Param Bhagwat Prahlad ji - 30 in Hindi Spiritual Stories by Praveen kumrawat books and stories PDF | परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग30 - तपस्वी प्रह्लाद और इन्द्र का संवाद

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग30 - तपस्वी प्रह्लाद और इन्द्र का संवाद

[इन्द्र द्वारा पुनः राज्यप्राप्ति, विरोचन को राज्य-समर्पण]

जिस समय छल से देवराज इन्द्र ने सत्यव्रत प्रह्लाद के ऐश्वर्य को अपहरण किया था, जिस समय कपट विप्रवेष बना कर इन्द्र ने दैत्यर्षि प्रह्लाद के शील की याचना करके उनको ठगा था और जिस समय तीनों लोक के अधीश्वर परम भागवत प्रह्लाद को क्षणभर में भिखारी बना दिया था, उस समय का दृश्य लौकिक दृष्टि से बड़ा ही करुणापूर्ण था। इन्द्र द्वारा प्रह्लाद के इस प्रकार छले जाने की तुलना हम राजा बलि के वामनभगवान् द्वारा छले जाने से नहीं कर सकते। इसमें सन्देह नहीं कि, इन्द्र और भगवान् वामन एक ही माता और पिता से उत्पन्न हुए थे और कार्य भी उनके इस सम्बन्ध में एक ही से हुए हैं। भगवान् वामन ने राजा बलि से छल द्वारा, उनके सारे ऐश्वर्य को छीन, देवराज इन्द्र को समर्पित किया था और इस प्रकार क्षणभर में राजा बलि को राजा से रंक बना दिया था। किन्तु उसके बदले में भगवान् वामन ने जो कुछ राजा बलि को दिया था, वह उनके सारे ऐश्वर्य के मूल्य से कहीं अधिक मूल्यवान् था। भगवान् वामन ने छल के बदले अपने भक्त राजा बलि को पाताल में भेज कर नित्य ही प्रातःकाल अपने वामनरूप का दर्शन देने का जो निश्चय किया था, उसने राजा बलि के राज्यच्युत होने के दुःख को एक दम मिटा दिया था, किन्तु परम भागवत प्रह्लाद को इन्द्र ने जिस प्रकार राजा से रंक बना दिया और उस छल के बदले में तपोभूमि में राज्यच्युत प्रह्लाद को देखने और उनके ऐश्वर्यों का— अपहृत ऐश्वयों का स्मरण दिलाकर उनके चित्त को दुखाने का जो प्रयत्न किया था, वह नितान्त निन्दनीय नहीं, तो कम-से-कम देवराज के लिये, भगवान् वामन के जेठे भाई के लिये कभी प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता।

यह सब हुआ परन्तु दैत्यपि प्रह्लाद ने विप्ररूपधारी इन्द्र के द्वारा अपने ऐश्वर्य के अपहरण को भगवान् की परम कृपा मानकर निःस्पृह भाव से त्याग को स्वीकार कर लिया। उनको भगवान् के ये वचन स्मरण हो आये कि 'यस्यामनुगृह्णामि हरिष्ये तदनं शनैः' अर्थात् 'जिस पर हम प्रसन्न होते हैं, उसका धन-ऐश्वर्य धीरे-धीरे अपहरण कर लेते हैं।' दैत्यर्षि प्रह्लाद तपस्वी प्रह्लाद के रूप में दुःखी नहीं प्रत्युत परम प्रसन्न हैं, अपने आराध्यदेव भगवान् श्रीहरि के अनुचिन्तन में सदा संलग्न रहते हैं। तपस्वी प्रह्लादजी की अवस्था देखने के लिये एक दिन उनके समीप देवराज इन्द्र, कपटी विप्ररूप से नहीं, अपने असली रूप से फिर जा पहुँचे।‌
तपोभूमि में तपस्वी प्रह्लाद फल की अभिलाषा से शूून्य पापहीन, निरालसी, निरहंकारी, सत्त्वगुणावलम्बी, शम, दम आदि गुणों में अनुरक्त और स्तुति-निन्दा में समबुद्धि रखते हुए जितेन्द्रिय होकर रहते थे। रात-दिन शास्त्रानुशीलन करते हुए वे एकान्त में बैठ समस्त स्थावर जङ्गमरूपी संसार की उत्पत्ति और प्रलय के कारणस्वरूप परमात्मा का ध्यान करते थे। कभी अप्रिय विषय से क्रुद्ध और प्रिय-विषय-लाभ में हर्षित नहीं होते थे। सुवर्ण और मिट्टी के ढेले में जिनका समान भाव था और जो 'समत्वमाराधनमच्युतस्य' इस मन्त्र के उपासक थे। ‘अणोरणीयान्महतो महीयान्' का जिन्होंने पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया था। एकान्त में बैठे हुए ऐसे तपस्वी प्रह्लाद के समीप जाकर उनकी बुद्धि की परीक्षा करने की इच्छा से देवराज इन्द्रर ने कहा कि “हे प्रह्लाद! इस लोक में जिन गुणों के रहने से लोगों के बीच पुरुष सबसे अधिक प्रतिष्ठित होता है, वे सब स्थिर गुण आपमें विद्यमान हैं और आपकी बुद्धि बालक के सदृश राग-द्वेष से रहित दिखलायी पड़ती है। बतलाइये! आप आत्मा का मनन
करते हुए आत्म-ज्ञान का श्रेष्ठ साधन क्या समझते हैं ? हे प्रह्लाद! आप स्थानच्युत, ऐश्वर्यहीन होने पर भी शोचनीय विषय का शोक नहीं करते। इसका क्या कारण है? हे दैत्यवंश-प्रसूत प्रह्लाद! आप बुद्धिलाभ अथवा सन्तोष ही से अपनी विपत्ति को देखकर भी कैसे स्वस्थचित्त हो रहे हैं।” देवराज इन्द्र के इस प्रकार के वचनों को सुन कर धैर्यशाली तपस्वी प्रह्लाद ने जो उत्तर दिया बह सर्वथा उन्हींके अनुरूप था।
तपस्वी प्रह्लाद– “हे देवराज इन्द्र! जो लोग जीवों की प्रवृत्ति और निवृत्ति की गति को नहीं जानते, अर्थात् पुरुषों के भोग और अपवर्ग-साधन के निमित्त अनुलोम-प्रतिलोम परिणाम वाली मूल प्रकृति में जिन्हें आत्म-भिन्न ज्ञान नहीं है, आत्मा में बुद्धिधर्म कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि आरोपित करनेवाले उन पुरुषों की बुद्धि मूढ़ता के कारण स्तम्भित होती है, परन्तु जिसे जीव और ब्रह्म में यथार्थरूप से एकत्व का ज्ञान है, उसकी बुद्धि स्तम्भित नहीं हो सकती। भाव और अभावरूप सभी पदार्थ स्वभाव ही से प्रवृत्त और निवृत्त होते रहते हैं अर्थात् जैसे बछड़ा उत्पन्न होने के पहले ही गौओं के रुधिर-पूरित स्तनों में दूध उत्पन्न हो जाता है, उस समय उसके प्रवर्तक वात्सल्यभाव के न रहने पर भी जैसे
स्वाभाविक ही दूध की उत्पत्ति होती है ठीक वैसे ही सभी पदार्थ स्वभाव ही से उत्पन्न होते हैं, उनकी उत्पत्ति में किसी प्रवर्तक की अपेक्षा नहीं होती, इसलिये (अकर्ता होने से) आत्मा के लिये भोग और मोक्षरूप पुरुषार्थ का भी कोई प्रयोजन नहीं है। यदि कहें कि अयस्कान्त-मणि के समान अकर्ता होकर भी पुरुष सन्निधिमात्र से ही प्रकृति का प्रवर्तक है, तो वास्तव में जब भोग मोक्षरूप पुरुषार्थ का ही अभाव है तब उसका प्रवृत्तकत्व भी सिद्ध नहीं होता। उसके स्वयं अकर्ता होते हुए भी अविद्या के कारण अहंकार की स्फूर्ति होती रहती है। जो अपने आत्मा को शुभ अथवा अशुभ कर्मों का कर्ता मानता है, मेरे विचार से उसकी बुद्धि दोषमयी है, वह वास्तविक आत्म-स्वरूप को नहीं जानता।
हे देवताओं के अधीश्वर इन्द्र ! यदि पुरुष ही कर्ता हो तो, उसके आत्मकल्याण के निमित्त किये हुए सभी कार्य, अवश्य ही सिद्ध होने चाहिए, और उसको कभी पराभूत (विफल- मनोरथ ) न होना चाहिए। किन्तु जब कि हम देखते हैं कि अपने हित के यत्न में लगे हुए मनुष्यों के मनोरथ सिद्ध नहीं होते और उन्हें अनिच्छित विपरीत फल मिल जाता है, तब उन्हींका पुरुषार्थ कैसे स्वीकार किया जा सकता है? और जब हम यह भी देखते हैं कि (अदृष्ट की प्रतिकूलता से) किन्हीं-किन्हीं का कोई प्रयत्न न करने पर भी स्वभाव से ही अनिष्ट हो जाता है और इष्ट होते-होते रुक जाता है और किन्हीं-किन्हीं लोगों को परम सुन्दर और अत्यन्त बुद्धिमान् होने पर भी अत्यन्त कुरूप और अल्पबुद्धि के लोगों से धनादि लाभ की इच्छा रहती है।
हे देवराज इन्द्र! इस प्रकार जब कि सब शुभाशुभ गुण स्वभाव से ही प्रेरित होकर पुरुषों में निविष्ट होते हैं, तब मैं सुखी हूँ, मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ इत्यादि अभिमान करने का कुछ भी कारण नहीं है। सुख, दुःख आदि सभी विषय स्वाभाविक हुआ करते हैं, अतएव सुख से प्रसन्न और दुःख से अप्रसन्न होने का कोई कारण नहीं है। हे सुरेश्वर ! मेरे विचार से तो मुक्ति और आत्मज्ञान भी स्वभाव से स्वतन्त्र नहीं हैं। इस लोक में शुभाशुभ फल का भोग भी कर्मजनित ही है, इसे सब लोग स्वीकार करते हैं अतएव अब मैं सभी कर्मों का शेष विवरण कहता हूँ, सुनो। जैसे अन्न को खाता हुआ कौवा शब्द करके उसको प्रकट करता है, वैसे ही सभी कर्म स्वभाव के असाधारण धर्म हैं अर्थात् सारे कर्म स्वभाव को ही प्रकाशित करते हैं। जैसे सूत्र वस्त्र के कारण होने से सूत्रनिष्ठ शुक्लादि वर्ण-गुण वस्त्र की विचित्रता में
कारण होते हैं, वैसे ही स्वभाव ही मनुष्यादि प्राणियों के जन्मादि का कारण है। जो पुरुष धर्माधर्म आदि समस्त विकारों को जानते हैं और त्रिगुणमयी प्रकृति से परे उपादान प्रकृति अर्थात् ब्रह्म को नहीं जानते उन कर्म-प्रधान और भेददर्शी पुरुषों में ही मूढ़ता से जड़ता हुआ करती है। पर जो अधिष्ठानरूप परा प्रकृति का ही अवलोकन करते हैं, उनमें जड़ता नहीं होती। जिन्होंने सभी पदार्थों को निश्चयरूप से ही स्वभाव से उत्पन्न हुए जाना है, दर्प और अभिमान उनका कुछ भी नहीं कर सकता। हे देवराज! मैं सर्व धर्म-विधि और सर्व भूतों के अनित्यत्व को विशेषरूप से जानता हूँ। मैं जानता हूँ कि सभी वस्तुएँ अनित्य हैं, इसी कारण अपने अपहृत ऐश्वर्य और प्रभुत्व के लिये शोक नहीं करता। मैं ममताहीन, निरहंकारी, आशा और वासनारहित माया के बन्धन मुक्त और देह आदि में अभिमान से रहित होने के कारण स्वरूप स्थिति से कभी विचलित नहीं होता, इसीसे जीवों की उत्पत्ति और विनाश के परम कारण परब्रह्म परमात्मा को देखता हूँ। हे शक्र! जो मनुष्य शुद्ध-बुद्धि, जितेन्द्रिय, परितृप्त और वासनारहित होकर सब विषयों को अव्यय आत्मस्वरूप देखते हैं उन्हें संसार में कहीं कुछ भी कष्ट नहीं है। जगज्जननी प्रकृति और धर्माधर्म के फल स्वरूप उसके विकार सुख-दुःखादि में मुझे न प्रीति है न द्वेष। इस समय मैं किसी को भी न तो अपना शत्रु ही देखता हूँ और न किसी को पुत्र, मित्र, कलत्र आदि की भाँति ममता करने योग्य ही देखता हूँ। हे इन्द्र ! मैं न कभी स्वर्ग की कामना करता हूँ, न पाताल की और न मर्त्यलोक की। मैं ऐसा नहीं कह सकता कि ज्ञान के विषय स्वरूप 'विज्ञान' में अर्थात् 'बुद्धि-तत्त्व' में और आत्म-स्वरूप 'चिदात्मा' में, कुछ सुख नहीं है; आत्मा धर्माधर्म और उसके फलस्वरूप सुख-दुःख का आश्रय नहीं है और इसीलिये मैं कुछ कामना नहीं करता, प्रत्युत सब कुछ मानता हुआ भी मैं केवल ज्ञान से तृप्ति लाभ कर कामनारहित हो यहाँ आनन्दपूर्वक निवास करता हूँ।”

इतनी फट्कार सुनने के बाद देवराज इन्द्र को हमारे चरित्रनायक परम भागवत तपस्वी प्रह्लाद के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हुआ और उन्होंने लज्जित होकर बड़े ही विनीत भाव से पूछा कि
“येनैषा लभ्यते प्रज्ञा येन शान्तिरवाप्यते ।
प्रब्रूहि तमुपायं मे सम्यक् प्रह्लाद पृच्छतः॥”
अर्थात्– “हे प्रह्लाद! आपके सदृश ज्ञान बुद्धि और शान्ति जिस उपाय से प्राप्त हो सकती है कृपया वह उपाय मुझसे भली भाँति कहिये।” प्रह्लादजी ने देवराज इन्द्र के वचनों को सुन कर कहा कि “हे सुरराज! सरलता, सावधानता, इन्द्रियदमन, बुद्धि की प्रसन्नता, निर्मलता और वृद्धों की सेवा से पुरुष परमपदरूप मोक्ष को प्राप्त होते हैं। मनुष्य स्वभाव ही से ज्ञान लाभ करता है और स्वभाव ही से उसे शान्ति प्राप्त होती है। आप जो कुछ मुझमें और अपने में देखते हैं वे सब गुण अथवा दोष स्वाभाविक ही हैं।”

तपस्वी प्रह्लाद के तत्त्वमय वचनों को सुनकर तथा अपने में कुटिलता, इन्द्रियलोलुपता आदि दुर्गुणों को स्मरण कर देवराज इन्द्र, बड़े ही लज्जित हुए। उन्होंने अपने किये हुए — प्रह्लाद के प्रति अपने किये हुए कपट-व्यवहारों के लिये उनसे क्षमा याचना की और कहा कि “हे तपस्वी प्रह्लाद! मैंने छल से जिस शील को
आपसे अपहरण किया था, उसको आप ग्रहण करें, मैं प्रसन्नतापूर्वक उसे आपकी सेवा में इस ज्ञान शिक्षा की गुरुदक्षिणा में समर्पित करता हूँ और आपसे विनीत भाव से प्रार्थना करता हूँ कि, मेरा आमन्त्रण स्वीकार कर स्वर्गवासियों को कृतार्थ करने के लिये आप एक बार स्वर्ग पधारने की कृपा करें।”

देवराज इन्द्र प्रसन्नतापूर्वक तपस्वी प्रह्लाद को शीलसम्पन्न कर उनसे विदा हो, अपनी अमरावतीपुरी को लौट गये और तपस्वी प्रह्लाद ने राजधानी हिरण्यपुर की ओर प्रस्थान किया।