Param Bhagwat Prahlad ji - 28 in Hindi Spiritual Stories by Praveen kumrawat books and stories PDF | परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग28- सम्राट् प्रह्लाद की न्यायप्रियता

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग28- सम्राट् प्रह्लाद की न्यायप्रियता

[स्वयंवरा केशिनी कन्या के लिये विरोचन और सुधन्वा का विवाद, ब्राह्मण महत्त्व वर्णन]
सम्राट् प्रह्लाद की भगवद्भक्ति और धर्मपरायणता तो प्रसिद्ध ही है, किन्तु उनकी न्यायशीलता भी किसी न्यायशील सम्राट् से कम न थी। प्रत्युत उनके समान न्यायशील शासक किसी इतिहास में कदाचित् ही कोई मिलेगा। राजा में सत्य की बड़ी भारी आवश्यकता होती है। सत्यहीन शासक का कोई मित्र नहीं होता और उसके सपरिकर परिवार का सर्वनाश हो जाता है । जिस प्रकार लाठी लेकर चरवाहे अपने पशुओं की रक्षा करते हैं, उस प्रकार किसी पर प्रसन्न होकर देवता लोग उसकी रक्षा नहीं करते, बल्कि वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसको सुबुद्धि देते हैं। सुबुद्धि प्राप्त होने पर मनुष्य सच्चरित्र और सत्यवादी होकर अपने धर्म की रक्षा करते हैं, एवं वह सुरक्षित धर्म उनकी सब प्रकार से रक्षा करता है। सम्राट् प्रह्लाद की न्यायप्रियता के अनेक उदाहरण हैं, उनमें सबसे अधिक महत्त्व का उदाहरण राजकुमार विरोचन और ऋषिकुमार सुधन्वा के प्राणपण वाले झगड़े का है।

पांचाल देश में अत्यन्त रूपवती केशिनी नामकी एक कन्या थी। वह कन्या स्वयंवरा थी और उसके पाने के लिये न जाने कितने राजकुमार एवं ऋषिकुमार पागल से हो रहे थे। स्वयंवर होने की तिथि के पहले ही उसकी सेवा में अपनी-अपनी गुणगरिमा प्रकाशित करने के लिये नित्य ही लोग जाया करते थे। जितने लोग उसके पास पहुँचे थे, उन सबमें से उसका हृदय ऋषिकुमार सुधन्वा की ओर अधिक झुका था। एक दिन उसकी सुन्दरता पर मोहित होकर दैत्यर्षि प्रह्लाद के सुपुत्र राजकुमार विरोचन भी उसके पास जा पहुँचे और उससे अपने वरण करने की विनीत याचना की। विरोचन एकछत्र सम्राट् के प्यारे पुत्र थे, विद्वान् और बुद्धिमान् थे। उनमें सभी गुण थे और उनके पिता का सुर-असुर दोनों ही समुदाय में बहुत मान था, किन्तु उनमें एक बहुत बड़ा दोष था और वह था आत्माभिमान। उनके हृदय में इसी कारण देवताओं और ब्राह्मणों के प्रति भक्ति नहीं थी, प्रत्युत द्वेष के भाव थे। वे अपने सामने किसी को भी विद्वान्, ज्ञानी और कुलीन नहीं समझते थे। रूपवती केशिनी न तो वर्तमान काल सी स्वेच्छाचारिणी शिक्षिता युवती थी और न अपने कुल, धर्म एवं सदाचार को तिलाञ्जलि देकर ही स्वयंवरा हुई थी। केशिनी विदुषी थी, विवेकसम्पन्ना थी, राजनीति-पटु और बुद्धिमती थी। वह अपने विचारों में दृढ़ और निर्भय थी । उसने राजकुमार विरोचन से कहा– “हे राजकुमार! आपमें अन्य सभी योग्यताएँ विद्यमान हैं किन्तु आपके कुल की योग्यता के सम्बन्ध में मुझे सन्देह है। विवाह के सम्बन्ध में जितनी योग्यताएँ बतलायी गयी हैं, उनमें सबसे बड़ी योग्यता कुल की है। अब तक मेरी दृष्टि में मेरे वरने योग्य 'वर' महर्षि अङ्गिरा के सुपुत्र ऋषिकुमार विद्वान् सुधन्वा के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है। हे राजकुमार! आप ही बतलावें कि, कुल में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं या दैत्य? यदि दैत्य की अपेक्षा ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं, तो मैं ऋषिकुमार सुधन्वा के साथ विवाह क्यों न करूँ?”
विरोचन– “हे विदुषी केशिनी ! मैं केवल तुम्हारी सुन्दरता पर ही नहीं, तुम्हारी गुण-ग्राहकता और विद्वत्ता पर मुग्ध हूँ। तुमने विवाह के सम्बन्ध में जो कुल का प्रश्न उठाया है, वह बड़े महत्त्व का और आवश्यक है। तुम जानती हो कि, मैं महर्षि मरीचि के
कुल में उत्पन्न हुआ हूँ और प्रजापति कश्यपजी मेरे प्रपितामह हैं। अतएव सुधन्वा के कुल की अपेक्षा मेरा कुल श्रेष्ठ है, इसके सिवा स्वयं मैं भी सुधन्वा की अपेक्षा श्रेष्ठ हूँ। मेरे पिताजी अखिल भूमण्डल के सम्राट् हैं। ब्राह्मण और देवता हमारे सामने किस गिनती में हैं?”
केशिनी– “हे विरोचन! कुल की परीक्षा कोई कठिन
नहीं है। कल प्रातःकाल ऋषिकुमार सुधन्वा मुझे लेने के लिये आवेंगे। उस समय आप भी आवें। आप दोनों महापुरुषों के सामने मैं इस बात की परीक्षा करूंगी कि कुल के विचार से ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं अथवा दैत्य?”
विरोचन– “हे कल्याणी! हे धर्मभीरु ! तुम जो कहती हो
मैं वही करूँगा। प्रातःकाल जब सुधन्वा आवेगा, तब मैं भी आऊँगा और तभी तुम हम दोनों के कुल की परीक्षा करना।”
विरोचन यह कह अपने स्थान को लौट गया। उसको रातभर नींद नहीं आयी। सवेरा होते ही अपने नित्य कृत्य से निवृत्त होकर वह केशिनी के यहाँ जा पहुँचा। उसी दिन स्वयंवर होने का शुभ मुहूर्त था। स्वयंवर के लिये सुन्दर मण्डप सजाया गया था। केशिनी उस समय अपने निवास स्थान पर थी, वहीं पर विरोचन भी जा पहुँचा। केशिनी ने राजकुमार को यथोचित शिष्टाचार के साथ बैठाया। थोड़ी ही देर के बाद ऋषिकुमार सुधन्वा भी स्वयंवर मण्डप में जा पहुँचा। स्वयंवर-मण्डप में सन्नाटा देख सुधन्वा भी केशिनी के निवास स्थान पर चला गया। केशिनी ऋषिकुमार सुधन्वा को आते देख उठ कर खड़ी हो गयी और आसन, अर्ध्य और पादार्ध द्वारा उसका सत्कार करने लगी। यह देख कर राजकुमार विरोचन द्वेषवश मन-ही-मन जलने लगा। विरोचन ने ऋषिकुमार सुधन्वा को प्रणाम तो नहीं किया, परन्तु उसे अपने आसन पर बैठने के लिये अनुरोध किया। विरोचन के दुषित भावों को देख और उसके वचनों को सुन ऋषिकुमार सुधन्वा ने कहा कि 'हे राजकुमार! तुम्हारे सुन्दर स्वर्णमय आसन पर तुम्हारे बराबर मैं नहीं बैठ सकता, क्योंकि समानशील व्यक्तियों को ही समान आसन पर बैठना चाहिए।”
विरोचन– “हे सुधन्वा! तुमने मेरे साथ आसन पर न बैठने की जो बात कही सो ठीक ही है, वास्तव में तुम मेरे इस स्वर्णमय आसन पर नहीं बैठ सकते, तुम्हारे लिये तो काठ के पीढ़े अथवा कुशासन ही उपयुक्त हैं।”
सुधन्वा– “राजकुमार विरोचन! तुमने जो कारण बतलाया वह ठीक नहीं है। शास्त्र का यह नियम है कि, पिता-पुत्र, दो ब्राह्मण, दो क्षत्रिय, दो बूढ़े मनुष्य और दो शूद्र जो समानशील होते हैं वे ही एक आसन पर साथ-साथ बैठ सकते हैं। इसके विपरीत एक ब्राह्मण का एक दैत्य के आसन पर बैठना उचित नहीं। जब मैं तुम्हारे पिता की सभा में जाता था, तब वे मेरे आसन से नीचे बैठ कर मेरी सेवा करते थे। मेरे समकक्ष आसन पर वे कभी नहीं बैठते थे और न वे कभी मुझको अपने आसन पर बैठने के लिये कहते थे। राजकुमार! उस समय तुम निरे बालक थे और अपनी माता के पास अन्तःपुर में रहते थे। इसी कारण तुमको इन बातों का पता नहीं है।”
विरोचन– “हे सुधन्वा! तुम अपने मुख से भले ही अपनी बड़ाई बघारो, किन्तु मैं तुम्हारी बातों को नहीं मान सकता । इस प्रश्न को किसी विद्वान् से पूछना चाहिए और यों ही नहीं, कुछ शर्त लगा कर पूछना चाहिए। मैं इस बात की प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि निर्णय में तुम मुझसे श्रेष्ठ सिद्ध हो जाओ तो मेरे गाय, घोड़े और जो कुछ मेरा धन है, वह सब तुम्हारा हो जायगा।”
सुधन्वा– “हे विरोचन! तुम्हारे गाय और घोड़े तुम्हारे ही रहें। मुझको उनकी आवश्यकता नहीं। सबसे अच्छा यह होगा कि, हम और तुम, अपने-अपने प्राणों का पण (बाजी) लगाकर इस प्रश्न को किसी पण्डित से पूछें।”

विरोचन– “हे सुधन्वा! तुम्हारी शर्त मुझे स्वीकार है। किन्तु इस प्रश्न को पूछने के लिये किसके पास चलोगे? मैं देवता और मनुष्य के पास कदापि नहीं जाऊँगा। क्योंकि इन दोनों पर तो मेरा विश्वास ही नहीं है।”

विरोचन के वचनों को सुन, सुधन्वा ने कहा “हे विरोचन! इस प्रश्न को पूछने के लिये कहीं दूसरे स्थान में जाने की आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हारे पिता सम्राट् प्रह्लाद के पास ही इसका निर्णय कराने के लिये चलूँगा। मेरा विश्वास है कि, पुत्र के प्रेम में फँस वे कभी मिथ्या न बोलेंगे।” सुधन्वा की बात विरोचन ने हर्ष से मान ली और दोनों ही केशिनी से विदा हो प्रह्लादजी की राजसभा की ओर चल दिये।
सभा में बैठे हुए प्रह्लादजी ने क्रोध में भरे हुए इन दोनों को आते हुए देख कर कहा “ये दोनों विषैले साँप के समान क्रोध में भरे हुए एक साथ कैसे चले आ रहे हैं? अब से पहले तो इन दोनों को एक साथ हमने कभी नहीं देखा, विरोचन तो ब्राह्मणों से वैसे ही दूर रहता है, जैसे कोई अपने शत्रु से दूर रहे।”
इतने में विरोचन और सुधन्वा सभा में जा पहुँचे। प्रह्लादजी ने अपने पुत्र से कहा “हे विरोचन! क्या सुधन्वा तुम्हारे मित्र हैं?” विरोचन ने यथोचित प्रणाम करके उत्तर में कहा '“पिताजी! सुधन्वा मेरे मित्र नहीं हैं, बल्कि हम दोनों परस्पर वादी-प्रतिवादी हैं। हम दोनों ने अपने-अपने प्राणों की शर्त लगा कर विवाद किया है और आपको निर्णायक माना है। आप हमारे प्रश्न का यथार्थ उत्तर दें, मेरे प्रेमवश झूठ न कहें।”
प्रह्लादजी ने जब ऋषिकुमार सुधन्वा से अर्ध्य, पाद्य आदि ग्रहण करने की प्रार्थना की, तब सुधन्वा ने कहा “राजन् मैंने आपका जल एवं मधुपर्क मार्ग ही में ग्रहण कर लिया है। अब इसकी आवश्यकता नहीं। अब आपके सामने राजकुमार विरोचन ने जो प्रश्न उपस्थित किया है, उसका सत्य-सत्य उत्तर दीजिये। वही मेरा अर्घ्य, पाद्य एवं सत्कार है। प्रश्न यही है कि ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं या दैत्य? अर्थात् मैं श्रेष्ठ हूँ या विरोचन?
दैत्यर्षि प्रह्लाद– “हे ऋषिकुमार! इस प्रश्न में आप लोगों ने अपने-अपने प्राणों की बाजी (पण) लगा रखी है और मेरे यह एकमात्र प्यारा पुत्र विरोचन है, ऐसी दशा में भी आप मुझसे प्रश्न का उत्तर चाहते हैं यह कैसे सम्भव है ? आप ही बतलावें कि मेरी दशा का मनुष्य ऐसी परिस्थिति में क्या कह सकता है? विप्रवर आप तो धर्मशास्त्र के पूर्ण ज्ञाता हैं? आप यह बतलावें कि जो निर्णायक कुछ भी न कहे, न सत्य ही कहे और न झूठ ही, उसकी क्या गति होती है? और वह कहाँ जाता है?"
सुधन्वा– “हे सम्राट् प्रह्लाद ! जो निर्णेता सत्यासत्य का ज्ञान रखता हुआ भी सत्य और असत्य कुछ भी नहीं कहता वह उसी गति को प्राप्त होता है, जिस गति को सापत्न्य दुःख (सौतियाडाह) से भरी स्त्री, हारा हुआ जुआरी तथा दिनभर बोझा ढोने वाला कुली प्राप्त होता है अर्थात् स्त्रियों को सौतियाडाह में, जुआरी को हारने में तथा कुली को दिनभर बोझा ढोने में जो कष्ट होता है वही कष्ट यमराज के यहाँ उसको मिलता है। जो निर्णायक होकर सत्यासत्य का ज्ञान रखता हुआ भी कुछ नहीं कहता, जो साक्षी होकर झूठ बोलता है, वह नगर द्वार पर –शहरपनाह के फाटक पर भूखों मरता हुआ अपने अनेक शत्रुओं को सुखी देखने के समान दुःख पाता है। साधारण पशुओं के लिये झूठ बोलने से पाँच हत्या के समान, गौओं के लिये झूठ बोलने से दश हत्या के समान, घोड़े के लिये झूठ बोलने से सौ हत्या के समान और मनुष्य के लिये झूठ बोलने से सहस्र हत्या के समान पाप होता है । स्वर्ण के लिये झूठ बोलने वाले को संसार में जितने प्राणी उत्पन्न हो चुके हैं तथा जितने अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं, उतने प्राणियों के मारने के बराबर पाप होता है और स्त्री तथा भूमि के लिये झूठ बोलने से समस्त पृथ्वी के मनुष्यों को मारने के समान पाप होता है। अतएव हे राजन्! आप निर्णायक हैं। आप सत्यासत्य को जानते हैं। आप न तो मौन ग्रहण करें और न मिथ्या निर्णय करें।"

सुधन्वा की धर्मयुक्त निर्भीक बातें सुनकर दैत्यर्षि प्रह्लाद ने कहा “हे सुधन्वा ! आपने धर्मयुक्त वचनों से मुझको सावधान कर दिया यह ठीक ही है किन्तु आपके ऐसा न कहने पर भी मैं कभी मिथ्या नहीं कह सकता था। जब कि मेरी ही आज्ञा से सारे साम्राज्य में मिथ्या भाषण के लिये कठोर दण्ड दिया जाता है, जबकि अन्याययुक्त होने से मैंने अपने पूज्यचरण पिता की भी आज्ञा नहीं मानी, तब मैं स्वयं मिथ्या भाषण करूँ— पुत्र के लिये मिथ्या भाषण करूँ, यह कभी स्वप्न में भी आप न सोचें। पिता-पुत्र इस अनित्य देह के साथी और सम्बन्धी हैं। किन्तु धर्म अनन्त काल तक अजर-अमर आत्मा का साथी रहता है, जिसके लिये मुझको, आपको तथा सभी ज्ञान रखने वालों को सदा चिन्ता बनी रहती है। बेटा विरोचन! हम जानते हैं कि हमारे निर्णय से तुम्हारे प्राणों का अन्त हो रहा है और तुम हमारे एकमात्र प्राणप्रिय पुत्र हो, किन्तु धर्म के सामने हम तुम्हारे प्राणों की कुछ भी परवा नहीं कर सकते । हमारा धर्म है कि हमारे साम्राज्य में यदि कोई मिथ्या भाषण करे, अथवा अनुचित न्याय करे, तो हम उसको दण्ड दें। फिर स्वयं हम ही यदि पुत्र के प्राणों के तुच्छ मोह में पड़ मिथ्या भाषण और अनुचित न्याय करेंगे, तो इस राजसिंहासन का घोर अपमान होगा, महान् पाप होगा और अन्तःकरण में विराजमान सर्वान्तर्यामी भगवान् श्रीहरि को मर्मवेधी वेदना होगी। अतएव हम सत्य और पुत्र की तुलना में सत्य ही को अधिक महत्त्व देते हैं। राजकुमार! सुनो, अपने मिथ्या अभिमान को छोड़ कर सुनो। मेरा न्याय यह है कि ऋषिकुमार सुधन्वा के पूज्यपाद पिता महर्षि अङ्गिरा मुझसे श्रेष्ठ हैं, सुधन्वाजी की पूजनीया माता तुम्हारी माता सुवर्णा से श्रेष्ठ हैं और तुमसे सुधन्वा श्रेष्ठ हैं। अतएव तुम हार गये और सुधन्वा जीत गये।”
इतना कहने के पश्चात् प्रह्लादजी ने पुत्र प्रेम से नेत्रों में जल भर कर कहा कि—
विरोचन सुधन्वायं प्राणानामीश्वरस्तव।
सुधन्वन् पुनरिच्छामि त्वया दत्तं विरोचनम् ॥
अर्थात् “हे विरोचन! अब तुम्हारे प्राणों के स्वामी ये ऋषिकुमार सुधन्वा हैं। (चाहे तुमको जीवित रक्खें और चाहे तुम्हारे प्राणों को ले लें।) हे सुधन्वाजी! (आप तो दयालु ऋषि-वंशज हैं। आपकी विजय हो गयी। विरोचन अब आपकी कृपा से ही जी सकता है और आपके क्रोध से एक क्षण में अपनी लीला संवरण कर मृत्यु के मुख में जा सकता है) किन्तु मैं आपसे विरोचन के प्राणों की याचना करता हूँ।” प्रह्लादजी के विनीत वचनों को सुन कर ऋषिकुमार सुधन्वा ने कहा– “हे दैत्यर्षि! आपने पुत्र के प्रेम को धर्म के सामने तुच्छ समझ कर सत्य निर्णय किया है। अतएव मैं आपके ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ, मैं आपके पुत्र का वध नहीं चाहता। किन्तु विरोचन ने मिथ्याभिमानवश कन्या केशिनी के यहाँ मेरी तथा समस्त देव-ब्राह्मणों की बड़ी अप्रतिष्ठा की है, अतएव उस पाप के प्रायश्चित्त के लिये आप इनको आज्ञा दें कि ये उसी केशिनी के स्थान पर चलें और जहाँ पर इन्होंने हम लोगों का अपमान किया है वहीं पर उसी केशिनी के सामने मेरे पैर धोकर उसको अपने सिर में चढ़ावें, ऐसा होने पर मैं इन्हें आपकी गोद में पुनः अर्पण करने में प्रसन्न होऊँगा।”
प्रह्लाद– “हे सुधन्वा! आपने बड़ी कृपा की और विरोचन के देव-द्विज-द्रोह के अक्षम्य अपराध के लिये, बहुत ही सरल एवं सुन्दर प्रायश्चित्त बतलाया। हम अपना परम सौभाग्य समझते हैं कि ब्राह्मणों के विशेषकर आप जैसे पवित्रचरित्र ऋषिकुमार के चरणों को अपने हाथों धोवें और चरणोदक को अपने सिर पर चढ़ावें। इस पवित्र कार्य को हम एक केशिनी ही क्या सारे संसार के सामने करने में अपना गौरव समझते हैं। ऐसी ही आज्ञा से, ऐसे ही आदेश से आप हमारे कुल का सदा उद्धार करते रहें, यही हमारी प्रार्थना है।”
सम्राट् प्रह्लाद की आज्ञा से विरोचन ऋषिकुमार सुधन्वा के साथ गया और विदुषी केशिनी के समीप जाकर विनीत भाव से श्रद्धापूर्वक ऋषिकुमार के चरण धोये और चरणोदक को सिर में लगा साष्टांग प्रणाम किया। विरोचन ने केशिनी के सामने सुधन्वा से अपने अपराधों के लिये क्षमा प्रार्थना की और महर्षिकुमार सुधन्वा ने उसको क्षमा के साथ ही सप्रेम आशीर्वाद दिया।
प्रह्लादजी के इस अपूर्व न्याय से, उनकी इस धर्मपरायणता से तथा उनकी इस ब्राह्मण-भक्ति से उनके सारे साम्राज्य में विशेषकर धार्मिक भारतवासियों में उनकी चौगुनी कीर्ति बढ़ गयी। लोग कहने लगे कि ब्रह्मण्यदेव भगवान् वासुदेव के परम भक्त प्रह्लाद ने यह सुन्दर न्याय अपने स्वरूपानुरूप ही किया है।