जा सकती है और वह इसलिये कि जिस पद के दुरुपयोग करने के कारण भगवान् को वामन रूप धारण कर भिखारी बनना पड़ा और एक दानी राजा का राज्य छीनना पड़ा था, उसी को फिर वही पद देने का वादा और वह भी थोड़े काल के लिये नहीं एकहत्तर चतुर्युगी के एक पूरे मन्वन्तर के लिये, आश्चर्यकारक है, महा आश्चर्यकारक है। इतना ही नहीं, प्रह्लादजी की कृपा से राजा बलि को जो एक तीसरी अलभ्य वस्तु मिली वह सृष्टि के आरम्भ से आज तक के इतिहास में एक अपूर्व बात थी और वह यह कि पाताल में नित्य प्रातःकाल भगवान् अपने उसी वामनरूप से राजा बलि को उनके द्वार ही पर जाकर दर्शन दिया करेंगे। यह तीसरी बात सबसे बड़ी और सबसे अधिक अचरज की है, किन्तु जिन भगवान् की लीला ही आश्चर्यमयी है और जिनकी निर्हेतुकी कृपा प्रसिद्ध है और जिनकी भक्तवत्सलता एवं भक्तिमहिमा से न जाने कितने पौराणिक उपाख्यान भरे पड़े हैं उनके लिये कोई अचरज की बात नहीं। कवि की यह वाणी सत्य ही है कि
“जय जय जय जय जय रघुनन्दन जिनकी अद्भुत माया।
देखत बने भनै को अस कवि शेष पार नहिं पाया ॥
राजा बलि का अभिमान जब शान्त हुआ तब उनको भगवान् के दर्शन हुए और रुष्ट हुए उनके पितामह फिर सन्तुष्ट हुए। संसार में प्रह्लाद ही की कृपा से राजा बलि का यश चारों ओर फैल गया और दैत्यराज राजा बलि जो किसी समय भगवान् विष्णु को देवताओं का पक्षपाती, अपने से निर्बल तथा परब्रह्म परमात्मा नहीं, एक व्यक्ति विशेष समझते थे, वे ही राजा बलि भगवान् के अनन्य भक्त और प्रातःस्मरणीय हो गये।
योगिराज प्रह्लाद पुनः अपने तपोवन को चले गये और
हरि का ध्यान करने लगे, किन्तु उनके हृदय में यह भाव उत्पन्न हुआ कि जब तक यह शरीर बना रहेगा तब तक दैत्य कुल का नाता छूट नहीं सकता और दैत्यकुल में हमारे ही पुत्र, पौत्रों एवं प्रपौत्रों में न जाने कैसे-कैसे आसुरी भाव के प्राणी उत्पन्न हैं और भविष्य में होते रहेंगे। वे उत्पात से विरत न होंगे और उत्पाती प्राणियों पर विपत्ति का आना स्वाभाविक है। जब वे विपत्ति में पड़ेंगे तब हमारा स्मरण अवश्य ही करेंगे और इस प्रकार हमको संसार त्यागी होकर भी बारम्बार दैत्यकुलानुसंगी होना पड़ेगा एवं अपने आराध्य देव भगवान् को बारम्बार कष्ट देना पड़ेगा, अतएव अब इस शरीर का सम्बन्ध छोड़ना ही अच्छा है। इसी विचार से परमभागवत योगिराज प्रह्लाद ने अपनी जीवनलीला समाप्त की और भक्तियोग के द्वारा वे अपने आराध्य देव भगवान् विष्णु के वर्णनातीत शान्तिमय वैकुण्ठधाम को पधारे एवं अपनी परमपावनी कथा को चिरकाल के लिये पतितपावनी गङ्गा के समान मानव समाज के तरण-तारण के लिये छोड़ गये।
प्रह्लादं सकलापत्सु यथा रक्षितवान् हरिः ।
तथा रक्षति यस्तस्य शृणोति चरितं सदा ॥
अर्थात् “जिस प्रकार समस्त विपत्तियों के समय करुणा निधान भगवान् हरि ने हमारे चरित्रनायक परमभागवत प्रह्लाद की रक्षा की है, उसी प्रकार वे उनकी भी सर्वदा विपत्तियों से रक्षा करते हैं जो इस चरित्र को सुनते हैं।” शुभम्।
|| इति भागवतरत्न प्रह्लादचरितम् सम्पूर्णम् ||